सोमवार, 17 जनवरी 2022

कृति चर्चा में भगवान प्रसाद सिन्हा : प्रस्तुति वागर्थ


मनोज जैन की पुस्तक "धूप भरकर मुट्ठियों में" अपने नाम से ही बहुत कुछ कह जाती है। बहुत कुछ से मेरा आशय इस नाम में नवगीत का वह चेहरा उभरता है जो सामान्य जीवन और उसके सरोकारों का चेहरा होता है। मुट्ठियाँ शब्द ही जन संघर्ष के जुझारू पन का विंब प्रस्तुत करतीं हैं। यह जितना पुराना विंब है उतना ही टटका, तरोताजा भी है। अपने नैरंतर्य को बनाए हुए है।  अंधकार को चीरनेवाला प्रकृति का यह अनुपम उपहार धूप का विंब सार्वभौमिकता, अधिकार और हिस्से का विंब खड़ा करता है। इसलिए "अपने हिस्से का धूप" या आँगन का धूप या मुट्ठियों में भरा धूप सब उस सत्य को सौंदर्यीभूत करता है जिसे जन सदियों से अपहृत सार्वभौमिकता  में अपने हिस्से की तलाश में गिल्गमेष के पाताल से लेकर चाँद तारों के आसमान तक एक करता है। इस उन्वान के विस्तार में ही इस पुस्तक में प्रस्तुत मनोज जैन द्वारा रचित नवगीत या गीत हैं। 
नवगीत के साहित्यिक पक्ष के बारीकियों और सूक्ष्मताओं पर कुछ नहीं लिख सकता। वह किसी सिद्धहस्त समीक्षकों के दायरे की चीज़ है। मैं अपनी भूमिका एक पाठक की भूमिका तक सीमित मानता हूँ जब मैं किसी पद्य- गीत, नवगीत, कविता आदि पर कुछ सोचने बैठता हूं। मुझे एक पाठक के रूप में पद्य की वे रचनाएँ भातीं हैं जो जीवन के लिए कोई अर्थ प्रदान करतीं हैं, जो मानवीय सरोकार व संवेदना को स्पर्श करतीं हैं, जो मनोगत भावों के निक्षेप के क्रम में वस्तुनिष्ठ सच्चाई की अवज्ञा नहीं करती, जो पूर्व- स्वीकृत आध्यात्म, संस्कार, परंपरा, रूढ़ के प्रति मोहग्रस्त होकर आस्था के भँवर में फंसी न रहकर उससे निकलने की आकुलता, व्याकुलता, छटपटाहट से गुजरती हुई अजस्र उर्जा का दर्शन कराती हैं और विवेकसम्मत उपसंहार पर पहुँचने की दशा-दिशा दिखाने के प्रयास में जुटी मिलतीं हैं। प्रेम, प्रकृति, भाव की पीठिका में लिखी रचनाएँ भी भातीं हैं अगर वे अतिरंजनाओं की शिकार न हो, जीवन-मूल्यों की क़ीमत पर न हों और यथार्थ की धरातल का अक्स उनमें कहीं न कहीं पोशीदा रूप में ही सही किंचित मात्र भी  दिख जातीं हैं। 
फिर भी, इन सबके साथ अगर उनमें अपरिहार्य कलात्मकता न हो, साहित्य का वह स्वभाविक रस विधान न हो जो रचनातत्व में प्रभाव पैदा करने के लिए, उनमें प्रभावोत्पादकता का सृजन के लिए अनिवार्य है तो ऊपर्युक्त धरातल पर रची गई रचना कितना भी उत्कृष्ट क्यों न हो मेरे मर्म का स्पर्श नहीं करतीं। मुझे अच्छी नहीं लगतीं भले ही वे कितनी भी प्रगतिवादी, जनवादी, क्रांतिवादी, जनपक्षी, प्रतिरोधी क्यों न हो। 
 मनोज जैन जी की "धूप भरकर मुट्ठियों में" ने रचना के प्रति मेरे ऑब्सेशन की समस्याओं का बहुत हद तक समाधान किया है। इन्हें पढ़कर न सिर्फ़ मुतमईन हुआ जा सकता है बल्कि अगर आपकी दृष्टि कुछ अधिक ग्राह्य करने की ओर प्रवृत्त है तो उससे प्रेरित भी हुआ जा सकता है, दृष्टि अपना विस्तार भी पा सकती है। 
"उर्ध्वगामी बोध दे जो वह पयंबर है" तथा "बूँद का मतलब समंदर है" और भी , "ठोस आधार देते भवन के लिए/ नींव की ईंट हैं हम कंगूरे नहीं" आदि कतिपय पंक्तियाँ विचार की सतह पर उतरती हैं। रूढ़ को धिक्कारती यह एक पंक्ति "फ़ैसला छोड़िये न्याय के हाथ में" गीत का कितना सुंदर समाहार करती है :
"बात मानें भला क्यों बिना तर्क़ के 
सिर्फ़ उस्ताद हैं, हम जमूरे नहीं"
 "छंदों का ककहरा" में वर्तमान जीवन-दशा के यथार्थ को निर्ममता के साथ प्रस्तुत कर मनोज जैन जी ने निश्चय ही साहस का परिचय दिया है :
"लीक छोड़कर चलनेवाला/ साहस सोया है 
काटा हमने वो ही जो / पहले से बोया है"! 
