बुधवार, 30 जून 2021

साहित्य की श्रेष्ठता के परिपेक्ष्य में कुछ विचारणीय बिंदु : कान्ति शुक्ला 'उर्मि' प्रस्तुति वागर्थ

साहित् सृजन मेखला में लिखी टिप्पणी -
 मंच को शत- शत नमन । हर्ष और संतोष का विषय है कि परिचर्चा में सभी मनीषियों के द्वारा अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं परंतु मेरे विचार में साहित्य जीवन के सभी पहेलुओं का विवेचन करता है। साहित्य में एकांगी दृष्टिकोण को स्थान नहीं मिलता क्योंकि तब वह अपने में अधूरा ही रह जाता है । अतः इसमें मानव जीवन की व्यापकता की संस्थापना रहती है, इसके उपझेण से श्रेष्ठ साहित्य की सृष्टि असंभव है और चूँकि साहित्य में जीवन के समस्त पहेलुओं की  विवृत्ति होती है और यही सम्बंध सूत्र परिस्थितियों को भी जोड़े रखता है इसलिए परिस्थितियों का प्रभाव भी साहित्य पर पड़े बिना नहीं रह सकता। एक साहित्यकार को जीवन दर्शन की महनीय चेतनाओं को सुंदर कलात्मक और आदर्श ढंग से संवाहित करने के लिए साहित्य की अनेकानेक विधाओं- कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि में आत्मसात होना पड़ता है । सत्य, शिव और सुंदर को व्यवस्थित  सुसंबद्ध रूप से अभिव्यक्त करना पड़ता है । साहित्य  मानव के चेतनामूलक जीवन का अंग है। 
 अब प्रश्न उठ सकता है कि शाश्वत होते हुए भी इसके स्वरूप में परिवर्तन क्यों आ जाता है। अधिकांशतः हर रचनाकार अपने लिखे को श्रेष्ठ समझकर आत्ममुग्ध होने की स्थिति में क्यों आ जाता है । इसका कारण यह है कि हमारे सामाजिक, नैतिक  जीवन में परिवर्तन होते रहते हैं। युग के साथ हमारी आवश्यकताएं बदलती रहतीं हैं और इसके साथ साहित्य में भी विकार आ जाना सहज संभाव्य है। साहित्य जनमानस की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तो जनमानस भी सामाजिक , राजनीतिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार बनता है। किसी विशेष समय में लोगों में रुचि विशेष का संचार और पोषण किधर से और किस प्रकार हुआ, यह विचारणीय है। जैसा कि अभी कोरोना काल में अनगिनत रचनाएं सृजित की गईं पर यह श्रेष्ठ साहित्य की श्रेणी में नहीं आ सकता क्योंकि यह एक युगानुकूल सामयिकता की लहर है , साहित्य के शाश्वत सिद्धांतों का समन्वय नहीं है। मेरी समझ में साहित्य की दो प्रमुख कोटियां मानी जा सकतीं हैं - एक चिरंतन साहित्य जिसमें जीवन के चेतनामूलक सिद्धांतों का विवरण हो और जो हर युग के लिए एक समान उपयोगी हो ( इस श्रेणी में हम भक्तिकालीन ग्रंथों को ले सकते हैं ) - दूसरा सामयिक साहित्य जो युग विशेष के लिए हो ।
 अब बात है श्रेष्ठ साहित्य की रचना की तो नैसर्गिक क्षमता होना अन्यतम विशिष्टता है जो ईश्वर प्रदत्त है परंतु बिना ज्ञान और प्रयास के केवल इसी के बल पर लेखन में सफलता नहीं प्राप्त होती क्योंकि  दो अनन्य शक्तियों ने ही मनुष्य को मनुष्य बनाया है । ये दोनों शक्तियां सृष्टिकारिणी शक्तियां हैं जिन्हें हम ज्ञान और कल्पना कहते हैं। ज्ञान द्वारा हमें प्रकृति और जीवन के तुलनामूलक अध्ययन तथा उसकी व्याख्या की क्षमता प्राप्त होती है  और कल्पना हमारी वह शक्ति है  जो वस्तु, जगत और प्रकृति के समन्वित विकास में अपनी भावनाओं को आरोपित कराती है। ज्ञान तत्वदर्शी होता है और कल्पना भावावेशिनी । साहित्य का मूल भाव है इसलिए कल्पना उसका अंग है। अतः साहित्य रचना के लिए भाषा को भी लाक्षणिक होना पड़ता है। श्रेष्ठ साहित्य की सृष्टि के लिए साहित्य संस्कार होना परमावश्यक है। प्रत्येक रचनाकार की शैली अलग होती है पर कोई वही बात ऐसी चित्ताकर्षक शैली में कह जाता है कि पाठक अथवा श्रोता भी उसी भावभूमि पर विचरण करने लगते हैं और पाठक को वह रचना अपनी सी लगने लगती है। श्रेष्ठ साहित्य वही है जो जगत के सुंदरतम स्वरूप में सत्य और कल्याण की कामना करे, सामयिक अनुभव खंडों को संयोजित कर नवीन भाव- धरातलों की अभिव्यक्ति करे, आभासों और अंतर्विरोधों का मृगतृष्णात्मक चितेरा साहित्यकार अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर खोजता हुआ असंभवता की परिधियों में गुँथे भ्रमों के मध्य भी जीवंतता की आस्था लिए हो और अंतश्चेतना के प्रखर आक्रोश की अभिव्यंजना करता हो। युगबोध के प्रति निरंतर उन्मुख हो। शिल्पगत सौन्दर्य एक अतिरिक्त वैशिष्ट्य है जो ज्ञानार्जन द्वारा ही संभव है।
 वर्तमान के प्रति उत्पन्न कुंठा और हताशा, जीवन मूल्यों की अवनति देख आकुलता की सृष्टि तो करे पर शांति और समरसता के वातावरण के सृजन की बात करे। जनमानस की पीड़ा को गहराई से अनुभव कर उसे शब्द दे और उन शब्दों की गूंज सकल संसृति में प्रतिध्वनित हो, यही रचना की श्रेष्ठता और सफलता है ।

कान्ति शुक्ला उर्मि जी के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ


वागर्थ प्रस्तुत करता है 
_________________
मुँह में राम बगल में छुरियां लेकर चलते लोग : कान्ति शुक्ला' उर्मि जी के 6 नवगीत

                                                                            सोशल मीडिया के साथ साथ दीदी कान्ति शुक्ला जी इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों जगह समान रूप से सक्रिय हैं आपका लेखन बहुआयामी है।आप ख्यात समीक्षक के साथ ही आप प्रख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा जी की  सहेली भी हैं। जहाँ तक मैंने दीदी कान्ति शुक्ला जी के वारे में जाना और पढ़ा है; आपका सृजन मूलतः
 सनातन छन्दों की पारम्परिक शैली के इर्द गिर्द घूमता है पर प्रस्तुत गीतों में शैली गत भिन्नता है गीतों में नवता है और यह गीत शैली के आधार पर पारम्परिक ना होकर नवगीत हैं।
 प्रस्तुत हैं पहले-पहल कान्ति शुक्ला 'उर्मि' जी के वागर्थ पटल और वागर्थ ब्लॉग में नवगीत

प्रस्तुति
वागर्थ 
सम्पादक मण्डल
__________________________________________
1---
बेमौसम ही बरस रहे हैं
बौराये बादल ।
ईश्वर जाने कौन ताल से
भरी नीर- छागल ।

भींग रहे हैं छानी-छप्पर
भींगे फसल खड़ी ।
दुखियारे द्वारे पर फिर से
विपदा असल पड़ी ।
चिंता के मारे हरिया के
सब निकले कस- बल ।

