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गुरुवार, 17 मार्च 2022

होली विशेषांक प्रस्तुति ~।।वागर्थ।।~




होली विशेषांक

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फागुन का गुन
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फागुन का गुन 
सिर चढ़ बोले
रिलमिल रंग चढ़ा।

ऐसे रंग में रँगना जोगी
कभी नहीं छूटे ।
नेहिल थाप न टूटे,बेशक
जीवन लय टूटे ।

मन का प्रेम 
बरोठा हो बस 
तेरे रंग मढ़ा।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

इस फागुन से उस फागुन तक
हों छापे गहरे ।
रंग चढ़ाना ऐसा जोगी
जनम-जनम ठहरे ।

शोख रंग में रंग वफा का 
थोड़ा और बढ़ा ।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

किस्सागो लें नाम हमारा 
रँगरेजा सुन ले ।
मीत-जुलाहे एक चदरिया 
झीनी-सी बुन ले ।

ओर - छोर हो
जिसके,तेरा-मेरा 
नाम कढ़ा।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

अनामिका सिंह
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होली विशेषांक

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वागर्थ के सुधी पाठकों सदस्यों को प्रेम और सौहार्द के प्रतीक रंगपर्व की आत्मीय शुभकामनाएँ । हमारी एक छोटे से स्नेहिल सन्देश पर आप सभी ने बेहद स्नेह से रंग-बिरंगे गीत प्रेषित किये। वागर्थ सम्पादक मण्डल आप सबके इस तत्पर सहयोग का हार्दिक आभार व्यक्त करता है।
प्रस्तुत है होली पर केन्दित खूबसूरत बहुरंगीय रचनाओं की प्रस्तुति।
रंग चित्र फेसबुक से साभार 
प्रस्तुति वागर्थ



1



फागुन
    

टेर रहा है फागुन
मौसम की गलियों में ।

तनिक गंध की
बाँह पकड़कर 
अधरों पर रखकर
कुछ फूल
दिशा भटकती
चली हवाएँ
पतझड़ लगा
उड़ाने धूल

चटक रहा है फागुन
खिलती सी कलियों में ।

बिछे ग़लीचे
टेसू सजधज
निकला रँग की
ले पिचकारी
सेमल भरता
अंग अंग में
मादकता की
हँस किलकारी

बौर रहा है फागुन
आमों की फलियों में।

प्रीत नहाती
तन मन लुटता
बौरायी सी
फिरे जवानी
नाचे धरती
घूँघर बाँधे
फ़सल उढ़ाये
चूनर धानी

विहँस रहा है फागुन
वन की पगथलियों में।
       
जयप्रकाश श्रीवास्तव

2


तन-मन में मस्ती भरे,ये फागुनी बयार।
अपने रँग रँगने लगा रंगों का त्योहार ।।

रंग चढ़ा है फागुनी गोरी है बेहाल ।
बाबा भी मदमस्त हैं, नाचें देकर ताल ।।

हँसता फागुन आ गया, बहके मन्द समीर।
निर्गुनियाँ को भूलकर
गावैं फाग कबीर ।।

जबसे फागुन आ गया, बढ़े नेह सम्बन्ध।
भौरों के होने लगे, कलियों से अनुबंध ।।

झाँझ-मंजीरे बज रहे
बढ़ती ढोलक थाप ।
फगुआ गाते लोग सब
भूले दुख- संताप ।।

ऊंच- नीच जग भूलता
सबका सम व्यवहार।
एक रंग में रँग गया,
सतरंगा त्योहार ।।

होलिकोत्सव- पर्व की सपरिवार हार्दिक बधाई , शुभकामनाएं ।
देवेन्द्र शुक्ल 'सफल'
कानपुर


3

किसके साथ मनायें होली 

किसके साथ मनायें होली, 

रामू चाचा सोच रहे हैं !

इसी दिवस के लिए मरे थे ? 

अपना माथा नोच रहे हैं ! 

बाँट -बाँट कर अलग हुए सब 

बोलचाल सब बंद पड़ा है,

सबदिन तो जी लिये किसी विध, 

दिवस आज का क्यों अखरा है !


