शनिवार, 29 जनवरी 2022

तीन संग्रह : तीन कवि: सुधांशु उपाध्याय

तीन संग्रह : तीन कवि
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काशी नहीं जुलाहे की
कवि- यश मालवीय

        यश मालवीय हमारे दौर के सर्वाधिक पढ़े, सुने और गुने जाने वाले नवगीत - कवि हैं। उनका नया संग्रह " काशी नहीं जुलाहे की" उनकी बहु पठनीयता को एक बार और प्रामाणित करता है। यश को परम्परा से छंद, गीत और नवगीत का मुखर संस्कार मिला है। लेकिन उन्होंने अपनी परिष्कृत सोच, परिमार्जित भाषा और प्रखर बिम्ब, प्रतीकों के जरिए नवगीत को नया कलेवर और नयी ऊर्जा दी है। वह स्वयं अपने व्यक्तित्व में हमेशा एक टटका और स्पंदित नवगीत बने रहते हैं। वह अंधेरे की कोख से उजाला खोज लाते हैं। वह खिड़की पर टपकते उजाले का रेशा-रेशा पकड़ते हैं और उसे स्वर देते हैं। लोग गीत कहते हैं, वह गीत जीते हैं। संक्षिप्ति में विस्तार की विशेष कला है उनके पास। स्मृतियों की एक बड़ी थाती है। जिन्हें वह काव्य - उपकरण की तरह प्रयोग में लाते  हैं।
    यश अपने इस नये नवगीत संग्रह में अपने ही मुहावरों को नयी चमक और नया तेवर देते हैं। यह संग्रह जुलाहे के बहाने एक नये कबीर की तलाश भी है। वह कबीर का नाम नहीं लेते क्योंकि वह मानते हैं कि कबीर एक नाम से अधिक एक बेबाक अभिव्यक्ति और नवगीत का जनतंत्र हैं।
     कविता में जनतंत्र इस संग्रह की खास चाहत है। यश के इन गीतों में बाहरी दुनिया की चिंता है तो अंतर की दुनिया से सीधा संवाद भी। उनके पास मुलायम, चमकदार, साफ और तलस्पर्शी बिंब और अनुबिंब हैं जो उनके गीतों को आत्मीय स्पर्श देते हैं। वह मनुष्य की चिंता करते हैं लेकिन मनुष्यता की ज्यादा फिक्र है इन गीतों। राजनीतिक और व्यवस्थागत असमानताएं उन्हें उद्वेलित करतीं हैं, उग्र नहीं बनातीं। यह संयम उनके गीतों की अनन्य ताकत है। इन गीतों की एक और शक्ति है-अभिव्यंजना। शब्द - संयोजन का वैशिष्ट्य उनके गीतों चुम्बकीय गुण देता है।
     इस संग्रह के गीतों में भावुकता के पल हैं तो आज की विडम्बनाओं को लेकर एक उत्तरदायी आक्रोश भी। यह कवि अपने गीतों पर श्रम कम करता है। गीत इनके यहाँ सहज पीड़ा के साथ आते हैं, सिजेरियन की जल्दबाजी कहीं नहीं। शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियां यहाँ रखी जानी चाहिए - "सत्ता की मिल्कियत हो गयी/काशी नहीं जुलाहे की /दिल्ली होती जाती सूरत / अस्सी के चौराहे की।" यह स्थानीयता का विस्तार है। विस्तार का सहज विश्लेषण है और विश्लेषण का अनुविश्लेषण भी। काशी अब महज तीर्थ नहीं, अपार राजनीतिक शक्ति और विकास की विडम्बना का भी प्रतीक है।
     यश अपने गीतों - मैथिलीशरण जी क्षमा करें, नाखून गहरे कट गया, एक फर्माइश मिली झुमरीतिलैया से, छप्पन इंच का सीना, एक अजपा जाप, सुखों की बत्तखें, पानी कहाँ गया जैसे 119 नवगीतों में बार-बार समय को संवेदनशील और संवादी बनाने की कोशिश करते हैं। इसीलिए वह पाठ्य हैं और श्रव्य भी। उम्मीद है यश का यह संग्रह भी अपना पूरा समर्थन और सम्मान प्राप्त करेगा।
- प्रकाशक : साहित्य भंडार, इलाहाबाद
मो. 6307557229.
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संग्रह : नहीं के आस-पास
कवि: गणेश गंभीर