इस यथार्थ के प्रति वह तटस्थ नहीं रहते। वह हस्तक्षेप के कर्तव्यबोध से कन्नी नहीं कटाते जब पंक्ति को पूरा करते हुए कहते हैं:
" दृढ़ इच्छा के पथ में कोई पर्वत अड़ा नहीं... 
... क़दम हमारा चोटी छूने अब तक बढ़ा नहीं"
आगे के गीतों में इस परिवर्तनबोधीय चेतना का प्रकटीकरण देखिए जो निस्संदेह क़ाबिलेदाद है ! यह एक ललकार भी है, ओज और उर्जस्विता का वेग है । "लीक से हटके" गीत में इसके उदाहरण को देखें:
"करना होगा सृजन वंधुवर! 
हमें लीक से हटके
छंदों में हो आग समय की 
थोड़ा सा हो पानी... (द्वंद्वात्मक संतुलन की मांग की पूर्ति ही स्वस्थ नवोन्मेष के पैदा करती है) 
 "शोषक, शोषण का विरोध जो करें निरंतर डटके.... 
...... अंधकार जो करे तिरोहित विंब रचे कुछ टटके"
ये जनवादी क्रातिवादी पंक्तियाँ हैं जो समाज को बदलने की लड़ाई में युद्धरत आम आदमी को निश्चय ही बल देंगी और इस संघर्ष में हिरावल की भूमिका में रहनेवाले किसी भी पाठक के दिल को छूने का सामर्थ्य रखतीं हैं।   "लीक से हटके" क्रांतिवादी तत्वों का सार अपने में समेटे है।
यथार्थ को संबोधित करते हुए कई गीत हैं। "फँसते हैं फंदों मे" जहाँ लोकतंत्र में जन की दशा का मर्मस्पर्शी विवरण है वहीं "सोया है जो तन में" जन चेतना को उभारने का ललकार है! 
सबसे स्पृहणीय रचना है पिछले साल भर से चलनेवाले किसान आंदोलन के पक्ष में खड़ी ताक़तों के लिए "जय बोलो एक बार"! इस गीत की दो पंक्ति ने मेरा जबरदस्त ध्यान खींचा एक, " गूँज रहा जंगल में स्वर जैसे भील का"। इसमें गीतकार का वास्तविक जन के प्रति प्रतिबद्धता की छवि अंकित होती दिखाई देती है । "भील का स्वर" वह स्वर है जो झारग्राम, कालाहांडी से लेकर बस्तर से लेकर गढ़चिरौली और झाबुआ तक जड़ जल जंगल ज़मीन के लिए उठते रहे हैं और सत्ता के संगीनों और बंदूक की नली से रक्तरंजित होते रहे हैं फिर भी दबे नहीं हैं। किसानों की दशा की पृष्ठभूमि में लिखे इस गीत की अंतिम पंक्ति "पहुँचा
दे किरणें घर घर विज्ञान की" अपने आप में मानीखेज है जो यह बताने के लिए काफ़ी है कि अवैज्ञानिक चेतना (रूढ़िवादी मान्यताओं, आध्यात्मिक आस्थाओं और जड़ीभूत परंपराओं) में डूबी किसानों की ज़िंदगी शोषित होते रहने के लिए अभिशप्त बनी हुई है। 
डॉक्टर राम विलास शर्मा ने "मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य"  में एक ज़गह लिखा है कि हर कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है, नवाचारी होता है। वहीं उन्होंने तुरत रेखांकित किया कि फिर भी यह आवश्यक नहीं है कि वह प्रगतिवादी ही हो। उसके सौंदर्य दृष्टि कोण को परखने के बाद ही तय किया जा सकता है कि उसका साहित्य कितना प्रगति के पक्ष में है या प्रगति के विपक्ष में यथास्थितिवादी परंपरा के साथ जड़ीभूत है। मनोज जैन ने अपने इस गीत के ज़रिए बताने की ज़हमत की है कि उनका साहित्यिक सौंदर्यबोध कहाँ खड़ा है। उनका साहित्य जन साधारण की वस्तु बनने के हक़ में है भी कि नहीं है । पुस्तक में  दो गीतों  ने मनोज जैन जी के सौंदर्यवादी दृष्टिकोण को समझने में बड़ी मदद की और