हाय पड़ोसी की क्या सोंचे, 

भाई सभी दबोच रहे हैं ।

भाईचारा रहा नहीं वो, 

भौजाई अनजानी अब तो,

दीवारें अब ऊँची -ऊँची, 

मिल्लत हुई कहानी अब तो, 

अपने-अपने स्वार्थ सभी के,

बचे कहाँ संकोच रहे हैं । 


बेटे सब परदेश, बहू क्यों 

घर आयेगी, क्या करना है, 

होली और दिवाली में बस बुड्ढे को 

कुढ़-कुढ़ मरना है।

आँगन-देहरी नीप रहे खुद,

दुखे कमर, जो मोच रहे हैं ।


गाने वाले होली को अब 

नहीं बचे हैं,ना उमंग है, 

किसी तरह दिन काट रहे हैं 

बूढ़े -बूढ़ी, ना तरंग है ।

नवयुवकों में संस्कृति के प्रति 

सोच अरे जो ओछ रहे हैं।


हुआ गाँव सुनसान भाग्य 

इसका करिया है, यह विकास है, 

अब गाँवों से शहरों में 

होली बढ़िया है, यह विकास है ।

दरवाजे पर बैठे चाचा रह-रह 

आँखें पोछ रहे हैं ।

हरिनारायण सिंह 'हरि'


4


आई रे होली

रंग लगाने रंग जमाने,
आई रे होली ।
प्रीति लगाकर रीति निभाने,
आई रे होली ।

रंग लगाकर छिपे मनोहर,
ढूंढे जग सारा ।
देख श्याम को जले राधिका,
मन अपना मारा ।
बदला लेने और सताने,
आई रे होली ।।

ढोल-मंजीरे बजे नगाड़े,
सा-रा-रा होली ।
झूम झूम कर नाचें सारे,
सजे माथ रोली ।
मन के सारे भेद मिटाने,
आई रे होली ।।

गुजिया-पापड़ बनते हर घर,
दिखते दो-दो सब ।
गिरते-उठते फिर-फिर गिरते,
पी ली भंँगिया जब ।
मादक फागुन में इठलाने
आई रे होली ।।

आनंद सौरभ उपाध्याय


5


गीत

बन गया सूरज आज कन्हैया,
देख नज़ारे होली के ।
धरती भी राधा बन आई,
देख नज़ारे होली के ।

पकी बालियों के आखर हैं,
ज्यों बसंत के पन्नों पर ।
लिख कर भेजी प्रीति पत्रिका,
मानो सारे अन्नों पर ।

बांँच रहा धरती का बेटा,
देख नज़ारे होली के ।।

झूम-झूम कर खेत नाचते,
गाती जौ मसूर की डाली ।
महके महुआ, अमुआ वन में,
चहके कोयलिया काली । 
मोर-पपीहा झूम रहे हैं,
देख नज़ारे होली के ।।

सजी-धजी सी पडें दिखाई,
अमलतास, कचनार,पलाश ।
 सबके मुख पर दिखती लाली,
है सबके मन में उल्लास ।
महुआ की डाली गदराई,
देख नज़ारे होली के ।।

पहन कोंपलों की पोशाकें,
तरुवर झूमें इठलायें ।
बढ़ती वय से होकर चिंतित,
सरसों, अलसी पछतायें ।
दलहन तिलहन सब उदास हैं,
देख नज़ारे होली के ।।

सूरज मारे भर पिचकारी,
इन्द्रधनुष के रंगों से ।
अमित रूप लावण्य टपकता,
सभी प्रकृति के अंगों से ।
हुआ धरा का तन-मन पुलकित,
देख नज़ारे होली के ।।

हरगोविन्द मैथिल

6

प्रीति की नव कल्पना ले
     यह नया मधुमास आया......
                                सरस संध्या के गगन में
                           तारिका ने मौन तोड़े
                                आज होली की फिजा ने
                              हृदय के सब तार जोडे
गीत में संगीत भरने
   अनोखा त्यौहार आया
                            हवाएं केसर उड़ाती
                           देह पर टेसू बरसते
                                  मलय की पुलकित                       छुअन पर
                               छंद होली के थिरकते
फाग की मस्ती लुटाता
चैत का उल्लास आया
                             वल्लकी के तार ने भी
                                 स्वर सुनाया आज पहला
                            प्रेम का उत्सव मनाने
                            वल्कलों ने रंग बदला
तोड़ दे बंधन जगत के
  प्राण ने मुझको सिखाया

मनीष कुमार झा

7


गीत 
 आई रे होरी

धूम मची बरसाने में,आई रे होरी।
नटखट कान्हा बाँह पकड़,करता बरजोरी।।

कुंज गली में भाग रही,बृज की हर बाला।
भर पिचकारी रंग लिये,कान्हा मतवाला।।

सात रंग से रँगी प्रीति की चूनर कोरी।
नटखट कान्हा बाँह पकड़,करता बरजोरी।।

बजे मँजीरे ढोल फाग के संग मृदंगिनि।
फगुवारे सब मस्त फाग की बही तरंगिनि।।

रंगों की बौछारों में भीगी है गोरी।
नटखट कान्हा बाँह पकड़,करता बरजोरी।।

श्याम रंग में रँगी राधिका भोली भाली।
प्रीत रंग में डूब रही,आली मतवाली ।।

मन से मन की बँधी प्रीत की पावन डोरी।
नटखट कान्हा बाँह पकड़, करता  बरजोरी।।

विजया ठाकुर

8


होली में 

कुछ चोली की
कुछ दामन की 
श्रृंगार  की
बातें होली में ।
तुम आओ तो 
हो जाएं 
कुछ प्यार की 
बातें  होली में। 

