रविवार, 9 मई 2021

राम किशोर दाहिया जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ समूह एवं वागर्थ ब्लॉग

~ ।।वागर्थ ।।~ 
          में आज प्रस्तुत हैं निर्भीक व्यक्तित्व के धनी कवि रामकिशोर दाहिया जी के नवगीत। आपके नवगीतों में समाज के वंचित व शोषित तबके की घनीभूत पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति खुलकर देखने को मिलती है और यही समकालीनता उनके नवगीतों की विशेषता है। 
   रामकिशोर दाहिया जी के नवगीतों में लोकतत्व की उपस्थिति है जो उन्हें सामान्य जनजीवन से सीधा जोड़ती है, कवि अपने रचनाकर्म में देशज शब्दों का प्रयोग सहजता से करता है। यह उनके नवगीतों का वैशिष्ट्य भी है। दाहिया जी के सृजन में लोक की उपस्थिति पाठक मन को प्रभावित करती है। संक्षेप में कहें तो रामकिशोर दाहिया जी की जनपक्षधरता आम पाठक पर अपना सम्पूर्ण प्रभाव छोड़ती है।
   अपने नवगीतों से जनमानस को आंदोलित व जनचेतना को जाग्रत करने वाले माटी से जुड़े  रचनाकार रामकिशोर दाहिया जी को वागर्थ हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित कर उनके स्वस्थ एवं दीर्धायु जीवन की मंगल कामना करता है। 



      प्रस्तुति
       वागर्थ 
 सम्पादक मण्डल
______________

प्रस्तुत हैं रामकिशोर दाहिया  जी के नवगीत
________________________________
(१)

भोगा हुआ अतीत 
---------------------

जंगल-चिड़ियाँ,
फूल-पत्तियाँ,
नाव-नदी
पर गीत लिखूँगा 
भूख-गरीबी, शोषण दाबे,
निकलूँ तब!
परतीत लिखूँगा ।

संत्रासों की उड़ी
नींद को
लिये गोद में
बैठीं रातें
मुस्कानों की
सिसकी कहतीं
बनती जीभ
रहीं फुटपाथें 

आमद बढ़े
ख़ुशी की थोडा
ईंटे वाली भीत लिखूँगा ।

आरक्षित हैं
लोग वहीं पर
लगे हाथ
न दिखे तरक्की
चढ़ी मूड़ पर
नई योजना
गई पुरानी
गुल कर बत्ती

चोंच-दबाये
दाना डाले
बगुला भक्ति प्रीत लिखूँगा ।

छीन धरा
को नहीं छोड़ती
हवा रूँधती
रकवा पूरा
सहमी-सहमी
लाचारी है
बात-बात पर
बल्लम-छूरा 

वर्तमान से
जूझा हूँ फिर
भोगा हुआ अतीत लिखूँगा ।
              
 (२)

अपने जैसा होना 
--------------------

मैं पीतल औरों का चिंतन
मुझे बनाये सोना
मैं तो केवल चाह रहा हूंँ
अपने जैसा होना ।

अबके साल समय में घर के
पल-पल अर्थ बदलते
देने वाले हाथ काटते
बैशाखी को चलते

फूलों के भी अन्दर कांँटे
परिणामों का रोना ।

पांँवों के नीचे की धरती
पकड़े पर भी सरके
खड़े देखते रहे तमाशे
अंगना, देहरी, फरके

भितियों से करवाती छानी
मुझ पर जादू टोना ।

मैंने उल्टी दिशा चुनी है
पद चिन्हों से हटकर
हवा रोकती बढ़ना मेरा
स्वर लहरी को रटकर

केवल कोरे आदर्शों को
कंधों पर क्या ढोना ।
           
 (३)

अम्मा 
-------

मुर्गा बाँग न देने पाता
उठ जाती
अँधियारे अम्मा
छेड़ रही
चकिया पर भैरव
राग बड़े भिनसारे अम्मा ।

सानी-चाट
चरोहन चटकर
गइया भरे
दूध से दोहनी
लिये गिलसिया
खड़ी द्वार पर
टिकी भीत से हँसी मोहनी

शील, दया,
ममता, सनेह के
बाँट रही उजियारे अम्मा ।

चौका बर्तन
करके रीती
परछी पर
आ धूप खड़ी है
घर से नदिया
चली नहाने
चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है

