सोमवार, 31 जनवरी 2022

इसाक अश्क़ के दो नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

~।।वागर्थ।।~ प्रस्तुत करता है इसाक "अश्क" के दो- नवगीत

एक

दो मुँहे साये

_________

जिंदगी

अपनी कटी 

अक्सर तनावों में ।

एक प्रतिभा की 

वजह 

सारा शहर नाराज

हर  समय 

हम से रहा -

हम पर गिराई गाज 

दूब भी 

बनकर गड़ी है 

कील पाँवों में ।

दोस्ती के 

नाम पर कुछ 

दो -मुँहे साये

हर समय 

मन की मुँडेरों पर 

रहे छाये

श्वांस तक

लेना हुआ

दूभर अभावों में।

दो

होंठ तक पथरा गये

_______________

प्यास के मारे

 नदी के 

होंठ तक पत्र आ गए 

मेघदूतों की 

प्रतीक्षा में 

थकी  आँखें

 धूप सहते 

स्याह -नीली पड़ 

गयी शाखें

ज्वार 

खुशबू के चढ़े थे 

स्वतः उतरा गये

फूल से 

दिखते नहीं दिन 

कहकहों वाले 

तितलियों के 

पंख तक में 

पड़ गये छाले 

स्वप्न 

रतनारे नयन के 

टूट कर बिखरा गये

इसाक "अश्क"

____________


इसाक अश्क / परिचय

_________________

इसाक मौहम्मद

जन्म: 01 जनवरी 1945

उपनाम इसाक अश्क

जन्म स्थान तराना, उज्जैन

कृतियाँ : सूने पड़े सिवान / इसाक अश्क (गीत-संग्रह),फिर गुलाब चटके / इसाक अश्ककाश हम भी पेड़ होते /इसाक अश्कलहरों के सर्पदंश / इसाक अश्क (सभी कविता-संग्रह)विविध ग़ज़लें भी लिखी हैं। ’समांतर’ पत्रिका के सम्पादक।




परिचय : प्रस्तुति वागर्थ

परिचय :
कुमार शैलेन्द्र 
मूलनाम :शैलेन्द्र कुमार पाण्डेय 
माँ : श्रीमती उमरावती देवी पाण्डेय
पिता : स्व.रामचन्द्र पाण्डेय 
जन्मतिथि : 02फरवरी 1955
जन्मस्थान : किशुनीपुर : ज़मानियाँ :गा़जी़पुर,उ.प्र.232329
विभागाध्यक्ष ,अँगरेजी
: अवकाशप्राप्त
गिरीश नारायण मिश्र महाविद्यालय,परसथुआ रोहतास  ।
लेखन-रचनाकर्म : हिन्दी लेख, गद्य  कविता,गीत,ग़ज़ल,गीतिका,नवगीत,दोहे,आंग्लभाषा काव्य ।
प्रकाशित : "धूप लिफाफे में"-नवगीत संग्रह
              "आइने की पीठ पे कलई नहीं"नयी कविता संग्रह
               "नब्ज़ छूने की किसे फुर्सत"-नवगीत संग्रह --प्रकाशनाधीन
               भोजपुरी काव्य संग्रह एवं एक अँगरेजी काव्यसंग्रह 
               तथा चार अन्य गीत/नवगीतसंग्रह प्रकाशनोन्मुख।   
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मेरी प्रकाशित रचनाएँ और लेख :   कादम्बिनी,वदीप,नवनीत,संकल्य,,जयन्तिका,जमदग्निवीथिका,भोजपुरी माटी,भोजपुरी लोक,बेला                                                दैनिकस्वतंत्र भारत,दैनिक जागरण,हिन्दुस्तान ..आदि ।
*सम्मान-पुरस्कार,अलंकरण: "काव्यशास्त्री" हिन्दी अकादमी,हैदराबाद।"करमवीर पुरस्कार" (आइ-कांगो,UNO)
"मैगर सिंह नवगीत सम्मान"-गहमर गा़जी़पुर।
अध्यक्षता-मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन(उमरियाइकाई)
**काव्यपाठ--दूरदर्शन केन्द्र मऊ,आकाशवाणी वाराणसी और गोरखपुर।साथ ही कई अखिल भारतीय काव्यमंचों से काव्यपाठ का अवसर।
सम्पर्क मोबाईल-----
--9450723971.
: #कुमारशैलेन्द्र

शनिवार, 29 जनवरी 2022

तीन संग्रह : तीन कवि: सुधांशु उपाध्याय

तीन संग्रह : तीन कवि
_________________

काशी नहीं जुलाहे की
कवि- यश मालवीय

        यश मालवीय हमारे दौर के सर्वाधिक पढ़े, सुने और गुने जाने वाले नवगीत - कवि हैं। उनका नया संग्रह " काशी नहीं जुलाहे की" उनकी बहु पठनीयता को एक बार और प्रामाणित करता है। यश को परम्परा से छंद, गीत और नवगीत का मुखर संस्कार मिला है। लेकिन उन्होंने अपनी परिष्कृत सोच, परिमार्जित भाषा और प्रखर बिम्ब, प्रतीकों के जरिए नवगीत को नया कलेवर और नयी ऊर्जा दी है। वह स्वयं अपने व्यक्तित्व में हमेशा एक टटका और स्पंदित नवगीत बने रहते हैं। वह अंधेरे की कोख से उजाला खोज लाते हैं। वह खिड़की पर टपकते उजाले का रेशा-रेशा पकड़ते हैं और उसे स्वर देते हैं। लोग गीत कहते हैं, वह गीत जीते हैं। संक्षिप्ति में विस्तार की विशेष कला है उनके पास। स्मृतियों की एक बड़ी थाती है। जिन्हें वह काव्य - उपकरण की तरह प्रयोग में लाते  हैं।
    यश अपने इस नये नवगीत संग्रह में अपने ही मुहावरों को नयी चमक और नया तेवर देते हैं। यह संग्रह जुलाहे के बहाने एक नये कबीर की तलाश भी है। वह कबीर का नाम नहीं लेते क्योंकि वह मानते हैं कि कबीर एक नाम से अधिक एक बेबाक अभिव्यक्ति और नवगीत का जनतंत्र हैं।
     कविता में जनतंत्र इस संग्रह की खास चाहत है। यश के इन गीतों में बाहरी दुनिया की चिंता है तो अंतर की दुनिया से सीधा संवाद भी। उनके पास मुलायम, चमकदार, साफ और तलस्पर्शी बिंब और अनुबिंब हैं जो उनके गीतों को आत्मीय स्पर्श देते हैं। वह मनुष्य की चिंता करते हैं लेकिन मनुष्यता की ज्यादा फिक्र है इन गीतों। राजनीतिक और व्यवस्थागत असमानताएं उन्हें उद्वेलित करतीं हैं, उग्र नहीं बनातीं। यह संयम उनके गीतों की अनन्य ताकत है। इन गीतों की एक और शक्ति है-अभिव्यंजना। शब्द - संयोजन का वैशिष्ट्य उनके गीतों चुम्बकीय गुण देता है।
     इस संग्रह के गीतों में भावुकता के पल हैं तो आज की विडम्बनाओं को लेकर एक उत्तरदायी आक्रोश भी। यह कवि अपने गीतों पर श्रम कम करता है। गीत इनके यहाँ सहज पीड़ा के साथ आते हैं, सिजेरियन की जल्दबाजी कहीं नहीं। शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियां यहाँ रखी जानी चाहिए - "सत्ता की मिल्कियत हो गयी/काशी नहीं जुलाहे की /दिल्ली होती जाती सूरत / अस्सी के चौराहे की।" यह स्थानीयता का विस्तार है। विस्तार का सहज विश्लेषण है और विश्लेषण का अनुविश्लेषण भी। काशी अब महज तीर्थ नहीं, अपार राजनीतिक शक्ति और विकास की विडम्बना का भी प्रतीक है।
     यश अपने गीतों - मैथिलीशरण जी क्षमा करें, नाखून गहरे कट गया, एक फर्माइश मिली झुमरीतिलैया से, छप्पन इंच का सीना, एक अजपा जाप, सुखों की बत्तखें, पानी कहाँ गया जैसे 119 नवगीतों में बार-बार समय को संवेदनशील और संवादी बनाने की कोशिश करते हैं। इसीलिए वह पाठ्य हैं और श्रव्य भी। उम्मीद है यश का यह संग्रह भी अपना पूरा समर्थन और सम्मान प्राप्त करेगा।
- प्रकाशक : साहित्य भंडार, इलाहाबाद
मो. 6307557229.
***

संग्रह : नहीं के आस-पास
कवि: गणेश गंभीर

गणेश गंभीर नवगीत के सिद्ध और स्थापित कवि हैं। उनके पास अनुभवों का सघन संसार है और है गीतों के रच-रचाव की पूरी सावधानियां। उनके नये नवगीत संग्रह "नहीं के आस-पास" को नवगीत की एक जरूरी पाठ्य पुस्तक की तरह भी पढ़ा जा सकता है। गणेश अपने आत्म कथ्य में एक  उत्तेजक बहस को भी आमंत्रित करते हैं - लय की तानाशाही को लेकर। लेकिन अभी बात उनके इन नये गीतों पर। गणेश के ये नवगीत अति के नहीं, उसे नकारते हुए भी उसके आसपास के गीत हैं। समय की नकारात्मकता को सम्बोधित करतीं पंक्तियां यहाँ हैं लेकिन एक अनुशासन के साथ। वह वर्तमान को लेकर निराश हैं, हताश नहीं। निशस्त्र होने पर रथ का पहिया उठा कर वह विसंगतियों से लड़ने के लिए तैयार हैं। एक उजली उम्मीद है जो गणेश के इन गीतों का रंग धुंधला नहीं होने देती। वर्तमान में जो कुछ भी सकारात्मक है, यह कवि उन्हें सहेजने के लिए सक्रिय है। इनके यहां जबरिया विरोध, ओढ़ा हुआ आक्रोश और आक्रामकता नहीं। शैली थोड़ी फक्कड़ाना अंदाज लिये मगर शिल्प सधा हुआ। जस की तस धर दीनी चदरिया वाली निष्क्रियता यहाँ नहीं मिलती। गणेश के इन गीतों में एक अद्भुत भरोसा है मनुष्य पर, उसकी चेतना पर और बदलाव की उसकी ताकत पर भी। 70 नवगीतों वाले इस संग्रह के गीत मनुष्य की संभावना की सतत तलाश की तरह हैं।
      संग्रह का शीर्षक नवगीत अपने मौन में भी मुखर है - " मुझे पता है / क्यों उदास हूँ /... आधा - तीहा देवदास हूँ /... इसी नहीं के आस-पास हूँ।" यह पूरा गीत व्यष्टि से समष्टि की यात्रा है। संग्रह के अधिकांश गीत किसी न किसी यात्रा पर हैं। कहीं मंजिल स्पष्ट है और कहीं मंजिल तय ही नहीं। लेकिन चरैवेती चरैवेती वाली कोशिश और दर्शन यहाँ उपस्थित है। दर्शन की ही भाषा में कहें तो गणेश का कवि एक द्रष्टा की भूमिका भी अपनाता है अपने कुछ गीतों में। संग्रह के तमाम नवगीत इस आपाधापी में सत्य के अनुसंधान और उत्खनन के प्रयास हैं। यह शाम, बुतखाना, स्टाकहोम सिंड्रोम, बंधक आजादी, मृत्यु की अभ्यर्थना, प्रेत अधिकृत इलाका, मोती गिर गये, सत्ता अभिकरण, सामने शीशे के, रंगशाला नये ढब की, विष विचारों में जैसे नवगीत भरोसा पैदा करने की कोशिश में सक्रिय हैं। संग्रह के गीतों में एक ताप है। किसी भी कविता में ऐसे ताप का होना जरूरी है। इसलिए भी गणेश गंभीर का यह संग्रह महत्त्वपूर्ण बनता है।
प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन
नयी दिल्ली
मो. 9335407539 / 7985426007.
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संग्रह : धूप भरकर मुट्ठियों में
कवि: मनोज जैन
   
      नवगीत के अपेक्षाकृत नये कवि मनोज जैन कभी अपने नाम के आगे मधुर जोड़ा करते थे। आश्चर्य हुआ यह देख कर वह मधुर अब उनके नाम को छोड़कर उनके इस संग्रह के गीतों में समा गया है। इन गीतों पर चर्चा की शुरुआत उन्हीं की गीत-पंक्ति से करते हैं - " फतह किया राजा ने / एक किला और / संदेशा भेज कहा / स्वीकारो दासता / वरना दिखला देंगे / बाहर का रास्ता / अब भी है समय, हमें/ मानो सिरमौर...!"
  मनोज अपने कथ्य को लेकर पूरी सजगता और तैयारी के साथ इस अपने नये संग्रह में उपस्थित हैं। वह रचना के इकहरेपन से बचते हैं। जो कहना है, वही कहते हैं लेकिन शिल्प के शील को सुरक्षित रखते और करते हुए। उनके यहाँ बिम्बों की लड़ियां तैयार होतीं है इसलिए ये गीत खुरदुरे न होकर पूरी तरह पाॅलिश्ड शेप में सामने आते हैं। ऐसी बिम्ब धर्मिता इधर कम नवगीत - कवियों में पायी जाती है। मनोज नवगीत के सक्रिय और गंभीर अध्येता कवि हैं। जीवन का सच उनके यहां निर्वस्त्र नहीं। संग्रह के अधिकांश नवगीतों में अलंकृत सौंदर्य है। मनोज अपने इन गीतों के जरिए उलझे सच को आहिस्ता - से बाहर लाने की कोशिश करते हैं। यही नहीं वह सच के स्वयं बाहर आने की प्रतीक्षा का धैर्य भी रखते हैं।
मनोज कविता की अंतर्वस्तु के प्रति  सजग और सचेत हैं। वह गीतों का अलंकार करते हैं यह ध्यान रखते हुए कि यह अलंकार गीतों के रूप और कथ्य पर बोझ न बने। संग्रह के नवगीत विषय को आवश्यक विस्तार देते हैं। कवि एक झटके में अपने कथ्य को निपटाने की जल्दबाजी में नहीं। पूरे संग्रह में यह निपटाने वाली बात कहीं नहीं है। जो कुछ भी है वह पूरी गरिमा और जिम्मेदारी के साथ है। इधर के नवगीतों में एक हड़बड़ी अक्सर देखने को मिलती है, जैसे आसमान सिर पर गिरने वाला हो! ऐसा भय या ऐसी आतुरता से मनोज जैन के नवगीत बचे हुए हैं। अधुना व्यापारी, सरकार, राजा जी, मांगे चलो अँगूठा, एक किला और, धरती का रस, बोल कबीरा बोल, शत-शत नमन, इस जमीन को छोड़ो अब, भीम बेटका, देखकर श्रृंगार, यह पथ मेरा, फिर मत कहना जैसे गीतों में मनोज रागात्मक धागों से समय की चादर की सुंदर बुनाई करते हैं।
      मनोज जैन का यह नवगीत संग्रह धुंधलके में रौशनी की लकीरें खींचता है और अपनी जबरदस्त पठनीयता से आकर्षित करता है। ऐसे संग्रहों का स्वागत है।
प्रकाशक : निहितार्थ प्रकाशन
साहिबाबाद, गाजियाबाद
मो. 9301337806.

