रविवार, 7 अप्रैल 2024

प्रसङ्ग

एक प्रसङ्ग
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परम सखा को याद करते हुए
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                  कुछ घण्टों की अनुपस्थिति ही जब आपको बेचैन कर दे तो इस भाव को आप क्या कहेंगे?
    प्रेम और स्नेह की पराकाष्ठा में परस्पर ऐसा भाव संभव है। वर्तमान में देखा जाय तो, जो सबसे ज्यादा मूल्यवान वस्तु है, वह है 'समय' बस, हम लोग परस्पर बड़े पावन भाव से एक दूसरे को अपने हिस्से का समय देते हैं। आज, जबकि आप की भौतिक उपस्थिति भोपाल में नहीं है, तब मेरा यह हाल है; जैसे किसी मछली को तालाब से निकालकर, किसी ने किनारे पर डाल दिया हो। क्या न मिला मुझे आपके सानिध्य से, कृष्ण सा सखा , भरत सा भ्राता, चाणक्य सा नीतिकार! और भी बहुत कुछ जो अतुलनीय है।
                यह सही है की विष्णु भगवान (छोटे भाई के अर्थ में) सहोदर है पर अनुज होने का जो स्नेह मैंने पाया है वह किसी और के हिस्से में नहीं आ सकेगा।
     आप ऐसे में और ज्यादा प्रासङ्गिक हो जाते हैं जब, हमारे अपने परिजन ही हमसे बेगानों सा व्यवहार करते हों!
              इस समय आप बहुत याद आ रहे हैं मित्र! ज्ञानदीप स्कूल परिसर से आरम्भ हुई हमारी यह यात्रा दिन पर दिन आनन्द से परमानन्द में बदलती जा रही है।
             आज मैं मिस कर रहा हूँ! आपका कॉल! फिर कॉल पर यह पूछना की कहाँ हो?आओ इन्तज़ार कर रहा हूँ?
           आपके सखा भाव और पावन मन को श्रद्धा सहित नमन।
स्नेह और आशीष  सदैव बना रहे
आपका अपना सखा
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चित्र में आप देख रहे हैं मेरे कैमरे से ली गई एक तस्वीर जिसमें हम दो मित्र ऐतिहासिक नगरी भोजपुर मन्दिर प्रांगण में बैठे दिखाई दे रहे हैं।

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

सेवा निवृर्त आई ए एस मनोज श्रीवास्तव जी का एक आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार  

                एक सच्चे संत की तरह यों तो विद्यासागर जी वसतिका, उपकरण, गाँव, नगर, स्वसंघ, सभी में ममत्व रहित थे,

यों तो विद्या सागर जी कर्नाटक के थे, 

और तात्त्विक रूप से तो इस जगत् के थे 

पर मुझे यह बात उनमें विशेष रूप से प्रिय लगती थी कि उन्हें मध्य प्रदेश विशेष रूप से प्रिय था। उनके सबसे ज्यादा विहार मध्यप्रदेश में ही हुए। मुझे घूमने को विहारचर्या कहने का यह जैन अंदाज़ बहुत पसन्द है। यह घूमना भटकना नहीं है। इसमें एकांतिक wanderlust भी नहीं है जैसे किसी वैयक्तिक यायावर में होती है और जिसमें स्वच्छंदप्रवर्तता का अपना मिथ्यात्व होता है। विद्यासागर जी तो मुनि-गण के साथ विहार करते थे जिसमें सम्यग्दर्शन की मार्गणा का सौंदर्य बना रहता था।

विद्या सागर जी का वह भोपाल चातुर्मास था।सुधा मलैया जी का पता नहीं क्यों आग्रह था कि मैं विद्यासागर जी के अवश्य ही दर्शन करूँ।मैंने कहा कि आपको मेरे साथ चलना होगा। उन्होंने कहा कि मैं तो जाती ही हूँ। कल आपको ले चलूँगी। मैं गया। 

वहाँ बहुत सारे श्रद्धालुओं की भीड़ थी और मैं उन सबके चेहरे पढ़ पढ़ कर चकित था। कुछ के मुख पर श्रद्धा के साथ उत्सुकता का भाव था।कुछ जो उनके दर्शन कर आ गये थे, उनके चेहरे पर श्रद्धा के साथ आहलाद का भाव था। अंततः हमारी भी बारी आई।