मुझे कुछ अधिक ही प्रभावित किया। एक गीत "यह पथ मेरा" और आगे थोड़ा प्रकारांतर शीर्षक दिया हुआ "यह पथ मेरा चुना हुआ"! दोनों गीत एक जैसे ही हैं  कुछ फ़र्क़ के साथ। लेकिन बस एक शब्द का फ़र्क़ दोनों के अंतर की गुणवत्ता में " मात्रा या परिमाण में वृद्धि के साथ एक अवस्था से दूसरी अवस्था में छलांग लगा देने जैसी " वृद्धि कर देती है। मैं अपने अन्य सहपाठकों पर इसके मूल्यांकन को समझने की स्वायत्तता देता हूँ। दोनों में दर्ज़ पंक्तियों को क्रमशः पेश करता हूँ:
ढूंढ रहा हूँ मैं साखी को 
तुलसी* वाली परिपाटी को (यह पथ मेरा) 
और दूसरे "यह पथ मेरा चुना हुआ है" में इन्हीं पंक्तियों को देखिये:
ढूंढ रहा हूँ मैं साखी को 
कबिरा* वाली परिपाटी को.... 
मेरी सौंदर्यबोधीय दृष्टि में दूसरे क्रम में रखी पंक्तियाँ मनोज जैन के वास्तविक साहित्यिक पक्ष को स्पष्ट करता है। अपने इस पक्ष को अपने एक और गीत में बहुत अधिक स्पष्ट किया है वह गीत है "हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के"।इस में सत्ता या शासन के प्रतिगामी आदेश व इच्छाओं की खुली चुनौती उनके अभ्यंतर की प्रगतिवादी जनपक्षीय कामनाओं को प्रकट करने में कोई हिचक नहीं दिखाकर गीत व नवगीत के बारीक फ़र्क़ के तहत नवगीत की परिभाषा के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं :
"उजियारा तुमने फैलाया/तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो/हमने भी पर्वत काटे हैं 
हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के /जो प्रेशर से फट जाएंगे
है सोच हमारी ब्यौहारिक/परवाह न जंतर मंतर की
लोहू है गरम शिराओं का / उर्वरा भूमि है अंतर की 
संदेश नहीं विज्ञापन के /जो बिना सुने कट जाएंगे"  ! 
टटके विंब की अपेक्षित वांछनाएं भी इन पंक्तियों में पूरी होतीं हैं। परंपरा की धरातल पर परंपरा के विकास
इसके अतिरिक्त, जनपक्षीय आंदोलन के विश्वव्यापी संघर्ष का जो सबसे ज्वलंत मुद्दों में से एक पर्यावरण एवं धरोहर की संरक्षा और सुरक्षा का सवाल इस नवगीतकार के दृष्टि से ओझल नहीं है जिसकी सबसे बड़ी मार हमारे देश की आदिवासी जनता और महानगरों के निवासी  झेलते दिख रहे वहीं दूसरी ओर देश के अंदर के क्रोनीकैपिटलिस्ट और बाहर के विकसित साम्राज्यवादी देश इसके शोषण के ज़रिए सबसे अधिक सुपर मुनाफ़ा बटोर रहे हैं। पर्यावरण बोध  और धरोहर के प्रति संवेदना को संबोधित करती उनकी दो अच्छी रचना, "धरती का रस" और "भीम बेटका" नवगीत के सांचे में ढालकर मनोज जैन जी ने प्रस्तुत की है । हाँ थोड़ा इसकी ज़िम्मेदारी तय करने में मनोज जैन जी ने भारी चूक की है। असली विनाशकारी तत्वों सरमायेदार तबक़ा, उनकी हुकूमतें और दलाल तथा ग्लोबल कैपिटल एम्पायर को छोड़कर जो विक्टिम हैं जनसाधारण उन्हीं पर पर्यावरण के विनाश और बचाने की चिंता डाल रहे हैं:
"कंकरीट का जंगल रोपा/ काटी हरियाली
ख़ुद की क़िस्मत फोड़ बावरा/ठोक रहा ताली
काश! समझ में इसके आती /अपनी नादानी 
"पूजा इंदर की मत करना/बिरवे रोप हरे 
सीख सयानी समझ/  इसी ने पूरन काज करे
धरती माँ को चल पहना दे /चूनरिया धानी 
यह द्रष्टव्य है कि पर्यावरण की रक्षा ऊपर से होगी नीचे तो रक्षक ख़ुद ही बैठे हैं। इसलिए संबोधन महाप्रभु-संवर्ग को करना है। "भीम बेटका " पर्यावरणीय धरोहर के प्रति गीतकार की संवेदना का प्रतिनिधि गीत है :