आँगन के
तुलसी चौरे पर
आँचल रोज पसारे अम्मा ।

पानी सिर पर
हाथ कलेबा
लिये पहुँचती
खेत हरौरे
उचके हल को
लत्ती देने
ढेले आँख देखते दौरे

जमुला-कजरा
धौरा-लखिया
बैलों को पुचकारे अम्मा ।

घिरने पाता
नहीं अंँधेरा
बत्ती दिया
जलाकर धरती
भूसा-चारा
पानी-रोटी
देर-अबेर रात तक करती

मावस-पूनों
ढिंगियाने को
द्वार-भीत-घर झारे अम्मा ।

            (४)

नई सोच से 
--------------

भूँजी हुई
मछलियाँ हम हैं
आगी क्या ! पानी का डर है !

दहरा नहीं
मिले जीवन भर
डबरे रहे हमारे घर हैं ।

ज्वालामुखी
खौलता भीतर
माटी आग भाप में पानी
लावा तरल
अवस्था नारे  
       
दम घोंटू
सीमाएँ तोड़े
सरहद नहीं बनाई कोई
नई सोच से परछन पारे

आँसू किये
चीख में शामिल
गूँगों के वाचाली स्वर हैं ।

वातावरण
पकड़कर मुसरी
भींचे और लगाकर टिहुँनी
प्राणों के भी
सहकर लाले

सुखसागर के
भ्रम को लेकर
उलटी तेज धार को चीरें
वही हौंसले पुरखों वाले

चलो चलें
कुछ देखें तनकर
कौन तोड़ते लोग कमर हैं ।
             
 (५)

पागल हुआ रमोली 
----------------------

राजकुँवर की
ओछी हरकत
सहती जनता भोली
बेटी का
सदमा ले बैठा
पागल हुआ 'रमोली' ।

देह गठीली
सुंदर आँखें
दोष यही 'अघनी' का
खाना-खर्चा
पाकर खुश है
भाई भी मँगनी का 

लीला जहर
मरेगी 'फगुनी'
उठना घर से डोली ।

संरक्षण में
चोर-उचक्के
अपराधी घर सोयें
काला-पीला
अधिकारी कर
हींसा दे खुश होयें 

धंधे सभी
अवैध चलाते
कटनी से सिंगरौली ।

जेबों में
कानून डालकर
प्रजातंत्र को नोचें
करिया अक्षर
भैंस बराबर
दादा कुछ न सोचें 

बोलो ! खुआ
लगाकर दागें
घर में घुसकर गोली ।

           (६)

नाक के नीचे 
---------------

जली आग में
घी मतलब का
करता काम निरे अड़भंगे
चीख पुकारें,
दाब रहे हैं
ऊँचे स्वर के हर-हर गंगे ।

कहाँ ! सुरक्षा
अपनी खोजें
कर्फ्यू लिये रात-दिन घर में
भूखे-लांँघे
खा लेते हैं
लाठी, डंडा, जूता सर में

गली, घाट,
सड़कों पर बेसुध
पड़े लाश ले खूनी दंगे ।

अफरी मेड़
खेत को चरकर
पागुर करे नाक के नीचे
फिरे आबरू
भीख मांँगती
देखे संसद आँखें मीचे

गिरे गगन
या गोली चीरे
न्याय माँगना भूखे नंगे ।
           
   (७)

धधकी आग तबाही 
-----------------------

ठोंके निर्मम
खुराफात की
सिर पर
गहरी कील
खारा पानी लेकर आईं
आँखों वाली झील ।

ज़हर उतारा
गया हमारे
पुनः कण्ठ के नीचे
नील पड़े सच
डर के मारे
खड़े झूठ के पीछे

लौट रही
बारूद जेल से
धरे हाथ कंदील ।

ऐसा जुल्म
छद्म के हाथों
करते रोज़ नया
खेले खेल
नज़र से देखे
सहमी हुई बया

नागनाथ से
सांप छुड़ाने
झपटी फिर से चील ।

उभरे हुये
सुराग पकड़कर
देने चला गवाही
नहीं बुझेगी
भीतर बाहर
धधकी आग तबाही

मैंने उखड़े
पाँव जमाये
पत्थर जैसे मील ।
         

(८)