सुधा मलैया जी ने जब तक मेरा परिचय कराया, मैं विद्यासागर जी को ध्यानपूर्वक देख रहा था और जो बात मैंने गौर की, वह उनके चेहरे की प्रभा नहीं थी, प्रसन्नता थी।मेरे सामने एक सच्चे अर्थों में स्वतन्त्र व्यक्ति था, निर्भार , ऐसा कि जिस पर कोई बोझ नहीं था, जो प्रमुदित था, मुस्कान उनके होठों पर ही नहीं, आँखों में भी खिली हुई थी।

मुझे मालूम है कि आज की अघाई हुई दुनिया  जो जितनी संतृप्त है, उतनी संदृप्त भी, के लिए त्याग के वे सारे उदाहरण विद्यासागर जी जैसे सन्तों में प्रत्यक्ष हुए, एक तरह का आत्म-निषेध (Self- denial) हैं।मैंने ऐसी दुनिया के लोगों को कुंभ के वक़्त आए साधुओं को आत्म-पीड़क (masochist) कहते हुए देखा है, पर नकार और कष्ट का अनुभव तो तनाव व अशांति से भरा होता है। पर विद्यासागर जी हर्षित और आमोदित कैसे  थे? बाद में भी वे मुझे हमेशा उसी मुद्रा में मिले।

वे अपने त्याग पर भी कोई चर्चा नहीं कर रहे थे और न बाद में भी कभी मैंने उन्हें वह करते देखा, नहीं तो कई लोग अपने त्यागों का भी संग्रह कर लेते हैं। उनके शरीर, चित्त और संकल्प एक सम पर थे और उनसे निकलने वाली रागिनी मोहित किये लेती थी। प्रायः लोग ऐसे त्याग को सामाजिक उपयोगिता के निकष पर मापने की कोशिश करते हैं और दूसरे के द्वारा दी गई सजा को झेलने को समस्त मनुष्यों के पाप अपने ऊपर ले लेना बताकर उसे भव्य बना देते हैं । लेकिन विद्यासागर जी ने त्याग को आत्मोत्कर्ष के लिए अपनाया था।चेतना की वह परमोन्नति जिसमें प्रकृति और विश्व के साथ द्वन्द्व नहीं रह जाता और 'आत्मार्थ पृथिवीं त्यजेत" से पृथ्वी के तापों का समाहार होता है। 

पृथ्वी का भार हरण करने से पहले ऐसा जीवन तो दिया जाये जिनमें आप स्वयं इस पृथ्वी पर भार न हों - ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता।विद्यासागर जी ने अस्तित्व की वह शीतलता सिद्ध की थी। वे उस सीप की तरह दिखे उस क्षण मुझे जो रत्नों का पोषण करता है।कभी उन्होंने ही कहा ही था कि ‘स्वयं धरती ने सीप को प्रशिक्षित कर/सागर में प्रेषित किया है।’

और विद्यासागर जी तो स्वयं सागर थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के वे रत्न दिये थे जिनका पता मुझे बाद में लगना था।

फिर सुधा जी द्वारा दिये गये मेरे परिचय से जो बातें निकलीं, उन्हीं के आधार पर मेरा-उनसे संवाद होने लगा और उस समय जबकि बाहर बहुत लंबी पंक्ति थी, हम लोग आधे घंटे से भी ज्यादा बात करते रहे, भाषा, संस्कृति, हिन्दी, साहित्य, शिक्षा, न्याय बहुत-से विषय उस क्रम में आते चले गये। अन्त में उन्होंने मुझे कहा कि आपको उनकी सभा में शिक्षा पर बोलना है। यह अवसर आया उस पहली भेंट के कुछ दिन बाद।

मुनि-संघ ने मुझे फिर एक अन्य कार्यक्रम में मूक माटी पर बोलने के लिए कहा, मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया। दोनों ही सम्बोधन विद्यासागर जी की उपस्थिति में थे। और फिर दोनों ही बार मैंने उनकी अमृतवाणी भी सुनी। 