"कुशल हाथ ने सख़्त शिला की यहाँ चीर दी छाती 
प्रहरी बनकर पेड़ खड़े हैं बचा रहे हैं थाती.... "
जनसरोकार के रचयिताओं से प्रायः यह अपेक्षा रखी जाती है कि वे अगर इतर रचनाएं करते हैं तो जनअपेक्षाओं की अवहेलना होती है या वे बेहतर रचना शायद ही कर सकें या क्यों करें। लेकिन श्रेष्ठता तभी मानी जाती है जब विभिन्न रागों, विधाओं और विषयों में भी आपकी सलाहियत चमक उठे। "रसवंती", "उर्वशी", " हारे को हरिनाम " आदि रचनाओं पर जब राष्ट्रकवि दिनकर की राष्ट्रीय तेवर में लिखी रचनाओं की ओजस्विता सवाल के घेरे में आने लगी तब नामवर सिंह ने उनका बचाव करते हुए उपर्युक्त बातों का सार एक मंच से प्रस्तुत किया था। नवगीतकार अगर गीतों, ग़ज़लों, नयी कविता आदि से प्रेरणा ग्रहण करता है तो यह उसकी खूबियों में गिनी जानी चाहिए। समसामयिक, वस्तुनिष्ठ, सामाजिक परिवेश को संबोधित करती रचनाओं के साथ अगर मनोभावों, वैयक्तिक आग्रहों, संवेदनाओं के निजत्व को भी साहित्य में कोई रचयिता साथ लेकर चलता है तो इसे उसके बहुआयाम के परिचायक के रूप में देखना चाहिए। मनोज जैन की कतिपय रचनाओं में मैंने इन आदर्श मानवीय गुणों को उभरते देखा है जिसमें भावबोध, प्रेमबोध , सामान्य मानवीयता के अक्स प्रधानता प्राप्त किये हुए हैं। 
"चलो शपथ लें" गीत की इन पंक्तियों को देखें:
"...विषमता न रौदें पकड़ कर किसी को
नहीं वक्ष पर मूँग कोई दलेगा..... "
और भी 
"जड़ों से उखाड़ें मरी मान्यताएँ/मनुज सुप्त हैं जो उन्हें अब जगाएं "
इन पंक्तियों को भी देखें 
" नहीं हो निराशा कहीं भी धरा पर
नई आस का एक सूरज उगाएं.. "
विराट विंबों तथा रसयुक्त काव्य भाषा के साथ "काश! हम होते " गीत भी तसव्वुरात की परछाईयों के माध्यम से मानवीय संवेदना का पाठ पढ़ाते हैं। 
इसी क्रम में प्रेम बोध के दो अनुपम गीत "याद रखना हमारी मुलाक़ात को" एवं  "चुंबनों के फूल" हमने चुने जो दिल को वाक़ई आशनाई में ले आते हैं लेकिन यथार्थ की मर्यादा से बाहर नहीं जाते इस दर्शन को परखें:
पूर्णता ना सही रिक्तता ना रही 
बात रह ही गई आज तक अनकही 
नाम क्या दें भला इस सौगात को
चाह थोड़ी इधर चाह थोड़ी उधर 
बंद आँखों से देखे गुलाबी अधर 
सब्र के बाँध टूटे सभी रात के 
 "चुंबनों के फूल" की इस एक पंक्ति में छिपी पराकाष्ठा को परखिये:
"धर दिए हमने अधर पर चुंबनों के फूल... "
और इसे भी 
"मन तुम्हारे रेशमी अहसास ने ही ले लिया था "
प्रेमबोध की एक और उत्कृष्ट रचना हृदय को प्लावित करती मिलती है-"तू जीत गई, मैं हार गया"! गीत रचयिता ने किस तरह इस हार को सहलाया है जो "जीत" से भी अधिक किसी को प्रिय लग सकती है:
"तुुझसे ही ये दिन सोने-से /तुझसे ही चाँदी सी रातें
तेरे होने से जीवन में /मिलती रहती हैं सौगातें 
रूठी तो भाव अबोला-सा /धीरे से-आ पुचकार गयी "
प्रेमबोध के गीतों से आगे बढ़ते हुए वैयक्तिक तक़ाज़ों से जुड़े गीत मिलते हैं। निज की हानि को मनुष्यता की हानि पर न्योछावर कर देने वाली उदात्त वैयक्तिक भावना  को अभिव्यक्त करनेवाले इन  उपयोगी गीतों की ख़ूबसूरती इस बिना पर क़ायम है कि ये यथार्थ की धरातल पर रचे गए जान पड़ते हैं । "हम काँटों में खिले फूल" और "सलीब को ढोना सीख लिया "! 