भींगी कथरी ओढ़ अनोखे
काँप रहा थर-थर ।
ऐंठीं आँते आस लगाए
मिले भात जी भर ।
ओसारे की सीली भीतें
आज हुईं बेकल ।

कुछ नारों की खाद सहेजी
कुछ बोए वादे ।
गति की इति कैसे समझेंगे
जो सीधे-सादे ।
कुदरत की काली करतूतें
कर देंगी पागल ।

उसनींदी मुनियां की आँखें
चूल्हा ताक रहीं ।
गुड़ की काली चाय बने कब
गुप चुप झाँक रहीं ।
दुस्साहस कर आखिर माँ का
थाम लिया आँचल । 

2---
कैसे बताएं व्यथा 
ह्रदय चीर के ।
पहने हैं काया पर
वसन पीर के ।

कांटों के कानन में
खिलते हैं फूल ।
दाता की रहमत या 
कुदरत की भूल।
नफरत की आँधी में 
पलता है प्यार-
मस्तक पर चढ़ने लगी 
राहों की धूल ।
मूल्यांकन लांक्षित हैं
 नयन-नीर के ।

लोग नहीं सुनते 
अपनी आलोचना ।
आत्ममुग्ध मन की 
मोहित है व्यंजना।
कुटिल हुई युगनीति
थोथे समीकरण-
श्वासों की वल्गा को 
जकड़े है वंचना।
विध्वंसक बोल 
मैना और कीर के ।

भाव, छंद-अंगों से 
आधे या पौने ।
शिखरों को छूने के
लालायित बौने।
छल-बल के तरकश में
शर हैं अनूठे-
रससिक्त गीतों के
घायल मृगछौने ।
ऊष्ण ताप झोंके 
मलयज समीर के।

3---
पीत वर्ण सरसों के मुख पर, 
गहन उदासी है ।
नीला अलसी- फूल ऐंठ कर ,
हुआ प्रवासी है ।

दलित पलाशों को वसंत ने,
दिया खूब अनुदान ।
नंदन कानन उपवन सारे , 
उच्च वर्ग हैरान ।
भेदभाव यह समझ न आया,
तिकड़म खासी है ।

आभाहीन मंजरी सूखी, 
कोयल की सुन हूक ।
जीर्ण शीर्ण है पीली फतुही ,
हुरियारे हैं मूक ।
गलियों के गालों पर गड्ढ़े , 
सघन निकासी है ।

कोयल जलावतन कर डाली,
कौओं का है शोर ।
चंपा जुही लुटीं कचनारें , 
पतझड़ भारी जोर ।
वृक्ष नहीं सरसें आंगन में , 
छाँव धुँआसी है।

आज आदमी स्वंय ततैया , 
जैसा लगता पीत ।
जहरीले छत्ते आच्छादित , 
खुद से है भयभीत ।
विष की खेती नयी सदी में,
नदिया प्यासी है।

4---
चकित चपल से भागे फिरते, 
गीतों के मृगछौने चंचल।

शब्दों का सम्मोहन कुंठित ।
भावों की उत्कंठा विचलित ।
अस्थिर मन में उथल पुथल सी-
आशा लगती है आशंकित।

कैसे नव दिनमान उगा लें ,
हो विश्वासों का घट मंगल ।

किसने छीन लिये उजियारे ।
बिछा दिये पथ में अँधियारे ।
श्रम के मस्तक पर बो डाले-
किसने कितने हैं अंगारे ।

खेतों के सीने पर पनपे , 
कंक्रीट विषपायी जंगल।

मृगतृष्णा सा सारा जीवन ।
जनम मरण का नाजुक बंधन ।
शून्य समाहित कस्तूरी  सम-
मुग्ध विमोहित भीगे से मन ।

दुर्गम राह अजानी मंजिल ,
हर पग दाँव लगाते दंगल ।

5----

अब दीनों के नाथ बहुत हैं 
गली गली चौबारों तक ।
छुटभइए से बड़े बड़े तक 
तुरही से नक्कारों तक।

मुँह में राम बगल में छुरियां 
लेकर चलते लोग ।
केर- बेर के संग अनोखे 
या मणिकांचन योग ।
नायक तीखे सायक लेकर 
पहुँच गए दरबारों तक।

अपनी मर्जी अपनी ढ़पली
अपना अपना राग ।
धारण किया भेष हंसा का
हैं पर काले काग ।
चिकने घड़े फ़जीहत से अब 
लानत और दुत्कारों तक ।

मिमयाती बकरी सी जनता
दो पाटों के बीच ।
मात और शह के बाजीगर 
रहे टांग हैं खींच ।
कोरे वादे आश्वासन से 
बदले हैं उपकारों तक ।

6---
आशा के नभ में छाए हैं,
बादल घने -घने ।

काट रहे हैं चक्कर जैसे,
हम कोल्हू के बैल ।
फिर फिर लौट वहीं पर आते,
निश्चित अपनी गैल ।
नियति यही है माना लेकिन -
रहते तने- तने ।

भूखे पेट बहाया हमने,
खून पसीना है।
खर-पतवार, खाद, बीजों ने,
सुख को छीना है।
हल की फाल, कुदाली थामे-
माटी हाथ सने ।

किसको कितना भाग मिलेगा,
थोड़े आटे में ।
घरनी की है भूख तपस्वी,
रहती घाटे में ।
लगीं गिद्ध सीं आँखें सबकी-
खाते नहीं बने ।

हरित छंद खेतों पर लिखकर,
हुलसे बहुत फिरे।
जब अवसर हिस्से का आया,
छल से रहे घिरे।
कर्जा, कुर्की , ब्याह-बरातें-
उत्सव यही मने ।

सूखे हाड़ बैल भैंसों के,
दुर्बल गाय-बछोरू ।
छेद पोलका- साड़ी के सब,
ढांक रही  है जोरू ।
बरखा आती देख डरे हैं,
छप्पर बिना छने।

परिचय
______
नाम- कान्ति शुक्ला

उपनाम- 'उर्मि'  

माता - स्व.श्रीमती चन्द्रावलि दुबे
पिता-स्व. श्री शीतल प्रसाद दुबे
पति - श्री महेश चन्द्र शुक्ला
जन्मतिथि- 5- 7- 1945
जन्मस्थान- मोठ ( झाँसी )
पैतृक निवास - झाँसी ( उ. प्र.)
कार्य स्थल - मध्य प्रदेश भोपाल

शिक्षा - एम.ए. ( हिन्दी  साहित्य  और राजनीति  विज्ञान  ) एल.एल.बी., पत्रकारिता  डिप्लोमा,  डी.सी.ए., आयुर्वेद  कोर्स, संगीत  डिप्लोमा, आदि विविध  कोर्स ।

लेखन विधा - कविता, ग़ज़ल, गीत, मुक्तक, कहानी, नाटक, लेख , समालोचना।

प्रकाशन एवं  प्रसारण  -
'बेवफा  वक्त  में एहसास'  ( ग़ज़ल संग्रह  ) , 'मुनमुन चिड़िया',  'कान्हा  वन' , 'सपन मासूम नैनों के ' ( बाल कविता  संग्रह  ) , ' 'कल्पना के उग आए पंख' ( हिन्दी ग़ज़ल संग्रह ) अनुरक्त और विरक्त कहानी संग्रह,

अनेक ( 20 से अधिक )  साझा  संकलनों में  रचनाओं का  प्रकाशन, देश केअनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में  प्रकाशन ।.  5 पुस्तकें प्रकाशनाधीन ।

संपादन - 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' । ' मुक्तक मंथन'