स्मित मुस्कान  हो
होठों  पर 
और  बाँहों  में 
अभिनन्दन  हो
हो मृदुलगात
स्पर्श हटात
और अंगों  मे
स्पन्दन हो
हो अधरों  पे धरे
अधरों  में  जले
श्रृंगार  की बातें 
होली में। 

कुछ रंग के छींटे 
हम पे पड़े 
कुछ तुम  पर भी हो
छींटाकशी ।
सुकुमार उल्हाने
तुमको मिले
कुछ हम पे भी 
तानाकशी। 
हो पिचकारी
हो सिसकारी 
हों बौछार की बातें 
होली में। 

जब झूमती गाती 
भाभी हो
मदमस्त 
दीवाने  हों देवर।
अधबीच हृदय में 
अटकी हो
साली की नजर
तिरछे तेवर।
कुछ चित की हों
कुछ चितवन की 
चितहार की बातें 
होली मे।।

रामकिशोर मेहता

9


नवगीत
      रंग लिये फागुन बैठा है,
लेकिन मन तो हो।

जर्जर घर की सब दीवारें,
चिर चिर करें किवाड़।
युवा नौकरी में बाहर हैं,
 हुआ  पड़ोस उजाड़।

हम तो खूब रंग फैलायें,
पर आँगन तो हो।

राम जुहार, खैरियत है,
कुछ बात विशेष नहीं।
घास फूँस से होली जलती,
जंगल शेष नही।

चिड़ियाँ किस पर फुदकें,
आखिर टेसू वन तो हों।

देह चेतना लुप्त हुई,
बस,अभिनय शेष रहा।
गिरी गढ़ी के दरवाज़े सा,
वैभव शेष रहा।
मेहँदी लगे हुये हाथों में,
रंग,चंदन तो हो।

हरगोविन्द ठाकुर

10




फूटी रस की धार 

गुड़ की गुझिया
पिघल गयी है
फूटी रस की धार

इनकी गुझिया, उनकी गुझिया
फगुनाया मन सबकी गुझिया
चारा 'कल' की 
लगे गड़ासा,
चुन्नट जैसी धार

नया अन्न बौराया फूला
बेपर्दा मन, पर्दा भूला
रंग, अंग में 
ताप अनूठा
पुरवा की भी मार

उल्लासों के उत्सव बोये
फसलें काटीं, मन में खोये
मुरझाये फूलों में
हँसती
रंगों की बौछार

शीला पांडे, लखनऊ

11


फागुनी आकाश 
************* 
राग रंजित ले हथेली 
सुबह से ही
कसमसाता फागुनी आकाश!
एक युग से एक युग तक 
क्षितिज अटकी प्यास !

इस दिशा का गाल 
कर दूँ लाल 
या कि गहरी झील सी 
मदमत्त आँखों पर 
हवा का 
बाँध दूँ रूमाल   

वेदना 
दाबे अधर में 
धुआँ भी आँखों धुमाये 
हँस हँसाता 
काश!
फागुनी आकाश!  

रंग टेसू के 
नहीं सूखे 
पंखुरी तक भिगोने को 
नयी साड़ी 
धारयित्री की 
महज़ भूखे 

धूसरित आकांक्षाएँ 
बाँध पाता इन्द्रधनु में 
क्या समय का पाश ?
फागुनी आकाश! 

सुभाष वसिष्ठ

12


बिना तुम्हारे
फागुन असि की धार 
पिया।।

पवन निगोड़ा 
सीटी मारे
बंसवट से ।
बन्द द्वार की
रह-रह कर 
सांकल खटके।

कर के कुछ संकेत
हंसे कचनार 
पिया।।

महुआ 
रात-रात भर
रस टपकाता है।
दहके देख 
पलाश,
आम बौराता है।

घूम-घूम 
करता अनंग है वार 
पिया।।

अंग-अंग में
कसक जगाता है 
फागुन।
मौसम
सिर पर धरे घूमता है
अवगुन।

नमक जले पर
होली का त्योहार
पिया।।
बिना तुम्हारे
फागुन असि की धार
पिया।।

मृदुल शर्मा

13



गीत

वह होली भी क्या होली थी
                
अवसर था रहने का लेकिन,
दो पल साथ नहीं रह पाए
वह होलीभी क्या होली थी
                *
मिलनबिंदु के लिए रचे थे
मनस-पटल पर कई कथानक
होली में चंचल सखियों सँग
प्रणय-संगिनी दिखी अचानक