छाती पर बुलडोज़र 
----------------------

झोपड़पट्टी टूट रही है
सिर की छाया छूट रही है ।

हृदय विदारक
चित्र चीखता
नहीं चिरौरी
से चुप होता

चलता
छाती पर
बुलडोज़र
बेजा कब्ज़ा
खाली होता

नुकसानी अनकूत रही है
झोपड़पट्टी टूट रही है ।

सिर के छुपने
की गुंजाइश
चौड़ी सड़कें
छीन रही हैं

लोटा, झौवा
बिखरा दाना
रोटी गृहणी
बीन रही हैं

रेंड़ी चुट-चुट फूट रही है
झोपड़पट्टी टूट रही है ।

'अल्लाखोह
मची' है भारी
बरपा क़हर
क़हर के मानें

जिन्दा खालें
पानी खौला
डाला डेरे
को उठवाने

लिखा रपट भर झूठ-सही है
झोपड़पट्टी टूट रही है ।
            
 (९)

पाँव जले छाँव के 
--------------------

हम ठहरे  गांँव के 
लाल  हुए  धूप  में-
पाँव जले छाँव के 
हम ठहरे गाँव के ।

हींसे में भूख-प्यास
लिये हुए मरी आस
भटक रहे जन्म से
न  कोई आस-पास 

नदी रही और की 
लट्ठ  हुए नाव के 
हम ठहरे गाँव के ।

पानी बिन कूप हुए
दुविधा के भूप हुए
छाँट रही गृहणी भी
इतना  विद्रूप  हुए 

टिके हुए आश में
हाथ लगे दाँव के
हम ठहरे  गाँव के ।

याचना के द्वार थे
सामने त्यौहार थे
जहांँ भी उम्मीद थी
लोग तार-तार थे 

हार नहीं मानें हम
आदमी तनाव के 
हम ठहरे गाँव के ।
       

(१०)

 स्वाभिमान का जीना 
-------------------------

 लीकें होती
रहीं पुरानी
सड़कों में तब्दील 
नियम धर्म का
पालन कर हम
भटके मीलों मील ।

लगी अर्जियांँ
खारिज लौटीं
द्वार कौन-सा देखें
उल्टी गिनती
फाइल पढ़ती
किसके मुंँह पर फेकें

वियावान का
शेर मारकर
कुत्ते रहे कढ़ील ।

नजरबंद
अपराधी हाथों
इज्जत की रखवाली
बोम मचाती
चौराहों पर
भोगवाद की थाली

मुंँह से निकले
स्वर के सम्मन
हमको भी तामील ।

 मल्ल महाजन
पूँजी ठहरी
दाबें पांँव हुजूर
लदी गरीबी रेखा ऊपर
अजब-गजब दस्तूर

स्वाभिमान का
जीना हमको
करने लगा जलील ।

          (११)

 धूप 
 -----

बादलों की बोरियों से
तुलतुललाती धूप
राह गलियों खोरियों में
छुलछुलाती धूप ।

झील झरने नद सरों को 
स्वर्ण किरणें ढक रहीं
फूल का केसर उठाकर
पत्तियों पर रख रहीं

द्वार पर लड़की ठिठक कर
खिलखिलाती धूप ।

सेम, परबल, बर्बटी पर 
तितलियों -सी झूलती 
धूप दिन भर बाग वन में
गुल मुहर-सी फूलती

आँवले, अमरूद ऊपर 
तिलमिलाती धूप ।

साँझ सरकी सांँप बनकर 
रेत - वन - चट्टान से
 पेट सेकर लौट आई
खेत औ' खलिहान से 

घोंसलों में सिमट बैठी
कुलबुलाती धूप ।
          
 (१२)

 एक चाँदा मेड़ पर
----------------------

नर्म तिनकों के
बया फिर
स्वेटरों से घोंषले-घर
बुन रही उस पेड़ पर ।

धूप के
सूजे सम्हाले
युवतियों -सी व्यस्त बून्दें
हर डिजाइन सीखने में
और मेरी
ऊर्जा के
स्रोत सारे होम होते
एक रेखा खींचने में

संगमरमर पर
लिखे सब
लेखनी के शिल्प अक्षर
लादने को भेड़ पर ।

मचिसों की
डिब्बियों से
खेत फैले फिर हवाएँ
ले जरीबें चक बनातीं
मात्र गीली
तीलियाँ हैं
उलझनें ये, कीरने पर
हाथ में ही फुरफुरातीं