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

धूप भरकर मुट्ठियों में"समीक्षक--डॉ.रंजना शर्मा



"धूप भरकर मुट्ठियों में"
समीक्षक--डॉ.रंजना शर्मा
आवरण पृष्ठ बहुत ही मनमोहक है व नामकरण आकल्पन के लिए आपको बधाई हो।जब भी हम कोई रचना करते हैं तो सर्वप्रथम हमारे भीतर आत्मा का विवेक हो, फिर उपासना और कर्म की साधना हो तभी हम उसके साथ सही न्याय करते हैं।
वाणी वंदना से प्रारंभ होकर माँ से सबका कल्याण के लिए अनुनय विनय और अंत में अंतर्घट भरदो बड़भागी
हैं वे जिन्हें शब्द सत्ता प्राप्त हुई है। नहीं शिकायत कभी उन्हें-नियति से फूल मिला या खार"प्यार के दो बोल बोलें"-शब्द को वश में करें,आखरों की शरण हो लें-और भी मानवता के चरम लक्ष्य को आत्मदर्शी कवि मनोज जी ने जितनी सुंदरता से साझा किया है नितान्त सराहनीय है।आपकी रचनाओं में मुझे सहज सरल किंतु हृदय स्पर्शी भाषा का अनुभव हुआ--"अंजुरी में आस भर लाने लगे दिन"कुछ-कुछ कविताऐं तो प्रीति, स्नेह से ओत-प्रोत और जीवन के सतत प्रवाह की व आत्मीयता की साक्षी हैं यथा-"खुद की किस्मत फोड़ बावरा ठोक रहा ताली"
हम सुआ नहीं पिंजरे के,सिर्फ उस्ताद हैं जमूरे नहीं"हम दासत्व क्यों अपनायें? ऐसी भावनाओं से भरी अन्य भी रचनाऐं हैं। कहीं आपने ज्वलंत रीतियों राजनीतिक कुरीतियों-"आपतो भरते रहे घर हम हुए खाली-उर्वरा भूमि है अंतर की,सुख से रार ठनी मेरी, दुःख से प्रीत घनी है मेरी"
सच कहा जाए तो आपकी कविताओं में विज्ञान सी शोधार्थी परख विद्यमान है।भीमवेटका की कलाकृतियों की 
झलक-को भी आपने समाहित किया है। मापनी में रचना करना सरल नहीं है। कहीं-कहीं गेयता का अभाव भी है, परंतु सुधिजन ही इसपर ध्यान दिला सकते हैं।मुझे किंतु फिरभी आपकी रचनाओं में सत्यता, निष्पक्षता और वास्तविकता का दर्शन हुआ। मानव-मन को पढ़ लेना और उन्हें काव्यात्मक रूप में संजोना,उसे यथावत काव्यधारा में प्रवाहित करना निश्चय ही एक श्रेयस्कर कार्य है। भविष्य में पुनः आपसे ऐसी ही आशा बनी रहेगी। बधाई आपको--
                                रंजना शर्मा

गुरुवार, 27 जनवरी 2022

अनीता सैनी "दीप्ति" जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

समूह ~।।वागर्थ।।~ प्रस्तुत करता है राजस्थान की सौंधी मिट्टी की महक में
चर्चित ब्लॉगर

 अनीता सैनी दीप्ति जी के पाँच राजस्थानी गीत इन गीतों में लोक जीवन के माधुर्य को गहरे मससूस किया जा सकता है।
प्रस्तुति वागर्थ
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1.
पगलां माही कांकर चुभया 
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पगलां माही कांकर चुभया 
जूती बांध्य बैर पीया।
छागल पाणी छलके आपे 
थकया सांध्य पैर पीया।।

कुआँ जोहड़ा ताल-तलैया
बावड़ थारी जोव बाट
बाड़ करेला पीला पड़ ग्यो 
सून डागल ढ़ाळी खाट

मिश्री बरगी  बातां थारी 
नींद  होई गैर पीया।।

धरती सीने डाबड़ धँसती 
खिल्य कुंचा कोरा फूल
मृगतृष्णा मंथ मरु धरा री
खेल घनेरो खेल्य धूल

डूह ऊपर झूंड झूलस्या
थान्ह पुकार कैर पीया।।

रात सुहानी शीतल माटी 
ठौर ढूंढ़ रया बरखान।
दूज चाँद सो सोवे मुखड़ो
आभ तारक सो अभिमान।

छाँव प्रीत री बनी खेजड़ी 
चाल्य पथ पर लैर पीया।।

2.

भँवरजाल
____________
रीत-प्रीत रा उलझ्या धागा
लिपट्या मन के चारु मेर
लाज-शर्म पीढ़े पर बैठी 
झाँझर-झूमर बाँधे बेर ।।

जेठ दुपहरी ओढ़ आँधी 
बदरी भरके लाव नीर ।
माया नगरी राचे भूरो
छाजा नीचे लिखे पीर ।

आतो-जातो शूल बिंधतो 
मरु तपे विधना रो फेर।।

टिब्बे ओट में सूरज छिपियो
साँझ करती पाटा राज
ढलती छाया धरा गोद में
अंबर लाली ढोंव काज

पोखर ऊपर नन्हा चुज्जा
पाखी झूम लगाव टेर।।

एक डोर बंध्यो है जिवड़ो
सांस सींचता दिवस ढलो
पूर्णिमा रा पहर पावणा
शरद चाँदनी साथ भलो

तारा रांची रात सोवणी
उगे सूर उजालो लेर।।

3.
मायड़ भाषा
______________
राजस्थान सिरमोड जड्यो 
मायड़ भाषा माण सखी।।
किरणा झरतो चानणियो है
ऊँचों है सनमाण सखी।।

चाँद चांदणी ढ़ोळ्य ढ़ाँकणा 
मुठ्या भर अनुराग धरे।
शब्द अलंकार छंदा माह
भाव रस रा झरणा झरे।

लोक गीत लुभावे रागणी 
माट्टी रो अभिमाण सखी।।

जण-जण रे कंठा री वाणी 
जातक कथाएँ काणियाँ।
इतिहास र पन्ना री शोभा 
वीरांगणा रज राणियाँ।

सेना माह सपूत घणेरा 
भाग बड़ो बलवाण सखी।।

भोर बुहार अंबर आँगणा 
झोंका चाले पछुआ रा।
सोना चमके बालू धोरा
राज छिपावे बिछुआ रा।

मरूभूमि री बोली मीठी
प्रीत घणी धणमाण सखी।।

4.
मरवण जोवे बाट
___________________
बीत्या दिनड़ा ढळा डागळा
भूली बिसरी याद रही। 
दिन बिलखाया भूले मरवण 
नवो साल सुध साद रही।।

बोल बोल्य चंचल आख्याँ 
होंठ भीत री ओट खड़ा।
काजळ गाला ऊपर पसरो
मण का मोती साथ जड़ा।
काथी चुँदरी भारी दामण 
माथ बोरलो लाद रही।।

पल्लू ओटा भाव छिपाया
हिय हूक उठावे साँध्या।
टूट्या तारा चुगे जीवड़ो
गीण-गीण सुपणा बाँध्या।
झालर जीया थळियाँ टाँग्या
ओल्यू री अळबाद रही।।

लाज-शर्म रो घूँघट काड्या 
फिर-फिर निरख अपणों रूप।
लेय बलाएँ घूमर घाले 
जाड़ घणा री उजळी धूप
मोर जड़ो है नथली लड़ियाँ 
प्रीत हरी बुनियाद रही।।

5.
आंख्यां सूनी जोवे बाट 
_________________________

गोधुली की वेला छंटगी
साँझ खड़ी है द्वार सखी
मन री बाताँ मन में टूटी 
बीत्या सब उद्गार सखी।।

मन मेड़ां पर खड़ो बिजूको
झाला देर बुलावे है 
धोती-कुरता उजला-उजला 
हांडी  शीश हिलावे है

तेज़ ताप-सी जलती काया 
विरह कहे  शृंगार सखी।।

पाती कुरजां कहे कुशलता 
नैना चुवे फिर भी धार
घड़ी दिवस बन संगी साथी
चीर बदलता बारम्बार 

घूम रह्यो जीवन धुरी पर
विधना रो उपहार सखी ।।

आती-जाती सारी ऋतुआँ
छेड़ स्मृति का जूना पाट  
झड़ी लगी है चौमासा की
आंख्यां सूनी जोवे बाट 

कोंपल जँइया आस खिलाऊँ 
प्रीत नवलखो हार सखी।।

अनीता सैनी "दीप्ति"

परिचय
________
नाम -अनीता सैनी 'दीप्ति'
जन्म -15 अगस्त 1985
शिक्षा - एम.ए.(हिंदी),बी.एड., पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन कम्प्यूटर एपलिकेशन्स.
लेखन विधाएँ -कविता,कहानी,लघुकथा,लेख,नाटक,संस्मरण,दोहे, नवगीत, हाइकु आदि.
प्रकाशित पुस्तक:एहसास के गुँचे (काव्य-संग्रह )
साझा संग्रह : 1.काव्य-रश्मियाँ,2.गीत गूँजते हैं, 3.झरोखा,4. नवगीत माला
5. मधुकर 
अमर उजाला काव्य,अक्षय गौरव पत्रिका,लेख्य मंजूषा साहित्यिक स्पंदन,साहित्य सुधा आदि वेबसाइट एवं पत्रिकाओं में नियमित रचनाओं का प्रकाशन.
साक्षात्कार प्रकाशन:1. प्राची डिजिटल पब्लिकेशन 2020
2. मयंक की डायरी 2020
सम्मान/पुरस्कार: 1. कविता 'यथार्थ था वह स्वप्न' लेख्य मंजूषा, पटना द्वारा आयोजित काव्य प्रतियोगिता जनवरी 2020 में प्रथम स्थान,
2. लघुकथा प्रतियोगिता में 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' लघुकथा को द्वितीय स्थान,
3. चम्पू काव्य प्रतियोगिता अप्रैल 2021 में 'निर्वाण:मानसवी की बुद्ध से प्रीत' रचना को तृतीय पुरस्कार.
ईमेल: anitasaini.poetry@gmail.com
Website / ब्लॉग-1.गूँगी गुड़िया,2.अवदत अनीता
ब्लॉग चर्चाकार: चर्चामंच ब्लॉग
संप्रति: स्वतंत्र ब्लॉग लेखन, अध्यापन, समाज सेवा आदि.

मंगलवार, 25 जनवरी 2022

वरेण्य नवगीतकार गुलाब सिंह जी के दो नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

वागर्थ प्रस्तुत करता है चर्चित और वरेण्य कवि गुलाब सिंह जी के दो नवगीत


मैं चंदन हूँ
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मैं चंदन हूँ
मुझे घिसोगे तो महकूँगा
घिसते ही रह गए अगर तो
अंगारे बनकर दहकूँगा।
मैं विष को शीतल करता हूँ
मलयानिल होकर बहता हूँ
कविता के भीतर सुगंध हूँ
आदिम शाश्वत नवल छंद हूँ

कोई बंद न मेरी सीमा—
किसी मोड़ पर मैं न रुकूँगा।
मैं चंदन हूँ।
बातों की पर्तें खोलूँगा
भाषा बनकर के बोलूँगा
शब्दों में जो छिपी आग है
वह चंदन का अग्निराग है
गूंजेगी अभिव्यक्ति हमारी—
अवरोधों से मैं न झुकूँगा।
मैं चंदन हूँ।

जब तक मन में चंदन वन है
कविता के आयाम सघन हैं
तब तक ही तो मृग अनुपम है
जब तक कस्तूरी का धन है
कविता में चंदन, चंदन में—
कविता का अधिवास रचूँगा।
मैं चंदन हूँ।

2

गीतों का होना
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गीत न होंगे
क्या गाओगे ?

हँस-हँस
रोते रो-रो गाते
आँसू-हँसी राग-ध्वनि-रंजित
हर पल को संगीत बनाते
लय-विहीन हो गए अगर
तो कैसे फिर
सम पर आओगे

तन में
कण्ठ कण्ठ में स्वर है
स्वर शब्दों की तरल धार ले
देह नदी हर साँस लहर है
धारा को अनुकूल
किए बिन
दिशाहीन बहते जाओगे

स्वर
अनुभावन भाव विभावन
ऋतु वैभव विन्यास पाठ विधि
रचनाओं के फागुन-सावन
मुक्त-प्रबंध
काव्य कौशल से
धवल नवल रचते जाओगे

परिचय
गुलाब सिंह

जन्म- ५ जनवरी १९४४ को इलाहाबाद के ग्राम बिगहनी में।

कार्यक्षेत्र- अध्यापन एवं लेखन

प्रकाशित कृतियाँ-
नवगीत संग्रह- धूल भरे पाँव, बाँस-वन और बाँसुरी, जड़ों से जुड़े हुए
उपन्यास- पानी के फेरे
शंभु नाथ सिंह द्वारा संपादित नवगीत दशक और नवगीत अर्धशती में रचनाएँ संकलित।

संप्रति- राजकीय इण्टर कालेज के प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त हो चुकने के बाद स्वतंत्र लेखन।

रविवार, 23 जनवरी 2022

पवन कुमार के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ


नाम - पवन कुमार
जन्मतिथि-20/07/1991
शिक्षा - स्नातक
लेखन विधा-नवगीत,छंद
साहित्यिक उपलब्धि-विभिन्न पत्रिकाओं तथा साझा संकलन में प्रकाशित रचनाएँ।
पता :-
ग्राम - गनेरा ,पोस्ट-दखिनाँवा ,
तहसील-सिधौली , जनपद-सीतापुर
राज्य-उत्तर प्रदेश
पिनकोड-261303
मोबाइल-6306564979

       
         (1)

||नहीं बदलते तौर-तरीके||
------------------------------
राजनीति में
नेताओं के
नहीं बदलते तौर-तरीके

सड़कों से
संसद तक देखो
मची हुई है
छीना-झपटी
फूट रही
स्वारथ की लाई
श्रीमंतों की
लारें टपकी
जिन्हें न धेला भर
तमीज है
बना रहे वे
अपनी लीकें

न्याय अमीरों की
झोली में
नहीं अदालत
सुने किसी की
न्याय गरीबों की
खातिर है
जिसकी लाठी
भैंस उसी की
फैला भ्रष्टाचार
वायरस
हमें लगाने होंगे टीके.


             (2)
||  उगाना है यहाँ भी ||
----------------------------

हवायें
तेज़ हों तो क्या
निकलिए
गेह से अपने

गरजते
मेघ शायद ही
बरसना
जानते होंगे?
बवंडर तेज
हो आये
पवन-दल
ठानते होंगे

नही पड़ना 
असर कुछ
हौंसले हैं
मेह से अपने

अँधेरे में
उगे सूरज
हमें कुछ 
यत्न बोने दो 
लगा है
कीच पाँवों में 
तनिक 
उसको भी धोने दो 

उगाना है
यहाँ भी तो
उजाला 
नेह से अपने.
       