उनका कहा हुआ प्रामाणिक भी लगा था। वह कहा हुआ किसी अवांतर अंतरिक्ष के लिए नहीं था, इसी मूक माटी के लिए था। इसलिए उनकी दिव्यता का कोई एकान्त नहीं था। वैसे भी अनेकान्तवादी यदि सच्चा हो तो उस में एकान्तिकता संभव ही नहीं। वह संसार से वैसा पलायन नहीं है कि उस संसार को दुष्टों के आखेट के लिए बुला छोड़ जाओ। विद्यासागर जी हमेशा उस संसार के प्रति सजग रहे और उस दुनिया के प्रति सावधान करने के दायित्व का निर्वाह करते रहे जिसमें इतनी विषमताएँ और विकृतियाँ पैदा हो गई हैं, इस प्रक्रिया में न अंग्रेजी के द्वारा रचा जा रहा अभिजात प्रभुत्व का कुचक उनकी दृष्टि से बच सकता था, न न्याय व्यवस्था के अन्याय,न अपने स्वाद के लिए निरीह जीवों को मारने वाली नृशंसता उनसे छुप सकती थी।वे दोषों को अजीव, नैमित्तिक और बाहर से आगत अवश्य कहते हैं, पर उनके प्रति किसी अज्ञान या उपेक्षा के समर्थक वे नहीं थे। 

फिर तो मेरे और उनके बीच में जो अंतरंगता स्थापित हुई, वह लगातार बनी रही। उनके आदेश पर मैंने जैन विद्यालयों के लिखे तीन पाठ लिखे। उन्होंने इच्छा की तो मैं छतरपुर पहुँचा। जब मैंने अतिशय क्षेत्रों से अलग एक जैन-विश्व का प्रोजेक्ट बनाया तो सबसे पहले विद्यासागर जी को दिखाने जबलपुर पहुँचा। सरकारी क्षेत्रक में जब गौशालाओं को बनाए जाने के अभियान की आरंभ किया तो भी आचार्य का आशीर्वाद मिला। 

जो लोग तपस्या को एक व्यतीत कर्म की तरह देखते हैं- किसी सुदूर अतीत की चीज़ की तरह - उनके शोधन के लिए विद्यासागर जी का जीवन एक आवश्यक संदर्भ- बिन्दु है।जिन लोगों को ऐसे संतों का त्याग एक पलायन लगता है, वे उस एडवेंचर को नहीं जानते जो नंगे पैरों किसी भी दिशा में निकल पड़ने वाले को अनुभूत होता है।वे न जानें। मैं ही कौनसा बड़ा जानता हूँ। हम दुनियादार भी रह लें, पर कम से कम अपने से भिन्न का सत्कार करना तो सीखें।देखें कि बिना भय के यह भ्रमण कैसे होता है।देखें कि जो बहुत-से अधिनियम बनाते रहते हैं कि संयम कैसे घटित होता है।देखें कि जो इसे दमन का नाम देकर बदनाम करते हैं कि दमन की संरचनाएँ वास्तव में किसने रची हैंजिन्हें यह काया पर हिंसा लगती है।उन्हें काया के इस कल्प का अता पता नहीं और वे स्वयं अपनी काया पर एक औद्योगिक खाद्य के द्वारा कारित हिंसा के शिकार हो रहे हैं। कैसे सिगरेट या शराब या काया पर हिंसा नहीं है? यदि लालसा इन सब चीजों की हो और काया इन सब के विरुद्ध विद्रोह कर रही हो तब क्या वह काया के हितों का दमन नहीं है ?

विद्यासागर जी ने हमें सिखाया कि पवित्रता स्वयं में स्वास्थ्य है। स्वस्थता की आत्मस्थता ही नहीं है, एक विश्वस्थता भी है।पर उसमें कहीं भी स्वार्थलिप्सा नहीं है। 

मेरे प्रति स्नेह से भरी उनकी वे आँखें मेरी निधि हैं। 

उनका अंतिम रूप देखिये। वे ऐसे वृक्ष की तरह लग रहे हैं जिसने अपने सारे पत्ते झरा दिये हैं।

ताकि इस पृथ्वी पर खाद बन सके बेहतर जीवन मूल्यों की।

वह कायोत्सर्ग नहीं है, समाधिमरण है। एक जाग्रत चेतना का साक्ष्य। एक समाधि की लय। एक लय का विलय।