अनेक प्रख्यात विद्वानों की पुस्तकों पर समीक्षात्मक लेखन ।

सन 1972 से  निरंतर आकाशवाणी  के  विभिन्न  केन्द्रों  से - काव्य  पाठ  , नाटक लेखन , कहानी,  रेडियो  रूपांतरण ( कामायनी  महाकाव्य  का  नाट्य रूपांतरण  जो प्रसाद  जी के जन्म  शताब्दी  वर्ष  पर भारत के  समस्त  केन्द्रों  से एक साथ  रिले हुआ ), समसामयिक  विषयों पर  वार्ताएं,  चिंतन आदि का  प्रसारण, दूरदर्शन से  काव्य  पाठ ।

सम्मान -  रंजन कलश शिव सम्मान,  युवा  उत्कर्ष  साहित्य  भूषण सम्मान,  गोपालराम गहमरी सारस्वत  सम्मान,  गीतिका श्री  सम्मान,  मुक्तक रत्न सम्मान, नव रतन सम्मान, लोक भूषण सम्मान, सामयिक परिवेश पटना प्रेम खन्ना सम्मान, काव्य सुधा सम्मान, मुक्तक लोक सारस्वत सम्मान ,गीतिका श्री सम्मान,  गीतिका शिखर सम्मान, मुक्तक लोक  मुक्तक गौरव , मुक्तक रत्न, मुक्तक भूषण सम्मान, युवा उत्कर्ष साहित्य भूषण सम्मान, उत्तराखंड  खटीमा का दोहा शिरोमणि  सम्मान,  गोपालराम गहमरी शिखर सम्मान,  दृष्टि साहित्य  सम्मान , युवा उत्कर्ष हिन्दी रत्न  सम्मान , सुभद्राकुमारी चौहान सम्मान । सत्य की मशाल पत्रिका का साहित्य शिरोमणि सम्मान। म. प्र. लेखिका संघ का साहित्य सेवी सम्मान । त्रिवेणी राष्ट्र भाषा गौरव सम्मान । बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र का श्रीमती चंद्रकांता लूनावत बाल साहित्यकार सम्मान साहित्य मंच सीहोर का मसिजीवी सम्मान । युवा उत्कर्ष हिन्दी साहित्य सेवी सम्मान।

सम्प्रति ( विशेष ) - सचिव 'करवट कला परिषद' भोपाल , प्रधान संपादिका 'साहित्य सरोज' त्रैमासिक साहित्यक पत्रिका, एडमिन मुक्तक लोक साहित्यांगन, एडमिन सूचना और साहित्य समूह, बेबसाइट प्रभारी लेखिका संघ म. प्र. ।
सदस्य - लेखिका संघ मध्यप्रदेश, कला मंदिर आदि साहित्यिक संस्थाएं ।

पता -
एम.आई. जी .-35
डी  सेक्टर 
अयोध्या  नगर भोपाल
भोपाल  ( म. प्र . )
पिन  -462041

मोबाइल - 09993047726
7009558717
Email-kantishukla47@gmail.com

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं डॉ कामता नाथ सिंह

परिचय- 
डॉ. कामता नाथ सिंह
 बेवल, रायबरेली, उ.प्र. से
सेवा निवृत्त शिक्षक
रचनायें---
*जय सुभाष*(महाकाव्य), 
*"गीत गुन्ज* "(स्वरचित गीत-संग्रह),
*बन्जारे गीत* (स्वरचित नवगीत-संग्रह),
*"गलबाँहीं"* (स्वरचित गीत-संग्रह)
*"टीसें"*(स्वरचित ग़ज़लें)
*"पुष्यमित्र"* (अप्रकाशित उपन्यास),
*विस्तृत अप्रकाशित साहित्य*
मुक्तक,दोहा, छन्द, गीत, नवगीत, ग़ज़ल,सजल आदि विविध विधाओं में सृजन

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, काव्यसंग्रहों में अनेकों रचनायें प्रकाशित
सोशल मीडिया, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय भागीदारी, विभिन्न संस्थाओं द्वारा अनेकों सम्मान, पुरस्कार

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं कवयित्री कान्ति शुक्ला 'उर्मि'जी प्रस्तुति : वागर्थ


परिचय

नाम- कान्ति शुक्ला

उपनाम- 'उर्मि'  

माता - स्व.श्रीमती चन्द्रावलि दुबे
पिता-स्व. श्री शीतल प्रसाद दुबे
पति - श्री महेश चन्द्र शुक्ला
जन्मतिथि- 5- 7- 1945
जन्मस्थान- मोठ ( झाँसी )
पैतृक निवास - झाँसी ( उ. प्र.)
कार्य स्थल - मध्य प्रदेश भोपाल

शिक्षा - एम.ए. ( हिन्दी  साहित्य  और राजनीति  विज्ञान  ) एल.एल.बी., पत्रकारिता  डिप्लोमा,  डी.सी.ए., आयुर्वेद  कोर्स, संगीत  डिप्लोमा, आदि विविध  कोर्स ।

लेखन विधा - कविता, ग़ज़ल, गीत, मुक्तक, कहानी, नाटक, लेख , समालोचना।

प्रकाशन एवं  प्रसारण  -
'बेवफा  वक्त  में एहसास'  ( ग़ज़ल संग्रह  ) , 'मुनमुन चिड़िया',  'कान्हा  वन' , 'सपन मासूम नैनों के ' ( बाल कविता  संग्रह  ) , ' 'कल्पना के उग आए पंख' ( हिन्दी ग़ज़ल संग्रह ) अनुरक्त और विरक्त कहानी संग्रह,

अनेक ( 20 से अधिक )  साझा  संकलनों में  रचनाओं का  प्रकाशन, देश केअनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में  प्रकाशन ।.  5 पुस्तकें प्रकाशनाधीन ।

संपादन - 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' । ' मुक्तक मंथन'

अनेक प्रख्यात विद्वानों की पुस्तकों पर समीक्षात्मक लेखन ।

सन 1972 से  निरंतर आकाशवाणी  के  विभिन्न  केन्द्रों  से - काव्य  पाठ  , नाटक लेखन , कहानी,  रेडियो  रूपांतरण ( कामायनी  महाकाव्य  का  नाट्य रूपांतरण  जो प्रसाद  जी के जन्म  शताब्दी  वर्ष  पर भारत के  समस्त  केन्द्रों  से एक साथ  रिले हुआ ), समसामयिक  विषयों पर  वार्ताएं,  चिंतन आदि का  प्रसारण, दूरदर्शन से  काव्य  पाठ ।

सम्मान -  रंजन कलश शिव सम्मान,  युवा  उत्कर्ष  साहित्य  भूषण सम्मान,  गोपालराम गहमरी सारस्वत  सम्मान,  गीतिका श्री  सम्मान,  मुक्तक रत्न सम्मान, नव रतन सम्मान, लोक भूषण सम्मान, सामयिक परिवेश पटना प्रेम खन्ना सम्मान, काव्य सुधा सम्मान, मुक्तक लोक सारस्वत सम्मान ,गीतिका श्री सम्मान,  गीतिका शिखर सम्मान, मुक्तक लोक  मुक्तक गौरव , मुक्तक रत्न, मुक्तक भूषण सम्मान, युवा उत्कर्ष साहित्य भूषण सम्मान, उत्तराखंड  खटीमा का दोहा शिरोमणि  सम्मान,  गोपालराम गहमरी शिखर सम्मान,  दृष्टि साहित्य  सम्मान , युवा उत्कर्ष हिन्दी रत्न  सम्मान , सुभद्राकुमारी चौहान सम्मान । सत्य की मशाल पत्रिका का साहित्य शिरोमणि सम्मान। म. प्र. लेखिका संघ का साहित्य सेवी सम्मान । त्रिवेणी राष्ट्र भाषा गौरव सम्मान । बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र का श्रीमती चंद्रकांता लूनावत बाल साहित्यकार सम्मान साहित्य मंच सीहोर का मसिजीवी सम्मान । युवा उत्कर्ष हिन्दी साहित्य सेवी सम्मान।

