सोमवार, 21 जून 2021

वरेण्य कवि मयंक श्रीवास्तव जी के दस नवगीत और एक टिप्पणी प्रस्तुति समूह ~।।वागर्थ।।~

~ ।।वागर्थ ।। ~

             में आज प्रस्तुत हैं आदरणीय मयंक श्रीवास्तव जी के नवगीत ।

       मैंने साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग के  समय को तो नहीं देखा परन्तु साप्ताहित पत्र प्रेममेन के अंक के आरम्भ फिर चरम और बाद में इसके समापन के सभी अंकों का साक्षी जरूर रहा हूँ।
 गीत नवगीत विषयक रोचक और अभिनव सामग्री के चलते आज प्रेसमेन के अंक साहित्य प्रेमियों ने सहेज कर रखे हैं।उन दिनों शैक्षणिक पृष्ठ भूमि के सामान्य से पत्र प्रेसमेन की तुलना साहित्यिक खेमों में धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान से की जाती थी। निःसन्देह इस पत्र ने गीत/ नवगीत विषयक विपुल सामगी देकर नए कीर्तिमान रचे और अनेक चेहरों को मंच प्रदान किया था। देखा जाय तो साहित्यिक पत्र का सम्पादकीय धर्म भी यही होता है जो इस पत्र ने बखूबी निभाया इस पत्र के साहित्यिक सम्पादक कोई और नहीं राजधानी भोपाल के ख्यात कवि मयंक श्रीवास्तव जी थे। वागर्थ में उनके नवगीतों को जोड़ते समय मुझे उनके मित्र महेन्द गगन जी की एक टिप्पणी जो उन्होनें मयंक जी पर केंद्रित विशेषांक के समय अपने एक लेख "दिलासों की दवा से बदलते नही" से साभार प्रस्तुत करना प्रासंगिक लगी, जिसे भोपाल की प्रतिनिधि साहित्यिक मासिक पत्रिका रागभोपाली से लिया है।
महेंद्र गगन अपने लेख में मयंक जी के व्यक्तित्व कृतित्व का पूरा खाका खींचते हैं।
पढ़ते हैंउन्ही के शब्दों में
          "मैं जब भी मयंक श्रीवास्तव के बारे में सोचता हूं मेरे कानों में मैं मयंक जी की कड़क खबरदार आवाज गूंजने लगती है। वेअपने गीतों में कभी गांव याद करते हैं तो कभी समाज की विद्रूपता  पर चोट करते हैं। वे पूरे विश्वास से कहते हैं " कि तुम हमको चट्टानों वाला/ भाग भले दे दो/ लेकिन जल की धार हमारे /दर से ही निकलेगी"। यह विश्वास कवि में अनेक विषमताओं /वव्यथाओं से गुजरने के बाद आया है। शारीरिक तौर पर भी मयंक जी ने बहुत कष्ट झेले हैं मगर वे उनसे  भी पूरी दृढ़ता से निपटते रहे हैं।वे कहते हैं मैं 'रोज डूबतास उतराता/ इस सागर /की गहराई में/ मैं हुआ पराजित जीता भी/जीवन की बड़ी लड़ाई में/कभी उनका कवि मन कहता है ''बहुत दिनों से स्वयं में हूँ/ अब मुझको बाहर हो जाने दो/ बहुत जी लिया बूँद -बूँद होकर/अब मुझको सागर हो जाने दो /मयंक जी के गीतों में जख्मी अहसास हैं खटासों की मौलिक कथा है ,समय की गर्म सलाखों का एहसास है। दिलासों की दवा से ये बदलते नहीं हैं, उल्टे उनके पाखण्ड पर प्रश्न उठाते हैं।  बेमौसम बरसते बादलों को खूब पहचान हैं तभी किसी के बहकावे में नहीं आते। वे वर्तमान के छल को पहचानते हैं,उसे गाते हैं ,भले ही वे कितने छले जाएं ।मयंक जी ने कभी कोई समझौता नहीं किया ।अपने जीवन मूल्यों पर अडिग रहे ।ऐसा करना हर किसी के बस की बात नहीं ।यही मयंक जी की विशेषता है। "

       हाल ही में मयंक जी को दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय ने सुदीर्घ साधना सम्मान देने की घोषणा की हैं 
     वागर्थ उन्हें इस अवसर पर बहुत बहुत बधाइयाँ प्रेषित करता है ।

            प्रस्तुति 
      ~।।  वागर्थ ।। ~
        संपादन मण्डल
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(१)

आग लगती जा रही है-
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आग लगती जा रही है
अन्न-पानी में
और जलसे हो रहे हैं
राजधानी में

रैलियाँ पाबंदियों को
जन्म देती हैं,
यातनाएँ आदमी को
बाँध लेती हैं,
हो रहे रोड़े बड़े
पैदा रवानी में

