सोमवार, 10 जनवरी 2022

आस्था और विश्वास के गीत: मधु सक्सेना


धूप भरकर मुठ्ठियों में ( नवगीत संग्रह )
गीतकार - मनोज जैन 'मधुर'
प्रकाशक - निहितार्थ प्रकाशन 
प्रथम संकरण - 2021 
आवरण चित्र - के. रविन्द्र 
कीमत - 250-/ मात्र 
ISBN: 978-93-84778-04-0 

           "आस्था और विश्वास के गीत" 

प्रकृति के अपने नियम होते हैं।प्रकृति अपनी राह अपनी लय के हिसाब से चलती है। यही लय जब मनुष्यता से जुड़ती है तो अंतर से स्फुटित शब्द उस लय में खुद को स्थापित कर लेती है, ये लय हरेक के हिस्से में नही आती। जो इसमें डूबता है वही इसका एहसास पाता है। खुद को खोकर हासिल होती ये लय, जब गीत बनकर मुखर होती है तो ये प्रकृति भी झूमने लगती है। ऐसे ही गीत लेकर आये है वरिष्ठ गीतकार मनोज जैन 'मधुर' अपने नवगीत संग्रह  "धूप भरकर मुठ्ठियों में" नामक शीर्षक से। 

शुरुआती गीत आपकी आस्था और विश्वास को प्रकट करते हैं।आस्था मनुष्य को विनम्र बनाती है और विश्वास मनुष्य को कृतज्ञता देती है। यही रचनाकार की ऊर्जा है और लेखन की प्रेरणा...
            
           "सारी दुनिया लगे गीतमय 
              जब से मन ने छंद छुआ"
जब मनोज ये कहते है तो पाठक भी इन छंदों के रसों में गोते लगाने लगते हैं। 

गीत...जीवन की तरह एक राह पर नही चलते...जहाँ उसकी जरूरत है स्वतः पहुंचकर अपना प्रकाश फैलाते है। गीत का दीपक अंतर से जलता है और विराट को रोशनी से भर देता है। गीत सिर्फ रसानुभूति के वाहक नहीं बल्कि समय और परिस्थिति के अनुसार बदलते तेवर भी हैं। मनोज जैन 'मधुर'  ऐसे ही गीतकार है जो अपनी वैचारिकता को लिये हुए व्याप्त अव्यवस्था को ललकारते है, उस पर प्रहार करते है, आडम्बरों से बचाते है और मेहनतकशों को सम्मान देते है। 
देश के अन्नदाताओं की दयनीय स्थिति, जिसमें आत्महत्या भी शामिल है, ने मनोज को अंदर तक झकझोर दिया; किसानों पर मनोज की कलम कुछ इस तरह चली...
     "आशाएं बोता है 
      चिंताएं ढोता है 
      मुस्कानें गिरवी रख 
      जीवन भर रोता है।" 

उनके गीत... विधान की सीमाओं में रहते हुए भी अपने चिंतन, विचार और भाव से पाठक को अपना साझेदार बना लेते हैं। आम आदमी के प्रश्न, दुःख और बेचैनी इनके गीतों में स्वतः ही आ गई है। 
गीत...गीतकार की परख और वातावरण का आईना होते हैं। उनके गीत 'कैसा यह देश'  में से  उदाहरण देखें और महसूस करें -
    "चारों तरफ अराजकता है 
     कैसा यह परिवेश है, 
     कैसा यह देश 
     खुले आम हत्या करती है 
     टोपी, खाकी वर्दी 
     नेता, अफसर, बाबू  
     सबकी सहना गुंडा गर्दी 
     लोकतंत्र में पूजे जाते 
     ऐसे कई विशेष..." 

इसी गीत की अगली पंक्ति में जलता हुआ सत्य दिखाने का प्रयास करते हुए - 
             "दर्शक बनकर देखा करते 
           ब्रह्मा, विष्णु, महेश..." 