         (3)

मौन रहना क्या उचित है?
------------------------------

छीनकर अधिकार शोषित वर्ग से,
शोषकों के बीच बाँटे जा रहे हों
तब हमारा मौन रहना क्या उचित है?

प्रश्न अनगिन उठ रहें हैं विकल मन में,
क्या लुटेरे ही रहे संसद भवन में?
और कब तक आम-जन पीड़ित रहेगा?
झूठ के वादों, छलावों के रुदन में

हर तरफ उम्मीद का चारा बिछाकर,
जाल मछुआरे यहाँ फैला रहे हों
मीन -सा इस जाल फँसना क्या उचित है?


'टूटी' झोपड़ियों में वर्षा बीत जाती,
बिन रजाई शीत जाती कँपकँपाती
ग्रीष्म ऋतु भी स्वेद पानी -सा बहाये,
धूप, गर्मी कृषक के सर पर बिताती

जब कृषक, मजदूर पर केवल सियासत,
और अफसर, मंत्री फल पा रहे हों
इस तरह अपराध सहना क्या उचित है?
                  

           (4)  

||किसानों की आवाज़||
----------------------------
चींटी समझ रहे हैं हमको
ये सत्ताधारी बेईमान

पाँवों तले कुचलने का
षड्यंत्र रचाते रोज
अधिकारों का हनन करें
आवाज़ दबाते रोज
मनमाने कानून बनाएँ
लोकतंत्र का खींचें कान।

उनकी ईच्छा हम मेहनतकश
धन से रहें अपंग
जैसे चाहें हमें नचाएँ
लड़ न पाएँ जंग
पूँजीवादी सत्ता चाहे
मरिहल रहे मजूर-किसान।

पीछे नहीं हटेंगे, आँधी
कितनी आए जोर
जय जवान व जय किसान
का नारा हो चहुँओर
सत्ता के मदमस्त हाथियों का
तब टूटेगा अभिमान.
          
          (5)
||आज जरूरत है कबीर की||
-----------------------------------

चाटुकारिता जिसे न आये
कविता मे केवल सच गाये
झूठे आडम्बर को तजकर
ढाई आखर प्रेम सिखाये

चाहत है उस कलमवीर की
आज ज़रूरत है कबीर की।

जिसके संघर्षों की गाथा
हर युग को नव पाठ सिखाये।
तन के शुद्धिकरण से ज्यादा
जो निज मन को पाक बनाये

सच्चाई के शून्य धरातल पर
शब्दों का गढ़ गढ़ता हो।
वेद-शास्त्र के साथ-साथ में
लोगों की पीड़ा पढ़ता हो

तूफ़ाँ और बवंडर आये
अडिग हिमालय सा बन जाये
निज प्राणो का मोह त्यागकर
जो सुल्तानों से टकराये

ऐसे विद्रोही फ़कीर की
आज ज़रूरत है कबीर की।

पीर सुनाये जो जन -जन की
पोल खोल दे काले धन की
घटिया सोच सुना दे सबको
नेताओं के अंतर्मन की

घोर कालिमा में प्रकाश की
किरणों का आभास करा दे
बंद नयन के खोल किवाड़े
एक पुण्य एहसास करा दे

दीपक-ज्योति स्वयं बन जाये
अँधियारे से आँख मिलाये
जब तक स्नेह मिले बाती को 
जलकर वो प्रकाश फैलाये

सुख-दुख मे सम परमधीर की
आज ज़रूरत है कबीर की।

शनिवार, 22 जनवरी 2022

वागर्थ प्रस्तुत करता है प्रख्यात साहित्यकार सौरभ पाण्डेय जी के पाँच गीत

वागर्थ प्रस्तुत करता है
प्रख्यात साहित्यकार सौरभ पाण्डेय जी के
पाँच गीत

1
किन्तु इनका क्या करें ?
-----------------------------
खिड़कियों में घन बरसते
द्वार पर पुरवा हवा..
पाँच-तारी चाशनी में पग रहे
सपने रवा !
किन्तु इनका क्या करें ?

क्या पता आये न बिजली
देखना माचिस कहाँ है
फैलता पानी सड़क का
मूसता चौखट जहाँ है
सिपसिपाती चाह ले
डूबा-मताया घुस रहा है
हक जमाता है धनी-सा
जो न सोचे.. ’क्या यहाँ है ?’

बंद दरवाजा, खुला बिस्तर,
पड़ी है कुछ दवा..
किन्तु इनका क्या करें ?

मात्र पद्धतियाँ दिखीं  
प्रेरक कहाँ सिद्धांत कोई
क्या करे मंथन, 
विचारों में उलझ उद्भ्रान्त कोई
चढ़ रहा बाज़ार
फिर भी क्यों टपकता है पसीना ?
सूचकांकों के गणित में
पिट रहा है क्लान्त कोई

एक नचिकेता नहीं 
लेकिन कई वाजश्रवा
किन्तु इनका क्या करें ?

सिमसिमी-सी मोमबत्ती
एक कोने में पड़ी है
पेट-मन के बीच, पर,
खूँटी बड़ी गहरी गड़ी है
उठ रही
जब-तब लहर-सी
तर्जनी की चेतना से,
ताड़ती है आँख जिसको
देह-बन्धन की कड़ी है

फिर दिखी है रात जागी
या बजा है फिर सवा..
किन्तु इनका क्या करें ?

2

देहात में, सिवान से 
-------------------------
क्या हासिल हर किये-धरे का ? 
गुमसी रातें 
बोझिल भोर ! 
 
हर मुट्ठी जब कसी हुई है 
कोई कितना करे प्रयास 
आँसू चाहे उमड़-घुमड़ लें 
मत छलकें पर 
बनके आस 
 
सूख निवाला 
फँसा हलक में 
’पानी ! पानी !’ तो हो शोर.. 

इच्छाओं के धुआँ-धुआँ में 
किर्ची-मिर्ची होती आँख 
किश्तें अब भी बची हुई हैं 
रीते कैसे रोती आँख 
 
पड़ा खेत इस कदर डराता 
माँगे काया 
रस्सी-डोर ! 
 
नये ढंग के शासक आये 
अजब-ग़ज़ब इनका अंदाज़ 
रगड़-रगड़ कर, छुरी उलट कर 
गरदन रेतें 
बिन आवाज़ 
 
मगर सदा हम बकरे की माँ 
कभी कलपते 
कभी विभोर !

3

अधखोले, आँखों को मलता सूरज आया
देखो, क्या उन आँखों में
संकल्प जगा है?

कुहा-कुहा आकाश दिखे
व्यवहार-जगत का
गहन निराशा
हर बढ़ने के साथ चढ़ी है
ठिठुर रहा व्यापार चलन में
आया कैसे?
तिर्यक जाने की हर संभव
ललक बढ़ी है

ऐसे में विश्वास जगाता आया जो भी
औंधे अनगढ़ काल-खण्ड में
वही सगा है।

हवा चपल है,
पाले की संगत में बहकी
उसके पग का अटपटपन
भी तो साल रहा
ऐसे में फिर
तर्क भला क्या समझा पाये?
फिर था जो कुछ बोना-बिनना
तत्काल रहा

सिकुड़ा-सा उत्साह कहाँ तो चुप बैठा था
बदल रहे इस मौसम में
चुपचाप लगा है।

4

फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में
कुम्हलाये-से दिन !
 
सूरज अनमन अगर पड़ा था..
जानो- दिन कैसे तारी थे..
फिर से मौसम खुला-खुला है..
चलो, गये..
जो दिन भारी थे..
सजी धरा
भर किरन माँग में
धूल नहीं किन-किन !
 
नुक्कड़ पर फिर
खुले आम
इक ’गली’
’चौक’ से मिलने आयी
अखबारों की बहस बहक कर
खिड़की-पर्दे सिलने आयी
चाय सुड़कती अदरक वाली
चर्चा हुई कठिन..
 
हालत क्या थी
कठुआए थे
मरुआया तन माघ-पूसता
कुनमुन करते उन पिल्लों का
जीवन तक था प्राण चूसता !
वहीं पसर कुतिया-अम्मा ने
चैन लिये हैं बिन... !
 
पंचांगों में उत्तर ढूँढें,
किन्तु, पता क्या,
कहाँ लिखा क्या ?
’हर-हर गंगे’ के नारों में
सबकुछ नीचे बहा दिखा क्या ?
फिरभी तिल-गुड़ के छूने को
सिक्कों में मत गिन.

5
आग जला कर जग-जगती की  
धूनी तज कर
साँसें लेलें !
खप्पर का तो सुख नश्वर है
चलो मसानी, रोटी बेलें !!
 
जगत प्रबल है दायित्वों का
और सबलतम
इसकी माया
अँधियारे का प्रेम उपट कर
तम से पाटे
किया-कराया
 
उलझन में चल
काया जोतें
माया का भरमाया झेलें !
 
जस खाते,
तस जीते हैं सब
खाते-जीते
पीते भी हैं
और भभकते औंधेमुँह के
बखत उपासे बीते भी हैं
 
इन कंधों पर बरतन-बहँगी
लेकर आओ
जग में हेलें !
 
इस मिट्टी ने जीव जगाया
और सजायी
मिलजुल दुनिया
बहुत अभागे अलग कातते  
खुद की तकली,
खुद की पुनिया
 
कहो निभे क्यों आपसदारी ?
अगर दिखा कुछ..  
चाहा लेलें !

सौरभ पाण्डेय

परिचय
__________

सौरभ पाण्डेय

जन्मतिथि             : 3 दिसम्बर 1963

पता                  : एम-2 / ए-17, एडीए कॉलोनी, नैनी, प्रयागराज - 211008, उप्र, भारत

संपर्क                 : +91-9919889911

मेल-आइडी             : saurabh312@gmail.com

शिक्षा                 : स्नातक (गणित), कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा, प्रबन्धन में परास्नातक

पुस्तकें व कॉलम        : 
परों को खोलते हुए शृंखला (सम्पादन), 
इकड़ियाँ जेबी से (काव्य-संग्रह), 
छंद-मञ्जरी (छन्द-विधान), 
गीत-प्रसंग (सम्पादन), 
राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन, दूरदर्शन-आकाशवाणी से काव्यपाठ

विधा                 : गीत-नवगीत, गजल, मुक्तछन्द, शब्द-चित्र, अतुकान्त शैलियाँ, समीक्षा-आलोचनाएँ, सम-सामयिक आलेख आदि.

रचना-भाषा            : हिन्दी, भोजपुरी

सम्बद्ध मंच            : प्रबन्धन सदस्य, ई-पत्रिका ओपनबुक्सऑनलाइन; सदस्य सलाहकार समिति, अंजुमन (अर्द्धवार्षिक पत्रिका)

सम्मान               :

हिन्दी प्रतिभा सम्मान,
अनाममण्डली प्रशंसा-पत्र, काठमाण्डू,
रमेश हठीला शिवना सम्मान,
गीतिकाश्री सम्मान,
रंगवीथिका सम्मान,
साहित्य-सर्जन शिखर सम्मान,
साहित्य शिरोमणि सम्मान, भारतीय साहित्य संस्था,
‘छंद-विशारद’, अखिल भारतीय दिव्य-साहित्य सम्मान .. इत्यादिक

कतरन

कवि परिचय में सौरभ पाण्डेय : प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग



संक्षिप्त परिचय

सौरभ पाण्डेय

जन्मतिथि             : 3 दिसम्बर 1963

पता                  : एम-2 / ए-17, एडीए कॉलोनी, नैनी, प्रयागराज - 211008, उप्र, भारत

संपर्क                 : +91-9919889911

मेल-आइडी             : saurabh312@gmail.com

शिक्षा                 : स्नातक (गणित), कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा, प्रबन्धन में परास्नातक

पुस्तकें व कॉलम        : 
परों को खोलते हुए शृंखला (सम्पादन), 
इकड़ियाँ जेबी से (काव्य-संग्रह), 
छंद-मञ्जरी (छन्द-विधान), 
गीत-प्रसंग (सम्पादन), 
राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन, दूरदर्शन-आकाशवाणी से काव्यपाठ

विधा                 : गीत-नवगीत, गजल, मुक्तछन्द, शब्द-चित्र, अतुकान्त शैलियाँ, समीक्षा-आलोचनाएँ, सम-सामयिक आलेख आदि.

रचना-भाषा            : हिन्दी, भोजपुरी

सम्बद्ध मंच            : प्रबन्धन सदस्य, ई-पत्रिका ओपनबुक्सऑनलाइन; सदस्य सलाहकार समिति, अंजुमन (अर्द्धवार्षिक पत्रिका)

सम्मान               :

हिन्दी प्रतिभा सम्मान,
अनाममण्डली प्रशंसा-पत्र, काठमाण्डू,
रमेश हठीला शिवना सम्मान,
गीतिकाश्री सम्मान,
रंगवीथिका सम्मान,
साहित्य-सर्जन शिखर सम्मान,
साहित्य शिरोमणि सम्मान, भारतीय साहित्य संस्था,
‘छंद-विशारद’, अखिल भारतीय दिव्य-साहित्य सम्मान .. इत्यादिक.. 
 ********

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए : राहुल शर्मा

आलेख-
जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए 
(योगेन्द्र वर्मा व्योम के नये कलेवर के नवगीत) 

          आधुनिक हिंदी नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में पूरे देश के भीतर मुरादाबाद शहर को पहचान दिलाने वाले योगेन्द्र वर्मा व्योम जी के नवगीतों से गुज़रना मतलब एक ताज़गी भरे नगर से गुज़रना है। यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि एक ही कार्यालय में कार्यरत होने के कारण मैं व्योमजी के काव्य सृजन की प्रक्रिया का साक्षी रहा हूँ। वह इतनी खूबसूरती से और बड़ी बारीकी से ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतीक और प्रतिमान ढूँढ लाते हैं जिन्हें सामान्य कवि/ गीतकार की दृष्टि खोज ही नहीं पाती। यही उनके नवगीतों की सबसे बड़ी विशेषता है।
         नवगीत की सबसे प्रमुख और प्रथम शर्त ही नयापन है। व्योमजी के नवगीतों में इस नयेपन की मिठास मिलती ही है। गीत और ग़ज़ल काव्य की अलग अलग विधाएँ हैं, दोनों का कथ्य और शिल्प बिल्कुल अलग है। ग़ज़ल के छंद विधान यानि कि क़ाफ़िया, रदीफ़, बहर आदि का अभिनव प्रयोग कर नवगीत 'जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए' रचा गया है जिसमें ग़ज़ल विधा के व्याकरण का मानवीकरण करते हुए कथ्य का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण किया गया है-

जीवन में हम ग़ज़लों जैसा होना भूल गए 
जोड़-जोड़कर रखे क़ाफ़िये सुख-सुविधाओं के
और साथ में कुछ रदीफ़ उजली आशाओं के
शब्दों में लेकिन मीठापन बोना भूल गए
सुबह-शाम के दो मिसरों में सांसें बीत रहीं
सिर्फ़ उलझनें ही लम्हा-दर-लम्हा जीत रहीं
लगता विश्वासों में छन्द पिरोना भूल गए

