बुधवार, 12 मई 2021

कृष्ण शलभ जी के दो नवगीत और टिप्पणी

यह समय की धुंध है जो हारकर छँट जाएगी : कृष्ण शलभ जी के दो आशा का संचार करते नवगीत
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                            कृष्ण शलभ जी से पहली मुलाक़ात अशोक नगर में साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हुई थी ,जो प्रख्यात बाल साहित्यकार श्री कृष्ण सरल जी पर एकाग्र था। तबअशोक नगर गुना जिले की एक तहसील हुआ करती थी। अशोक नगर को जिला तो बाद में बनाया गया।उन दिनों साहित्य अकादमी के निदेशक देवेन्द्र दीपक जी थे और मुझे  दिवाकर वर्मा जी की अनुशंसा पर  इस कार्यक्रम में भाग लेने का पहला अवसर मिला था जो मेरी स्मृतियों में आज भी जस का तस है। इसी आयोजन में, मैंने पहली बार अपने समय के प्रख्यात साहित्यकार प्रेम शंकर रघुवंशी जी को  माखनलाल चतुर्वेदी जी की कविता ' पुष्प की अभिलाषा' पर बोलते हुए सुना उनके मुखमण्डल पर तेज और आवाज़ में ठेठ भदेस भारीपन था, वे जोर से बोलते थे सभागार में बैठा सबसे पीछे का व्यक्ति भी उन्हें आसानी से  बिना माइक के भी  सुन सकता था, उस सत्र में उन्होंने कविता में प्रयुक्त मुझे तोड़ लेना बनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक !
     'फेंक' शब्द पर बड़ा जोर दिया और पूरा व्याख्यान उसी शब्द पर केन्दित कर दिया।इसके बाद तो रघुवंशी जी और हमारा फोन और चर्चाओं का सिलसिला उनके न रहने के कुछ दिनों पहले तक लगातार चलता रहा।
शलभ जी की मोहक प्रस्तुति और पाठ से मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका उनके जैसी सरलता मैंने आज तक किसी और में नहीं देखी।
                   हम लोगों को अशोक नगर से बीना जंक्शन तक आना था कड़कड़ाती सर्दियों की उस रात में शलभ जी और मैं ठसाठस भरे कम्पार्टमेंट में गेट के पास बैठे- बैठे एक -दूसरे को सुनते रहे उनकी सारी बातें अनुकरणीय थीं। शलभ जी ,सरलता और सहजता की मानों साक्षात प्रतिमूर्ति ही तो थे अहम उन्हें जीवन भर जरा भी नहीं छू पाया था।
       इन दिनों दुनिया संकट से गुजर रही है और उम्मीद दिल की धड़कन है हमें चाहिए कि हम जहाँ तक हो सके अपने आसपास लोगों को हिम्मत दें 
यह काम जारी रखें ठीक यही काम इन दिनों साहित्य भी कर रहा है शलभ जी के नवगीत निराशा में आशा का संचार करते हैं !
     प्रस्तुत हैं सकारात्मक ऊर्जा से भरे कृष्ण शलभ जी के दो नवगीत 
साभार 'हम तो जिए कबीर सरीखे'
पुस्तक सहयोग
Rameshwar Prasad Saraswat 
सहारनपुर 

      कुल मिलाकर पूरा आयोजन यादगार बना रहा 
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टिप्पणी
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मनोज जैन 

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1
चेतना जागी
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चेतना जागी 
समय जागा

पारदर्शी हो रहे 
परिदृश्य में सपने 
कल तलक जो गैर थे
लगने लगे अपने 

अर्धसत्यों का अंधेरा 
हार कर भागा 

अब नहीं पड़तीं 
सुनाई वर्जनाएँ
हर तरफ देतीं 
दिखाई सर्जनाएँ

अब तो है निर्माण में 
आगत बिना नागा 

जो तिरस्कृत थे 
वही सब खाते हैं 
अब सभी के मन
सभी के पास हैं 

जुड़ गया फिर से अचानक
नेह का धागा

2
यह समय की धुंध
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      यह समय की धुंध जो है 
             हारकर छँट जाएगी

फिर नजर आएँगे तुझको 
काफ़िले विश्वास के
फिर जनेंगे चेतना में 
हौसले आकाश के 

           मन के कोने में पड़ी 
       अंधी निशा हट जाएगी

शब्द का सम्मान होगा 
बात कुछ आगे बढ़ेगी
कामना की वल्लरी फिर 
कर्म की सीढ़ी चढ़ेगी 

        जिस्म पर छाई हताशा 
         हाँफ कर फट जाएगी 

सत्य के जोखिम हटेंगे 
झूठ निष्कासन सहेगा 
जोश में भी हर इक
होश का सम्बल रहेगा 

       इस घड़ी को युक्तियों से 
          काट ले, कट जाएगी

कृष्ण शलभ
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