 अवसर था कहने का लेकिन,
मन की बात नहीं कह पाए
वह होली भी क्या होली थी
               
 मिला हमें था भले अबीरी
भुजबल्लरियों का आमंत्रण
डिगा सके जो चुटकी में ही
सन्यासी संयम का भी प्रण

अवसर था गहने का लेकिन,
गोरी बाँह नहीं गह पाए
वह होली भी क्या होली थी
               
रंग खेलती पास आ गयी
दिखी गजब रतनारी चितवन
लेकिन हम ही उठा न पाए
साहस कर पलकों के चिलमन

अवसर था सहने का लेकिन, 
नयनाघात नहीं सह पाए
वह होली भी क्या होली थी
               
मादक तन की मदिर गंध को
हवा चुराकर जब ले आई
हुआ तरंगित हृदय-सिंधु तब
मन की निर्झरिणी अकुलाई

अवसर था बहने का लेकिन
धारोधार नहीं बह पाए
वह होली भी क्या होली थी
             
ईश्वरी प्रसाद यादव

14


मन भीत सजा बनूं कोहबर 

अबकी फागुन रंगना ऐसे 
होए दुनिया दंग ।
मन भीत सजा बनूं कोहबर 
हो कुदरत के रंग ।

लाना थोड़ी दूधी माटी
कर जाना मन श्वेत ।
इसी रंग में रंगा कपोत
करता शांत सचेत ।
उड़ कर सारे जग में साजन
रोकूँ होती जंग ।

मलवा तरुवर के बीज पीस
कर जाना तुम श्याम ।
बन राधा तेरे रंगों में 
रास रचूँ अविराम ।
ब्रज बन जाए सारी दुनिया 
जब हम तुम हों संग ।

ले हल्दी सरसों पीताभा
करना कंचन गात।
सप्तपदी वचनों की फगुआ
टेसू की बारात ।
प्रीत दही उमंग केसर की 
पीकर आना भंग ।

बेल बूटे, मोर, पत्तों से 
रचना दिल दीवाल ।
चुटकी भर सुहाग ले आना
सिंदूरी हो भाल ।
पढ़ना दुआर ओ हिय पाहुन
चहके राग विहंग ।

यादों में अब भी वह होली
जब जाती थी गाँव ।
मिट्टी गोबर के रंग चढ़े 
सिर से लेकर पाँव ।
थोड़े देहाती बन जाना
करना प्रिय हुड़दंग ।

यमुना पाठक

15


नवगीत-

तुझमें रंग भरे जीवन के... 

गुझिया इठलाकर बल खाकर
पिचकारी से बोली
चल आजा
हम खेलें होली

गूँज रहा मस्ती की धुन पर
फागुन का आलाप
लेकिन तू कोने में छिपकर
बैठी है चुपचाप
बुला रही है उम्मीदों की
रंग-बिरंगी टोली

धीरज रख फिर से आएगा
वही पुराना दौर
फूटेगा जब आमों पर फिर
निश्छलता का बौर
यहाँ-वहाँ सब ओर करेगा
टेसू हँसी-ठिठोली

तुझमें रंग भरे जीवन के
मुझमें भरी मिठास
चल मिलकर वापस लाते हैं
रिश्तों में उल्लास
अपनेपन के गाढ़े रँग से
रचें नई रंगोली

- योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद

16




फागुन आ गया है 

 हल्दिया  सुबहे हुईं हैं, कुंकुमी हैं शाम 
फागुन आ गया है। 
आ गयीं लेकर हवाएं मौसमी पैगाम , 
फागुन आ गया है। 

बाँध कर फिर इन्द्रधनुषी स्वप्न आँचल में 
कर रहीं स्नान  किरणें, झील के जल में 
केश खोले धूप तट पर कर रही विश्राम 
फागुन आ गया है। 

उड़ रहे हैं चहचहाते पंछियों के दल 
प्रीति के फिर  गीत मीठे गा रही कोयल 
झूमता महुआ, खुशी से मुस्कुराता आम 
फागुन आ गया है। 

कल्पनाओं ने क्षितिज के छोर हैं लाँघे 
बुन रहें अनुबन्ध मन के रेशमी धागे 
चिट्ठियाँ  लिखने लगे भँवरे कली के नाम 
फागुन आ गया है। 