           अनेक कवियों ने बरसात के मौसम पर केन्द्रित अनेक गीतों, ग़ज़लों, दोहों का सृजन किया है लेकिन बूँदों की आकाश से धरती तक की यात्रा और बूँदों का आपस में बतियाना व्योमजी के नवगीतों में ही मिलता है। उनके एक नवगीत 'मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है' पर दृष्टि पढ़ते ही महाकवि बाबा नागार्जुन के कालजयी गीत "बादल को घिरते देखा है" की स्मृति ताज़ा हो जाती है। इस नवनीत में व्योमजी बाबा नागार्जुन का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं-

मैंने बूँदों को अक्सर बतियाते देखा है
इठलाते बल खाते हुए धरा पर आती हैं
रस्ते-भर बातें करती हैं सुख-दुख गाती हैं
संग हवा के खुश हो शोर मचाते देखा है
कभी झोंपड़ी की पीड़ा पर चिंतन करती हैं
और कभी सूखे खेतों में खुशियाँ भरती हैं
धरती को बच्चे जैसा दुलराते देखा है

        व्योमजी चीजों को रूपांतरित करने में सिद्धहस्त हैं। रूपांतरित कर देने के पश्चात रूपांतरण के मानकों का सटीक उपयोग करना बहुत ही कुशलता का कार्य है जो व्योम जी के नवगीतों में सहज रूप से दिखता है। मन को गाँव की संज्ञा में रूपांतरित कर देने जैसा प्रयोग पहले कभी कहीं देखने को नहीं मिलता। गाँव भले ही मन का हो लेकिन गाँव है तो चौपालें भी होंगी और गाँव है तो पंचायत भी होगी और चुनाव भी होंगे। मन के भाव और गाँव के वातावरण को शानदार अभिव्यक्ति दे रहा है व्योमजी का नवगीत-

तन के भीतर बसा हुआ है मन का भी इक गाँव
बेशक छोटा है लेकिन यह झांकी जैसा है
जिसमें अपनेपन से बढ़कर बड़ा न पैसा है
यहाँ सिर्फ़ सपने ही जीते जब-जब हुए चुनाव
चौपालों पर आकर यादें जमकर बतियातीं
हँसी-ठिठोली करतीं सुख-दुख गीतों में गातीं
इनका माटी से फ़सलों-सा रहता घना जुड़ाव

      रिश्तों के खोखलेपन या उनकी मर्यादा के चटक जाने का मार्मिक वर्णन व्योम जी के एक अन्य गीत "मुनिया ने पीहर में आना-जाना छोड़ दिया" में भी देखने को मिलता है जिसमें मायके से मिलने वाली उपेक्षा से दुखी एक विवाहित लड़की के मनोभावों का हृदयस्पर्शी वर्णन है। दरअसल रिश्ते हमारे जीवन की सबसे अनमोल पूँजी होते हैं उन्हें सहेज कर रखना सबसे बड़ी उपलब्धि है। किसी भी कारण से यह पूँजी व्यर्थ न जाए इसकी कोशिश लगातार रखी जानी चाहिए। रिश्तों को बनाए रखने के अनुरोध को बड़े ही खूबसूरत अंदाज़ में अभिव्यक्त करते हुए व्योमजी खानदान के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति की भूमिका में नज़र आते हैं-

चलो करें कुछ कोशिश ऐसी रिश्ते बने रहें
बंद खिड़कियाँ दरवाज़े सब कमरों के खोलें
हो न सके जो अपने, आओ हम उनके हो लें
ध्यान रहे ये पुल कोशिश के ना अधबने रहें
यही सत्य है ये जीवन की असली पूँजी हैं
रिश्तों की ख़ुशबुएँ गीत बन हर पल गूँजी हैं
अपने अपनों से पल-भर भी ना अनमने रहें

          वर्तमान समय में सामान्य रूप से देखने में आता है कि चिट्ठियाँ आनी-जानी बंद हो गई हैं। इसके लिए लोगों द्वारा अब चिट्ठियाँ लिखना बंद कर दिया जाना भी जिम्मेदार है और डाक विभाग द्वारा साधारण डाक के वितरण में बरती जा रही लापरवाही भी। इस सरकारी व्यवस्था की अव्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए मन की पीड़ा को नवगीत में वर्णित करने का प्रयोग विलक्षण है। बहुत ही खूबसूरत एकदम नए किस्म का नवगीत है यह। मैं इसको व्यंग्य-नवगीत की संज्ञा देना चाहूँगा-  

अब तो डाक-व्यवस्था जैसा अस्त-व्यस्त मन है
सुख साधारण डाक सरीखे नहीं मिले अक्सर
मिले हमेशा बस तनाव ही पंजीकृत होकर
फिर भी मुख पर रहता खुशियों का विज्ञापन है
गूगल युग में परम्पराएँ गुम हो गईं कहीं
संस्कार भी पोस्टकार्ड-से दिखते कहीं नहीं
बीते कल से रोज़ आज की रहती अनबन है

          कोई भी कवि अपनी कविता की विषयवस्तु अपने आसपास के वातावरण से ही खोजता है और उसे अपने ढंग से अपनी कविता में ढालता भी है। समाज में कभी मुहल्ला-संस्कृति भी थी जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल रहते थे, फिर कॉलोनी-संस्कृति और अब अपार्टमेंट-संस्कृति प्रचलित है जिसमें लोग एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना तो दूर एक दूसरे से परिचित तक नहीं होते। क्या कॉलोनी के लोग भी किसी गीत की विषयवस्तु हो सकते हैं? मैं कहूँगा कि हाँ। ऐसा सिर्फ़ व्योमजी के यहाँ ही देखने को मिल सकता है। सिमटे हुए स्वार्थी जीवन की विद्रूपता का जैसा चित्रण इस नवगीत में हुआ है अन्यत्र दुर्लभ है-

अपठनीय हस्ताक्षर जैसे कॉलोनी के लोग
सम्बन्धों में शंकाओं का पौधारोपण है
केवल अपने में ही अपना पूर्ण समर्पण है
एकाकीपन के स्वर जैसे कॉलोनी के लोग
ओढ़े हुए मुखों पर अपने नकली मुस्कानें
यहाँ आधुनिकता की बदलें पल-पल पहचानें
नहीं मिले संवत्सर जैसे कॉलोनी के लोग

         यह कॉलोनी-संस्कृति संवादहीनता की वाहक बनकर कहीं न कहीं हम सबको ही प्रभावित कर रही है। और यही संवादहीनता आज के समाज की बड़ी समस्या बन गई है जिसका कुप्रभाव अवसाद के रूप में देखने को मिल रहा है। शब्दों को केंद्रबिंदु बनाकर लिखा गया व्योमजी का यह नवगीत बहुत मार्मिक बन पड़ा है-

अब संवाद नहीं करते हैं मन से मन के शब्द
हर दिन हर पल परतें पहने दुहरापन जीते
बाहर से समृद्ध बहुत पर भीतर से रीते
अपना अर्थ कहीं खो बैठे अपनेपन के शब्द
आभासी दुनिया में रहते तनिक न बतियाते
आसपास ही हैं लेकिन अब नज़र नहीं आते
ख़ुद को ख़ुद ही ढूँढ रहे हैं अभिवादन के शब्द

             1970 के दशक में दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों ने व्यवस्था विरोध के लिए नारों का काम किया, आज भी आम आदमी की ज़बान पर दुष्यंत का कोई न कोई शेर ज़रूर रहता है। दुष्यंत कुमार की मशहूर ग़ज़ल- 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए/इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए' को व्योमजी ने अपने नवगीत की विषयवस्तु बनाया है। पहली बार किसी कवि के द्वारा दूसरे कवि और उसकी कविता को नवगीत जैसी विधा की विषयवस्तु बनाया जाना अपने आप में चमत्कृत कर देने जैसा प्रयोग है। जनवाद की पैरोकारी करता दुष्यंतजी के आगमन का आवाहन समेटे व्योमजी का यह नवगीत भी अपने आप में अनूठा है-

बीत गया है अरसा, आते अब दुष्यंत नहीं
पीर वही है पर्वत जैसी पिघली अभी नहीं
और हिमालय से गंगा भी निकली अभी नहीं
भांग घुली वादों-नारों की जिसका अंत नहीं
हंगामा करने की हिम्मत बाक़ी नहीं रही
कोशिश भी की लेकिन फिर भी सूरत रही वही
उम्मीदों की पर्णकुटी में मिलते संत नहीं

      कोरोना काल में उपजीं भीषण विद्रूपताओं से आम आदमी आज भी रोज़ाना लड़ाई लड़ रहा है। इस कोरोना काल में लोग बीमारी से तो मरे ही भूख से भी मरे और बहुत लोगों का रोजगार भी खत्म हुआ। उस समय कड़ी धूप में पैदल अपने गांव की ओर चलते जा रहे प्रवासी मजदूरों का दृश्य आँखों में उतर आता है। इसी मंज़र को बेहद भावुक रूप में व्योमजी ने अपने नवगीत में अभिव्यक्त किया है, भूख जब रोटी के नाम खत लिखती है तो एक बेहद संवेदनशील दृश्य पैदा होता है। मेरी दृष्टि में इस कोरोना काल की व्यथा को समेटे इससे मार्मिक नवगीत कोई दूसरा नहीं हो सकता-

आज सुबह फिर लिखा भूख ने ख़त रोटी के नाम
एक महामारी ने आकर सब कुछ छीन लिया
जीवन की थाली से सुख का कण-कण बीन लिया
रोज़ स्वयं के लिए स्वयं से पल-पल है संग्राम
ख़ाली जेब पेट भी ख़ाली जीना कैसे हो
बेकारी का घुप अँधियारा झीना कैसे हो
केवल उलझन ही उलझन है सुबह-दोपहर-शाम

     'रिश्ते बने रहें' नवगीत-संग्रह के रचनाकार योगेन्द्र वर्मा व्योम के नवगीतों को पढ़कर मैं यह बात दावे से कह सकता हूंँ कि हिंदी साहित्य के इतिहास का चित्र बनाने वाला चित्रकार जब कभी नवगीत के वृक्ष का चित्रण करेगा तो मुरादाबाद का नाम दो विशेष कारणों से चित्र में प्रकाशित दिखाई देगा। प्रथम तो नवगीत वृक्ष की जड़ों में से एक साहित्य-ऋषि दादा माहेश्वर तिवारी और दूसरा नवगीत वृक्ष को पुष्पित पल्लवित करने वाली सबसे मजबूत शाखाओं में से एक योगेंद्र वर्मा व्योम। 
- राहुल शर्मा
आफीसर्स कालोनी, रामगंगा विहार-1
काँठ रोड, मुरादाबाद- 244105
मोबाइल- 9758556426

परिचय
_________
 नाम - राहुल शर्मा 
आत्मज-स्व0 श्री शशिकांत शर्मा 
जन्म स्थान - सब्दलपुर, निकट-राजा का ताजपुर, जनपद - बिजनौर 
जन्म तिथि - 07-11-1973 
शैक्षिक योग्यता - विधि स्नातक 
संप्रति - कृषि विभाग मुरादाबाद में प्रधान सहायक। 
वर्तमान पता-R-2, कृषि आवासीय परिसर, रंगोली ऑफ़िसर्स कालोनी, रामगंगा विहार, मुरादाबाद 
मोबाइल - 9758556426

बुधवार, 19 जनवरी 2022

कृति चर्चा में बेगूसराय बिहार से डॉ भगवान प्रसाद सिन्हा जी का समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुति: वागर्थ



किसी कृति की सफलता उपयुक्त हाथों में पहुँचने से जुड़ी होती है । आदरणीय मनोज जैन जी की कृति 'धूप भरकर मुट्ठियों में ' के हिस्से में यह अवसर खूब आया । इस क्रम में धूप भरकर मुट्ठियों में बेगूसराय तक पहुँची । आज ' धूप भरकर मुट्ठियों में ' को हम आदरणीय Bhagwan Prasad Sinha जी की गहन दृष्टि से देखेंगे । कहना न होगा कि आदरणीय भगवान प्रसाद सिन्हा जी ने कृति बहुत मनोयोग से पढ़कर उस पर अपने अर्थवान विचार व्यक्त किये हैं और कुछ समीचीन सुझाव भी , जिन्हें कृतिकार ने सादर सहर्ष स्वीकार किया है । बताती चलूँ कि आदरणीय मनोज जैन जी के फेसबुक एकाउंट में कुछ तकनीकी समस्या आ जाने से वे यहाँ पर उपस्थित नहीं हो पा रहे हैं ...

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मनोज जैन की पुस्तक "धूप भरकर मुट्ठियों में" अपने नाम से ही बहुत कुछ कह जाती है। बहुत कुछ से मेरा आशय इस नाम में नवगीत का वह चेहरा उभरता है जो सामान्य जीवन और उसके सरोकारों का चेहरा होता है। मुट्ठियाँ शब्द ही जन संघर्ष के जुझारू पन का विंब प्रस्तुत करतीं हैं। यह जितना पुराना विंब है उतना ही टटका, तरोताजा भी है। अपने नैरंतर्य को बनाए हुए है।  अंधकार को चीरनेवाला प्रकृति का यह अनुपम उपहार धूप का विंब सार्वभौमिकता, अधिकार और हिस्से का विंब खड़ा करता है। इसलिए "अपने हिस्से का धूप" या आँगन का धूप या मुट्ठियों में भरा धूप सब उस सत्य को सौंदर्यीभूत करता है जिसे जन सदियों से अपहृत सार्वभौमिकता  में अपने हिस्से की तलाश में गिल्गमेष के पाताल से लेकर चाँद तारों के आसमान तक एक करता है। इस उन्वान के विस्तार में ही इस पुस्तक में प्रस्तुत मनोज जैन द्वारा रचित नवगीत या गीत हैं। 
नवगीत के साहित्यिक पक्ष की बारीकियों और सूक्ष्मताओं पर कुछ नहीं लिख सकता। वह किसी सिद्धहस्त समीक्षकों के दायरे की चीज़ है। मैं अपनी भूमिका एक पाठक की भूमिका तक सीमित मानता हूँ जब मैं किसी पद्य- गीत, नवगीत, कविता आदि पर कुछ सोचने बैठता हूं। मुझे एक पाठक के रूप में पद्य की वे रचनाएँ भातीं हैं जो जीवन के लिए कोई अर्थ प्रदान करतीं हैं, जो मानवीय सरोकार व संवेदना को स्पर्श करतीं हैं, जो मनोगत भावों के निक्षेप के क्रम में वस्तुनिष्ठ सच्चाई की अवज्ञा नहीं करती , जो पूर्व-स्वीकृत आध्यात्म, संस्कार, परम्परा, रूढ़ के प्रति मोहग्रस्त होकर आस्था के भँवर में फँँसी न रहकर उससे निकलने की आकुलता, व्याकुलता, छटपटाहट से गुजरती हुई अजस्र उर्जा का दर्शन कराती हैं और विवेकसम्मत उपसंहार पर पहुँचने की दशा-दिशा दिखाने के प्रयास में जुटी मिलतीं हैं। प्रेम, प्रकृति, भाव की पीठिका में लिखी रचनाएँ भी भातीं हैं अगर वे अतिरंजनाओं की शिकार न हों , जीवन-मूल्यों की क़ीमत पर न हों और यथार्थ के धरातल का अक्स उनमें कहीं न कहीं पोशीदा रूप में ही सही किंचित मात्र भी  दिख जाता है ।  फिर भी, इन सबके साथ अगर उनमें अपरिहार्य कलात्मकता न हो, साहित्य का वह स्वभाविक रस विधान न हो जो रचनातत्व में प्रभाव पैदा करने के लिए, उनमें प्रभावोत्पादकता का सृजन के लिए अनिवार्य है तो उपर्युक्त धरातल पर रची गई रचना कितना भी उत्कृष्ट क्यों न हो मेरे मर्म का स्पर्श नहीं करतीं । मुझे अच्छी नहीं लगतीं भले ही वे कितनी भी प्रगतिवादी, जनवादी, क्रांतिवादी, जनपक्षी, प्रतिरोधी क्यों न हो। 