मौसमों ने
रख दिया है
नाप की सीमा दिखाकर
एक चाँदा मेड़ पर ।

      १३

तीर हैं तराने हैं 
------------------

छोरी हैं छोरे हैं
आम के टिकोरे हैं
मारकर लबेदों से
चुकनी भर झोरे हैं 
छील रहे
छिलनी नाखून में
चटकारे लेते
लार भरे नून में ।

भाव मिले घोड़े हैं
दौड़ते निगोड़े हैं
इक दूजे लड़ने को 
भिड़ने को थोड़े हैं

मिलते हैं
एक घरी जून में
चटकारे लेते
लार भरे नून में ।

मस्ती में डूबे हैं
घर से भी ऊबे हैं
जब देखो पढ़ना है
कैसे मनशूबे हैं

बचपना
बीतेगा जुनून में
चटकारे लेते
लार भरे नून में ।

तीर हैं तराने हैं
खेल में लुभाने हैं
टेर रही अम्मा के
पास नहीं आने हैं 

दौड़ रही
अमराई खून में 
चटकारे लेते
लार भरे नून में ।

        १४

खालें नहीं बची कहुए में 
----------------------------

रहना कठिन
हाल में अपने
सारी राजनीति महुए में 

अर्जुन बनते
निर्मम खींची
खालें नहीं बची कहुए-१ में 

आगी पानी
अंँधड़ झेले
पांँव जमाकर खड़े हुए हैं
जंगल में
चीतल के पीछे
शहर हाथ धो पड़े हुए हैं

छेड़े मुहिम
हवा के उलटे
हिम्मत नहीं किसी बबुए में 

जड़ को सपन
दिखाकर साधे
मतलब की है आंँख मिचौनी
परती भूमि
उठा देने में
चालें चलते रहे घिनौनी

लगे उबारें
पीर जतन से
कीलें ठोंक रहे बिंगुए-२ में 

नई शाख
लाने का चक्कर
टहनी सहित तने को काटा
एक पेड़ के
हिस्से जानें
कितने कई भाग में बांँटा

कोई फर्क
दिखा दे जानें !
शोषित नील पड़े चबुए-३ में 

टिप्पणी : (१) कहुए-अर्जुन के पेड़। (२) बिंगुए-लकड़ी की मेखें। (३) चबुए-गाल और जबड़े के मध्य का हिस्सा।
               ●●

एक आलेख

पढ़ते हैं वागर्थ के लिए लिखे गए एक विशेष आलेख को जिसे कवि रामकिशोर दाहिया जी ने नए रचनाकारों को केन्द्र में रखकर नवगीत लिखने के जरूरी टिप्स दिए हैं।

प्रस्तुत है एक आलेख
प्रस्तुति
वागर्थ 
सम्पादक मण्डल
_____________



लघु आलेख : "मेरी दृष्टि में नवगीत" 
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           रामकिशोर दाहिया

  सम्पर्क सूत्र 097525 39896
_________________________

     एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाये। नवोदित रचनाकर जो आगे चलकर समृद्ध कवि बनता है। पहले तुकबन्दी करता है, तो क्या तुकबन्दी कविता है? हरगिज नहीं। लेकिन! कविता की ओर जाने का एक मार्ग है। जिस तरह तुकबन्दी में भी कविता का होना अनिवार्य है। उसी तरह, जिसे हम नवगीत कहते हैं, उसमें कविता का होना अनिवार्य है। शब्दों के चमत्कार  या कुछ आँचलिक बोली-भाषा के देशज शब्दों का रचना में प्रयोग करने की शैली को नवगीत नहीं कहते! तो फिर नवगीत क्या है? नवगीत का 'प्रथम सम्बन्ध-हृदय' है। हृदय की धड़कन प्राणी की स्थाई प्रकृति है। कभी कम या ज्यादा होने की अवस्था में वह अस्वस्थ हो जाता है। बनावट या बुनावट की दृष्टि से देखें तो हृदय प्राणी के शरीर में एक मांस पेशी की कोमल संरचना है। उसकी कोमलता की बात करें, तो उससे कोमल शरीर का कोई अंग-प्रत्यंग नहीं होता! प्राणी के किसी भी अंग-प्रत्यंग की संरचना इतनी कोमल प्रकृति द्वारा और नहीं बनाई गई। धड़कन की दृष्टि से देखें तो उसमें एक लय है और यदि उसमें लय है तो स्वर का होना स्वाभाविक है।