गणेश गंभीर नवगीत के सिद्ध और स्थापित कवि हैं। उनके पास अनुभवों का सघन संसार है और है गीतों के रच-रचाव की पूरी सावधानियां। उनके नये नवगीत संग्रह "नहीं के आस-पास" को नवगीत की एक जरूरी पाठ्य पुस्तक की तरह भी पढ़ा जा सकता है। गणेश अपने आत्म कथ्य में एक  उत्तेजक बहस को भी आमंत्रित करते हैं - लय की तानाशाही को लेकर। लेकिन अभी बात उनके इन नये गीतों पर। गणेश के ये नवगीत अति के नहीं, उसे नकारते हुए भी उसके आसपास के गीत हैं। समय की नकारात्मकता को सम्बोधित करतीं पंक्तियां यहाँ हैं लेकिन एक अनुशासन के साथ। वह वर्तमान को लेकर निराश हैं, हताश नहीं। निशस्त्र होने पर रथ का पहिया उठा कर वह विसंगतियों से लड़ने के लिए तैयार हैं। एक उजली उम्मीद है जो गणेश के इन गीतों का रंग धुंधला नहीं होने देती। वर्तमान में जो कुछ भी सकारात्मक है, यह कवि उन्हें सहेजने के लिए सक्रिय है। इनके यहां जबरिया विरोध, ओढ़ा हुआ आक्रोश और आक्रामकता नहीं। शैली थोड़ी फक्कड़ाना अंदाज लिये मगर शिल्प सधा हुआ। जस की तस धर दीनी चदरिया वाली निष्क्रियता यहाँ नहीं मिलती। गणेश के इन गीतों में एक अद्भुत भरोसा है मनुष्य पर, उसकी चेतना पर और बदलाव की उसकी ताकत पर भी। 70 नवगीतों वाले इस संग्रह के गीत मनुष्य की संभावना की सतत तलाश की तरह हैं।
      संग्रह का शीर्षक नवगीत अपने मौन में भी मुखर है - " मुझे पता है / क्यों उदास हूँ /... आधा - तीहा देवदास हूँ /... इसी नहीं के आस-पास हूँ।" यह पूरा गीत व्यष्टि से समष्टि की यात्रा है। संग्रह के अधिकांश गीत किसी न किसी यात्रा पर हैं। कहीं मंजिल स्पष्ट है और कहीं मंजिल तय ही नहीं। लेकिन चरैवेती चरैवेती वाली कोशिश और दर्शन यहाँ उपस्थित है। दर्शन की ही भाषा में कहें तो गणेश का कवि एक द्रष्टा की भूमिका भी अपनाता है अपने कुछ गीतों में। संग्रह के तमाम नवगीत इस आपाधापी में सत्य के अनुसंधान और उत्खनन के प्रयास हैं। यह शाम, बुतखाना, स्टाकहोम सिंड्रोम, बंधक आजादी, मृत्यु की अभ्यर्थना, प्रेत अधिकृत इलाका, मोती गिर गये, सत्ता अभिकरण, सामने शीशे के, रंगशाला नये ढब की, विष विचारों में जैसे नवगीत भरोसा पैदा करने की कोशिश में सक्रिय हैं। संग्रह के गीतों में एक ताप है। किसी भी कविता में ऐसे ताप का होना जरूरी है। इसलिए भी गणेश गंभीर का यह संग्रह महत्त्वपूर्ण बनता है।
प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन
नयी दिल्ली
मो. 9335407539 / 7985426007.
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संग्रह : धूप भरकर मुट्ठियों में
कवि: मनोज जैन
   