   मनोज जैन जी की "धूप भरकर मुट्ठियों में" ने रचना के प्रति मेरे ऑब्सेशन की समस्याओं का बहुत हद तक समाधान किया है। इन्हें पढ़कर न सिर्फ़ मुतमईन हुआ जा सकता है बल्कि अगर आपकी दृष्टि कुछ अधिक ग्राह्य करने की ओर प्रवृत्त है तो उससे प्रेरित भी हुआ जा सकता है, दृष्टि अपना विस्तार भी पा सकती है। 
"उर्ध्वगामी बोध दे जो वह पयंबर है" तथा "बूँद का मतलब समंदर है" और भी , "ठोस आधार देते भवन के लिए/ नींव की ईंट हैं हम कंगूरे नहीं" आदि कतिपय पंक्तियाँ विचार की सतह पर उतरती हैं। रूढ़ को धिक्कारती यह एक पंक्ति "फ़ैसला छोड़िये न्याय के हाथ में" गीत का कितना सुंदर समाहार करती है :
"बात मानें भला क्यों बिना तर्क़ के 
सिर्फ़ उस्ताद हैं, हम जमूरे नहीं"
 "छंदों का ककहरा" में वर्तमान जीवन-दशा के यथार्थ को निर्ममता के साथ प्रस्तुत कर मनोज जैन जी ने निश्चय ही साहस का परिचय दिया है :
"लीक छोड़कर चलनेवाला/ साहस सोया है 
काटा हमने वो ही जो / पहले से बोया है"! 
इस यथार्थ के प्रति वह तटस्थ नहीं रहते। वह हस्तक्षेप के कर्तव्यबोध से कन्नी नहीं काटते जब पंक्ति को पूरा करते हुए कहते हैं:
" दृढ़ इच्छा के पथ में कोई पर्वत अड़ा नहीं... 
... क़दम हमारा चोटी छूने अब तक बढ़ा नहीं"
आगे के गीतों में इस परिवर्तनबोधीय चेतना का प्रकटीकरण देखिए जो निस्संदेह क़ाबिलेदाद है ! यह एक ललकार भी है, ओज और उर्जस्विता का वेग है । "लीक से हटके" गीत में इसके उदाहरण को देखें:
"करना होगा सृजन वंधुवर! 
हमें लीक से हटके
छंदों में हो आग समय की 
थोड़ा सा हो पानी... (द्वंद्वात्मक संतुलन की मांग की पूर्ति ही स्वस्थ नवोन्मेष के पैदा करती है) 
 "शोषक, शोषण का विरोध जो करें निरंतर डटके.... 
...... अंधकार जो करे तिरोहित विंब रचे कुछ टटके"
ये जनवादी क्रातिवादी पंक्तियाँ हैं जो समाज को बदलने की लड़ाई में युद्धरत आम आदमी को निश्चय ही बल देंगी और इस संघर्ष में हिरावल की भूमिका में रहनेवाले किसी भी पाठक के दिल को छूने का सामर्थ्य रखतीं हैं।   "लीक से हटके" क्रांतिवादी तत्वों का सार अपने में समेटे है।
यथार्थ को संबोधित करते हुए कई गीत हैं। "फँसते हैं फंदों मे" जहाँ लोकतंत्र में जन की दशा का मर्मस्पर्शी विवरण है वहीं "सोया है जो तन में" जन चेतना को उभारने का ललकार है! 
सबसे स्पृहणीय रचना है पिछले साल भर से चलनेवाले किसान आंदोलन के पक्ष में खड़ी ताक़तों के लिए "जय बोलो एक बार"! इस गीत की दो पंक्ति ने मेरा जबरदस्त ध्यान खींचा एक, " गूँज रहा जंगल में स्वर जैसे भील का"। इसमें गीतकार का वास्तविक जन के प्रति प्रतिबद्धता की छवि अंकित होती दिखाई देती है । "भील का स्वर" वह स्वर है जो झारग्राम, कालाहांडी से लेकर बस्तर से लेकर गढ़चिरौली और झाबुआ तक जड़ जल जंगल ज़मीन के लिए उठते रहे हैं और सत्ता के संगीनों और बंदूक की नली से रक्तरंजित होते रहे हैं फिर भी दबे नहीं हैं। किसानों की दशा की पृष्ठभूमि में लिखे इस गीत की अंतिम पंक्ति "पहुँचा
दे किरणें घर घर विज्ञान की" अपने आप में मानीखेज है जो यह बताने के लिए काफ़ी है कि अवैज्ञानिक चेतना (रूढ़िवादी मान्यताओं, आध्यात्मिक आस्थाओं और जड़ीभूत परंपराओं) में डूबी किसानों की ज़िंदगी शोषित होते रहने के लिए अभिशप्त बनी हुई है। 
डॉक्टर राम विलास शर्मा ने "मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य"  में एक ज़गह लिखा है कि हर कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है, नवाचारी होता है। वहीं उन्होंने तुरत रेखांकित किया कि फिर भी यह आवश्यक नहीं है कि वह प्रगतिवादी ही हो। उसके सौंदर्य दृष्टि कोण को परखने के बाद ही तय किया जा सकता है कि उसका साहित्य कितना प्रगति के पक्ष में है या प्रगति के विपक्ष में यथास्थितिवादी परंपरा के साथ जड़ीभूत है। मनोज जैन ने अपने इस गीत के ज़रिए बताने की ज़हमत की है कि उनका साहित्यिक सौंदर्यबोध कहाँ खड़ा है। उनका साहित्य जन साधारण की वस्तु बनने के हक़ में है भी कि नहीं है । पुस्तक में  दो गीतों  ने मनोज जैन जी के सौंदर्यवादी दृष्टिकोण को समझने में बड़ी मदद की और
मुझे कुछ अधिक ही प्रभावित किया। एक गीत "यह पथ मेरा" और आगे थोड़ा प्रकारांतर शीर्षक दिया हुआ "यह पथ मेरा चुना हुआ"! दोनों गीत एक जैसे ही हैं  कुछ फ़र्क़ के साथ। लेकिन बस एक शब्द का फ़र्क़ दोनों के अंतर की गुणवत्ता में " मात्रा या परिमाण में वृद्धि के साथ एक अवस्था से दूसरी अवस्था में छलांग लगा देने जैसी " वृद्धि कर देती है। मैं अपने अन्य सहपाठकों पर इसके मूल्यांकन को समझने की स्वायत्तता देता हूँ। दोनों में दर्ज़ पंक्तियों को क्रमशः पेश करता हूँ:
ढूंढ रहा हूँ मैं साखी को 
तुलसी* वाली परिपाटी को (यह पथ मेरा) 
और दूसरे "यह पथ मेरा चुना हुआ है" में इन्हीं पंक्तियों को देखिये:
ढूंढ रहा हूँ मैं साखी को 
कबिरा* वाली परिपाटी को.... 
मेरी सौंदर्यबोधीय दृष्टि में दूसरे क्रम में रखी पंक्तियाँ मनोज जैन के वास्तविक साहित्यिक पक्ष को स्पष्ट करता है। अपने इस पक्ष को अपने एक और गीत में बहुत अधिक स्पष्ट किया है वह गीत है "हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के"।इस में सत्ता या शासन के प्रतिगामी आदेश व इच्छाओं की खुली चुनौती उनके अभ्यंतर की प्रगतिवादी जनपक्षीय कामनाओं को प्रकट करने में कोई हिचक नहीं दिखाकर गीत व नवगीत के बारीक फ़र्क़ के तहत नवगीत की परिभाषा के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं :
"उजियारा तुमने फैलाया/तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो/हमने भी पर्वत काटे हैं 
हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के /जो प्रेशर से फट जाएंगे
है सोच हमारी ब्यौहारिक/परवाह न जंतर मंतर की
लोहू है गरम शिराओं का / उर्वरा भूमि है अंतर की 
संदेश नहीं विज्ञापन के /जो बिना सुने कट जाएंगे"  ! 
टटके विंब की अपेक्षित वांछनाएं भी इन पंक्तियों में पूरी होतीं हैं। परंपरा की धरातल पर परंपरा के विकास
इसके अतिरिक्त, जनपक्षीय आंदोलन के विश्वव्यापी संघर्ष का जो सबसे ज्वलंत मुद्दों में से एक पर्यावरण एवं धरोहर की संरक्षा और सुरक्षा का सवाल इस नवगीतकार के दृष्टि से ओझल नहीं है जिसकी सबसे बड़ी मार हमारे देश की आदिवासी जनता और महानगरों के निवासी  झेलते दिख रहे वहीं दूसरी ओर देश के अंदर के क्रोनीकैपिटलिस्ट और बाहर के विकसित साम्राज्यवादी देश इसके शोषण के ज़रिए सबसे अधिक सुपर मुनाफ़ा बटोर रहे हैं। पर्यावरण बोध  और धरोहर के प्रति संवेदना को संबोधित करती उनकी दो अच्छी रचना, "धरती का रस" और "भीम बेटका" नवगीत के सांचे में ढालकर मनोज जैन जी ने प्रस्तुत की है । हाँ थोड़ा इसकी ज़िम्मेदारी तय करने में मनोज जैन जी ने भारी चूक की है। असली विनाशकारी तत्वों सरमायेदार तबक़ा, उनकी हुकूमतें और दलाल तथा ग्लोबल कैपिटल एम्पायर को छोड़कर जो विक्टिम हैं जनसाधारण उन्हीं पर पर्यावरण के विनाश और बचाने की चिंता डाल रहे हैं:
"कंकरीट का जंगल रोपा/ काटी हरियाली
ख़ुद की क़िस्मत फोड़ बावरा/ठोक रहा ताली
काश! समझ में इसके आती /अपनी नादानी 
"पूजा इंदर की मत करना/बिरवे रोप हरे 
सीख सयानी समझ/  इसी ने पूरन काज करे
धरती माँ को चल पहना दे /चूनरिया धानी 
यह द्रष्टव्य है कि पर्यावरण की रक्षा ऊपर से होगी नीचे तो रक्षक ख़ुद ही बैठे हैं। इसलिए संबोधन महाप्रभु-संवर्ग को करना है। "भीम बेटका " पर्यावरणीय धरोहर के प्रति गीतकार की संवेदना का प्रतिनिधि गीत है :
"कुशल हाथ ने सख़्त शिला की यहाँ चीर दी छाती 
प्रहरी बनकर पेड़ खड़े हैं बचा रहे हैं थाती.... "
जनसरोकार के रचयिताओं से प्रायः यह अपेक्षा रखी जाती है कि वे अगर इतर रचनाएं करते हैं तो जनअपेक्षाओं की अवहेलना होती है या वे बेहतर रचना शायद ही कर सकें या क्यों करें। लेकिन श्रेष्ठता तभी मानी जाती है जब विभिन्न रागों, विधाओं और विषयों में भी आपकी सलाहियत चमक उठे। "रसवंती", "उर्वशी", " हारे को हरिनाम " आदि रचनाओं पर जब राष्ट्रकवि दिनकर की राष्ट्रीय तेवर में लिखी रचनाओं की ओजस्विता सवाल के घेरे में आने लगी तब नामवर सिंह ने उनका बचाव करते हुए उपर्युक्त बातों का सार एक मंच से प्रस्तुत किया था। नवगीतकार अगर गीतों, ग़ज़लों, नयी कविता आदि से प्रेरणा ग्रहण करता है तो यह उसकी खूबियों में गिनी जानी चाहिए। समसामयिक, वस्तुनिष्ठ, सामाजिक परिवेश को संबोधित करती रचनाओं के साथ अगर मनोभावों, वैयक्तिक आग्रहों, संवेदनाओं के निजत्व को भी साहित्य में कोई रचयिता साथ लेकर चलता है तो इसे उसके बहुआयाम के परिचायक के रूप में देखना चाहिए। मनोज जैन की कतिपय रचनाओं में मैंने इन आदर्श मानवीय गुणों को उभरते देखा है जिसमें भावबोध, प्रेमबोध , सामान्य मानवीयता के अक्स प्रधानता प्राप्त किये हुए हैं। 
"चलो शपथ लें" गीत की इन पंक्तियों को देखें:
"...विषमता न रौदें पकड़ कर किसी को
नहीं वक्ष पर मूँग कोई दलेगा..... "
और भी 
"जड़ों से उखाड़ें मरी मान्यताएँ/मनुज सुप्त हैं जो उन्हें अब जगाएं "
इन पंक्तियों को भी देखें 
" नहीं हो निराशा कहीं भी धरा पर
नई आस का एक सूरज उगाएँ.. "
विराट विंबों तथा रसयुक्त काव्य भाषा के साथ "काश! हम होते " गीत भी तसव्वुरात की परछाईयों के माध्यम से मानवीय संवेदना का पाठ पढ़ाते हैं। 
इसी क्रम में प्रेम बोध के दो अनुपम गीत "याद रखना हमारी मुलाक़ात को" एवं  "चुंबनों के फूल" हमने चुने जो दिल को वाक़ई आशनाई में ले आते हैं लेकिन यथार्थ की मर्यादा से बाहर नहीं जाते इस दर्शन को परखें:
पूर्णता ना सही रिक्तता ना रही 
बात रह ही गई आज तक अनकही 
नाम क्या दें भला इस सौगात को
चाह थोड़ी इधर चाह थोड़ी उधर 
बंद आँखों से देखे गुलाबी अधर 
सब्र के बाँध टूटे सभी रात के 
 "चुंबनों के फूल" की इस एक पंक्ति में छिपी पराकाष्ठा को परखिये:
"धर दिए हमने अधर पर चुंबनों के फूल... "
और इसे भी 
"मन तुम्हारे रेशमी अहसास ने ही ले लिया था "
प्रेमबोध की एक और उत्कृष्ट रचना हृदय को प्लावित करती मिलती है-"तू जीत गई, मैं हार गया"! गीत रचयिता ने किस तरह इस हार को सहलाया है जो "जीत" से भी अधिक किसी को प्रिय लग सकती है:
"तुुझसे ही ये दिन सोने-से /तुझसे ही चाँदी सी रातें
तेरे होने से जीवन में /मिलती रहती हैं सौगातें 
रूठी तो भाव अबोला-सा /धीरे से-आ पुचकार गयी "
प्रेमबोध के गीतों से आगे बढ़ते हुए वैयक्तिक तक़ाज़ों से जुड़े गीत मिलते हैं। निज की हानि को मनुष्यता की हानि पर न्योछावर कर देने वाली उदात्त वैयक्तिक भावना  को अभिव्यक्त करनेवाले इन  उपयोगी गीतों की ख़ूबसूरती इस बिना पर क़ायम है कि ये यथार्थ की धरातल पर रचे गए जान पड़ते हैं । "हम काँटों में खिले फूल" और "सलीब को ढोना सीख लिया "! 
"हम काँटों में खिले फूल"  की पंक्तियाँ:
"संबंधों की डोर न तोड़ी, नहीं गांठ पड़ने दी हमने
हिम्मत कभी न हारी हमने लाख डराया हमको तम ने"
"सलीब....... " की पंक्ति:
"संघर्षों की सरकार शैय्या पर सोना सीख लिया "
इसी तरह "घटते देख रहा हूँ" यथार्थ का प्रभावकारी चित्रण है जिसमें पूंजीवादी संस्कृति के आक्रमण से परंपरागत पारिवारिक संघटनों के विघटित होने और शाश्वत मानवीय मूल्यों के तिरोहित होने का दर्द बसा है:
"पूरब को पश्चिम का मंतर रटते देख रहा हूँ"
इस गीत को पढ़ते हुए कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स के "कम्युनिस्ट घोषणापत्र" की बातें याद आ गयीं:
"पूँजीपति वर्ग ने, जहाँ पर उसका पलड़ा भारी हुआ, वहाँ सभी....काव्यात्मक संबंधों का अंत कर दिया। मनुष्य को "स्वभाविक बड़ों"  के साथ बांध रखनेवाले नाना प्रकार के स्थापित संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला;और नग्न स्वार्थ के, "नक़द पैसे कौड़ी" के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच कोई दूसरा संबंध बाक़ी नहीं रहने दिया। धार्मिक श्रद्धा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक, वीरोचित उत्साह, और आंतरिक भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब किताब के बर्फीले पानी में डूबा दिया। मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय मूल्य बना दिया....... "
कवि को इस मर्म को समझना होगा कि अनायास कोई चीज़ नहीं होती। सामाजिक चेतना मूलतः सामाजिक अस्तित्व से पैदा होती है। 
मनोज जैन जी ने साहित्य में फकैती को भी अपनी रचनाओं में शामिल करने से नहीं चूके हैं जो एक स्वस्थ सृजन की ओर इंगित करता है। इसके लिए उन्होंने सही ही व्यंग्य का सहारा लिया है। अब इस एक रचना में मंचीय कवि को उन्होंने धुलाई कर दी:
 करतल ध्वनि से आत्ममुग्ध
मन समझा कितनी दाद मिली
निष्कर्ष निकलकर यह आया
ऐलोवेरा को खाद मिली "
पूरी कविता या गीत आईने की तरह इस फ़र्ज़ी साहित्य को बेनक़ाब करता है। 
आध्यात्मिकता के सम्मान में गीतकार की कमजोर कड़ी कहीं कहीं उभर कर सामने आती है जब तर्कसंगत और विवेकसम्मत बातों से परे जाकर छिटपुट रचनाएँ मिलतीं हैं। आस्था और विवेकसम्मत में एक ही चीज़ सत्य हो सकती है। चेन कितना भी मज़बूत क्यों न हो अपनी कमजोर कड़ी से मज़बूत नहीं हो सकता। कमजोर कड़ी पर हल्का प्रहार पूरे सीकड़ को तोड़ने के लिए उसी तरह काफ़ी होता है जैसे किसी मज़बूत क़िले को ध्वस्त करने के लिए उसकी अदना सी पिछवाड़े में पड़ी कमजोर दीवारें। एक गीतकार के रूप में मनोज जैन जी से अपेक्षा होगी कि अध्यात्म, संस्कृति, परंपरा या आस्था जैसी भ्रमोत्पादक चीज़ों से बचते हुए अपनी रचनाओं को तर्कसम्मत विचारों की सान पर तेज करते चलें।