       अब नवगीत या कविता की तलाश हम प्राणी के शरीर से बाहर करते हैं। कुछ उदाहरणों में इन्हें देखा व अहसास किया जा सकता है। यथा---हवा का सरसराना, पेड़-पौधे-लताओं का हवा के साथ झूमना, नदी का कलकल-छलछल बहना, बादलों का गर्जना, बिजली का चमकना, आकाश में इंद्रधनुष का बनना, भौंरे का गुनगुना, पंछियों का चहचहाना, कोयल का कुहकना, कौवे का कांँव-कांँव करना, गाय का रम्हाना, नवजात शिशु का क्याहाँ-क्याहाँ रोना, हमारा हँसना-गाना-रोना, पंखे का चलना, चकियों का घुरुर-घुरुर करना, शेर का दहाड़ना, सियार का हुआ-हुआ बोलना, कुत्ते का भौंकना आदि कई उदाहरण हो सकते हैं। इनमें एक ओर मन को प्रसन्न करने वाले कोमल स्वर की ध्वनियाँ हैं, तो वहीं दूसरी ओर मन के आकर्षण विरुद्ध रौद्र ध्वनियों के तीब्र स्वर हैं। यदि नवगीत कविता में कोमलता व सुन्दरता की बात करें तो प्राणियों के नवजात बच्चों का जन्म लेना, अपनी वंशानुगत प्रकृति अनुसार खेलना, क्रीड़ा करना, पेड़-पौधों व लताओं में नवपल्लव का आना, उनमें फीकों का फूटना, घास का ऊगना, ओस की बून्दों का लरजना, कलियों का फूल बनकर खिलना, पलकों का उठना-गिरना, नयनों का चलना आदि कई नवगीत के उदाहरण हो सकते हैं।

       नवगीत हृदय से फूटकर निकलने वाली जहाँ एक ओर कोमल और मनोरम भाषा है। वहीं दूसरी ओर यथार्थ की कठोर जमीन भी है। इसलिये इसके विस्तार में जाने के पूर्व कविता और नवगीत में फर्क क्या है? उसे समझ लेते हैं। शिल्प संरचना की दृष्टि से देखें तो नवगीत अपने मुखड़े, बन्ध, टेक की आवृति को बरकरार रखते हुए आगे बढ़ता है, जबकि कविता इस दिशा में पूर्णतः स्वतंत्र होती है। हम यहाँ पर कविता या नवगीत के कथ्य, शिल्प, कहन, प्रतीक, बिम्ब, छन्द, रूप, रंग, स्वर, आकार, प्रकार पर चर्चा नहीं कर रहे हैं। बल्कि कविता और नवगीत के बीच मूल अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। इस लिहाज से किसी भी नवगीत का पहले कविता होना अनिवार्य है। अगर उसमें काव्य के आवश्यक तत्व नहीं होंगे तो फिर वह गीत भी नहीं होगा। अब यह समझ लें कि गीत क्या है? दरअसल में गीत समय की सुइयों के अनुरूप चलकर अपनी परम्पराओं, रूढ़ियों, सामाजिक कुरीतियों, तत्सम-तद्भव, संस्कृतनिष्ठ शब्दावलियों को छोड़ने-तोड़ने की बजाय उन्हें अपने साथ लेकर चलता है और नवगीत अपने नये कथ्य, भाषा, शिल्प, छन्द, प्रतीक, बिम्ब, स्वर, तेवर, रंग, रूप में नवता को अपने में भीतर समेटते हुए, समय सापेक्षता को पकड़ कर आगे बढ़ता है। नवगीत में आर्थिक, सामाजिक, लोक सांस्कृतिक, राजनैतिक स्थितियों को पुरजोर अभिव्यक्ति देने की क्षमता है। वह परम्पराओं रूढ़ियों, सामाजिक कुरीतियों को तोड़ता हुआ आगे बढ़ता है। यानि यथा स्थितिवादी सोच के विरुद्ध जो नवता को अपने अन्दर स्वीकार कर, लोक जीवन की समयगत सच्चाइयों को रेखांकित चित्रांकित करते हुए अपने अन्दर आवश्यक काव्य तत्व के साथ भाव और विचारों का बराबर संतुलन बनाकर जो विधा अपनी अभिव्यक्ति दे उसे नवगीत कहते हैं। नवगीत को गीत से अलग उसकी नवता, कहन शैली, कथ्य शिल्प, छन्द, प्रतीक, बिम्ब समय सापेक्षता के कारण किया जाता है। 