फूलती सरसों महकते हैं पलाशी वन 
अमिलतासी गंध में खोने लगा तन-मन 
रच दिये मौसम ने रंगों के विविध आयाम 
फागुन आ गया है। 

ढोलके,संगीत, फगुवारो की वो टोली 
याद आयी गाँव की रंगों भरी होली 
लौट आये दिन वो, सुधियों की उँगलियाँ थाम 
फागुन आ गया है।
 

मधु शुक्ला 

17


भूल गया

फागुन तो आया 
पर फगुआ आना भूल गया। 
दिल की गलियों बीच
गुलाल उड़ाना भूल गया। 

देख न पाया टेसू का
डालों पर मुसकाना, 
जान न पाया 
कैसा है आमों का बौराना।
सरसों के सिर चढ़ी पीतिमा,
अलसी गदराई,
याद नहीं आया उसको
घूँघट का इतराना।
सुधियों की उलझी अलकें 
सुलझाना भूल गया।

होली तो आयी
पर होलिका कौन जलाएगा,
फिर कोई प्रह्लाद
यहाँ कैसे बच पायेगा। 
भौजी की कजरौटी के भी
भाग नहीं जागे,
ढोल मँजीरे संग
जोगीरा कौन सुनाएगा। 
गलियों बीच गुज़रते 
वह इठलाना भूल गया। 

आशाओं के सारे
कच्चे धागे तोड़ गया,
बरगद की छाया से
रिश्ते-नाते तोड़ गया। 
मृग-मरीचिका व्यूह बीच
मारा-मारा फिरता,
आँगन का उल्लास 
न जाने क्यों मुँह मोड़ गया।
टीक अबीर बड़ों को
शीश झुकाना भूल गया।  

डॉ विकल

  18     



फागुनी आई मेरे द्वारे

दुल्हन जैसी सजी
फागुनी आई मेरे द्वारे
पहन बसंती चुनर, 
माँग में टेसू रंग सजा रे ।।

क्षण क्षण मे वह रूप बदलती
कजरारी रतनारी
बदली जैसे केश उड़ाती
आज समीरा हारी
झाँझर की धुन सुन
धरती ने अपने अंक पसारे ।।

बौराया है बाग देख कर
मनुहारी ये छवियाँ 
चटक चिहुक कर खिल खिल जाएँ 
ले अंगड़ाई कलियाँ 
भौंरा गाए गीत मधुर धुन
कुंजन वन विहँसा रे ।।

उड़े गुलाल अबीर अंगन 
चौबारा रंग नहाए
बालवृंद पिचकारी ले
हैं गलियन धूम मचाए
साजन हैं परदेस 
सजनियाँ ड्योढी बैठ निहारे ।।

जिज्ञासा सिंह

19


फागुन का गुन
------------------

फागुन का गुन 
सिर चढ़ बोले
रिलमिल रंग चढ़ा।

ऐसे रंग में रँगना जोगी
कभी नहीं छूटे ।
नेहिल थाप न टूटे,बेशक
जीवन लय टूटे ।

मन का प्रेम 
बरोठा हो बस 
तेरे रंग मढ़ा।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

इस फागुन से उस फागुन तक
हों छापे गहरे ।
रंग चढ़ाना ऐसा जोगी
जनम-जनम ठहरे ।

शोख रंग में रंग वफा का 
थोड़ा और बढ़ा ।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

किस्सागो लें नाम हमारा 
रँगरेजा सुन ले ।
मीत-जुलाहे एक चदरिया 
झीनी-सी बुन ले ।

ओर - छोर हो
जिसके,तेरा-मेरा 
नाम कढ़ा।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

20

शिवम खेरवार

एक-दूसरे के माथे पर,
होली मलती चंदन।

पा शीतलता, प्राण अभागा! खिलता है,
क्षीण बाँसुरी को मधुरिम स्वर मिलता है।

साथी! यह जोड़े अपनों से,
अपनों का टूटा मन।

मले गाल पर रंग गुलाबी; पावन सा,
है इसका आलिंगन भी; मनभावन सा,

करे प्रेम से प्रस्तर का भी,
वसुधा पर अभिनंदन।

मीत! लाजवंती! सकुचाकर जिधर चले,
ले पिचकारी दौड़े, सजना! उधर चले।

भोर! तुम्हारे मुख पर सजता,
शुभ रंगों का अवगुंठन।

               खेरवार

21


रँग में रंग हजार

मन की गाँठें खोल-
घोल अब
रँग में रंग हजार

दिन बदले हें
अमृत आ लगा है
पतझर के होंठ
मौसम ने ज्यों
खींची कोई
बहुत पुरानी चोट

वन-वन उतरी गन्ध,
गन्ध की क्वारी हर बौछार

टूट रहा सबकुछ कहने को
बहुत दिनों का मौन
वृक्ष-वृक्ष में होड़ लगी
बौराए पहले कौन

मधुवन गाये,नाचे लय में
डूबे रंग बहार

ओ रे काल!
पलट कर देखे
अपने ही अधिवास
कोई क्षण खिड़की खोले है
भर-भर आँख पलाश

धरती, अम्बर भीगे,
भीगे वासंती उद्गार
            -वीरेन्द्र आस्तिक

22


फगुनाए मन-मन चैताए देह से

सींच गया कोई 
एक बूँद नेह से
फगुनाए मन-मन 
चैताए देह से..