                               - भगवान प्रसाद सिन्हा 
                                 5, विश्वनाथ नगर
                                 बेगूसराय 851101

सोमवार, 17 जनवरी 2022

कृति चर्चा में भगवान प्रसाद सिन्हा : प्रस्तुति वागर्थ


मनोज जैन की पुस्तक "धूप भरकर मुट्ठियों में" अपने नाम से ही बहुत कुछ कह जाती है। बहुत कुछ से मेरा आशय इस नाम में नवगीत का वह चेहरा उभरता है जो सामान्य जीवन और उसके सरोकारों का चेहरा होता है। मुट्ठियाँ शब्द ही जन संघर्ष के जुझारू पन का विंब प्रस्तुत करतीं हैं। यह जितना पुराना विंब है उतना ही टटका, तरोताजा भी है। अपने नैरंतर्य को बनाए हुए है।  अंधकार को चीरनेवाला प्रकृति का यह अनुपम उपहार धूप का विंब सार्वभौमिकता, अधिकार और हिस्से का विंब खड़ा करता है। इसलिए "अपने हिस्से का धूप" या आँगन का धूप या मुट्ठियों में भरा धूप सब उस सत्य को सौंदर्यीभूत करता है जिसे जन सदियों से अपहृत सार्वभौमिकता  में अपने हिस्से की तलाश में गिल्गमेष के पाताल से लेकर चाँद तारों के आसमान तक एक करता है। इस उन्वान के विस्तार में ही इस पुस्तक में प्रस्तुत मनोज जैन द्वारा रचित नवगीत या गीत हैं। 
नवगीत के साहित्यिक पक्ष के बारीकियों और सूक्ष्मताओं पर कुछ नहीं लिख सकता। वह किसी सिद्धहस्त समीक्षकों के दायरे की चीज़ है। मैं अपनी भूमिका एक पाठक की भूमिका तक सीमित मानता हूँ जब मैं किसी पद्य- गीत, नवगीत, कविता आदि पर कुछ सोचने बैठता हूं। मुझे एक पाठक के रूप में पद्य की वे रचनाएँ भातीं हैं जो जीवन के लिए कोई अर्थ प्रदान करतीं हैं, जो मानवीय सरोकार व संवेदना को स्पर्श करतीं हैं, जो मनोगत भावों के निक्षेप के क्रम में वस्तुनिष्ठ सच्चाई की अवज्ञा नहीं करती, जो पूर्व- स्वीकृत आध्यात्म, संस्कार, परंपरा, रूढ़ के प्रति मोहग्रस्त होकर आस्था के भँवर में फंसी न रहकर उससे निकलने की आकुलता, व्याकुलता, छटपटाहट से गुजरती हुई अजस्र उर्जा का दर्शन कराती हैं और विवेकसम्मत उपसंहार पर पहुँचने की दशा-दिशा दिखाने के प्रयास में जुटी मिलतीं हैं। प्रेम, प्रकृति, भाव की पीठिका में लिखी रचनाएँ भी भातीं हैं अगर वे अतिरंजनाओं की शिकार न हो, जीवन-मूल्यों की क़ीमत पर न हों और यथार्थ की धरातल का अक्स उनमें कहीं न कहीं पोशीदा रूप में ही सही किंचित मात्र भी  दिख जातीं हैं। 
फिर भी, इन सबके साथ अगर उनमें अपरिहार्य कलात्मकता न हो, साहित्य का वह स्वभाविक रस विधान न हो जो रचनातत्व में प्रभाव पैदा करने के लिए, उनमें प्रभावोत्पादकता का सृजन के लिए अनिवार्य है तो ऊपर्युक्त धरातल पर रची गई रचना कितना भी उत्कृष्ट क्यों न हो मेरे मर्म का स्पर्श नहीं करतीं। मुझे अच्छी नहीं लगतीं भले ही वे कितनी भी प्रगतिवादी, जनवादी, क्रांतिवादी, जनपक्षी, प्रतिरोधी क्यों न हो। 
 मनोज जैन जी की "धूप भरकर मुट्ठियों में" ने रचना के प्रति मेरे ऑब्सेशन की समस्याओं का बहुत हद तक समाधान किया है। इन्हें पढ़कर न सिर्फ़ मुतमईन हुआ जा सकता है बल्कि अगर आपकी दृष्टि कुछ अधिक ग्राह्य करने की ओर प्रवृत्त है तो उससे प्रेरित भी हुआ जा सकता है, दृष्टि अपना विस्तार भी पा सकती है। 
"उर्ध्वगामी बोध दे जो वह पयंबर है" तथा "बूँद का मतलब समंदर है" और भी , "ठोस आधार देते भवन के लिए/ नींव की ईंट हैं हम कंगूरे नहीं" आदि कतिपय पंक्तियाँ विचार की सतह पर उतरती हैं। रूढ़ को धिक्कारती यह एक पंक्ति "फ़ैसला छोड़िये न्याय के हाथ में" गीत का कितना सुंदर समाहार करती है :
"बात मानें भला क्यों बिना तर्क़ के 
सिर्फ़ उस्ताद हैं, हम जमूरे नहीं"
 "छंदों का ककहरा" में वर्तमान जीवन-दशा के यथार्थ को निर्ममता के साथ प्रस्तुत कर मनोज जैन जी ने निश्चय ही साहस का परिचय दिया है :
"लीक छोड़कर चलनेवाला/ साहस सोया है 
काटा हमने वो ही जो / पहले से बोया है"! 
इस यथार्थ के प्रति वह तटस्थ नहीं रहते। वह हस्तक्षेप के कर्तव्यबोध से कन्नी नहीं कटाते जब पंक्ति को पूरा करते हुए कहते हैं:
" दृढ़ इच्छा के पथ में कोई पर्वत अड़ा नहीं... 
... क़दम हमारा चोटी छूने अब तक बढ़ा नहीं"
आगे के गीतों में इस परिवर्तनबोधीय चेतना का प्रकटीकरण देखिए जो निस्संदेह क़ाबिलेदाद है ! यह एक ललकार भी है, ओज और उर्जस्विता का वेग है । "लीक से हटके" गीत में इसके उदाहरण को देखें:
"करना होगा सृजन वंधुवर! 
हमें लीक से हटके
छंदों में हो आग समय की 
थोड़ा सा हो पानी... (द्वंद्वात्मक संतुलन की मांग की पूर्ति ही स्वस्थ नवोन्मेष के पैदा करती है) 
 "शोषक, शोषण का विरोध जो करें निरंतर डटके.... 
...... अंधकार जो करे तिरोहित विंब रचे कुछ टटके"
ये जनवादी क्रातिवादी पंक्तियाँ हैं जो समाज को बदलने की लड़ाई में युद्धरत आम आदमी को निश्चय ही बल देंगी और इस संघर्ष में हिरावल की भूमिका में रहनेवाले किसी भी पाठक के दिल को छूने का सामर्थ्य रखतीं हैं।   "लीक से हटके" क्रांतिवादी तत्वों का सार अपने में समेटे है।
यथार्थ को संबोधित करते हुए कई गीत हैं। "फँसते हैं फंदों मे" जहाँ लोकतंत्र में जन की दशा का मर्मस्पर्शी विवरण है वहीं "सोया है जो तन में" जन चेतना को उभारने का ललकार है! 
सबसे स्पृहणीय रचना है पिछले साल भर से चलनेवाले किसान आंदोलन के पक्ष में खड़ी ताक़तों के लिए "जय बोलो एक बार"! इस गीत की दो पंक्ति ने मेरा जबरदस्त ध्यान खींचा एक, " गूँज रहा जंगल में स्वर जैसे भील का"। इसमें गीतकार का वास्तविक जन के प्रति प्रतिबद्धता की छवि अंकित होती दिखाई देती है । "भील का स्वर" वह स्वर है जो झारग्राम, कालाहांडी से लेकर बस्तर से लेकर गढ़चिरौली और झाबुआ तक जड़ जल जंगल ज़मीन के लिए उठते रहे हैं और सत्ता के संगीनों और बंदूक की नली से रक्तरंजित होते रहे हैं फिर भी दबे नहीं हैं। किसानों की दशा की पृष्ठभूमि में लिखे इस गीत की अंतिम पंक्ति "पहुँचा
दे किरणें घर घर विज्ञान की" अपने आप में मानीखेज है जो यह बताने के लिए काफ़ी है कि अवैज्ञानिक चेतना (रूढ़िवादी मान्यताओं, आध्यात्मिक आस्थाओं और जड़ीभूत परंपराओं) में डूबी किसानों की ज़िंदगी शोषित होते रहने के लिए अभिशप्त बनी हुई है। 
डॉक्टर राम विलास शर्मा ने "मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य"  में एक ज़गह लिखा है कि हर कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है, नवाचारी होता है। वहीं उन्होंने तुरत रेखांकित किया कि फिर भी यह आवश्यक नहीं है कि वह प्रगतिवादी ही हो। उसके सौंदर्य दृष्टि कोण को परखने के बाद ही तय किया जा सकता है कि उसका साहित्य कितना प्रगति के पक्ष में है या प्रगति के विपक्ष में यथास्थितिवादी परंपरा के साथ जड़ीभूत है। मनोज जैन ने अपने इस गीत के ज़रिए बताने की ज़हमत की है कि उनका साहित्यिक सौंदर्यबोध कहाँ खड़ा है। उनका साहित्य जन साधारण की वस्तु बनने के हक़ में है भी कि नहीं है । पुस्तक में  दो गीतों  ने मनोज जैन जी के सौंदर्यवादी दृष्टिकोण को समझने में बड़ी मदद की और
मुझे कुछ अधिक ही प्रभावित किया। एक गीत "यह पथ मेरा" और आगे थोड़ा प्रकारांतर शीर्षक दिया हुआ "यह पथ मेरा चुना हुआ"! दोनों गीत एक जैसे ही हैं  कुछ फ़र्क़ के साथ। लेकिन बस एक शब्द का फ़र्क़ दोनों के अंतर की गुणवत्ता में " मात्रा या परिमाण में वृद्धि के साथ एक अवस्था से दूसरी अवस्था में छलांग लगा देने जैसी " वृद्धि कर देती है। मैं अपने अन्य सहपाठकों पर इसके मूल्यांकन को समझने की स्वायत्तता देता हूँ। दोनों में दर्ज़ पंक्तियों को क्रमशः पेश करता हूँ:
ढूंढ रहा हूँ मैं साखी को 
तुलसी* वाली परिपाटी को (यह पथ मेरा) 
और दूसरे "यह पथ मेरा चुना हुआ है" में इन्हीं पंक्तियों को देखिये:
ढूंढ रहा हूँ मैं साखी को 
कबिरा* वाली परिपाटी को.... 
मेरी सौंदर्यबोधीय दृष्टि में दूसरे क्रम में रखी पंक्तियाँ मनोज जैन के वास्तविक साहित्यिक पक्ष को स्पष्ट करता है। अपने इस पक्ष को अपने एक और गीत में बहुत अधिक स्पष्ट किया है वह गीत है "हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के"।इस में सत्ता या शासन के प्रतिगामी आदेश व इच्छाओं की खुली चुनौती उनके अभ्यंतर की प्रगतिवादी जनपक्षीय कामनाओं को प्रकट करने में कोई हिचक नहीं दिखाकर गीत व नवगीत के बारीक फ़र्क़ के तहत नवगीत की परिभाषा के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं :
"उजियारा तुमने फैलाया/तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो/हमने भी पर्वत काटे हैं 
हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के /जो प्रेशर से फट जाएंगे
है सोच हमारी ब्यौहारिक/परवाह न जंतर मंतर की
लोहू है गरम शिराओं का / उर्वरा भूमि है अंतर की 
संदेश नहीं विज्ञापन के /जो बिना सुने कट जाएंगे"  ! 
टटके विंब की अपेक्षित वांछनाएं भी इन पंक्तियों में पूरी होतीं हैं। परंपरा की धरातल पर परंपरा के विकास