सम्प्रति ( विशेष ) - सचिव 'करवट कला परिषद' भोपाल , प्रधान संपादिका 'साहित्य सरोज' त्रैमासिक साहित्यक पत्रिका, एडमिन मुक्तक लोक साहित्यांगन, एडमिन सूचना और साहित्य समूह, बेबसाइट प्रभारी लेखिका संघ म. प्र. ।
सदस्य - लेखिका संघ मध्यप्रदेश, कला मंदिर आदि साहित्यिक संस्थाएं ।

पता -
एम.आई. जी .-35
डी  सेक्टर 
अयोध्या  नगर भोपाल
भोपाल  ( म. प्र . )
पिन  -462041

मोबाइल - 09993047726
7009558717
Email-kantishukla47@gmail.com


मंगलवार, 29 जून 2021

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं कवि राजेन्द्र गौतम प्रस्तुति : वागर्थ



राजेन्द्र गौतम
प्रोफेसर, (सेवा निवृत्त) दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।

संक्षिप्त परिचय : 
 जन्म: 06 सितंबर 1952, ग्राम बराहकलाँ (जिला जींद), हरियाणा। 

o कवि, समीक्षक और शिक्षाविद। 
o काव्यशास्त्र, लोकसाहित्य, तकनीकी शब्दावली और अनुवाद के क्षेत्र में व्यापक कार्य। 
o वर्ष 2018 में साहित्य द्वारा समाज-सेवा के लिए “लोकनायक जयप्रकाश नारायण अवार्ड”।  
o काव्य-कृतियाँ: ‘बरगद जलते हैं’, ‘पंख होते हैं समय के’ तथा गीत पर्व आया है’ चर्चित नवगीत-संग्रह। ‘नवगीत दशक-3’, ‘नवगीत अर्द्धशती’ तथा ‘यात्रा में साथ साथ’ आदि प्राय: सभी प्रतिनिधि नवागीत-संकलनों में उपस्थिति। ‘कवि अनुपस्थित है’ छंदमुक्त कविताओं का संयुक्त संग्रह।
o ‘बरगद जलते हैं' 1998 में तथा 'गीतपर्व आया है' 1984 में हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कविता-पुस्तक के रूप में पुरस्कृत। 1974 में आचार्य ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी निबंध पुरस्कार’, 1978 में ‘आठवें दशक के प्रबंध काव्य’ समालोचना पर हरियाणा भाषा विभाग पुरस्कार. 1996 में ‘हंस कविता सम्मान’.
o समालोचना-ग्रंथ: ‘काव्यास्वादन और साधारणीकरण’, ‘दृष्टिपात’, ‘ पंत का स्वच्छंदतावादी काव्य ’, ‘हिंदी नवगीत : उद्भव और विकास’ तथा ‘रचनात्मक लेखन’। 
o ललित गद्य: ‘प्रकृति तुम वंद्य हो’।
o गद्य-पद्य की कम-से-कम आठ पुस्तकें प्रकाशन की राह देख रही हैं।
o अंग्रेजी में लिखी कई कविताएं ‘कविता इंडिया’, ‘ईवन ट्यून्ज़’, ‘हरियाणा रिव्यू’, ‘पोइट्री रिव्यू’, आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित  
o सम्पादित: 1. पुस्तक: ज्ञान कलश, कविता-यात्रा, कथावीथी, आधुनिक कविता, भूमिजा।  
         2. पत्रिकाएं: The Journal of Humanities and Social Sciences, सारंग।
o 'विश्व हिंदी सचिवालय, मारीशस'  के उद्घाटन-समारोह (12.08.04-22.08.04) में मुख्य अतिथि।
o ‘पाकिस्तान अकादमी ऑफ लेटर्स’ द्वारा इस्लामाबाद में 10-11 जनवरी 2013 को “लोकतन्त्र और
साहित्य” विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन मे व्याख्यान।
o 'वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग' एवं अन्य प्रतिष्ठानों की 100 से अधिक संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में विषय-विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित। 
o 400 से अधिक हिन्दी, अंग्रेजी और हरियाणवी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं मे प्रकाशित; आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित। 
संपर्क: 
906, झेलम, प्लॉट: 8, सेक्टर: 5, द्वारका, नई दिल्ली-110075. 
Mob:  9868140469. E-mail: rajendragautam99@yahoo.com

डॉ राजेन्द्र गौतम जी के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ

वागर्थ प्रस्तुत करता है डॉ राजेन्द्र गौतम जी के नवगीत डॉराजेन्द्र गौतम  जी का काम  नवगीत के इतिहास में मील का पत्थर है 'नवगीत का उद्भव और विकास' जैसी ( समीक्षा ) कृति, नवगीत के उद्भव से लेकर विकास और विकास से लेकर अब तक की नवगीत यात्रा में हुए अन्यत्र कामों में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
गौतम जी के यश-कीर्ति खाते  में अनेक उपलब्धियाँ दर्ज हैं ।
प्रस्तुत हैं उनके कुछ नवगीत 
उनकी फेसबुक वॉल से साभार

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल

1
धारा ऊपर तैर रहे हैं
सब खादर के गाँव।

टूटे छप्पर छितरी छानें
सब आँखों से ओझल
जहां झुग्गियों के कूबड़ थे
अब जल, केवल जल
धंसी कगारें, मुश्किल टिकने
हिम्मत के भी पाँव।

छुटकी गोदी सिर पर गठरी
सटा शाख से गात
साँपों के संग रात कटेगी
शायद ही हो प्रात
क्षीर-सिन्धु में वास मिला है
तारों की है छाँव।

मौसम की खबरें सुन लेंगे
टी वी से कुछ लोग
आश्वासन का नेता जी भी
चढ़ा गए हैं भोग
निविदा अख़बारों को दी है
बन जाएगी नाव

घास-फूस का टप्पर शायद
बन भी जाए और
किंतु कहां से लौटेंगे वे
मरे, बहे जो ढोर
और कहाँ से दे पाएँगे
साहुकार के दाँव

2

चाँदनी की गंध से है 
भर गया आकाश

अधलिखा जो गीत था 
कल मेज पर छोड़ा 
छंद उसमें जा सकेगा 
अब नया जोड़ा 
हो गयी इतनी युवा अब 
सर्जना की प्यास

मौन के ही जो सगे थे
होंठ वे अब क्यों न हों वाचाल
कुमुदिनी-सा ही खिला होगा
कहीं जब देह का छवि-ताल 
आ जुटेगा सिलसिला संबोधनों का 
चुप्पियों  के पास

शब्द तो सब खो गए हैं 
रह गयी केवल कहानी
पास मेरे आ सटी जब 
कल्पना-सी रातरानी
सुन रहे कुछ कान 
कुछ बतिया रहे उच्छ्वास

3
लगी तोड़ने खामोशी को 
बंजारिन वाचाल हवा की 
 नर्म-नर्म पगचापें 

सूनी पगडंडी पर पड़ते 
मुखर धूप के पाँव 
धुन्ध चुप्पियों की फटती है
लगे दीखने गाँव
कुहरे ढकी नदी पर दिखती--
हिलती-कंपती छांव 
मौसम के नाविक ने खोली 
बंधी हुई फिर नाव
लहरों पर से लगी चीरने 
अँधियारे की परतों को अब
 चप्पू की ये थापें 