      नवगीत के अपेक्षाकृत नये कवि मनोज जैन कभी अपने नाम के आगे मधुर जोड़ा करते थे। आश्चर्य हुआ यह देख कर वह मधुर अब उनके नाम को छोड़कर उनके इस संग्रह के गीतों में समा गया है। इन गीतों पर चर्चा की शुरुआत उन्हीं की गीत-पंक्ति से करते हैं - " फतह किया राजा ने / एक किला और / संदेशा भेज कहा / स्वीकारो दासता / वरना दिखला देंगे / बाहर का रास्ता / अब भी है समय, हमें/ मानो सिरमौर...!"
  मनोज अपने कथ्य को लेकर पूरी सजगता और तैयारी के साथ इस अपने नये संग्रह में उपस्थित हैं। वह रचना के इकहरेपन से बचते हैं। जो कहना है, वही कहते हैं लेकिन शिल्प के शील को सुरक्षित रखते और करते हुए। उनके यहाँ बिम्बों की लड़ियां तैयार होतीं है इसलिए ये गीत खुरदुरे न होकर पूरी तरह पाॅलिश्ड शेप में सामने आते हैं। ऐसी बिम्ब धर्मिता इधर कम नवगीत - कवियों में पायी जाती है। मनोज नवगीत के सक्रिय और गंभीर अध्येता कवि हैं। जीवन का सच उनके यहां निर्वस्त्र नहीं। संग्रह के अधिकांश नवगीतों में अलंकृत सौंदर्य है। मनोज अपने इन गीतों के जरिए उलझे सच को आहिस्ता - से बाहर लाने की कोशिश करते हैं। यही नहीं वह सच के स्वयं बाहर आने की प्रतीक्षा का धैर्य भी रखते हैं।
मनोज कविता की अंतर्वस्तु के प्रति  सजग और सचेत हैं। वह गीतों का अलंकार करते हैं यह ध्यान रखते हुए कि यह अलंकार गीतों के रूप और कथ्य पर बोझ न बने। संग्रह के नवगीत विषय को आवश्यक विस्तार देते हैं। कवि एक झटके में अपने कथ्य को निपटाने की जल्दबाजी में नहीं। पूरे संग्रह में यह निपटाने वाली बात कहीं नहीं है। जो कुछ भी है वह पूरी गरिमा और जिम्मेदारी के साथ है। इधर के नवगीतों में एक हड़बड़ी अक्सर देखने को मिलती है, जैसे आसमान सिर पर गिरने वाला हो! ऐसा भय या ऐसी आतुरता से मनोज जैन के नवगीत बचे हुए हैं। अधुना व्यापारी, सरकार, राजा जी, मांगे चलो अँगूठा, एक किला और, धरती का रस, बोल कबीरा बोल, शत-शत नमन, इस जमीन को छोड़ो अब, भीम बेटका, देखकर श्रृंगार, यह पथ मेरा, फिर मत कहना जैसे गीतों में मनोज रागात्मक धागों से समय की चादर की सुंदर बुनाई करते हैं।
      मनोज जैन का यह नवगीत संग्रह धुंधलके में रौशनी की लकीरें खींचता है और अपनी जबरदस्त पठनीयता से आकर्षित करता है। ऐसे संग्रहों का स्वागत है।
प्रकाशक : निहितार्थ प्रकाशन
साहिबाबाद, गाजियाबाद
मो. 9301337806.

1 टिप्पणी:

  1. समीक्षक आदरणीय सुधांशु उपाध्याय जी की लेखनी से निसृत एक्स रे रिपोर्ट यद्यपि संकलन की सूक्ष्मदृष्टि से विवेचना करती है तथापि हर उस पक्ष का भी प्रबलता से समर्थन भी करती है जिसके वे अधिकारी हैं, समाज में व्याप्त तमस को दूर करने में जहां धूप भरकर मुठ्ठियों में की जरूरत को आवश्यक मानते हैं वहीं नहीं के आसपास के जीवन संगीत की तालीम देने के लिए उद्यत कलम की सार्थक सर्जनात्मक अनुष्ठान की पक्षधर भी है और काशी नहीं जुलाहे की के मिस कबीर की वर्तमान में प्रासंगिकता भी सिद्ध करने में सफल रही है, समीक्षकों की यही विशेषता होती है कि वे अपनी बात कहने के अपने अंदाज से संग्रह की चीरफाड़ भी कर डालते हैं और रचनाकार के ज्ञान- सम्मान की रक्षा भी कर लेते हैं, अस्तु आदरणीय उपाध्याय जी ने एक कुशल नट की भांति एक पतली-सी डोर पर चलकर अद्भुत बैलेंस बनाए रखने का जो कौशल दिखाया है वह स्तुत्य है। समीक्षक और तीनों रचनाकार नवगीत धारा की त्रिवेणी के संगम पर पाठकों को संगम स्नान करने का पुण्य प्रदान करने में सफल रहे हैं।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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