"हम काँटों में खिले फूल"  की पंक्तियाँ:
"संबंधों की डोर न तोड़ी, नहीं गांठ पड़ने दी हमने
हिम्मत कभी न हारी हमने लाख डराया हमको तम ने"
"सलीब....... " की पंक्ति:
"संघर्षों की सरकार शैय्या पर सोना सीख लिया "
इसी तरह "घटते देख रहा हूँ" यथार्थ का प्रभावकारी चित्रण है जिसमें पूंजीवादी संस्कृति के आक्रमण से परंपरागत पारिवारिक संघटनों के विघटित होने और शाश्वत मानवीय मूल्यों के तिरोहित होने का दर्द बसा है:
"पूरब को पश्चिम का मंतर रटते देख रहा हूँ"
इस गीत को पढ़ते हुए कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स के "कम्युनिस्ट घोषणापत्र" की बातें याद आ गयीं:
"पूँजीपति वर्ग ने, जहाँ पर उसका पलड़ा भारी हुआ, वहाँ सभी....काव्यात्मक संबंधों का अंत कर दिया। मनुष्य को "स्वभाविक बड़ों"  के साथ बांध रखनेवाले नाना प्रकार के स्थापित संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला;और नग्न स्वार्थ के, "नक़द पैसे कौड़ी" के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच कोई दूसरा संबंध बाक़ी नहीं रहने दिया। धार्मिक श्रद्धा के स्वर्गोपम आनंदातिरेक, वीरोचित उत्साह, और आंतरिक भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब किताब के बर्फीले पानी में डूबा दिया। मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय मूल्य बना दिया....... "
कवि को इस मर्म को समझना होगा कि अनायास कोई चीज़ नहीं होती। सामाजिक चेतना मूलतः सामाजिक अस्तित्व से पैदा होती है। 
मनोज जैन जी ने साहित्य में फकैती को भी अपनी रचनाओं में शामिल करने से नहीं चूके हैं जो एक स्वस्थ सृजन की ओर इंगित करता है। इसके लिए उन्होंने सही ही व्यंग्य का सहारा लिया है। अब इस एक रचना में मंचीय कवि को उन्होंने धुलाई कर दी:
 करतल ध्वनि से आत्ममुग्ध
मन समझा कितनी दाद मिली
निष्कर्ष निकलकर यह आया
ऐलोवेरा को खाद मिली "
पूरी कविता या गीत आईने की तरह इस फ़र्ज़ी साहित्य को बेनक़ाब करता है। 
आध्यात्मिकता के सम्मान में गीतकार की कमजोर कड़ी कहीं कहीं उभर कर सामने आती है जब तर्कसंगत और विवेकसम्मत बातों से परे जाकर छिटपुट रचनाएँ मिलतीं हैं। आस्था और विवेकसम्मत में एक ही चीज़ सत्य हो सकती है। चेन कितना भी मज़बूत क्यों न हो अपनी कमजोर कड़ी से मज़बूत नहीं हो सकता। कमजोर कड़ी पर हल्का प्रहार पूरे सीकड़ को तोड़ने के लिए उसी तरह काफ़ी होता है जैसे किसी मज़बूत क़िले को ध्वस्त करने के लिए उसकी अदना सी पिछवाड़े में पड़ी कमजोर दीवारें। एक गीतकार के रूप में मनोज जैन जी से अपेक्षा होगी कि अध्यात्म, संस्कृति, परंपरा या आस्था जैसी भ्रमोत्पादक चीज़ों से बचते हुए अपनी रचनाओं को तर्कसम्मत विचारों की सान पर तेज करते चलें।

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