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

बाल कविता



वागर्थ में आज एक बाल कविता
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"यह डलिया है उड़ने वाली"
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आओ ताई, तुम भी बैठो,
यह डलिया है उड़ने वाली।
डलिया है यह उड़ने वाली।

दूर गगन की, सैर कराती,
दुनिया भर से जुड़ने वाली।
यह डलिया है उड़ने वाली।

छूमंतर,भर कहना हमको,
उड़न खटोला बन जाती है।
पलक झपकते,इसे देखना, 
आसमान में तन जाती है।

धक्का प्लेट,मम्मम्ममम्ममम्ममम्मनहीं यह गाड़ी,
ना है पीछे मुड़ने वाली।
यह डलिया है उड़ने वाली।

आओ ताई,
तुम भी बैठो,
यह डलिया है उड़ने वाली।

जगह देखकर,
मत घबराओ,
इसमें हम सब आ जाएंगे।

दिल डलिया का,
दरियादिल है,
इसमें सभी समा जाएंगे।

तनकर खूब,
फैल जाती है,
थोड़ी बहुत सिकुड़ने वाली।
यह डलिया है उड़ने वाली।

मनोज जैन

सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

अनामिका सिंह के चार प्रेम गीत

अनामिका सिंह के चार नवगीत
     प्रस्तुति
~।।वागर्थ।।~


एक

साथी तुमको प्यार
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तेरे आने से मन महका
महक हुआ गुलज़ार 
साथी तुझको प्यार

जुड़े डोर बिन,मन जा पहुँचे
मीलों नंगे पैर 
चुभे न कोई काँटा-वांटा
रोज़ मनाऊँ ख़ैर

रेशम सा यह नाता चाहे 
नाज़ुक साज-संभार
साथी तुझको प्यार ।

संवादों के पल ले आये
हमको बहुत क़रीब
अब अमीर हैं ,बने रहें 
कुछ ऐसी हो तरकीब ।

और अमीरी पर दिन -दूना 
आता रहे निखार
साथी तुझको प्यार ।

सरलमना है नेह हमारा 
सीधी हर तक़रीर ,
इन तक़रीरों संग खिंचनी है 
लम्बी प्रेम लकीर ।

नेह-छोह के और अधिक हों
ऊँचे ये मे’यार ।
साथी तुझको प्यार ।

    दो

तुम बिन यह मन रहे अनमना
छाई रहे उदासी 
जल बिन मीन पियासी ‌।

दो नयनों  में 
बिना तुम्हारे
आ धमका चौमासा ।
रेज़ा - रेज़ा 
मन घुलता 
ज्यों पानी घुले बताशा ।

ढीली कर दी 
अनुपस्थिति ने 
तबियत अच्छी-खासी ।

जोड़ हथेली 
दुख भर लाया 
प्रेम साथ कुछ अपने ,
खुले नयन से 
देखे थे जो
चुए  पलक  से  सपने ।

पक्की थी 
चाहत की सीवन 
बेजा रोज़ उकासी ।

भादों आँखें,
जेठ हुआ मन
आस अमावस ठहरी 
कहाँ लिखाऊँ 
प्रेम मुकदमा
जाऊँ कौन कचहरी ।

काँच नगरिया हम ,
बैठे तुम 
दूर कोस चौरासी ।

जल बिन मीन पियासी ।

तीन

मन  हारिल  ने  उम्मीदों  के 
कितने   दीप   जलाये ,
मनमीत   नहीं  आये ।

पावस   बीता  बिना  तुम्हारे ,
आशाओं का  काजल  पारे 
नयन नेह का  सूद  भर  रहे ,
उलट हृदय पर अश्रु झर रहे ।
पश्मीने सी  छुअन   तुम्हारी ,
अब  तक  जेहन में  है तारी ।
रुक -रुक  कटें अलोनी रातें ,
सुधियाँ  सूत विगत का कातें।

मेरे   प्यारे   बिना    तुम्हारे 
जीवन  कुम्हलाये ,
मनमीत      नहीं       आये ।

तुलसी   चौरे   तले   अँधेरा ,
बँजारों सा   दिल  का  डेरा ।
रीते  -बीते    फागुन  पावस ,
जीवन पर  ठहरी है  मावस ।
मुझ पर  मोहक मंतर   मारे ,
मुमकिन उनके  नहीं उतारे ।
पल में रत्ती  पल  में  माशा ,
धड़कन दिल की करे तमाशा।