तनी-तनी कलिका 
पोर-पोर हिल गयी
अँकुसी थी उस-कुस 
उद्-बुद् खिल गयी
मिलजुल रची गँध 
झर रही मेह से.. .. 
फगुनाए मन-मन, चैताए देह से..

बचे-खुचे टेसू 
बाड़-बाड़ गिन-गिन
बने धार देह की; 
धूल-धूल किन-किन..
.. टीस पर उग आए; 
लगे अवलेह से.. .. 
फगुनाए मन-मन, चैताए देह से..

बेल-बतिया-सहजन 
कथनी-कहानी 
फिर हर-हर गंगे 
लोटा भर पानी 
भउजी का छोह-- 
भात छौंकी परेह से..   
फगुनाए मन-मन, चैताए देह से..

सौरभ

23




होली का त्यौहार है

रे!कलुआ, 
चल उठ बे जल्दी 
होली का त्यौहार है। 

पहले बर्तन माँज,
उठा फिर झाड़ू-पोंछा।
भट्टी सुलगा, चल लपेट ले
फटा अँगोछा।
पेट पकड़ मत,
मुझे पता है 
तू कितना मक्कार है। 

बड़े गंज में चाय बनाकर,
बड़ी कढ़ाई 
रख भट्टी पर।
अबे देखता इधर-उधर क्या
गई अक्ल
क्या है छुट्टी पर।
या फिर समझ रहा
इस गद्दी,
का खुद को हकदार है। 

दस हजार का कर्जा लेकर
तेरा बाप मरा।
तुझको तेरी अम्मा ने
ला मेरे माथ धरा।
देख रहा पगड़ी बनने का
सपना क्यों पैज़ार है।
रे! कलुआ,
चल उठ बे जल्दी
होली का त्यौहार है।

सत्यप्रसन्न

24


होली नवगीत
----------------
मन पंछी दूर कहीं
उड़ा उड़ा जाये
नींद नहीं आये 
रात रात भर

नाप रहीं
बिस्तर की सिलवटें
चिरपरिचित चेहरों की दूरियां
यादों की देहरी को लांघती
आंगन की प्यारी मजबूरियां

मौसम के पन्नों से
जुड़ा जुड़ा जाये
नींद नहीं आये
रात रात भर

डॉ अजीत श्रीवास्तव

25



फागुन मत आना
===========

मत आना अबकी से फागुन 
मत आना
लहू लगा है अधरों पर
पिचकारी के

रंग नहीं मेले जाते हैं
गालों पर
विहग नहीं
सय्याद जुटे हैं
डालों पर
जहर घुला है
झीलों में तालाबों में
बम फटते हैं
थैलों में तरकारी के

थकी-थकी हैं
मदिर हवाएँ
वासंती
नहीं सुनाती
घर-घर 
कुहू किंवदंती
‘लाल’, ‘हरे’ हो गए 
रंग फगुहारों के
छींटे कई
गुलालों पर
रँगदारी के

डरे-डरे हैं
जंगल फूल पलास डरे
अमराईं में
साँय-साँय संत्रास करे
फूलों पर
तज दिया
तितलियों ने फिरना
लम्बे पैने दाँत हुए 
फुलवारी के

रोहिणी नन्दन मिश्र

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गीत

आयी होली लेकर मन  में सहमी सहमी अभिलाषाएँ।
मीत सार्थक होंगीं कैसे मधुर मिलन की परिभाषाएँ।।

फाग हुयी बेराग , पतीली  ख़ाली  चढ़ी  बुझे  चूल्हे  पर।
भूखे  बच्चे  सुला  दिये   जाते  लोरी  गा  थपकी  देकर।
फागुन क्या,हर मौसम का रंग धुला आँसुओं के प्रवाह में
सिसक रहीं मासूम तितलियाँ बेबस नुचे हुए पर लेकर।

कैसे इन क्वारी ख़ुशियों के पाँव महावर से रंग पाएँ।।
मीत सार्थक होंगीं कैसे मधुर मिलन की परिभाषाएँ।।