बछड़ों से बिछुड़ी गायों-सी 
रंभा रही है भोर
डाली-डाली पर उग आया 
कोंपलवर्णी शोर 
सारस-दल की क्रेंकारों से
गूँजे नभ के छोर
झीलों में आवर्त रच रहे
रंगों के हिलकोर
गंध थिरकती है पढ़-पढ़ कर 
सन्नाटे की रेती पर ये--
 पड़ी गीत की छापें

4

शीशम का नीमों से
नीमों का पाकड़ से
बना हुआ अब भी संवाद है।

शहतूतों की टहनी
धीरे से हाथों में
ले-लेकर सहलाना
शिशु-सा गोदी में भर
बफीर्ली आँधी के
दंशों को भुलवाना
यह क्या कम है अब तक-
बासंती हवा! तुम्हें
वचन रहा याद है।

डरा-डरा सहमा-सा
मुँह लटकाये रहता
खामोशी का जंगल
खाल तनों की उधेड़
निर्दय पच्छिमी हवा
हँसती थी कल खल-खल
अँखुओं की खुशबू से
पेड़-पेड़ ने रख ली
ऋतु की मरजाद है।

5

यह भी क्या? मुट्ठी भर
यादों के साथ जिए !

इतनी चुप रातें
किस कोलाहल से कम हैं
सन्नाटों के फैले
सरहद तक गम हैं
ठहरे हुए समय में
आंधी के हाथ जिए !

हारी-थकी हवाएँ
लौटी हैं पुकार कर
सागर ने प्रश्नों का
दिया नहीं उत्तर
सब सपने झुलस गए
कैसी बरसात जिए!

6

सब बंद मदरसे/जारी जलसे
गलियाँ युद्धों का मैदान।

अब कैसी होली/लाठी-गोली
भेंट मिली है जनता को
क्यों मांगे रोटी/किस्मत खोटी
गद्दी को बस जन ताको
थे ही कब अपने/सुख के सपने
पड़े रेत में लहूलुहान।

कल नन्हीं चिडि़या/भोली गुडि़या
भेंट चढ़ी विस्फोटों में
अब तेरा टुल्लू/उसका गुल्लू
आँके इतने नोटों में
क्यों भावुक होते/गुमसुम होते।
ले लो यह है नक़द इनाम।

यह साँड़ बिफरता/आता चरता
फसलें भाईचारे की
कट शाख गिरेंगी/देह चिरेंगी
धार निकलती आरे की
कर क़त्ल नदी का/ध्येय सदी का
फैलाना बस रेगिस्तान।

7

जाने कब से कॉलबैल का  
बजना बंद पड़ा है 

पहले भी घर के पिछवाड़े 
कोयल कूका करती 
कई दिनों से और अधिक यह 
कातर-सी रोती है 
आँगन में टूटा-बिखरा-सा 
उसका छंद पड़ा है  

मोबाइल पर रोज कहानी 
यों नई सुनाता हूँ
लेकिन बंद-बंद-सी जब से 
कमरे में पोती है 
तब से ही उसका खुल-खुल कर 
हँसना मंद पड़ा है

देखे थे कल स्काइप पर वे 
दिल्ली वाले गमले 
सुबह चैत की इस नगरी में 
ऐसी भी होती है?
फूल नहीं थे शायद सूखा-- 
कुछ मकरंद पड़ा है.

8

तुम हमारी जान ले लो 
यह  बहुत  सस्ती मिलेगी

बेदखल हम खेत से हैं 
बेदखल खलिहान से हैं  
कब भला दिखते तुम्हें हम 
इक अदद इन्सान से हैं 
पाँव छाती पर धरे हो 
या कि गर्दन पर रखे हो 
देह अब सामान, ले लो
यह बहुत सस्ती मिलेगी

पीपलों को बरगदों को काट देना 
उधर स्वीमिंग-पूल होगा
बस्तियाँ जब तक न उजड़ेंगी यहाँ 
मौसम कहाँ अनु’कूल’ होगा 
झील-परबत-जंगलों पर 
सेज बिछनी है तुम्हारी 
गाँव की पहचान ले लो 
यह बहुत सस्ती मिलेगी

तुम खुदा, हाकिम तुम्हीं हो
स्वर्ग का बसना यहाँ पर लाजिमी अब
छू रहे आकाश तुम हो
राह रोके कौन अदना आदमी अब
चाँद-तारों से सजी 
बारात निकली जा रही है 
रात की तुम शान ले लो
यह बहुत सस्ती मिलेगी

9
दे रहे कितनी तसल्ली
नीम के पत्ते हरे
पिघलने लावा लगा जब
हर गली बाज़ार में।

जून के आकाश से जब
आग की बरसात होती
खिलखिलाते
गुलमुहर की अमतलासों से भला क्या
देर तक तब बात होती
जानते हैं मुस्कुराते
नीम के पत्ते हरे
सुलगने आवा लगा जब
खेत में या क्यार में।

जामुनों के छरहरे-से पेड़
हिम्मत से लड़े हैं,
बरगदों की पीठ पर जब
लपलपाती सी लुओं के
बेरहम साँटे पड़े हैं
पूरते हैं घाव सारे
नीम के पत्ते हरे
दहकने लावा लगा
पर जीत वन की हार में।

हर दिशा की देह बेशक
जेठ के इस दाह में है
चण्ड किरणों ने मथी
प्यास लेकिन जनपदों की भी
बुझाती आ रही
यह हिमसुता भागीरथी

छटपटाहट भूल जाते
नीम के पत्ते हरे
जब धरें जलतीं दिशाएँ
पाँव अमृता धार में

10

जटा बढ़ाये एक अघोरी 
करता मंत्रोच्चार 

छोटे-बड़े-मझोले झोले
अगल-बगल लटकाये   
सम्मोहन-मारण-उच्चाटन  
जन पर रोज चलाए 
नरमुंडों से कापालिक को 
बेहद-बेहद प्यार 

डाकिनियों का, शाकिनियों का 
बढ़ा रहा उल्लास 
भूत-पिशाचों की टोली को  
रखता अपने पास 
खूनी खप्पर भरने को यह 
हरदम है तैयार 

काल-रात्रि का यह पूजक है 
साधे शव शमशान 
भैरव और भैरवी पूजे 
काँपें सब के प्राण 
जाने कितनीं जानें लेगा 
काला जादू मार

 डॉ राजेन्द्र गौतम
_____________

राजेन्द्र गौतम
प्रोफेसर, (सेवा निवृत्त) दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।

