वागर्थ प्रस्तुत करता है
प्रख्यात साहित्यकार सौरभ पाण्डेय जी के
पाँच गीत
1
किन्तु इनका क्या करें ?
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खिड़कियों में घन बरसते
द्वार पर पुरवा हवा..
पाँच-तारी चाशनी में पग रहे
सपने रवा !
किन्तु इनका क्या करें ?
क्या पता आये न बिजली
देखना माचिस कहाँ है
फैलता पानी सड़क का
मूसता चौखट जहाँ है
सिपसिपाती चाह ले
डूबा-मताया घुस रहा है
हक जमाता है धनी-सा
जो न सोचे.. ’क्या यहाँ है ?’
बंद दरवाजा, खुला बिस्तर,
पड़ी है कुछ दवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
मात्र पद्धतियाँ दिखीं
प्रेरक कहाँ सिद्धांत कोई
क्या करे मंथन,
विचारों में उलझ उद्भ्रान्त कोई
चढ़ रहा बाज़ार
फिर भी क्यों टपकता है पसीना ?
सूचकांकों के गणित में
पिट रहा है क्लान्त कोई
एक नचिकेता नहीं
लेकिन कई वाजश्रवा
किन्तु इनका क्या करें ?
सिमसिमी-सी मोमबत्ती
एक कोने में पड़ी है
पेट-मन के बीच, पर,
खूँटी बड़ी गहरी गड़ी है
उठ रही
जब-तब लहर-सी
तर्जनी की चेतना से,
ताड़ती है आँख जिसको
देह-बन्धन की कड़ी है
फिर दिखी है रात जागी
या बजा है फिर सवा..
किन्तु इनका क्या करें ?
2
देहात में, सिवान से
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क्या हासिल हर किये-धरे का ?
गुमसी रातें
बोझिल भोर !
हर मुट्ठी जब कसी हुई है
कोई कितना करे प्रयास
आँसू चाहे उमड़-घुमड़ लें
मत छलकें पर
बनके आस
सूख निवाला
फँसा हलक में
’पानी ! पानी !’ तो हो शोर..
इच्छाओं के धुआँ-धुआँ में
किर्ची-मिर्ची होती आँख
किश्तें अब भी बची हुई हैं
रीते कैसे रोती आँख
पड़ा खेत इस कदर डराता
माँगे काया
रस्सी-डोर !
नये ढंग के शासक आये
अजब-ग़ज़ब इनका अंदाज़
रगड़-रगड़ कर, छुरी उलट कर
गरदन रेतें
बिन आवाज़
मगर सदा हम बकरे की माँ
कभी कलपते
कभी विभोर !
3
अधखोले, आँखों को मलता सूरज आया
देखो, क्या उन आँखों में
संकल्प जगा है?
कुहा-कुहा आकाश दिखे
व्यवहार-जगत का
गहन निराशा
हर बढ़ने के साथ चढ़ी है
ठिठुर रहा व्यापार चलन में
आया कैसे?
तिर्यक जाने की हर संभव
ललक बढ़ी है
ऐसे में विश्वास जगाता आया जो भी
औंधे अनगढ़ काल-खण्ड में
वही सगा है।
हवा चपल है,
पाले की संगत में बहकी
उसके पग का अटपटपन
भी तो साल रहा
ऐसे में फिर
तर्क भला क्या समझा पाये?
फिर था जो कुछ बोना-बिनना
तत्काल रहा
सिकुड़ा-सा उत्साह कहाँ तो चुप बैठा था
बदल रहे इस मौसम में
चुपचाप लगा है।
4
फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में
कुम्हलाये-से दिन !
सूरज अनमन अगर पड़ा था..
जानो- दिन कैसे तारी थे..
फिर से मौसम खुला-खुला है..
चलो, गये..
जो दिन भारी थे..
सजी धरा
भर किरन माँग में
धूल नहीं किन-किन !
नुक्कड़ पर फिर
खुले आम
इक ’गली’
’चौक’ से मिलने आयी
अखबारों की बहस बहक कर
खिड़की-पर्दे सिलने आयी
चाय सुड़कती अदरक वाली
चर्चा हुई कठिन..
हालत क्या थी
कठुआए थे
मरुआया तन माघ-पूसता
कुनमुन करते उन पिल्लों का
जीवन तक था प्राण चूसता !
वहीं पसर कुतिया-अम्मा ने
चैन लिये हैं बिन... !
पंचांगों में उत्तर ढूँढें,
किन्तु, पता क्या,
कहाँ लिखा क्या ?
’हर-हर गंगे’ के नारों में
सबकुछ नीचे बहा दिखा क्या ?
फिरभी तिल-गुड़ के छूने को
सिक्कों में मत गिन.
5
आग जला कर जग-जगती की
धूनी तज कर
साँसें लेलें !
खप्पर का तो सुख नश्वर है
चलो मसानी, रोटी बेलें !!
जगत प्रबल है दायित्वों का
और सबलतम
इसकी माया
अँधियारे का प्रेम उपट कर
तम से पाटे
किया-कराया
उलझन में चल
काया जोतें
माया का भरमाया झेलें !
जस खाते,
तस जीते हैं सब
खाते-जीते
पीते भी हैं
और भभकते औंधेमुँह के
बखत उपासे बीते भी हैं
इन कंधों पर बरतन-बहँगी
लेकर आओ
जग में हेलें !
इस मिट्टी ने जीव जगाया
और सजायी
मिलजुल दुनिया
बहुत अभागे अलग कातते
खुद की तकली,
खुद की पुनिया
कहो निभे क्यों आपसदारी ?
अगर दिखा कुछ..
चाहा लेलें !
सौरभ पाण्डेय
परिचय
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सौरभ पाण्डेय
जन्मतिथि : 3 दिसम्बर 1963
पता : एम-2 / ए-17, एडीए कॉलोनी, नैनी, प्रयागराज - 211008, उप्र, भारत
संपर्क : +91-9919889911
मेल-आइडी : saurabh312@gmail.com
शिक्षा : स्नातक (गणित), कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा, प्रबन्धन में परास्नातक
पुस्तकें व कॉलम :
परों को खोलते हुए शृंखला (सम्पादन),
इकड़ियाँ जेबी से (काव्य-संग्रह),
छंद-मञ्जरी (छन्द-विधान),
गीत-प्रसंग (सम्पादन),
राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन, दूरदर्शन-आकाशवाणी से काव्यपाठ
विधा : गीत-नवगीत, गजल, मुक्तछन्द, शब्द-चित्र, अतुकान्त शैलियाँ, समीक्षा-आलोचनाएँ, सम-सामयिक आलेख आदि.
रचना-भाषा : हिन्दी, भोजपुरी
सम्बद्ध मंच : प्रबन्धन सदस्य, ई-पत्रिका ओपनबुक्सऑनलाइन; सदस्य सलाहकार समिति, अंजुमन (अर्द्धवार्षिक पत्रिका)
सम्मान :
हिन्दी प्रतिभा सम्मान,
अनाममण्डली प्रशंसा-पत्र, काठमाण्डू,
रमेश हठीला शिवना सम्मान,
गीतिकाश्री सम्मान,
रंगवीथिका सम्मान,
साहित्य-सर्जन शिखर सम्मान,
साहित्य शिरोमणि सम्मान, भारतीय साहित्य संस्था,
‘छंद-विशारद’, अखिल भारतीय दिव्य-साहित्य सम्मान .. इत्यादिक
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