रविवार, 23 जनवरी 2022

पवन कुमार के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ


नाम - पवन कुमार
जन्मतिथि-20/07/1991
शिक्षा - स्नातक
लेखन विधा-नवगीत,छंद
साहित्यिक उपलब्धि-विभिन्न पत्रिकाओं तथा साझा संकलन में प्रकाशित रचनाएँ।
पता :-
ग्राम - गनेरा ,पोस्ट-दखिनाँवा ,
तहसील-सिधौली , जनपद-सीतापुर
राज्य-उत्तर प्रदेश
पिनकोड-261303
मोबाइल-6306564979

       
         (1)

||नहीं बदलते तौर-तरीके||
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राजनीति में
नेताओं के
नहीं बदलते तौर-तरीके

सड़कों से
संसद तक देखो
मची हुई है
छीना-झपटी
फूट रही
स्वारथ की लाई
श्रीमंतों की
लारें टपकी
जिन्हें न धेला भर
तमीज है
बना रहे वे
अपनी लीकें

न्याय अमीरों की
झोली में
नहीं अदालत
सुने किसी की
न्याय गरीबों की
खातिर है
जिसकी लाठी
भैंस उसी की
फैला भ्रष्टाचार
वायरस
हमें लगाने होंगे टीके.


             (2)
||  उगाना है यहाँ भी ||
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हवायें
तेज़ हों तो क्या
निकलिए
गेह से अपने

गरजते
मेघ शायद ही
बरसना
जानते होंगे?
बवंडर तेज
हो आये
पवन-दल
ठानते होंगे

नही पड़ना 
असर कुछ
हौंसले हैं
मेह से अपने

अँधेरे में
उगे सूरज
हमें कुछ 
यत्न बोने दो 
लगा है
कीच पाँवों में 
तनिक 
उसको भी धोने दो 

उगाना है
यहाँ भी तो
उजाला 
नेह से अपने.
       

         (3)

मौन रहना क्या उचित है?
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छीनकर अधिकार शोषित वर्ग से,
शोषकों के बीच बाँटे जा रहे हों
तब हमारा मौन रहना क्या उचित है?

प्रश्न अनगिन उठ रहें हैं विकल मन में,
क्या लुटेरे ही रहे संसद भवन में?
और कब तक आम-जन पीड़ित रहेगा?
झूठ के वादों, छलावों के रुदन में

हर तरफ उम्मीद का चारा बिछाकर,
जाल मछुआरे यहाँ फैला रहे हों
मीन -सा इस जाल फँसना क्या उचित है?


'टूटी' झोपड़ियों में वर्षा बीत जाती,
बिन रजाई शीत जाती कँपकँपाती
ग्रीष्म ऋतु भी स्वेद पानी -सा बहाये,
धूप, गर्मी कृषक के सर पर बिताती

जब कृषक, मजदूर पर केवल सियासत,
और अफसर, मंत्री फल पा रहे हों
इस तरह अपराध सहना क्या उचित है?
                  

           (4)  

||किसानों की आवाज़||
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चींटी समझ रहे हैं हमको
ये सत्ताधारी बेईमान

पाँवों तले कुचलने का
षड्यंत्र रचाते रोज
अधिकारों का हनन करें
आवाज़ दबाते रोज
मनमाने कानून बनाएँ
लोकतंत्र का खींचें कान।

उनकी ईच्छा हम मेहनतकश
धन से रहें अपंग
जैसे चाहें हमें नचाएँ
लड़ न पाएँ जंग
पूँजीवादी सत्ता चाहे
मरिहल रहे मजूर-किसान।

पीछे नहीं हटेंगे, आँधी
कितनी आए जोर
जय जवान व जय किसान
का नारा हो चहुँओर
सत्ता के मदमस्त हाथियों का
तब टूटेगा अभिमान.
          
          (5)
||आज जरूरत है कबीर की||
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चाटुकारिता जिसे न आये
कविता मे केवल सच गाये
झूठे आडम्बर को तजकर
ढाई आखर प्रेम सिखाये

चाहत है उस कलमवीर की
आज ज़रूरत है कबीर की।

जिसके संघर्षों की गाथा
हर युग को नव पाठ सिखाये।
तन के शुद्धिकरण से ज्यादा
जो निज मन को पाक बनाये

सच्चाई के शून्य धरातल पर
शब्दों का गढ़ गढ़ता हो।
वेद-शास्त्र के साथ-साथ में
लोगों की पीड़ा पढ़ता हो

तूफ़ाँ और बवंडर आये
अडिग हिमालय सा बन जाये
निज प्राणो का मोह त्यागकर
जो सुल्तानों से टकराये

ऐसे विद्रोही फ़कीर की
आज ज़रूरत है कबीर की।

पीर सुनाये जो जन -जन की
पोल खोल दे काले धन की
घटिया सोच सुना दे सबको
नेताओं के अंतर्मन की

घोर कालिमा में प्रकाश की
किरणों का आभास करा दे
बंद नयन के खोल किवाड़े
एक पुण्य एहसास करा दे

दीपक-ज्योति स्वयं बन जाये
अँधियारे से आँख मिलाये
जब तक स्नेह मिले बाती को 
जलकर वो प्रकाश फैलाये

सुख-दुख मे सम परमधीर की
आज ज़रूरत है कबीर की।

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