संक्षिप्त परिचय : 
 जन्म: 06 सितंबर 1952, ग्राम बराहकलाँ (जिला जींद), हरियाणा। 

o कवि, समीक्षक और शिक्षाविद। 
o काव्यशास्त्र, लोकसाहित्य, तकनीकी शब्दावली और अनुवाद के क्षेत्र में व्यापक कार्य। 
o वर्ष 2018 में साहित्य द्वारा समाज-सेवा के लिए “लोकनायक जयप्रकाश नारायण अवार्ड”।  
o काव्य-कृतियाँ: ‘बरगद जलते हैं’, ‘पंख होते हैं समय के’ तथा गीत पर्व आया है’ चर्चित नवगीत-संग्रह। ‘नवगीत दशक-3’, ‘नवगीत अर्द्धशती’ तथा ‘यात्रा में साथ साथ’ आदि प्राय: सभी प्रतिनिधि नवागीत-संकलनों में उपस्थिति। ‘कवि अनुपस्थित है’ छंदमुक्त कविताओं का संयुक्त संग्रह।
o ‘बरगद जलते हैं' 1998 में तथा 'गीतपर्व आया है' 1984 में हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कविता-पुस्तक के रूप में पुरस्कृत। 1974 में आचार्य ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी निबंध पुरस्कार’, 1978 में ‘आठवें दशक के प्रबंध काव्य’ समालोचना पर हरियाणा भाषा विभाग पुरस्कार. 1996 में ‘हंस कविता सम्मान’.
o समालोचना-ग्रंथ: ‘काव्यास्वादन और साधारणीकरण’, ‘दृष्टिपात’, ‘ पंत का स्वच्छंदतावादी काव्य ’, ‘हिंदी नवगीत : उद्भव और विकास’ तथा ‘रचनात्मक लेखन’। 
o ललित गद्य: ‘प्रकृति तुम वंद्य हो’।
o गद्य-पद्य की कम-से-कम आठ पुस्तकें प्रकाशन की राह देख रही हैं।
o अंग्रेजी में लिखी कई कविताएं ‘कविता इंडिया’, ‘ईवन ट्यून्ज़’, ‘हरियाणा रिव्यू’, ‘पोइट्री रिव्यू’, आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित  
o सम्पादित: 1. पुस्तक: ज्ञान कलश, कविता-यात्रा, कथावीथी, आधुनिक कविता, भूमिजा।  
         2. पत्रिकाएं: The Journal of Humanities and Social Sciences, सारंग।
o 'विश्व हिंदी सचिवालय, मारीशस'  के उद्घाटन-समारोह (12.08.04-22.08.04) में मुख्य अतिथि।
o ‘पाकिस्तान अकादमी ऑफ लेटर्स’ द्वारा इस्लामाबाद में 10-11 जनवरी 2013 को “लोकतन्त्र और
साहित्य” विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन मे व्याख्यान।
o 'वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग' एवं अन्य प्रतिष्ठानों की 100 से अधिक संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में विषय-विशेषज्ञ के रूप में आमंत्रित। 
o 400 से अधिक हिन्दी, अंग्रेजी और हरियाणवी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं मे प्रकाशित; आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित। 
संपर्क: 
906, झेलम, प्लॉट: 8, सेक्टर: 5, द्वारका, नई दिल्ली-110075. 
Mob:  9868140469. E-mail: rajendragautam99@yahoo.com


 डॉ राजेन्द्र गौतम


जटा बढ़ाये एक अघोरी 
करता मंत्रोच्चार 

छोटे-बड़े-मझोले झोले
अगल-बगल लटकाये   
सम्मोहन-मारण-उच्चाटन  
जन पर रोज चलाए 
नरमुंडों से कापालिक को 
बेहद-बेहद प्यार 

डाकिनियों का, शाकिनियों का 
बढ़ा रहा उल्लास 
भूत-पिशाचों की टोली को  
रखता अपने पास 
खूनी खप्पर भरने को यह 
हरदम है तैयार 

काल-रात्रि का यह पूजक है 
साधे शव शमशान 
भैरव और भैरवी पूजे 
काँपें सब के प्राण 
जाने कितनीं जानें लेगा 
काला जादू मार

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं कवि आशीष दशोत्तर प्रस्तुति : वागर्थ



नाम - आशीष दशोत्तर
जन्म - 05 अक्टूबर 1972 को रतलाम में
शिक्षा - 1. एम.एस-सी. (भौतिक शास्त्र)
2. एम.ए. (हिन्दी)
3. एल-एल.बी.
4. बी.एड
5. बी.जे.एम.सी.
प्रकाशन -      1 मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा काव्य संग्रह' खुशियाँ कैद नहीं होतीं।'
                    2 ग़ज़ल संग्रह 'लकीरें'।
                     3 भगतसिंह की पत्रकारिता पर केंद्रित पुस्तक 'समर में शब्द'
                     4 नवसाक्षर लेखन के तहत पांच कहानी पुस्तकें प्रकाशित। आठ वृत्तचित्रों में संवाद  
                  लेखन एवं पाश्र्व स्वर।
                     5. कहानी संग्रह 'चे पा और टिहिया'।
                     6. व्यंग्य संग्रह 'मोरे अवगुन चित में धरो' 
                      7. कहानी संग्रह ' अंधेरे-उजाले' ई-बुक।
                      8. गीत- नवगीत प्रकाशनाधीन।
पुरस्कार -     1. साहित्य अकादमी म.प्र. द्वारा युवा लेखन पुरस्कार।
                   2. साहित्य अमृत द्वारा युवा व्यंग्य लेखन पुरस्कार।
                    3. म.प्र. शासन द्वारा आयोजित अस्पृश्यता निवारणार्थ गीत लेखन

रविवार, 27 जून 2021

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं डॉ. अनिता सिंह जी प्रस्तुति : वागर्थ


डॉ. अनिता सिंह
जन्मस्थान -मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)
शिक्षा - एम.ए(हिंदी)
            बी.एड,पीएच. डी
सम्प्रति-व्याख्याता
दो काव्य संग्रह प्रकाशित
1 .कसक बाक़ी है अभी        (हिंदुस्तानी भाषा अकादमी,2017)
2 .इस स्त्री को जानती हूँ मैं( लोकमित्र 2020)
देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में यथा- कादम्बिनी,साक्षात्कर, कथादेश,बया,माटी,निकट,
अनंतिम,विश्वगाथा ,दुनिया इन दिनों,
संवदिया,अग्रिमान,कविताम्बरा में गीत,ग़ज़ल एवं कविताएँ प्रकाशित।
अहा ज़िन्दगी (मासिक) में कहानी प्रकाशित।

इसके अलावा  7 साझा संग्रह यथा- समकालीन गीतकोश (नचिकेता ),शब्द साधना (हिंदुस्तानी भाषा अकादमी), गुनगुनाएं गीत फिर से,दोनों भाग (कविताकोश) में गीत ,लामकां (पोएसिस सोसायटी)में कविता,बिहार की ग़ज़लें(श्वेतवर्णा प्रकाशन)  एवं 101 महिला ग़ज़लकार(किताबगंज प्रकाशन) में ग़ज़लें।

वेब पोर्टल 'समालोचन ' तथा 'आंच' पर कहानी प्रकाशित तथा
विभिन्न पोर्टल पर कविताओं का प्रकाशन।

ईमेल-dranitasingh.1971@gmail. com

फोन no .7764918881

पता-
अनिता सिंह
C/o गोविंद सिंह
एम.वी.इंटरनेशनल होटल के पीछे
चक अहमद रामदयालु नगर
हाजीपुर ,पटना रोड
मुज़फ़्फ़रपुर
Pin842001

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं कवयित्री संगीता श्रीवास्तव 'सुमन' जी प्रस्तुति : वागर्थ



परिचय
______
संगीता श्रीवास्तव 'सुमन'
पिता - श्री मधुसूदन तिवारी
माता -श्रीमती मीना तिवारी
पति -आशुतोष श्रीवास्तव 
जन्म -05.03.1978
स्थान - रायपुर,  छत्तीसगढ़
शिक्षा - एम. ए. हिंदी साहित्य,  एम. ए. लोक प्रशासन, मास्टर इन जर्नलिज़्म ( मेरिट में पहला स्थान )
प्रकशित - काव्य संग्रह 'झरते पलाश'
विधा -कविता, गीत,  ग़ज़ल, मुक्तक आदि
वर्ष 1999 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय 
सम्प्रति - आकाशवाणी एवं स्वतंत्र लेखन से सम्बद्ध 
स्थाई पता -20/ 221 कृष्णचंद्र श्रीवास्तव
महेंद्र नगर, ट्रांसपोर्ट नगर, धूमनगंज प्रयागराज, उ. प्र.
सम्पर्क -9575065333

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं साधना श्रीवास्तव प्रस्तुति : वागर्थ