टीवी  में  हुड़दंग  मचा  सड़कों  पर  सन्नाटा  छाया  है।
मोबाइल  संदेशों  तक  ही  हर त्योहार सिमट आया है।
वो भी क्या दिन थे जब कान्हा बनकर हर राधा रंगते थे
होली की छुट्टी का दिन भूली बिसरी यादें लाया है।

सुविधा के पंखों पर बैठी भूल गयी सभ्यता ऋचाएँ।
मीत सार्थक होंगीं कैसे मधुर मिलन की परिभाषाएँ।।

इनके मन की सीता से उनके मन के श्री राम  विलग हैं
सागर  का  विस्तार  बड़ा है  और  बहुत छोटे से डग हैं
कंचन  में है  क़ैद जानकी काम अर्थ मद के पहरे में
प्रेम  सेतु  से  सिंधु  पटे  बिन  मन सूबे  के  सूने मग हैं

बासंती  परिधान  पहन  कर  आयीं तो  हैं  कुछ आशाएँ।
क्या इस बार सार्थक होंगीं मधुर मिलन की परिभाषाएँ।।

विविध भूमिकाएँ सब जीते मुस्कानों में भी अभिनय है।
आसमान छूने को उछली नदी भूल बैठी निज लय है।
हरिद्वार - काशी जैसे तट देकर ही देवत्व मिलेगा,
वैसे तो हर धारा का ही सागर में खो जाना तय है।
निजता के गालों पर चलो मनुजता का गुलाल मल आएँ।
मीत सार्थक हो जायेंगीं मधुर मिलन की परिभाषाएँ।।

डॉ राजीव राज

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होली

बिफरे चहुंओर खून के रंग
    कटे बिखरे शरीर के अंग अंग

विस्तार वाद की बढ़ती चाहत 
    नफरतों की तस्वीर करती आहत

 तरसता मानव अन्न जल आस में
बच्चे बूढ़े जी रहे अब निरास में 
जल रही अट्टालिका ध्वस्तमीनारें
मानव के बीच पल रही है  दीवारें

बिफरे चहुंओर खून के रंग
    कटे बिखरे शरीर के अंग अंग


रिहायशी मकान बन गए खंडहर
ऊंची मीनारों मैं छा गया  बवंडर
 धधकी मानवता जल रही ज्वाला
इंसानी मन में ज्वालामुखी लावा

बिफरे चहुंओर खून के रंग
    कटे बिखरे शरीर के अंग अंग

आभा 

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होली पर्व
जोगीरा सारा रा रा रा ।

होली के सब ढंग निराले, रंगों का है खेल,
हँसी-ख़ुशी में दिल मिल जाते, हो जाता है मेल,
जोगीरा सारा रा रा रा ।१।

रंग लगाने ज्यों गोरी को, पहुँचा उसके गाँव,
नदी-सरोवर, बाग़-बग़ीचे, कितनी प्यारी ठाँव,
जोगीरा सारा रा रा रा ।२।

इश्क-मुहब्बत के सब चर्चे, प्यारा उसका देश,
अंग लगाया ज्यों सजनी ने, होश नहीं फिर लेश,
जोगीरा सारा रा रा रा ।३।

अंग लगाके बोली सजना, नहीं छोड़ना साथ,
सात जन्म तक साथ निभाना, दे हाथों में हाथ,
जोगीरा सारा रा रा रा ।४।

प्रेम रंग में रंगा हुआ था, मानों पूरा गाँव,
कू-कू कोयल बोल रही थी, ठुमक रहे थे पाँव,
जोगीरा सारा रा रा रा ।५।

भाभी ने देवर को छेड़ा, होके आज मलंग,
सास-ससुर, नंदे-भौजाई, मची हुई हुड़दंग,
जोगीरा सारा रा रा रा ।६।

रंग प्रेम का, रंग मिलन का, होली का त्यौहार,
द्वेष भावना, सभी बुराई,  छोड़े सब तकरार,
जोगीरा सारा रा रा रा ।७।

गुज़ियाँ-भुजियाँ, दही-बतासा, ठण्डाई का घोल,
भाँग मिलाके, नशा चढ़ाके, दुनियाँ गोल-मटोल,
जोगीरा सारा रा रा रा ।८।

रंगपर्व कितना मनभावन, खुशियाँ सब अनमोल,
प्रेम-प्रीत का पावन अवसर, मीठे-मीठे बोल,
जोगीरा सारा रा रा रा ।९।


अभिषेक जैन 'अबोध'
29


चलीं जग रॅंगने सारा है

नयन में सपने नये रचे
रंग भी नेंकहु नाय बचे
चलीं जग रॅंगने सारा है। 
यौवन की अंखियों से ,
प्रीतम रूप निहारा है।