खेत में लाशें पड़ी हैं
बन्द है थाना,
भव्य भवनों ने नहीं
यह दर्द पहचाना,
क्यों बुढ़ापा याद आता
है जवानी में

लोग जो भी इस
ज़माने में बड़े होंगे,
हाँ हुजूरी की नुमाइश
में खड़े होंगे,
सुख दिखाया जा रहा
केवल कहानी में

(२)

एक अरसे बाद-
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एक अरसे बाद
फिर सहमा हुआ घर है
आदमी गूँगा न बन जाये
यही डर है

याद फिर भूली हुई
आयी कहानी है,
एक आदमखोर
मौसम पर जवानी है,
हाथ जिसका आदमी के
खून से तर है

सोच पर प्रतिबंध का
पहरा कड़ा होगा,
अब बड़े नाख़ून वाला
ही बड़ा होगा,
वक्त ने फिर से किया
व्यवहार बर्बर है।

पूजना होगा
सभाओं में लुटेरों को
मानना होगा हमें
सूरज अँधेरों को,
प्राणहंता आ गया
तूफान सर पर है।

कोंपलें तालीम लेकर
जब बड़ी होंगीं,
पीढ़ियाँ की पीढ़ियाँ
ठंडी पड़ी होंगी,
वर्णमाला का दुखी
हर एक अक्षर है

(३)

नदी-
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आह भरती है नदी
टेर उठती है नदी
और मौसम है कि उसके
दर्द को सुनता नहीं

रेत बालू से अदावत
मान बैठे हैं किनारे
जिंदगी कब तक बिताएँ
शंख -सीपी के सहारे
दर्द को सहती नदी
चीखकर कहती नदी
क्या समुन्दर में नया
तूफान अब उठता नहीं ?

मन मरुस्थल में दफ़न है
देह पर जंगल उगे हैं
तन बदन पर किश्तियों के
खून के धब्बे लगे हैं
आज क्यों चुप है सदी
प्रश्न करती है नदी
क्या नदी का दुःख
सदी की आँख में चुभता नहीं ?

घाट के पत्थर उठाकर
फेंक आयी हैं हवाएँ
गोंद में निर्जीव लेटी
पेड़-पौधों की लताएँ
वक्त से पिटती नदी
प्राण खुद तजती नदी
क्योकि आँचल से समूचा
जिस्म अब ढँकता नहीं ?

(४)
 
पता नहीं है-
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पता नहीं है, लोगों को
क्यों अचरज होता है
जब भी कोई गीत प्यार का
मैं गा देता हूँ

प्यार कूल है प्यार शूल है
प्यार फूल भी है
प्यार दर्द है प्यार दवा है
प्यार भूल भी है
मेरे लिए प्यार की इतनी
भागीदारी है
इसको लेकर अपनी रीती
नैया खेता हूँ

प्यार एक सीढ़ी है
इस पर चढ़ना ही होता
प्यार एक पुस्तक है
इसको पढ़ना ही होता
धरती का कण-कण जब मुझसे
रूठा लगता है
गा कर गीत प्यार के ही
मन समझा लेता हूँ

प्यार दया है प्यार धर्म है
प्यार फ़र्ज भी है
प्यार एक जीवन की लय है
प्यार मर्ज़ भी है
जब भी किया प्यार पर मैंने
न्योछावर खुद को
मुझे लगा है सब हारे
मैं एक विजेता हूँ

(५)

मेरे गाँव घिरे ये बादल-
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मेरे गाँव घिरे ये बादल
जाने कहाँ-कहाँ बरसेंगे

अल्हड़पन लेकर पछुआ का
घिर आयीं निर्दयी घटाएँ
दूर -दूर तक फ़ैल गयीं हैं
घाटी की सुरमई जटाएँ
ऐसे मदमाते मौसम में
जाने कौन -कौन तरसेंगे

मछुआरिन की मस्ती लेकर
मेघों की चल पड़ी कतारें
कहीं बरसने की तैयारी
कहीं -कहीं गिर पड़ी फुहारें
कितने का तो दर्द हरेंगे
कितनों को पीड़ा परसेंगे

मेरे गाँव अभागिन संध्या
रोज-रोज रह जाती प्यासी
जिसके लिए जलाए दीपक
उसका ही उपहार उदासी
जाने किसका हृदय दुखेगा
जाने कौन-कौन हरषेगें

(,६)

हुई मुनादी -
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सागर से पर्वत तक 
ऐसी हुई मुनादी है 
अपना राजा यश गाथा 
सुनने का आदी है 

मजमेदार वज़ीरों की 
लग रही नुमाइश है
अपनी धरती पर इसकी 
अच्छी पैदाइश है 

हमको दम्भ देखना है 
किसका फौलादी है ?