       हिन्दी साहित्य में कुछ भाषाविद, साहित्य मनीषीगण कविता से नवगीत का जन्म मानते हैं तो कुछ गीत से नवगीत का जन्म स्वीकार करते हैं। गीत क्या है और नवगीत क्या है ? इस पर भी नवगीत साहित्य में कवियों, लेखकों, समीक्षकों आलोचकों ने अपने-अपने तर्क देकर नवगीत को प्रमेय की तरह मन मस्तिष्क की गुत्थियों का निदान कर अपने हल तलाशकर दिए हैं। मेरे अभिन्न मित्र अग्रज कवि स्मृतिशेष अनिरुद्ध नीरव जी अक्सर कहा करते थे- "नवगीत अंधों का हाथी है जिसके जितना पकड़ में आ गया, वह उसे उतना ही मानता है।" उनके इस कथन में बहुत से तथ्य उजागर हो जाते हैं। गीत में जो नव शब्द का प्रयोग है वह क्या किसी देश काल समय परिस्थिति में पुराना हो सकता है ? बिल्कुल नहीं। 

      जब मुझसे कभी कोई नवगीत की बात करता है तो मुझे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की सरस्वती वंदना याद आती है। जिसमें वे नव गति, नव लय, ताल, छन्द नव, नव पर नव स्वर देने के वे हिमायती हैं। अब पुनः हम स्मृतिशेष अनिरुद्ध नीरव जी के कथन पर आते हैं, कि "नवगीत अंधों का हाथी है जो जिसके पकड़ में जितना आ गया वह उसे उतना ही मानता है।" जबकि यह सत्य से परे है। नवता शब्दों, भावों, शिल्पों, विचारों, छन्दों, प्रतीकों, बिम्बों, कहन शैलियों की असीम यात्रा है। आज भी गीत के आगे नव शब्द का प्रयोग कई सुधी पाठकों, यहाँ तक कि कुछ मूर्धन्य रचनाकारों के समक्ष यक्ष प्रश्न जैसा है? वे गीत को ही नवगीत कहते हैं। इसके पीछे की उनकी मंशा पर हम सवाल नहीं उठा रहे लेकिन वे यथास्थितिवाद की सोच के करीब हैं। वैसे गीत हिंदी साहित्य में कोई नई विधा नहीं बल्कि आदि काल से मनुष्य की सांस के साथ फूटने वाला अंतर-स्वर है। वह धीरे-धीरे अपने विकास पथ पर  आगे चलते-चलते वर्तमान में हमें नवगीत के रूप में प्राप्त हुआ है। गीत लोक जीवन में मनुष्य के सुख दु:ख का ऐसा महीन रंग है जितना बाहर दिखता है उतना भीतर घुलता है।

         नवगीत के पहले गीत छायावाद युग में अपना कुछ नया आकार गढ़ा। यह उसके लिये सुखद समय था। लेकिन! मनुष्य की प्रवृत्तियाँ जीवन दृष्टि समय देश काल परिस्थितियों के साथ परिवर्तित होती चली गईं। चूँकि गीत मनुष्य का अंतर स्वर है, इसलिये इसमें परिवर्तन स्वाभाविक है। गीत ने छायावाद काल के बाद अपने स्वर तेवर, रूप, रंग में परिवर्तन को समय सापेक्षता के साथ स्वीकार किया है। कुछ रचनाकर समीक्षक भी नहीं समझ पा रहे थे कि गीत के आगे नव शब्द का प्रयोग आवश्यक क्यों हुआ? आज भी बहुतायत रचनाकारों का गीत लेखन नवता के मापदण्ड में पुराने चावल पर नई पॉलिश की तरह होता है। समय का प्रभाव उनमें आंतरिक नहीं वाह्य है। यह तब तक ऐसा रहेगा। जब तक उनकी चिन्तन दृष्टि में परिवर्तन नहीं आता! फिर नवता कोई ओढ़ने की वस्तु है भी नहीं। वह मनुष्य के अंदर से चिन्तन के साथ प्रस्फुटित होती है। जिन रचनाकारों में ऐसा है उनके गीतों में नव शब्द का उपयोग ना भी किया जाय, तब भी उनके गीत नवगीत होते हैं। यहांँ पर कुछ नवगीतकारों के नाम लेकर हम नवगीत के विस्तृत क्षितिज को कम नहीं करना चाहते और ना ही अपनी यथार्थबोधी दृष्टिकोण को किसी पर लादना या थोपना चाहते हैं। हमें पता है कि सूपा का बच्चा! जब सूपा में नहीं रहता तो यह नवगीत भी अपनी समय सापेक्षता के साथ एक न एक दिन अपने सूपा से बाहर निकलकर लोक की जमीन पर चलता हुआ दिखाई देगा। मनुष्य की दुर्दम पीड़ा को अदम्य साहस के साथ उकेरने और उससे बाहर निकालने का रास्ता नवगीत को ही कठोरता के साथ अपनी कोमलता को लेकर तलाशना है। यह बात ठीक उसी तरह है कि दु:ख में जो लोग हमारे साथी नहीं होते, सुख की घड़ियों में आ धमकने पर हम उन्हें कितनी अहमियत देते हैं ? इसलिये गीत में नव शब्द का प्रयोग समय सापेक्षता को अन्दर से स्वीकारोक्ति का वाह्य प्रदर्शन कहा जा सकता है।