'हमें चाहिए, हम एक रहे'  
ये कहते हुए मनोज समस्या के हल की भी बात करते है साथ ही सवाल के साथ जवाब भी रखते है।
गीत...अब कोमल शब्दों के पर्याय नही रह गए। समय के साथ गीतों ने अपनी भाषा एवम् परिभाषा को भी बदला है। सिर्फ रस ही नहीं अब के गीतों में तंज, ललकार और प्रहार भी शामिल हुए हैं।
मनोज के गीतों में नई कविता के तेवर तो हैं ही साथ ही इन्होंने गीत के विधान को भी संभाल कर रखा हुआ है। यानि स्वतंत्र दिखते हुए भी अपनी हद को पार नहीं किया। विस्तार में उन्मुक्त विचारों का सम्प्रेषण बेहद सरल है, अपनी सीमाओं में रहकर शब्दों की जादूगरी से गीतों में ऐसा प्रभाव पैदा किया कि पूरा साहित्य जगत जगमगा उठा। 
मनोज के व्यंग्य और तंज की एक बानगी हाज़िर है -
    "आँख को सपने दिखाए 
     प्यास को पानी 
     इस तरह होती रही 
     रोज़ मनमानी 
     शब्द भर टपका दिए 
     होंठ से आभार के..." 

साहित्य की हर विधा में अन्य बदलाव के साथ भाषा में भी बदलाव दिखे। नवगीतकारों ने अपने गीतों में भरपूर नए प्रयोग किये जिसके चलते प्रतीकों, बिंबों ने भी अपनी चाल बदली।
सीधे हृदय तक पहुंचने वाले शब्द स्वतः जुड़ते गए...
  
आम आदमी की मजबूरी और मजबूती को व्यक्त करती ये पंक्तियां पाठक के सामने वो दृश्य उत्पन्न करती हैं जहां विरले ही पहुंच पाते हैं - 
         "हम ट्यूब नही डनलप के 
       जो प्रेशर से फट जायेगे"
         *       *        *
     "ठोस आधार देते भवन के लिए 
       नींव की ईंट हैं हम कंगूरे नहीं"
       *        *         * 
       "बात माने भला क्यों बिना तर्क के 
      सिर्फ उस्ताद है हम जमूरे नहीं"   
          *        *         *    
       "फिर बहेलिया अच्छे दिन के 
       दाने डाल गया..."

इसीतरह के गीतो में आम आदमी की भावना को उकेरा गया है।कमज़ोर की आवाज़ बनना और उनके पक्ष में खड़े रहना मनुष्यता की निशानी है और ये गीत मनुष्य के मन के साथ-साथ चलते हैं। 

'बोल कबीरा बोल' जैसे  कई गीतों में तुलसी, सूर और कबीर के साथ ही अन्य कवियों के  प्रभाव भी स्पष्ट दिखते हैं। लिहाज़ा अपने पूर्वजों के लेखन को भी सम्मान दिया है। 
प्रेम और करुणा को ज़िंदा रखते हुए, गलत के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाते है, ये गीत पाठक के मन को छूकर अपने गीत बन जाते है एक उदाहरण -
              "तुलसी, सूर, कबीरा, रहिमन 
               पंत, निराला अपने नायक 
                सब दर्दों के हरकारे थे 
                हम भी है दर्दों के गायक" 

अपने गीतों के माध्यम से रिश्तों, त्योहारों, स्थानों पर भी मनोज ने अपनी कलम चलाई, खुशबू बिखेरी

स्वर्णिम किरण धरा पर उतरी, भर मुस्काई, दीवाली आई' कहकर दीपोत्सव का स्वागत किया और   'भीम बेटका का हर पत्थर कहता एक कहानी आदिमानव ने छेड़ी अपनी अमिट निशानी' कहकर पत्थरों के हृदय की भाषा को शब्द दे दिए। गीत लुभाते हैं। 

'धूप भरकर मुठ्ठियों में' गीत संग्रह ने लगभग हर विषय को अपने में समेट लिया है क्योंकि गीत और गीतकार अखिल ब्रह्माण्ड को अलग दृष्टि से देखते हैं, आंकते हैं, सुनते हैं और निष्कर्ष निकाल कर उपदेश और सीख देते हुए रास्ता भी दिखाते हैं। 

प्रेम गीतों में भी मनोज ने बाजी मारी है और पुराने बंधनो को तोड़ा है - 
'हो गई है आज हमसे एक मीठी भूल, 
धर दिए अधर पर चुम्बनों के फूल' 
कहकर ढकी-छुपी बात को उजागर करने का साहस किया है।
इस साहस की अनुशंसा करती हूँ। 