इसके अतिरिक्त, जनपक्षीय आंदोलन के विश्वव्यापी संघर्ष का जो सबसे ज्वलंत मुद्दों में से एक पर्यावरण एवं धरोहर की संरक्षा और सुरक्षा का सवाल इस नवगीतकार के दृष्टि से ओझल नहीं है जिसकी सबसे बड़ी मार हमारे देश की आदिवासी जनता और महानगरों के निवासी  झेलते दिख रहे वहीं दूसरी ओर देश के अंदर के क्रोनीकैपिटलिस्ट और बाहर के विकसित साम्राज्यवादी देश इसके शोषण के ज़रिए सबसे अधिक सुपर मुनाफ़ा बटोर रहे हैं। पर्यावरण बोध  और धरोहर के प्रति संवेदना को संबोधित करती उनकी दो अच्छी रचना, "धरती का रस" और "भीम बेटका" नवगीत के सांचे में ढालकर मनोज जैन जी ने प्रस्तुत की है । हाँ थोड़ा इसकी ज़िम्मेदारी तय करने में मनोज जैन जी ने भारी चूक की है। असली विनाशकारी तत्वों सरमायेदार तबक़ा, उनकी हुकूमतें और दलाल तथा ग्लोबल कैपिटल एम्पायर को छोड़कर जो विक्टिम हैं जनसाधारण उन्हीं पर पर्यावरण के विनाश और बचाने की चिंता डाल रहे हैं:
"कंकरीट का जंगल रोपा/ काटी हरियाली
ख़ुद की क़िस्मत फोड़ बावरा/ठोक रहा ताली
काश! समझ में इसके आती /अपनी नादानी 
"पूजा इंदर की मत करना/बिरवे रोप हरे 
सीख सयानी समझ/  इसी ने पूरन काज करे
धरती माँ को चल पहना दे /चूनरिया धानी 
यह द्रष्टव्य है कि पर्यावरण की रक्षा ऊपर से होगी नीचे तो रक्षक ख़ुद ही बैठे हैं। इसलिए संबोधन महाप्रभु-संवर्ग को करना है। "भीम बेटका " पर्यावरणीय धरोहर के प्रति गीतकार की संवेदना का प्रतिनिधि गीत है :
"कुशल हाथ ने सख़्त शिला की यहाँ चीर दी छाती 
प्रहरी बनकर पेड़ खड़े हैं बचा रहे हैं थाती.... "
जनसरोकार के रचयिताओं से प्रायः यह अपेक्षा रखी जाती है कि वे अगर इतर रचनाएं करते हैं तो जनअपेक्षाओं की अवहेलना होती है या वे बेहतर रचना शायद ही कर सकें या क्यों करें। लेकिन श्रेष्ठता तभी मानी जाती है जब विभिन्न रागों, विधाओं और विषयों में भी आपकी सलाहियत चमक उठे। "रसवंती", "उर्वशी", " हारे को हरिनाम " आदि रचनाओं पर जब राष्ट्रकवि दिनकर की राष्ट्रीय तेवर में लिखी रचनाओं की ओजस्विता सवाल के घेरे में आने लगी तब नामवर सिंह ने उनका बचाव करते हुए उपर्युक्त बातों का सार एक मंच से प्रस्तुत किया था। नवगीतकार अगर गीतों, ग़ज़लों, नयी कविता आदि से प्रेरणा ग्रहण करता है तो यह उसकी खूबियों में गिनी जानी चाहिए। समसामयिक, वस्तुनिष्ठ, सामाजिक परिवेश को संबोधित करती रचनाओं के साथ अगर मनोभावों, वैयक्तिक आग्रहों, संवेदनाओं के निजत्व को भी साहित्य में कोई रचयिता साथ लेकर चलता है तो इसे उसके बहुआयाम के परिचायक के रूप में देखना चाहिए। मनोज जैन की कतिपय रचनाओं में मैंने इन आदर्श मानवीय गुणों को उभरते देखा है जिसमें भावबोध, प्रेमबोध , सामान्य मानवीयता के अक्स प्रधानता प्राप्त किये हुए हैं। 
"चलो शपथ लें" गीत की इन पंक्तियों को देखें:
"...विषमता न रौदें पकड़ कर किसी को
नहीं वक्ष पर मूँग कोई दलेगा..... "
और भी 
"जड़ों से उखाड़ें मरी मान्यताएँ/मनुज सुप्त हैं जो उन्हें अब जगाएं "
इन पंक्तियों को भी देखें 
" नहीं हो निराशा कहीं भी धरा पर
नई आस का एक सूरज उगाएं.. "
विराट विंबों तथा रसयुक्त काव्य भाषा के साथ "काश! हम होते " गीत भी तसव्वुरात की परछाईयों के माध्यम से मानवीय संवेदना का पाठ पढ़ाते हैं। 
इसी क्रम में प्रेम बोध के दो अनुपम गीत "याद रखना हमारी मुलाक़ात को" एवं  "चुंबनों के फूल" हमने चुने जो दिल को वाक़ई आशनाई में ले आते हैं लेकिन यथार्थ की मर्यादा से बाहर नहीं जाते इस दर्शन को परखें:
पूर्णता ना सही रिक्तता ना रही 
बात रह ही गई आज तक अनकही 
नाम क्या दें भला इस सौगात को
चाह थोड़ी इधर चाह थोड़ी उधर 
बंद आँखों से देखे गुलाबी अधर 
सब्र के बाँध टूटे सभी रात के 
 "चुंबनों के फूल" की इस एक पंक्ति में छिपी पराकाष्ठा को परखिये:
"धर दिए हमने अधर पर चुंबनों के फूल... "
और इसे भी 
"मन तुम्हारे रेशमी अहसास ने ही ले लिया था "
प्रेमबोध की एक और उत्कृष्ट रचना हृदय को प्लावित करती मिलती है-"तू जीत गई, मैं हार गया"! गीत रचयिता ने किस तरह इस हार को सहलाया है जो "जीत" से भी अधिक किसी को प्रिय लग सकती है:
"तुुझसे ही ये दिन सोने-से /तुझसे ही चाँदी सी रातें
तेरे होने से जीवन में /मिलती रहती हैं सौगातें 
रूठी तो भाव अबोला-सा /धीरे से-आ पुचकार गयी "
प्रेमबोध के गीतों से आगे बढ़ते हुए वैयक्तिक तक़ाज़ों से जुड़े गीत मिलते हैं। निज की हानि को मनुष्यता की हानि पर न्योछावर कर देने वाली उदात्त वैयक्तिक भावना  को अभिव्यक्त करनेवाले इन  उपयोगी गीतों की ख़ूबसूरती इस बिना पर क़ायम है कि ये यथार्थ की धरातल पर रचे गए जान पड़ते हैं । "हम काँटों में खिले फूल" और "सलीब को ढोना सीख लिया "! 
"हम काँटों में खिले फूल"  की पंक्तियाँ:
"संबंधों की डोर न तोड़ी, नहीं गांठ पड़ने दी हमने
हिम्मत कभी न हारी हमने लाख डराया हमको तम ने"
"सलीब....... " की पंक्ति:
"संघर्षों की सरकार शैय्या पर सोना सीख लिया "
इसी तरह "घटते देख रहा हूँ" यथार्थ का प्रभावकारी चित्रण है जिसमें पूंजीवादी संस्कृति के आक्रमण से परंपरागत पारिवारिक संघटनों के विघटित होने और शाश्वत मानवीय मूल्यों के तिरोहित होने का दर्द बसा है:
"पूरब को पश्चिम का मंतर रटते देख रहा हूँ"
इस गीत को पढ़ते हुए कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स के "कम्युनिस्ट घोषणापत्र" की बातें याद आ गयीं:
"पूँजीपति वर्ग ने, जहाँ पर उसका पलड़ा भारी हुआ, वहाँ सभी....काव्यात्मक संबंधों का अंत कर दिया। मनुष्य को "स्वभाविक बड़ों"  के साथ बांध रखनेवाले नाना प्रकार के स्थापित संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला;और नग्न स्वार्थ के, "नक़द पैसे कौड़ी" के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच कोई दूसरा संबंध बाक़ी नहीं रहने दिया। धार्मिक श्रद्धा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक, वीरोचित उत्साह, और आंतरिक भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब किताब के बर्फीले पानी में डूबा दिया। मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय मूल्य बना दिया....... "
कवि को इस मर्म को समझना होगा कि अनायास कोई चीज़ नहीं होती। सामाजिक चेतना मूलतः सामाजिक अस्तित्व से पैदा होती है। 
मनोज जैन जी ने साहित्य में फकैती को भी अपनी रचनाओं में शामिल करने से नहीं चूके हैं जो एक स्वस्थ सृजन की ओर इंगित करता है। इसके लिए उन्होंने सही ही व्यंग्य का सहारा लिया है। अब इस एक रचना में मंचीय कवि को उन्होंने धुलाई कर दी:
 करतल ध्वनि से आत्ममुग्ध
मन समझा कितनी दाद मिली
निष्कर्ष निकलकर यह आया
ऐलोवेरा को खाद मिली "
पूरी कविता या गीत आईने की तरह इस फ़र्ज़ी साहित्य को बेनक़ाब करता है। 
आध्यात्मिकता के सम्मान में गीतकार की कमजोर कड़ी कहीं कहीं उभर कर सामने आती है जब तर्कसंगत और विवेकसम्मत बातों से परे जाकर छिटपुट रचनाएँ मिलतीं हैं। आस्था और विवेकसम्मत में एक ही चीज़ सत्य हो सकती है। चेन कितना भी मज़बूत क्यों न हो अपनी कमजोर कड़ी से मज़बूत नहीं हो सकता। कमजोर कड़ी पर हल्का प्रहार पूरे सीकड़ को तोड़ने के लिए उसी तरह काफ़ी होता है जैसे किसी मज़बूत क़िले को ध्वस्त करने के लिए उसकी अदना सी पिछवाड़े में पड़ी कमजोर दीवारें। एक गीतकार के रूप में मनोज जैन जी से अपेक्षा होगी कि अध्यात्म, संस्कृति, परंपरा या आस्था जैसी भ्रमोत्पादक चीज़ों से बचते हुए अपनी रचनाओं को तर्कसम्मत विचारों की सान पर तेज करते चलें।

गुरुवार, 13 जनवरी 2022

मधुप्रधान के गीत

जब उधार मांगें तो लौटा देता है बनिया : 
मधुप्रधान

                              हम अपनें आत्मीय साथियों के धैर्य की सराहना करते हैं पिछले कुछ सप्ताहों से समूह में हमनें लगातार समालोचना और कृति चर्चा कालम में साथियों की समीक्षाएं आप तक रखी और अपने साथियों को जी भर कर सराहा। 
                                     फिलहाल हम समालोचना के कालम को विराम दे रहे हैं।
आज प्रस्तुत हैं वरिष्ठ नवगीतकार मधुप्रधान जी के नवगीत
                                   मधुप्रधान जी के नवगीतों में शब्द-लय,अर्थ- लय और भाव-लय का त्रिआयामी प्रबन्धन देखने को मिलता है।
आइए पढ़ते हैं,उनके कुछ चर्चित नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ
______

1
अर्घ्य ले हाथ में..
 _________________

अर्घ्य ले हाथ मे 
मैं सुबह से खड़ी 
सूर्य निकला नहीं, दोपहर हो गई ।

वे सुनहरे कथानक कहाँ खो गये
चन्दनी गीत थे आज क्या हो गये
अक्षरा थीं ऋचायें 
मधुर नेह की 
क्या हुआ दर्द की इक लहर हो गई ।

छूटी अमराइयाँ भूले कोकिल बयन 
बिखरे-बिखरे सपन,भीगे भीगे नयन 
दौड़ते -भागते 
हाँफते-हाँफते 
जिन्दगी स्वेद से तर-ब-तर हो गई ।

भोर से शाम तक,शाम से भोर तक 
गाँव की देहरी से क्षितिज छोर तक 
भटकता रहा मन 
कहाँ से कहाँ 
तीन पग बस चले थे उमर हो गई ।
अर्घ्य ले हाथ में 
मैं सुबह से खड़ी 
सूर्य निकला नहीं दोपहर हो गई ।

2

गीत के गाँव में..

