मंगलवार, 18 मई 2021

कैलाश गौतम जी के दस दोहे प्रस्तुति मनोज जैन

दोहा-विमर्श 
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दूसरी -कड़ी
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छन्द-प्रसंग की दूसरी-कड़ी, दोहा विमर्श में प्रस्तुत हैं प्रख्यात दोहाकार कैलाश गौतम जी के दस नये दोहे।

                          कल हमने पहली कड़ी, मंगलाचरण के रूप में देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी के नये दोहों पर सार्थक विमर्श आरम्भ किया। अनेक दोहाकारों ने इन्द्र जी के दोहों पर अपनी महती टिप्पणियों को जोड़कर हमें एक बार फिर से कुछ नया करने का हौसला दिया। पुनः सबका आभार। हम इस श्रृंखला में धीरे-धीरे पूरी सौ कड़ियां जोड़ेंगे। छन्द- प्रसंग दोहा -विमर्श में आज की दूसरी कड़ी में प्रस्तुत हैं प्रख्यात नवगीतकार दोहाकार कैलाश गौतम जी के नये दोहे!
                       यों तो कैलाश गौतम जी से मेरा मिलना कभी नहीं हुआ, परन्तु उन्हें देखने और सुनने का सौभाग्य  मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित एक कविसम्मेलन में मिला। इस कार्यक्रम का आयोजन भारत भवन के मुक्ताकाश मंच में हुआ था। पूरे कार्यक्रम के  सफल सञ्चालन की बागडोर गौतम जी के हाथों में थी। आयोजन की धुंधली-सी स्मृतियों में आज भी गौतम जी को जस का तस देख और सुन सकता हूँ। गौतम जी की सार्थक उपस्थिति मंचो से इतर पत्र-पत्रिकाओं में भी खूब रही। छन्द- प्रसंग में, आज उनके नये दोहों पर चर्चा करना, दूसरी कड़ी में मुझे जरूरी लगा। उनके दोहे स्वभाव में, सहज और सरल हैं। दोहों की प्रकृति बिंब और प्रतीक धर्मी है। कवि ने भारी मात्रा में श्रृंगारपरक दोहे रचे और प्रकृति के सुंदरतम चित्र खींचे। चूंकि हमें उनके जनपक्षधरता से ओत-प्रोत नये दोहों की तलाश थी। जो सामग्री हमें पर्याप्त मात्रा में  मिल सकी। उन्हीं में से दस धार दार दोहे हम अपने पाठकों के लिए चुन लाये हैं। 
                               दोहा छन्द को लेकर गौतम जी की गम्भीरता उनके आत्मकथ्य में देखी जा सकती है वे कहते है कि इस विधा की पहचान जनमानस में बहुत गहरे रची- बसी है। संस्कारों से लेकर लोक व्यवहारों तक बहुतेरे उद्धरण और उदाहरण इस विधा से जुड़े हैं। अनपढ़ आदमी भी तुलसी कबीर रहीम वृंद रसखान और बिहारी के न जाने कितने- कितने दोहों  को याद किये हुए है। जीवन के लगभग हर पक्ष को 'दोहा' ने जिया है और उसे उजागर किया है -क्या प्रकृति, क्या प्रेम और क्या सामाजिक राजनीतिक पारिवारिक एवं सांस्कृतिक विसंगति।
      जैसे उर्दू के शेर जुबान पर चढ़ जाते हैं उनसे कहीं ज्यादा जल्दी  जुबान पर चढ़ते हैं दोहे ! यही कारण है कि दोहा आज भी इतना लोकप्रिय है रचनाकारों में भी और पाठकों में भी।

  पढ़ते हैं दस नये दोहे
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मीलों में पानी नहीं, झरझर झरती आग।
प्यासी बहू प्रयाग की फेंक रही है झाग।।
कल के बादल और थे, और आज के और।
वे छीने थे हथकड़ी,ये छीनेंगे कौर।।
सोच रहे सब पैंतरा चलें सियासी चाल।
भाषा पानी ताजिया या पूजा पंडाल।।
गिध्दों ने अपना लिया है हंसों का वेश।
यहाँ आचरणहीन ही देते हैं उपदेश।।
अंधे को दर्पण मिला गूँगे को संवाद।
बिना कान का आदमी सुनता है फरियाद।।
साधू था बनिया हुआ लगा खेलने खेल।
इस मुट्ठी में आग है उस मुट्ठी में तेल।।
प्रजातंत्र की आँख में हम हैं केवल वोट।
और वोट की हैसियत कंबल कुर्ता कोट।।
सहज सरल चितवन मधुर मंद मंद मुस्कान।
भीतर भीतर पक रहा जैसे मगही पान।
अनहोनी होकर रही टूट गिरा आकाश।
आखिर हम तुम हो गये विंध्याचल कैलाश।।
१०
नदी किनारे इस तरह खुली पीठ से धूप।
जैसे नाइन गोद में लिए सगुन का सूप।।

टिप्पणी
मनोज जैन
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पहली कड़ी का लिंक
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