मंगलवार, 4 मई 2021

वागर्थ में आज देवेन्द्र कुमार बंगाली के नवगीतों पर विनय भदौरिया जी की विशेष टिप्पणी

कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली जी के दस नवगीतों पर डॉ.विनय भदौरिया का लघु आलेख

प्रस्तुति : वागर्थ
सम्पादक मण्डल

        कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली, डॉक्टर शम्भुनाथ सिंह द्वारा, संपादित नवगीत दशकों में, पहले दशक में संकलित चौथे कवि हैं। वागर्थ समूह के सम्पादक मण्डल ने उनके 13 नवगीत पटल पर प्रस्तुत किए हैं तथा नवगीतों की समीक्षा का भार मेरे जैसे अक्षम (असमीक्षक) के कंधों पर डाला है। आइये भार का निर्वहन करते हुए अपनी अल्प मति से कुछ कहने का प्रयास  करता हूंँ। मेरे विचार से स्मृतिशेष देवेन्द्र कुमार जी के नवगीतों पर कुछ कहने के पूर्व नवगीत के विषय में उनकी राय  क्या थी जानना आवश्यक है- क्योंकि अभिव्यक्ति में कवि के व्यक्तित्व की छाप किसी न किसी रूप में अवश्य रहती है। वे कहते हैं- "नवगीत नये मानव मन की प्रतिक्रिया है, निर्मम नियति की अभिव्यक्ति है।" जाहिर है कि आज हम अगर कहीं से जुड़ते हैं अथवा किसी से आत्मीयता रखते हैं तो वह संवेदन की वजह से नहीं, समस्याओं की समनाताओं की वजह से। आज का गीत अपने पूर्ववर्ती गीतों से अलग है और नया है तो इसलिए कि वह आज की ज़िन्दगी के खुरदरे धरातल पर खड़ा है, 'सोनार देश' की समतल भूमि पर नहीं। दूसरे इसके शब्द भी अजनबी नहीं हैं।

        उपर्युक्त लिखित वक्तव्य के अन्तिम वाक्य से रूबरू होकर यदि बंगाली जी के नवगीतों को परखा जाय तो वह कसौटी पर शतप्रतिशत खरे उतरते हैं। उनके सभी गीत दैनिक बोल-चाल में प्रयुक्त शब्दावली से सुसज्जित हैं। जिसके कारण भाषा सहज सर्वग्राही है, तथा देशज शब्दों के बघार से भाषा में लोच-लचकाव भी उत्पन्न किया गया। किन्तु यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि क्लिष्ट बिम्बों के प्रयोग से अर्थ भावन में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अत्यंत बौद्धिकता रस निष्पत्ति में बाधा उत्पन्न करती है जिससे आनंद की प्राप्ति बिम्ब से होती है।उदाहरण के लिए पहला गीत "अगहन की शाम में -'सोलह डैनों वाली चिड़िया' इतना क्लिष्ट बिम्ब है कि भावक चक्कर में पड़ जाता है, वैसे पढ़ने व सुनने में तत्काल मजा आता है किन्तु अर्थ निकालनें में पसीना छूट जाता है। काफी मशक्कत के बाद मैंने अपनी छुद्र बुद्धि से जो अर्थ भावन किया वह यह है कि सोलह श्रंगार किए प्रेयसी अपने प्रियतम को चिठ्ठी लिख रही है।

       सिन्हौरा, ईंगुर, घाम जैसे  देशज शब्दों व देव उठाती, सगुन उठाती रात जलाती घी की बाती जैसे टोटको का प्रयोग कर नवता लाई गई है। गीत अतिसुन्दर है किन्तु क्लिष्ट बिम्बों के कारण बोझिल है इसलिए सहज सम्प्रेष्य नहीं है। लेकिन यह अकारण नहीं है क्योंकि तब वह काल था जब गीत को पूर्णत: खारिज करने का षडयंत्र रहा जा रहा था। गीत को घिसा- पिटा, लिजिलिजी भावुकता वाला, वायवीय होने के आरोप लगाये गये। नई कविता को आम आदमी की कविता कहा गया किन्तु मास की बात इतने क्लिष्ट बिम्बों में कही गई कि वह क्लास में भी क्लास की बन कर रह गई। नई कविता के मुकाबले कमजोर न साबित हो इसलिए थोड़ा-बहुत बौद्धिकता का सहारा लिया गया। दूसरा गीत अन्धकार की खोल आशावादी मुखड़े से आरम्भ होता है किन्तु अन्त हथेली में सरसों उगाने के मुहावरे से किया गया है। जो कमजोर स्थिति के बावजूद चुनौती का सामना करने चाहिए का द्योतक है। तीसरे गीत अंँधेरे की व्यथा में स्वतन्त्रा के पूर्व जो सपनों के महल थे को ढहते देख ज़िन्दगी की तुलना अखबार से करके कवि बहुत कुछ कह देता है। बिम्बों के माध्यम से सटीक अभिव्यक्ति। चौथे नवगीत में छद्म प्रगति व सरकार के खोखले दावों को अभिव्यञ्जित किया गया है। पांँचवे नवगीत में रिश्तों की छीजन को बड़े करीने से अभिव्यक्त किया गया है। छठे गीत में तत्कालीन विकास पर कटाक्ष करते संकेत में सारी बात कही गई है- "इस जमीन को आसमान से क्या मिला" मूलभूत सुविधाओ से वंचित अभी सिलसिला चल रहा है।सातवें नवगीत में भी गरीब व कम आमदनी वाले कामगारों की व्यथा अभिव्यक्त है, इतवार यानी काम से अवकाश का मगर सबसे खर्चीला दिन "यह इतवार न रुकता रोके" आठवें नवगीत में गाँव के बदले हुए परिवेश को रेखांकित किया गया है। जो पारिवारिक तथा सामाजिक, दायित्व- कर्तव्य बोध थे उनको नकार दिया गया। पूरा गाँव भेदभाव की बलि चढ़ गया है। आपसी सौहार्द विलुप्त है। साही के काँटे का उपयुक्त प्रयोग किया गया है, लोकोक्ति है कि यदि दो घरों के मध्य झगड़ा कराना हो तो दोनों घरों में साही का काँटा  गाढ़ दीजिए। अनवरत भारत-पाक की तरह संघर्ष  चलता रहेगा।

       इसी प्रकार अन्य शेष गीतों में लोक तत्व की संपृक्ति तथा गीत में नवता के लिए जो औजार आवश्यक थे उन सभी का प्रयोग किया गया है। स्मृतिशेष बंगाली जी के नवगीतों का अवदान नवगीत की स्थापना एवं विकास के लिए सदैव स्मरण किया जायेगा। समीक्षा के बहाने उन्हें श्रद्धाञ्जलि अर्पित करने का अवसर देने के लिए प्रिय मनोज जी के प्रति आत्मिक आभार। 

डॉ.विनय भदौरिया
साकेत नगर,
लालगंज, रायबरेली (उत्तर प्रदेश)
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