परिचय
_______
साधना श्रीवास्तव
केन्द्रीय विद्यालय संगठन भोपाल से सेवानिवृत्त शिक्षिका एवं बाल साहित्यकार हैं। आपका जन्म 15 फरवरी 1959 को भोपाल में हुआ। आपने बी. एस. सी. एम.ए. (अर्थशास्त्र) बी.एड. एवं एल. एल. बी. की शिक्षा जबलपुर में प्राप्त की। आपने शिक्षिका के पद पर रहते हुए नवाचार करके विषयों को रोचक बनाने में सफलता हासिल की जिसके लिए इनको भारत सरकार के साइंस एंड टेक्नोलॉजी विभाग द्वारा सी. वी. रमन साइंस टीचिंग अवार्ड से सम्मानित किया गया। केन्द्रीय विद्यालय संगठन भोपाल द्वारा शैक्षणिक उपलब्धियों एवं बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए क्षेत्रीय एवं केन्द्रीय विद्यालय संगठन मुख्यालय नई दिल्ली द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रोत्साहन पुरस्कार प्रदान किया गया।

शिक्षण कार्य के साथ साथ आपने कविता एवं नाटक लेखन के द्वारा बच्चों को नैतिक शिक्षा देने का प्रयास किया। विभिन्न अवसरों पर आपके द्वारा लिखित एवं निर्देशित नाटकों का विद्यार्थियों द्वारा विद्यालयीन, अंतरविद्यालयीन एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में मंचन हुआ तथा नाटक पुरस्कृत हुए। आपको रीजनल साइंस सेंटर द्वारा आयोजित नाटक प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ नाटक लेखन पुरस्कार भी प्रदान किया गया। आपके लिखित एवं निर्देशित नाटक केन्द्रीय विद्यालय संगठन द्वारा आयोजित सामाजिक विज्ञान प्रदर्शनी में क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर भी मंचित किए गए। जवाहर बाल भवन में भी आपके नाटक का मंचन हुआ। आपके सभी नाटक संदेश देने वाले एवं नीति परक है तथा किसी न किसी सामाजिक समस्या को उजागर करते हुए समाधान भी करते हैं।

आपके दो बाल कविता संग्रह 'हम धरती माँ के बेटे हैं' एवं 'बालक की चाहत' एवं नाटक संग्रह 'बच्चों के शिक्षाप्रद नाटक एवं दादी की नज़र प्रकाशित हैं। विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपको नाटक एवं कविता लेखन के लिए सम्मानित किया गया। भोपाल शहर की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं में आपकी सक्रिय भागीदारी रहती है। विभिन्न संस्थाओं के कार्यक्रम का काव्यात्मक संचालन कर आपने साहित्य समाज में आशु कवयित्री के रूप में विशिष्ठ पहचान बनाई है। समय-समय पर दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से आपकी कविताओं का प्रसारण होता रहता है।

राष्ट्र भाषा प्रचार समिति भोपाल, बाल कल्याण बाल साहित्य शोध केन्द्र भोपाल, हिन्दी लेखिका संघ, कला मंदिर एवं प्रभात परिषद साहित्यिक संस्थाओं की आजीवन सदस्य है।

सम्प्रति स्वतंत्र लेखन।

सम्पर्क: 12/2 संजय काम्प्लेक्स, साऊथ टी. टी. नगर, भोपाल (म.प्र.) 462003 मो. 9425392999

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं कवि चेतन दुबे अनिल जी प्रस्तुति : वागर्थ


चेतन दुबे ' अनिल'

परिचय

जन्म- 01जनवरी 1956ई. ग्राम- मदरावली , जिला- मैंनपुरी ( उप्र)
शिक्षा- बीए 
( कानपुर वि.वि. 1977 ) साहत्यरत्न, सम्पादन कला विशारद ( हिन्दी विश्वविद्यालय - प्रयागराज)
व्यवसाय- भारतीय रेलवे से सेवा निवृत्त- 2015
सम्मान- 
उर्मिला मिश्रा वैजयंती सम्मान
पद्मश्री के पी सक्सेना स्मृति सम्मान।
प्रकाशित कृतियाँ -
5 मौलिक- दिनकर - कलम का जादूगर ( दिनकर की जीवनी ) सुधियों के दंश , अश्कनामा ( विरह - काव्य) दिल बहुत बेचैन है ( ग़ज़ल - संग्रह) छंदों की दुनिया ( छंद सरोवर )
37  सम्पादित  काव्य संग्रह - कथा संग्रह ।
प्रसारण - रामपुर ,बरेली ( आकाशवाणी ) दूरदर्शन - बरेली
पत्र पत्रिकाएँ- 
वागर्थ ( कोलकाता ) रेल रश्मि , मरु गुलशन , रेल प्रज्ञा आदि।

सम्पर्क- वेद होम्स , 178/512, गली नंबर 2
     श्याम पार्क , साहिबाबाद, गाजियाबाद- 201005
 मोबाइल
09045129941

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं कवि राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’ प्रस्तुति : वागर्थ

रचनाकार परिचय

नाम- राम गरीब पाण्डेय ‘विकल’
पिता का नाम- स्व. श्री मोहन लाल पाण्डेय
जन्म- मध्य प्रदेश के सीधी जिला अन्तर्गत ग्राम परसवार (चुरहट) में 02 दिसम्बर 1960 को
शिक्षा- एम. ए., पी-एच. डी. (हिन्दी साहित्य)
लेखन- हिन्दी एवं स्थानीय बोली बघेली में गीत-नवगीत, ग़ज़ल, दोहे व विविध छन्दों के साथ-साथ मुक्तछन्द कविताएँ।
गद्य विधा में कहानी, लघुकथा, निबन्ध, व्यंग्य लेख, समीक्षा आदि विधाओं में सक्रिय लेखन।
प्रकाशन- 1- ‘बदलते मौसम के इन्तज़ार में’ (गीत-ग़ज़ल संग्रह) वर्ष 2010
2- ‘कौन तुम बाणभट्ट’ (शोधपरक गद्यकृति का सम्पादन) वर्ष 2011
3- ‘सूरज की मुक्ति के लिए’ (कविता-ग़ज़ल संग्रह) वर्ष 2013
4- ‘घुट रहा दम कोपलों का’ (हिन्दी ग़ज़ल संग्रह) वर्ष 2020
5- ‘बिहान कबै होई’ (बघेली ग़ज़ल संग्रह) वर्ष 2021
6- ‘मरना भला बिदेस का’ (बघेली लघुकथा संग्रह) वर्ष 2021
0 इसके अतिरिक्त विश्वगाथा, संवदिया, कविताम्बरा, रचना उत्सव, हस्ताक्षर, साक्षात्कार, भाषा -भारती आदि पत्रिकाओं एवं विभिन्न पत्रों में गीत, नवगीत, ग़ज़लें, लेख, व्यंग्य आदि का प्रकाशन।
0 समकालीन गीतकोश, नयी सदी के स्वर, गुनगुनायें गीत फिर से (दोनों भाग), 30 ग़ज़लगो 300 ग़ज़लें आदि अनेक संकलनों में गीत, नवगीत, ग़ज़लें, लघुकथाएँ प्रकाशित।
0 हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक "भारतीय भाषाएँ : चिन्ता से चिन्तन तक" में दो लेख प्रकाशित। 
0 बघेली बोली में लघुकथाओं का श्रीगणेश करने का श्रेय: बघेली बोली का  पहला लघुकथा संग्रह "मरना भला बिदेस का" 2021 में  प्रकाशित।      
प्रकाशनाधीन- आधा दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशन की क़तार में। 
विशेष- ‘बघेली साहित्य का उद्भव और विकास’ शीर्षक से वृहद ग्रन्थ लेखन पूर्णता की ओर।
बघेली बोली की साहित्यिक पहचान को समृद्ध करने हेतु कृतसंकल्प। 
सम्मान/पुरस्कार- मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का ‘श्रीकृष्ण सरल कृति पुरस्कार वर्ष 2010’ प्राप्त।
सम्प्रति- भारत संचार निगम लिमिटेड के लेखा अधिकारी पद से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर पूर्ण कालिक साहित्य साधना एवं नवोदितों को प्रोत्साहित-प्रेरित करने में संलग्न। 
स्थायी पता- प्लाट नं. 685/19, वाटर फिल्टर प्लांट के सामने,                                               तुलसीनगर नौढ़िया, सीधी (म.प्र.) पिन 486661
मोबाइल/वाट्सएप- 9479825125
Email- vikal.sidhi@gmail.com
-000-