श्वास -श्वास रुक -रुक रूदाली   
शोक  गीत   गाये ,
मनमीत नहीं   आये ।

उगे   सूर्य फिर भी अँधियारा ,
गुमसुम   अँगनाई  ओसारा ।
कटखन्नी   हर  चाँद कला है ,
जुन्हाई  में   हृदय   जला  है ।
अरमानों  पर  झरी  ओस है ,
यही   प्रेम  का  पारितोष  है ।
रही  अबाँची   नेहिल   पाती ,
उस  पर   गिरे अश्रु ओलाती ।

सिर्फ़ चाह थी अमिट रहे , वो
लिपि  धुलती    जाये ,
मनमीत  नहीं   आये ।

चार

फागुन का गुन
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फागुन का गुन 
सिर चढ़ बोले
रिलमिल रंग चढ़ा।

ऐसे रंग में रँगना जोगी
कभी नहीं छूटे ।
नेहिल थाप न टूटे,बेशक
जीवन लय टूटे ।

मन का प्रेम 
बरोठा हो बस 
तेरे रंग मढ़ा।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

इस फागुन से उस फागुन तक
हों छापे गहरे ।
रंग चढ़ाना ऐसा जोगी
जनम-जनम ठहरे ।

शोख रंग में रंग वफा का 
थोड़ा और बढ़ा ।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

किस्सागो लें नाम हमारा 
रँगरेजा सुन ले ।
मीत-जुलाहे एक चदरिया 
झीनी-सी बुन ले ।

ओर - छोर हो
जिसके,तेरा-मेरा 
नाम कढ़ा।
रिलमिल रंग चढ़ा ।

                - अनामिका सिंह

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

राजीव कुमार 'भृगु' जी के तीन गीत प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग


राजीव कुमार भृगु जी के तीन गीत
प्रस्तुति
वागर्थ ब्लॉग



एक

मेरा गीत मेरी प्रीत 

मेरा गीत तुम्हारे स्वर में,
ढल जाए तो गीत कहूॅंगा।

जो बसती है मेरे मन में,
वो मूरत कितनी पावन है।
श्वेत वसन मेघों सी कोमल,
सावन सी रुत मनभावन है।

मेरा प्रणय निवेदन उसको,
भा जाए तो प्रीत कहूॅंगा।

अधरों से अधरों की भाषा,
नयनों से नयनों की ज्योती।
मूक शब्द जो वर्णित करते,
प्रेम ग्रन्थ की भाषा होती।

मेरे मन से तेरे मन तक,
जो पहुॅंचे संगीत कहूॅंगा।

तोड़ सको यदि जग के बंधन,
तब आना तुम मन के द्वारे।
तीव्र वेग में प्रेम नदी के,
बह जाने दो कठिन किनारे।

यदि हाथ ना छोड़ा तुमने,
उसे प्रेम की रीत कहूॅंगा।

इतना भी आसान नहीं है,
प्रेम डगर पर चलते जाना।
सब कुछ सहना, कुछ ना कहना,
बहुत कठिन है, प्रीत निभाना।

दुर्गम पथ है, कठिन लक्ष्य है,
पहुॅंच सके तो जीत कहूॅंगा।

दो

 चलो मेला चलें 

मेला एक लगा है भारी,
खेल खिलौने न्यारे।
मन को रोक न पाओगे तुम 
लगते हैं सब प्यारे।

चलो खरीदें ये लाला है,
इनका पेट बड़ा है।
ये किसान है काॅंधे पर हल,
बैलों बीच खड़ा है।

ये सैनिक, बंदूक हाथ में,
सीमा पार निहारे ।

चलो चलें आगे भी घूमें,
मेला रंग बिरंगा।
वहाॅं खड़े नेता जी देखो,
थामे हाथ तिरंगा।

उनके पीछे खड़ा भिखारी,
दोनों हाथ पसारे।

चलो वहाॅं पर चलें देख लें,
भीड़ लगी है भारी।
अपने तन को बेच रही है 
बेटी एक बिचारी।

चढ़ी बाॅंस पर नाच दिखाती
भूखे तन से हारे।

चिमटे वाला इस मेले में,
सबसे दूर खड़ा है।
नहीं बिका है उसका चिमटा,
वह मजबूर बड़ा है।