बचपन में पचकुट्टे जैसी
संग सहेली थीं। 
कुछ बूझी, कुछ रहीं अबूझी
नई पहेली थीं। 
छोड़ कर विगत धरा का साथ
चलीं ले आगत का विश्वास
कर दिया तन मन वारा है। 
यौवन की अंखियों से 
प्रीतम रूप निहारा है। 

अंखियन के कजरारे डोरे
मारें तिरछी मार। 
खुल खुल जायें गेसू झट से
उड़ने को तैयार। 
चलें फिर मतवाली सी चाल
करें फिर पर में उन्हें निहाल
जीत कर तन,मन हारा है। 
यौवन की अंखियों से
प्रीतम रूप निहारा है। 

पल में तोला पल में माशा
बिना तौल तौलें। 
बिना कहे ही अधर राग
मन की बतियां बोलें। 
घोल दें जीवन में ये रंग
गोराई देख देख के दंग
कर दिया जग उजियारा है। 
यौवन की अंखियों से
प्रीतम रूप निहारा है। 

डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
तुम बिन रंग सब फीके 

सीमा पार समर में साजन मोह तजे गोरी का 
बासंती चोला रँगवा के रूप धरे जोगी का 
बादल बरस रहे होली के 
भींगी सकल नगरिया 
परदेशी साँवरिया, घर आजा साँवरिया।

फाग लगे पतझर-सा तुम बिन रंग सब फीके 
नस-नस में विषधर दौड़े हैं, पलक दाहिनी फड़के 
जी जाऊँ, अधरों पर रख दे 
अधरों की बाँसुरिया 
परदेशी साँवरिया, घर आजा साँवरिया।

अमलताश फूले सपनों में, जवाकुसुम गदराए 
सरसों पकी हथेली ऊपर, विरहा आग लगाए 
देह दहकती है पलाश-सी 
महक उठी केसरिया 
परदेशी साँवरिया, घर आजा साँवरिया।

भीतर-बाहर बौराया मन, ले अँगिया अँगड़ाई 
रोम-रोम मंजरियाँ चटकी, बहक रही तरुणाई 
बार-बार छलके आँखों के 
पनघट पर गागरिया 
परदेशी साँवरिया, घर आजा साँवरिया।
   भावना तिवारी 

     31
*गीत - रंग वो ही डालना* 

चढ़कर जो उतरे न , तुम रंग वो ही डालना
वैरागी   मन  है  मेरा , प्यार  से  सँभालना

निर्मोही  सपनों  का   क्या  वो रोज़ आएंगे
थोड़ा   सुख  देंगे  और  ज्यादा  तड़पाएंगे
मन की बातें किसी के आगे मत निकालना

सखियाँ  नित  पूछा करेंगी हृदय में कौन हैं
चहक रही हो फिर भी ये आँखें क्यों मौन हैं
सबकी  नज़रों से बचाकर मुझे तुम पालना

फिर मौसम मदमस्त हुआ फागुनी बयार है
जीत  छिपी हो किसी की मीत ये वो हार है
मिलने को ग़र वक़्त कहे तो कभी न टालना

धूप में  निकला  न करो देहरी को लाँघकर
रख   लेगा   प्रेमी  कोई  छंदों  में   बाँधकर
भाने  लगेगा  तुम्हें फिर  चंदन  का  पालना

 नवगीत - होली का उत्सव

रंग खेलने का लोगों को आया नहीं सलीक़ा
इसीलिए होली का उत्सव लगता है अब फ़ीका

धूल सने टेसू सेमल में बची नहीं वो रंगत
चौराहे में नशेड़ियों की बैठ रही है पंगत
बढ़ जाता है भाव अचानक महफ़िल में साक़ी का

सबकी आँखें खोज़ रही हैं आलिंगन का अवसर
अंजाना राही भी पथ में बन जाता है सहचर
सोचा करता है मन अक्सर कब टूटेगा छींका

रंग और गुलाल के बदले खेलेंगे सब कीचड़
छेड़ी जाएंगी बालाएं शेर बनेंगे गीदड़
ऐसे में मँहगा पड़ता है लगवाना इक टीका

कोई रखता नहीं आजकल छोटे बड़े का ध्यान
क्षणभंगुर ख़ुशियों की ख़ातिर दांव में है ईमान
कोसों दूर हैं मर्यादा से भूले तौर तरीका

 डॉ.माणिक विश्वकर्मा 'नवरंग'


रंग चित्र प्रवेश सोनी जी की फेसबुक वॉल से साभार




प्रस्तुति वागर्थ
सम्पादक मण्डल