आँखों में अनलिखे पृष्ठ
को पढ़ते रहना है 
नित्य प्रतीक्षा की घड़ियों से 
लड़ते रहना है 

झुककर खड़ा दलालों 
के आगे फरियादी है।

अर्थ खोजना नहीं
महज शब्दों को सुनना है
फर्ज़ हमारा झूठे साँचे
सपने बुनना है
सपने दिखलाने

की संख्या
और बढ़ा दी है।

(७)

बिन्दी हमें कहाँ रखना है -
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बिन्दी हमें कहाँ रखना है 
इसका ध्यान नहीं 
अपनी खींची 
हुई लकीरों 
की पहचान नहीं 

न तो अर्थ ने और न 
शब्दों ने ही समझाया 
भाव सिन्धु  की लहरों ने 
जो भी बोला गाया
किसी ठौर
पर भी राहत 
दे सकी थकान नहीं 

अर्ध-विरामों और 
विरामों ने भी बहुत छला 
झूठ बोलकर रुक जाने  की 
सीखी नहीं कला 
शायद इसीलिए 
अपनी 
रुक सकी उड़ान नहीं 

नए सोच के संदर्भों में 
ऐसी चाल चली 
जिस धारा में बहे हमें 
वह लगने लगी भली
तेज दौड़कर
भी बागी 
हो सकी रुझान नहीं।

(८)

नुकीला पत्थर लगता है-
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हाथों में हर समय नुकीला 
पत्थर लगता है 
हमें आदमी 
की छाया से 
भी डर लगता है 

ऊब  गया है मन 
अलगावों की पीड़ा सहते 
कुटिल इरादों को 
मुट्ठी में बंद किए रहते 
जीवन जंगल के भीतर का 
तलघर लगता है 

संबंधों का मोल भाव है 
खींचा तानी है 
पहले वाला कहाँ रहा 
आँखों में पानी है 
रिश्तो वाला सेतु 
पुराना जर्जर लगता है 

लोग लगे हैं सोने 
चाकू रखकर सिरहाने
कविता लिखने वाला
दुनियादारी क्या जाने 
हैं ऐसे हालात 
कि जीना दूभर लगता है।

(९)

ऐसी राजधानी दे=
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दे सके तो एक ऐसी 
राजधानी दे 
भोर दे हँसती हुई 
रातें सुहानी दे।

स्वप्न के अनुबंध पर 
जो दस्तखत कर दे 
वक्त से हारे हुए 
इंसान को स्वर दे
 दुख -पलों को भेदकर 
खुशियाँ सयानी दे ।

जो करे चिन्ता सदा 
छोटी इकाई की
जिन्दगी के गाँव की 
फटती बिवाई की 
हर सड़क हमको 
सुरक्षित जिन्दगानी दे ।

अर्थ को लेकर हवा कुछ 
इस तरह डोले 
रात को मजदूर भी 
सुख चैन से सो ले 
जो हमें भरपेट रोटी 
स्वच्छ पानी दे।

(१०)

यहाँ हजारों बार -
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इसकी चर्चा नहीं तुम्हारी 
नयी कहानी में
यहाँ हजारों बार लुटी है 
नदी जवानी में

चिड़िया बता रही है अपना 
दुख रोते -रोते
करते हैं उत्पात शहर के
पढ़े हुए तोते

पगडण्डी मिट गई सड़क की.
आनाकानी में 

चिमनी के बेरहम धुएँ का 
इतना अंकुश है
जंगल बनते हुए गाँव से 
मौसम भी खुश है 

लोक धुनें कह रहीं
नहीं सुख रहा किसानी में

जब अपने ऊपर मँडराती 
चील दिखाई दी
बूढ़ी इमली की अपराजित 
चीख सुनाई दी

कोयल लगी हुई है 
गिद्धों की मेहमानी में ।

                 ~ मयंक श्रीवास्तव
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परिचय -
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मयंक श्रीवास्तव
जन्म- ११ अप्रैल १९४२ को उत्तर प्रदेश के फिरोज़ाबाद के ऊँदनी गाँव में।

कार्यक्षेत्र-
माध्यमिक शिक्षा सेवा मंडल मध्य प्रदेश में लम्बे समय तक सहायक सचिव के महत्त्वपूर्ण पद पर रहने
के बाद स्वैक्षिक सेवानिवृत्ति। मयंक जी के गीत डॉ० शम्भुनाथ सिंह जी द्वारा सम्पादित नवगीत
अर्धशती में सम्मिलित हैं।

प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ-
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नवगीत संग्रह  
1.सूरज दीप धरे
2.सहमा हुआ घर 
3.इस शहर में आजकल
4.उँगलियाँ उठतीं रहें 
5.ठहरा हुआ समय 
6.समय के पृष्ठ पर ।

ग़ज़ल संग्रह- रामवती।

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