ऐसे हामिद कहाॅं रहे अब,
किसको आज पुकारे।

सब धर्मों के कैसे कैसे ,
प्यारे ग्रन्थ सजे हैं।
अलग अलग दूकानें इनकी,
न्यारे साज बजे हैं।

भला कौन इनको पढ़कर जो,
अपना भाग्य सॅंवारे।५

तीन


भैंस गई पानी 

मेरा गांव लिखेगा भैया,
फिर से नई कहानी।
इस बारी शातिर ललुआ ने,
जीत लई परधानी।

बड़े वोट से जीता भैया,
खुलकर काम करेगा।
प्रतिबंधों की कमर तोड़कर,
ऊंचा नाम करेगा।

प्रतिद्वंद्वी को धूल चटाकर,
याद दिला दी नानी।

नित्य खिलाया हलुआ पूरी,
नित्य खिलाया मुर्गा।
वोट काटने लगा हुआ था,
उसका हरेक गुर्गा।

अबकी बारी खुलकर भैया,
भैंस घुसेगी पानी।

तुम सोते ही रहे, जानकर,
अपना फर्ज न जागे।
पांच बरस तक फिर से भैया,
रोते रहो अभागे।

बार बार तुम ऐसी भैया,
करते हो नादानी।

 राजीव कुमार भृगु, उत्तर प्रदेश

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

आदर्शिनी श्रीवास्तवके छह गीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

1

मरुत अश्व पर भाव तरंगें 
कहाँ-कहाँ की 
सैर कराएँ
दृश्य,भाव,अनुभव सब मिलकर 
शांत पड़े मन को 
उकसाएँ

भावुक मन का उडन खटोला 
यहाँ विचरता वहाँ विचरता
कभी अश्रु देता नैनो में कभी 
सहमता कभी विहँसता
बाहर भीतर के सब मौसम 
इक दूजे सँग 
ताल मिलाएँ

पृष्ठों के गोरे गालों पर मोती-मोती 
वर्ण झरे जब
खनन-खनन-खन वर्ण बजे फिर शब्द सजे भावार्थ भरे जब
गीत ग़ज़ल तब धीरे-धीरे 
भीगे अपने 
केश सुखाएँ

लोकोत्तर जग की सरिता मे 
भावों की नौका लहराई
शब्दों को नहला-नहला कर उस जग से 
इस जग तक लाई
दोनों जग का महासेतु मन, 
ही हमसे 
पदबंध रचाएँ

2

नाद और झंकार की जब भाँवरे पड़ने लगी
भावना के देश में पुरवाइयाँ चलने लगीं

था अपरिचित नाद भी अनभिज्ञ थी झंकार भी
क्या कहीं होता है जग में प्यार का व्यवहार भी
मन मृदंग जब कामना की थाप से झंकृत हुआ
तब हृदय सागर में सज्जित तरणियाँ तिरने लगी

नैन थे जब से मिले निश्छल समर्पित नेह से
हर घड़ी हर पल भिगोते जा रहे कण मेह के
नित नये अंकुर को पाकर खिल उठी मन की धरा
प्रेम के निर्झर मे झिर झिर जल तरंग बजने लगी

था नहीं कुछ भी जहाँ पर भू भी नहीं नभ भी नहीं
सृष्टि का बंधन नहीं न जनम कही न मरण कहीं
देह थे दोनों यही पर दो थे साये जा रहे 
आत्माएं आ हवाओं पर गले मिलने लगीं

3

कुछ ठहर कर चलीं, कुछ झिझक कर चलीं 
लो हवा की तरंगे भी दुल्हन हुईं

काकली कूँज से मन हुआ बाँवरा
बंसवारी में गूँजा स्वतः दादरा
कामनाओं से कम्पित हो कायानगर
चूड़ियों नूपुरों की छननछन हुईं

झोर पुरवा चली झोर पछुआ चली
घेरकर हर तरफ से हुई मनचली
सबसे छुपकर पवन आँचरा ले उड़ा
घड़कने जिस्म की हैं सुहागन हुईं

टहनियों से मिलीं टहनियाँ झूम कर
फूल हँसने लगे मौज मे डूबकर
बरखा आँगन मे बरसी बिना बादरी
नर्म माटी ही चंदन का लेपन हुईँ

