हमारे सम्मानीय पाठक
गंगाप्रसाद गुण शेखर जी
की महत्वपूर्ण टिप्पणी
बहुत दिनों बाद एक नवगीत ने ऐसे बाँधा जैसे बचपन में उछल-कूद करता हुआ बछड़ा बाँधता था। सरोवर बाँधता था।नदी बाँधती थी।तरुणाई में प्रेयसी की मुस्कान और जवानी में संतान की किलकारी बाँधती थी।इस गीत को पढ़ते ही लगा कि जैसे एक क्या दो-दो बियर की बोतलों का नशा चढ़ गया हो।
दो ही पंक्तियों में पूँजी और विपन्नता बिल्कुल करीब-करीब ऊपर-नीचे बैठी हैं "रोज़ शिराओं में/मालिक की/चुपके से घुल जाते हम।
एक बियर की/बोतल जैसे/टेबिल पर खुल जाते हम।"
बेजोड़ भाषिक संरचना की नई सज-धज में होते हुए भी यह गीत अपनी धारदार तलवार से 'सीधे लहू चूसने वालों' को ललकारता है कि इन शोषकों ने 'कब पीर/किसी की बूझी है।'
वह मुर्दा होती चेतना को जगाना चाहता है।इसीलिए वह सोए हुओं को उठाता है। भले ही उन्हें झिझोड़ना क्यों न पड़े पर जगाए बिना उसे चैन नहीं-"अपने हक़ के/लिए लाश भी/कहीं किसी से जूझी है।"घटती इंसानी कद्र और सुन्न होती संवेदना गीतकार की चिंता के विषय हैं-" घर दफ्तर में/रद्दी जैसे/बिना मोल तुल जाते हम।"
शोषण की शिकार जनता की पीड़ा के गायक मनोज जैन'मधुर' का यह अहिंसक विद्रोह उन्हें सहज ही संवेदन प्रवण सर्जक सिद्ध कर देता है-
"राजा जी मोटी/ खाते हैं/हमको दाना/तिनका है।
उनका चलता सिक्का/जग में/ऊँचा रूतबा जिनका है।"
पूँजी के प्रवाह पर सवार जहाजी लोगों से डूबते का दर्द भला कब और कैसे समझा जाएगा।गरीब उनके जहाज पर संकट आए तो पुल बन जाता है पर जब गरीब पर संकट आता है तो ये पानी में पाँव रखने को तैयार नहीं होते।कवि की यह शैल्पिक सिद्धि ही कही जाएगी कि इतने लघु कलेवर के गीत में अपने दर्दों को समेटे गरीब और कोरोना का समूचा कालखंड पैबस्त है-
" उन को पार/उतरना हो तो/बन उनके पुल जाते हम।
नमक उन्हीं का/हड्डी अपनी/मर्ज़ी केवल उनकी है।"
'मास'की भाषा में 'क्लास' को कोसने की क्लासिकी का कौशल इस गीत की भाषा में देखा जा सकता है-
"खाल हमारी/रुई की गठरी/जब चाहा तब धुनकी है।
चाबी वाले /हुए खिलौने/कैसे हिल डुल पाते हम।"
पूरा गीत अपनी छान्दसिक मर्यादा से परिपुष्ट है। यदि 'पुल उनके बन जाते हम' कर दिया जाए तो आंतरिक लय बेहतर व तीव्रतर होकर गीत के प्रवाह को और गति देगी।
इस सुंदर गीत के लिए मधुर जी को हार्दिक बधाई और ऐसे ही और गीतों के लिए अग्रिम शुभकामनाएँ !
@डॉ गंगा प्रसाद 'गुणशेखर'
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