शीर्षक गीत में समग्र गीतों की मूल भावना आ गई है। प्रेम ही सब कुछ है। नफरत दुनिया को तबाह कर देगी। आज से और अभी से शुरुआत करने की अपील करते हुए मनोज लिखते है - 
   "हर घड़ी शुभ है चलो मिल 
       नफरतों की गाँठ खोले"
         धूप भरकर मुठ्ठियों में 
        द्वेष का तम - तोम खोलें" 

लोक संस्कृति का भी इन गीतों में प्रभाव दिखता है। मुहावरे और लोकोक्तियां गीतों में जड़े नगीने के समान हैं। जैसे 'हाथ पर सरसों जमाना', तिल का ताड़, खरी-खरी, गिद्दों सी दृष्टि, गाल बजाना, जिस डाल पर बैठना उसी को काटना आदि आदि 

कुल मिलाकर गीतों की भावना शुद्ध और मानव कल्याण की है। लय के साथ पाठक के चेतन - अवचेतन में पहुंचने की योग्यता रखते है, बस कहीं - कहीं उपदेश और सीख की अधिकता उबाऊ लगती है। उनमें दोहराव खटकता है। आशा है इस पर भी ध्यान जाएगा गीतकार का...। 

अस्सी गीतों को अपने मे समेटे इस संग्रह की भूमिका 
वरिष्ठ साहित्यकारों ने लिखी है। पहली भूमिका आदरणीय पंकज परिमल ने बहुत स्नेह, ध्यान और विस्तार से लिखी है। कुमार रविन्द्र ने - 'बात इतनी सी, याने बात पूरी और सही' कहकर इन गीतों पर  अपनी सहमति की मुहर लगायी। आज दोनोें महानुभाव हमारे बीच भौतिक रूप से नही हैं पर उनकी ये अमूल्य धरोहर उनके आशीर्वचनों के रूप में गीतकारों और पाठकों को सदा राह दिखाएंगी। सादर नमन उन्हें... 

प्रोफेसर रामेश्वर मिश्र 'पंकज'  ने  'अध्यत्मिक चेतना से सम्पन्न समर्थ कवि के गीत' कहकर अपनी शुभकामना से लाभान्वित किया। आदरणीय राजेन्द्र गौतम  ने 'नवगीत का जनपक्षधर तेवर' बताकर कवि का हौसला बढ़ाया है। राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक कैलाश चन्द्र पंत ने गर्व से कहा - 'बाजारवाद के संकट में सचेत कवि स्वर' बताकर गीतों को एक नई दृष्टि दी।
सम्माननीय माहेश्वर तिवारी ने  'सहज सम्प्रेषणीयता के कवि कहकर कवि को हाथ पकड़ कर मानो समीप बिठा लिया हो। 
सभी के आशीर्वचन और स्नेह से अमीर हुए कवि के लिए दुनिया की हर वस्तु तुच्छ है। 

आत्मकथ्य में कवि ने संग्रह बनने की बाधाओं और सफलता के साथ सभी अग्रजों, सहयोगियों और पाठकों का नम्रता से  आभार व्यक्त किया। 

'धूप भरकर मुठ्ठियों में' नवगीत संग्रह का कवर पेज विषयानुकूल है। छपाई स्पष्ट और सुंदर है। 

हम कह सकते है कि मनोज जैन 'मधुर'  के ये नवगीत पाठक को आकर्षित करेगें, हौसला देंगे और और नव चेतना से सराबोर करेगें। उनकी साहित्यिक यात्रा के साथ मानसिक चेतना अपना विस्तार पाती रहे। वो लिखते रहे...हम अभिभूत होते रहें...यही कामना करते हुए, गोपालदास नीरज की इन पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करती हूँ और दिल से दुआ देती हूँ - 

'मस्तक पर आकाश उठाये, 
धरती बाँधे पाँवों से!
तुम निकलो जिन गाँवों से, 
सूरज निकले उन गाँवों से!!'
                 ( नीरज )
                                 - मधु सक्सेना 

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2 टिप्‍पणियां:

  1. Madhu ji, kaee baar mool pustak se zydada aanad aap kee samiksha padhne me aata hai - atah ek baar fir ek pyaree samiksha ke liye saadhuwaad - aur manoj jain jee ko ek khoobsooat geet maala ke liye bhee dheron shubhakmanae aur badhaee

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  2. अच्छी समीक्षा है यह।मनोज जी को बधाइयां

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