एक स्वस्तिक वचन प्रेमियो के लिए
फूल झरने लगे वेणियों के लिए
एक मीठी छुअन कोरे अहसास की
सारी जगती ही मानो तपोवन हुई
4
शब्दों को संचित करना फिर 
कविता में चुनकर लिखना
जैसे की महिमा जाने बिन 
पोखर को पुष्कर लिखना

जिसने जिया नहीं है झमझम बारिश की 
छप्पा छइयाँ।       
फिर है उचित नहीं उसका गैया-गोरू 
छप्पर लिखना

बिन सीखे ही बुनने बैठे जैसे 
चादर को बुनकर
वैसे है जैसे धूनी बिन कंठी 
औ खप्पर लिखना

अर्धगोल गुम्बद से मतलब ना ही 
उसके परिक्रम से
चुम्बकत्व गुण को समझे बिन 
ज्यों जंतर-मंतर लिखना

पुस्तक में पढ़कर कथ्यों को या 
लोगों से सुन-सुनकर
चम्पक सम छोटे पेड़ों को 
वृक्ष और तरुवर लिखना

बुद्धि-ज्ञान का ओढ़ लबादा 
भावों का उपहास करें
उनके लिए बहुत आसां है 
फूलों को पत्थर लिखना

कभी न है जिसका क्षय सम्भव 
जिसमें लीन अन्य सब भूत
महाशून्य को बड़ा कठिन आकाश, 
व्योम, अम्बर लिखना

5

पैनी अंतरदृष्टि चाहिए

ख़ुद को अगर समझना है तो 
ज़्यादा गहरी दृष्टि चाहिए 
पैनी अंतर्दृष्टि चाहिए।

काहे की भागादौड़ी काहे का झंझट
हाथों मे पतवार उसी के, वो ही केवट
बेहद पाकर क्या पा लेगे 
मन में बस संतुष्टि चाहिए
ज़्यादा गहरी दृष्टि चाहिए,
पैनी अंतर्दृष्टि चाहिए

हम कर्मो के कृषक, हमी हैं उत्तरदायी
अपनी ही करनी फल बनकर आगे आयी
और किसी की नही उसी की 
अनुकम्पा की वृष्टि चाहिए
ज़्यादा गहरी दृष्टि चाहिए 
पैनी अंतर्दृष्टि चाहिए।

दुनिया कहती जग प्रपंच, धोखा है सारा
मै कहती ये एकतत्व की अविरल धारा
नैतिक ध्वज जिसपर टिक जाये 
ऐसी सुदृढ़ यष्टि चाहिए
ज़्यादा गहरी दृष्टि चाहिए 
पैनी अंतर्दृष्टि चाहिए।



6

तुम हरे रहो, हरिद्राभ रहो
सम्पूर्ण वृक्ष के तुम स्वर हो
हे जीर्ण पत्र बस साथ रहो

झरते पत्तों को देख देख
मन बरबस विचलित हो जाता 
वट-तरु की छाया के नीचे
तन-मन सुख-शांति रहा पाता
हो घाम शीत में परिवर्तित 
जर्जर हाथों से डाल गहो
                  तुम हरे रहो, हरिद्राभ रहो
                  सम्पूर्ण वृक्ष के तुम स्वर हो
                  हे जीर्ण पत्र बस साथ रहो

अंधड़ पानी में बन छतरी
पथिकों के हो अवलंब रहे
टहनी-टहनी की बन शोभा
दे प्राणवायु निर्दम्भ रहे
मृण्मय की अब हो गए प्रकृति
उर्वर धरती के साथ रहो
                     तुम हरे रहो, हरिद्राभ रहो
                    सम्पूर्ण वृक्ष के तुम स्वर हो
                     हे जीर्ण पत्र बस साथ रहो

माना है झरना रीति-प्रथा 
लेकिन तरु पर अच्छे लगते
होना ही एकमात्र तेरा 
तरु अंगों मे ऊर्जा भरते
मस्तक पर अपना हाथ रखो
तुम मौन रहो या बात कहो
                     तुम हरे रहो, हरिद्राभ रहो
                    सम्पूर्ण वृक्ष के तुम स्वर हो
                    हे जीर्ण पत्र बस साथ रहो

आदर्शिनी श्रीवास्तव