दिनांक : 30, अप्रैल, 2021

निवास : गौर मार्ग, दुर्गा चौक, पोस्ट-जुहला, खिरहनी, कटनी- 483-501 (मध्य प्रदेश)
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|| संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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~ रामकिशोर दाहिया
जन्म : 29, जुलाई, 1962 ई0। ग्राम- लमकना, जनपद-बड़वारा, जिला-कटनी (मध्यप्रदेश) के सामान्य कृषक परिवार में।
शिक्षा : एम.ए.राजनीति, डी.एड.।

प्रकाशन एवं प्रसारण :
देश विदेश की प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में,1986 से गीत, नवगीत, नई कविता, हिन्दी ग़ज़ल, कहानी, लघु कथा, ललित निबंध एवं अन्य विधाओं में रचनाएं प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न प्रसारण केन्द्रों से रचनाओं का नियमित प्रसारण।

प्रकाशित कृतियाँ :
[1] 'अल्पना अंगार पर' नवगीत संग्रह 2008, उद्भावना दिल्ली। [2] 'अल्लाखोह मची' नवगीत संग्रह 2014, उद्भावना दिल्ली। [3] 'नये ब्लेड की धार' [नवगीत संग्रह] प्रकाशन प्रक्रिया में।

शोध कार्य : 'नवगीत में हाशिये का स्वर' शीर्षक से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली (JNU) की शोध छात्रा शीतल कोटवार द्वारा नवगीत कृतियों में शोध। 

संयुक्त संकलन : 
जिनमें रचनाएँ प्रकाशित हुईं---[1]'नवगीत : नई दस्तकें' 2009, उत्तरायण प्रकाशन, लखनऊ। [2]'नवगीत के नये प्रतिमान' 2012, कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली। [3]'गीत वसुधा' 2013, युगांतर प्रकाशन, दिल्ली। [4] 'नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्यबोध' 2014 कोणार्क प्रकाशन, दिल्ली। [5] 'सहयात्री समय के' 2016 समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली-मुजफ्फरपुर। [5] 'नवगीत का मानवतावाद' 2019 कोणार्क प्रकाशन दिल्ली।

विशेष टीप :
वाट्सएप पर संचालित एवं फेसबुक के दोनों संस्करण 'नवगीत वार्ता' एवं 'संवेदनात्मक आलोक' समूह में अनवरत क्रियाशील रहकर हिन्दी गीत नवगीत विशेषांक प्रस्तुति शृंखला में विश्व कीर्तिमान की ओर 'संवेदनात्मक आलोक' समूह के प्रमुख संचालक।

सम्प्रति :
मध्य प्रदेश शासन के स्कूल शिक्षा विभाग में प्रधानाध्यपक के पद पर सेवारत।

पत्र व्यवहार :
गौर मार्ग, दुर्गा चौक, पोस्ट- जुहला, खिरहनी, कटनी- 483501 (मध्य प्रदेश)
e-mail : dahiyaramkishore@gmail.com
चलभाष : 097525-39896

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