गीत के गाँव में
दर्द की छाँव में 
प्रीति की बाँसुरी मैं बजाती रही
याद आती रही गीत गाती रही ।

कामना की नदी का उमड़ना सतत 
चाँद छूने को लहरें मचलने लगीं 
नेह की निर्झरी में कुमुदिनी खिली
थी युगों की उदासी पिघलने लगी 

किन्तु टूटा सपन 
छल गई इक किरन
फिर भी प्रिय वेदना गुनगुनाती रही ।

रेत के घर का बनना बिगड़ना है क्या 
खेल है बस कोई क्या संभाले इसे 
नीर के बुलबुले सा है जीवन क्षणिक 
कौन जाने लहर कब मिटा दे इसे 

जो मिले नेह पल 
भाव -भीने सरल 
रत्न सा मैं संजोती ,सजाती रही 
याद आती रही गुनगुनाती रही ।।

3
कचनारी धूप 
         
मेरे आँगन में 
उतरी है
कोमल सी 
रतनारी धूप ।

नर्म हुये सूरज के तेवर
नयन अधखुले 
अलसाये से 
बाँह छुड़ा कर 
दौड़ गई है 
बिखरी क्यारी-क्यारी धूप ।

जैसे उड़ती 
सोन चिरैया 
आ मुँड़ेर पर 
बैठ गई हो 
कुछ पल रुक कर 
घूम रही है 
घर, आँगन बंसवारी धूप ।

पी से मिल 
लौटी मुग्धा सी 
चहक रही 
कुछ लजा रही 
किस से मन को 
हार गई है 
छुईमुई कचनारी धूप 

4

मौसम के तेवर 
     
बिन बोले बदला करते हैं 
मौसम के तेवर ।

कई दिनों से ठंडा है 
यह लिपा-पुता चूल्हा 
बिन ब्याहे लौटी बारात का 
जैसे हो दूल्हा 

उम्मीदें कच्ची दीवार सी 
ढहती हैं भर-भर । 

बरस रहे बादल, कहते हैं
बरस रहा सोना 
खाली हैं बर्तन ,घर का 
खाली कोना -कोना 

पूस -माघ की सर्दी 
उस पर टपक रहा छप्पर ।

हमरेहू कब दिन बहुरेंगे 
पूछ रही धनिया
जब उधार मांगें तो 
लौटा देता है बनिया 

क्या बेचूँ ,गिरवी रक्खे हैं 
घर के सब जेवर ।

कुछ तो कहो प्रधान
दिखाये सपने बड़े -बड़े 
एक कदम भी बढ़े नहीं
हम तो हैं यहीं पड़े 

पूरी ताकत से हो हाकिम 
तुमको  किसका डर ।

     
परिचय
_________

डाॅ. मधु प्रधान 

जन्मतिथि-20 मार्च, 1948 (पुखरायां-कानपुर)
पति-स्व. राम प्रकाश सक्सेना (एडवोकेट)
पिता-डाॅ. बलराम चरन प्रधान
माता-श्रीमती यशवन्त कुमारी 'यश'
शिक्षा- एम०ए० (हिन्दी) बी०एड०, एम०बी०ई०एच० त्रिवर्षीय चिकित्सा डिप्लोमा 
कार्यक्षेत्र- गीत, छंदमुक्त, गजल और मुक्तक दोहे आदि छंदों में निरंतर रचनाशील। इसके अतिरिक्त बाल साहित्य में विशेष रुचि। 
प्रकाशन-'नमन तुम्हें भारत' (राष्ट्रीय गीत संग्रह)। अनेक गीतों, गजलों, बालगीतों तथा बालकथा संग्रहों में रचनाएँ संकलित। आकाशवाणी व दूरदर्शन द्वारा निरंतर प्रसारित। 
सम्मान पुरस्कार- विभिन्न साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत। 
सम्पर्क-3 A/58 -A, आजाद नगर, कानपुर-208002
फोन-09236017666, 08562984895
ईमेल- madhu.pradhan.kanpur@gmail.com

बुधवार, 12 जनवरी 2022

शान्तिसुमन जी के सात नवगीत

1
इन्तजार आँखों का 

आपसदारी , रिश्ते-नाते
                 कहाँ   गये
समझौते  केवल समझौते
                  नये--नये
इन्तजार आँखों का
काला  हिरन   हुआ
खोजे जंगल में जल
प्यासा   कंठ  सुआ


बोल  सहज मीठे-मीठे से
                  कहाँ   गये
अब आएगी   आँधी
कहकर  गयी  हवा
रंग  बचाती   अपना
टहनी  ओट   जवा

परस मुलायम  हाथोंवाले
                    कहाँ   गये
सपनों  में  नींदभरी
अब  केवल   सपने
झीलों की लहरों में
सुरवाले      गहने

लेकर  नाम पुकारे जो दिन
                  कहाँ   .गये
समझौते  केवल समझौते
                   नये--नये ।
          2 
मन  के  पन्ने

पाल रही अपने सुख-दुख को/
अपने ही मन में
नदी, तुम्हारे मन के कितने
               पन्ने नहीं खुले

कितना लिया उधार धूप से
बाकी है अब वर्षा का
कब-कब सूरज की देहरी पर / 
जाकर माथा टेका   
कहने को तो कितने ही थे
तेरे दर्पण में
नदी,तुम्हारे सुख के कपड़े
अब तक नहीं सिले

होती कास-पटेर कहो तो
होता अच्छा  कितना
गुलाबखासों के रस जैसा
मीठा  सचमुच   उतना

तेरा वश सरबस जैसा ही
रहा  लगता  सबको
नदी, तुम्हारे मन के  मरहम
अब तक नहीं  मिले
डूबता नहीं जबतक सूरज
तुम मंत्रों सी  जगती
मन के कितने ही बंधन पर
शंखों सी  हो  दिपती

तुमने चाहा नहींंइसी से
मन --अंचल  सूखा
नदी , तुम्हारे मन के  सपने
हरदम  धुले--धुले ।
       
           नदी के गाँव से

आँखें तुम्हारी नींद में गाती हुई
तुम हँसी के गाँव सेआई हुई लगती

बारिश का पहला सोंधापन
भींगी  खुशबू खेतों की
पैरों के नीचे की मिट्टी
पीड़ा कहती रेतों की
हथेली की लकीरों से बाँधती हुई
तुम खुशी के गाँव से आई हुई लगती

कोई बड़ा सुकून बाँधकर
घर ले आती रोज  बया
यादों में खो जाती  तितली
दिन हो जाता कहीं  नया
हवा छतों की लगती गुनगुनाती हुयी
तुम नदी के गाँव से आई हुई लगती

पहचान कभी बन जाते वे
कितने ही पहर सुखों के
ऐसा  होता जब आते दिन
सयाने  उतने  दुखों के

फूल-पातों की शिंजिनी बजाती हुई 
तुम इमन के गाँव से आई हुई लगती ।
       
 4 
कुछ  सगुन  सा

एक बोल मीठा जो तुमने कहा 
टेसू के फूलों में
               रंग आ  गये

लोट-लोट जाती हैं
धानों की बालियाँ
उतरे हैं झूले हवाओं के
पहनकर  मंगटीका
नाची  हरियालियाँ
मुसकियाँ भरे मुख दिशाओं
 के

पोर-पोर विंधते जो मन ने सहा 
पलकों के झालर में गीत आ गये

साँसों को रोक उड़ा
हवाओं में  तिनका
लगती रिश्तों की गंध उतरने
शाखों में धूपों के
कुछ सगुन सा खनका
मन मैं लगती यादें गमकने

धूप -दिन  आँखों में भींगकर बहा/
खेतों के मेड़ों में  जल समा गये

पीड़ा के जो माने
जानते   वर्षों   से
सावन ने बहुत उसको गाया
सूखे से मौसम में
डहकते  हंसों से
मारूविहाग किसने सुनाया

अपने सपनों की नींदों में नहा/
दिन कल अधजागे से 
             पल थमा गये 
5

लहरें  भटियाली

गाँव गयी तुम हो
     वहाँ से मौसम ले आना

छान धूप को लेती होगी
पैड़ों  की डाली
गाती होगी बड़े यतन से
लहरें   'भटियाली''

सखी की हँसी के
उजलाए  पारिजात लाना

किरन पहले ही रंग देगी
घर के सब  कोने
ओसों की फुहार देखेंगे
चिड़िया के छौने

सूरज उगने के
समय के  हरसिंगार लाना

पके हुए धानों की बाली
कुछ कहती होगी
सुनना गीत हवा के जब भी
वह बहती होगी

घर की नींद--हँसी ,
सुख--सपने  लाना ।
      
 6
नदियाँ  इंगुर की

इतनी सर्द हवाओं  मे भी
खुशबू    का   अहसास
अपना कोई प्यारा  जैसे
इस    पल  अपने  पास

इंंगुर की नदियाँ बहती हों
मन    में , आँखों    में
प्यार  बाँधकर उड़ती चिड़िया
नीली   पाँखों    में

हरियाली   के  दर्पण दीखा
'आनन   ओप    उजास '

इतने  यतन जुगाये तब से
       भीतर के अंकुर  को
छाया वह छतनार समेटेगी
        पीले    पतझड़   को

मैले  कभी न  होंगे वन के
रंगारंग         पलास          
   .

लड़की पहली बार

दिन डूबे आँखों में सपनों
की दुनिया  जगती है
लड़की पहली बार बया के
पंख   पकड़ती  है

होते साँझ सुरंग अँधेरों
की   बनने  लगती
आते-जाते  पाँवों  की
आवाज  पहनने  लगती

बहनेवाली  हवा दुखों के
संग   सुलगती  है
  अपने   सम्बंधों    के
  ताने-बाने   बुनती   है

मन के भीतर भी होती हैं
मरुथल की जगहें
ईंट  पकाती  आगोंवाली
धधक रही   सतहें

कैसी-कैसी  स्मृतियों  की
कीलें    गड़ती    हैं
चुप्पी में भी  बात  पहाड़ी
झरनों सी   झरती   है

कोई  हँसी ,  हवा  का रेला
याद    दिला    देता  
परिचित सा एक रंग,रंग में
गंध    मिला    देता  

खुशियाँ  बीज कहाँ छीटें
अब आगे   परती    है
छोटी एक  प्रार्थना  रचती
बहुत बड़ी    धरती   है।

शान्ति सुमन जी के 7 नवगीत

 


1
 इन्तजार आँखों का 
_______________
आपसदारी , रिश्ते-नाते
                 कहाँ   गये
समझौते  केवल समझौते
                  नये--नये
इन्तजार आँखों का
काला  हिरन   हुआ
खोजे जंगल में जल
प्यासा   कंठ  सुआ


बोल  सहज मीठे-मीठे से
                  कहाँ   गये
अब आएगी   आँधी
कहकर  गयी  हवा
रंग  बचाती   अपना
टहनी  ओट   जवा

परस मुलायम  हाथोंवाले
                    कहाँ   गये
सपनों  में  नींदभरी
अब  केवल   सपने
झीलों की लहरों में
सुरवाले      गहने

लेकर  नाम पुकारे जो दिन
                  कहाँ   .गये
समझौते  केवल समझौते
                   नये--नये ।

2

        मन  के  पन्ने
___________________
पाल रही अपने सुख-दुख को/
अपने ही मन में
नदी, तुम्हारे मन के कितने
               पन्ने नहीं खुले

कितना लिया उधार धूप से
बाकी है अब वर्षा का
कब-कब सूरज की देहरी पर / 
जाकर माथा टेका   

कहने को तो कितने ही थे
तेरे दर्पण में
नदी,तुम्हारे सुख के कपड़े
अब तक नहीं सिले

होती कास-पटेर कहो तो
होता अच्छा  कितना
गुलाबखासों के रस जैसा
  मीठा  सचमुच   उतना

तेरा वश सरबस जैसा ही
         रहा  लगता  सबको
नदी, तुम्हारे मन के  मरहम
         अब तक नहीं  मिले
डूबता नहीं जबतक सूरज
      तुम मंत्रों सी  जगती
मन के कितने ही बंधन पर
     शंखों सी  हो  दिपती

तुमने चाहा नहींंइसी से
        मन --अंचल  सूखा
नदी , तुम्हारे मन के  सपने
         हरदम  धुले--धुले ।
        
3

           नदी के गाँव से
___________________

आँखें तुम्हारी नींद में गाती हुई/
  तुम हँसी के गाँव सेआई हुई लगती

बारिश का पहला सोंधापन
भींगी  खुशबू खेतों की
पैरों के नीचे की मिट्टी
पीड़ा कहती रेतों की
हथेली की लकीरों से बाँधती हुई/ 
 तुम खुशी के गाँव से आई हुई लगती

कोई बड़ा सुकून बाँधकर
घर ले आती रोज  बया
यादों में खो जाती  तितली
दिन हो जाता कहीं  नया
हवा छतों की लगती गुनगुनाती हुयी /
तुम नदी के गाँव से आई हुई लगती

पहचान कभी बन जाते वे
कितने ही पहर सुखों के
ऐसा  होता जब आते दिन
सयाने  उतने  दुखों के

फूल-पातों की शिंजिनी बजाती हुई  /
तुम इमन के गाँव से आई हुई लगती  ।
       कुछ  सगुन  सा

एक बोल मीठा जो तुमने कहा /
टेसू के फूलों में
               रंग आ  गये

लोट-लोट जाती हैं
धानों की बालियाँ
उतरे हैं झूले हवाओं के
पहनकर  मंगटीका
नाची  हरियालियाँ
मुसकियाँ भरे मुख दिशाओं
 के

पोर-पोर विंधते जो मन ने सहा /
पलकों के झालर में गीत  आ गये

साँसों को रोक उड़ा
हवाओं में  तिनका
लगती रिश्तों की गंध उतरने
शाखों में धूपों के
कुछ सगुन सा खनका
मन मैं लगती यादें गमकने

धूप -दिन  आँखों में भींगकर बहा/
खेतों के मेड़ों में  जल समा गये

पीड़ा के जो माने
जानते   वर्षों   से
सावन ने बहुत उसको गाया
सूखे से मौसम में
डहकते  हंसों से
मारूविहाग किसने सुनाया

अपने सपनों की नींदों में नहा/
दिन कल अधजागे से 
             पल थमा गये ।

गाँव गयी तुम हो
     वहाँ से मौसम ले आना

छान धूप को लेती होगी
पैड़ों  की डाली
गाती होगी बड़े यतन से
लहरें   'भटियाली''

सखी की हँसी के
उजलाए  पारिजात लाना

किरन पहले ही रंग देगी
घर के सब  कोने
ओसों की फुहार देखेंगे
चिड़िया के छौने

सूरज उगने के
समय के  हरसिंगार लाना

पके हुए धानों की बाली
कुछ कहती होगी
सुनना गीत हवा के जब भी
वह बहती होगी

घर की नींद--हँसी ,
सुख--सपने  लाना ।

       4
नदियाँ  इंगुर की
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इतनी सर्द हवाओं  मे भी
खुशबू    का   अहसास
अपना कोई प्यारा  जैसे
इस    पल  अपने  पास

इंंगुर की नदियाँ बहती हों
मन    में , आँखों    में
प्यार  बाँधकर उड़ती चिड़िया/
नीली   पाँखों    में

हरियाली   के  दर्पण दीखा
'आनन   ओप    उजास '

इतने  यतन जुगाये तब से
       भीतर के अंकुर  को
छाया वह छतनार समेटेगी
        पीले    पतझड़   को

मैले  कभी न  होंगे वन के
रंगारंग         पलास             .

5
लड़की पहली बार
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दिन डूबे आँखों में सपनों
की दुनिया  जगती है
लड़की पहली बार बया के
पंख   पकड़ती  है

होते साँझ सुरंग अँधेरों
की   बनने  लगती
आते-जाते  पाँवों  की
आवाज  पहनने  लगती

बहनेवाली  हवा दुखों के
संग   सुलगती  है
  अपने   सम्बंधों    के
  ताने-बाने   बुनती   है

मन के भीतर भी होती हैं
मरुथल की जगहें
ईंट  पकाती  आगोंवाली
धधक रही   सतहें

कैसी-कैसी  स्मृतियों  की
कीलें    गड़ती    हैं
चुप्पी में भी  बात  पहाड़ी
झरनों सी   झरती   है

कोई  हँसी ,  हवा  का रेला
याद    दिला    देता  
परिचित सा एक रंग,रंग में
गंध    मिला    देता  

खुशियाँ  बीज कहाँ छीटें
अब आगे   परती    है
छोटी एक  प्रार्थना  रचती
बहुत बड़ी    धरती   है।