एक साक्षात्कार प्रस्तुति : वागर्थ

# साक्षात्कार - एक प्रश्नावली
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
आइने के सामने
------------------
कृपया अपने साक्षात्कार के संदर्भ में आप  हर प्रश्न के नीचे संबंधित उत्तर लिखकर वापस कीजिएगा।
धन्यवाद।
चेतन दुबे 'अनिल' जी के प्रश्न और मेरे उत्तर
_________________________________
प्रस्तुति 
वागर्थ


1-  अपने जन्म , शिक्षा और व्यवसाय पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए ?

उ.मेरा जन्म शिवपुरी जनपद की छोटी सी तहसील के एक छोटे से गाँव बामौर कला में हुआ। हाई स्कूल तक की आरम्भिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई जारी रखने के उद्देश्य से भोपाल चला आया यहीं से अँगेजी साहित्य में स्नातकोत्तर व डिप्लोमा इन एजुकेशन करने के बाद एक निजी संस्थान में छह वर्षों तक सीनियर सेकेंडरी क्लासेस के बच्चों को अँग्रेजी और हिन्दी पढ़ाता रहा फिर एक दवा कम्पनी में तब से लेकर दिनांक आज तक अपनी सेवाएं दे रहा हूँ।

2- आपने काव्य लेखन कब से आरम्भ किया ?

उ.लगभग 11 वर्ष की उम्र में अचानक एक दिन कवितानुमा कुछ शब्द और पंक्तियाँ प्रस्फुटित हुईं उस समय मैं अपनी शॉप पर बैठा था और मेरे साथ पढ़ने वाली एक पड़ोस की लड़की को मैंने वह रचना सुनाई थी। वह कविता थी या नही यह तो नहीं पता, पर तभी से यह गुनगुनाहट की यात्रा लगातार जारी है।

3- आपको लेखन की प्रेरणा कब और कहाँ से मिली ?

उ बाल्यकाल से ही मन काव्य के प्रति लालयित रहा है। मुझे याद आता है जब मैं तीसरी दर्जा का विद्यार्थी था। तब भी पाठ्यक्रम में हिन्दी की बालभारती नामक पुस्तक की सबसे पहले कविताएँ ही पढ़ता था ।
काव्य की पहली प्रेरणा मुझे सम्भवतः पिता जी से ही मिली वह प्रातः की मंगलबेला में नित्य उठकर सस्वर धार्मिक भक्तिनुमा छँदसिक रचनाओं का पाठ किया करते थे जिसका मेरे अवचेतन पर सीधा प्रभाव पड़ा और मैं भी गुनगुनाने लगा।

4- आपका कोई काव्य - गुरु? नाम बताएँ? उनसे क्या सीखा ?
नहीं, यह सौभाग्य मेरे हिस्से में नहीं आ सका
पर इस यात्रा में बहुत से सहयात्री मिले सबसे कुछ न कुछ ग्रहण कर ही लेता हूँ।
आज भी स्वयं को साहित्य का विद्यार्थी मानता हूँ और विद्यार्थी ही हूँ।

5- किन - किन काव्य - विधाओं में सृजन किया ?
किस विधा में कितना लिख चुके हैं ?

उ. सिर्फ छान्दसिक कविताएँ लिखी
गीत, नवगीत ,दोहा ,कुछ मुक्तक, बाल कविताएँ, और एक पुष्पक गिरि नामक खण्डकाव्य कुछ लघु कथाएं भी लेकिन इनकी मात्रा न के बराबर परन्तु जितनी भी लिखीं वह सब संकलित और प्रकाशित हैं ।

6- पहली रचना कहाँ छपी ? किन - किन उच्चस्तरीय पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हैं?

उ.मेरी पहली रचना वाणी भूषण पण्डित विमल कुमार सौरया जी के सम्पादन में  प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'वीतराग - वाणी ' में छपी जो जिला टीकमगढ़ से निकलती थी,अब भी निकलती है ,पर अब इस पत्रिका की अवधि अनियतकालीन है।
     इसके साथ मेरी कविताएँ जागरण, दैनिक -भास्कर के  मधुरिमा परिशिष्ट समेत देश की लगभग सभी स्तरीय छन्दधर्मी पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर छपी हैं।

7- अपनी रचनाओं से समाज को क्या संदेश देना चाहते हैंं और क्यों ?

उ 'नेकी कर दरिया में डाल' वाली सूक्ति को आपके सन्देश वाले प्रश्न पर दुहराना चाहूँगा। हम सब काव्य के संस्कार इसी समाज से ग्रहण करते हैं,और हमें चाहिए कि हम दीप से दीप जलाते हुए इस समाज से जो हमनें ग्रहण किया है,इसी समाज को लौटा दें।
कहा भी है तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा की तर्ज पर!
 (आदरणीय चेतन चाचा जी आप भी तो यही काम करते आ रहे हैं। मेरे देखते- देखते कितने काव्य- दीप आपने अपनी काव्य ज्योति से प्रज्ज्वलित किए हैं।)

8-  कितने साझा संकलनों में छपे हैं ? कुछ के नाम बताएँ?

नवगीत पर केंद्रित जितने भी साझा संकलन 2007 के बाद अब तक आए उनमें से दो-एक को छोड़ दें तो, लगभग सभी में मेरी सहभागिता है। 
यदि कुछ के नाम लेना जरूरी हैं तो
1.शब्दायन : संपादक श्री निर्मल शुक्ल
2.गीत वसुधा : सम्पादक श्री नचिकेता 
3.सहयात्री समय के : सम्पादक श्री रणजीत पटेल 
4.धार पर हम  भाग दो : सम्पादक श्री वीरेन्द्र आस्तिक 
5. सप्तराग सम्पादक : श्री शिवकुमार अर्चन
6.गीत सिंदूरी गंध कपूरी : सम्पादक श्री योगेन्द्रदत्त  शर्मा जी
सहित अनेक संकलनों में मेरी नवगीत विषयक रचनाएँ संकलित हैं।

9- कोई कृति प्रकाशित हुई ? या होने वाली है?
उसमें क्या है?
  जी ,आदरणीय मेरी अब तक दस वर्ष के अन्तराल से दो कृतियाँ प्रकाशित हैं।
  पहली 
1" एक बूँद हम " नवगीत संग्रह 2011
  दूसरी 
2" धूप भरकर मुठ्ठियों " नवगीत  संग्रह 2021 

10- भविष्य में और क्या लिखना चाहते हैं?

उ 

फिलहाल तो लिखने से मन ऊब गया लिखने की अपेक्षा इन दिनों मेरा ध्यान अच्छे लेखकों को पढ़ने पर ज्यादा केन्द्रित है ।
फिर भी 
●एक पुस्तक दोहा सँग्रह की 
●दूसरी पुस्तक सौ नवगीतकारों पर अपनी टिप्पड़ियों की ●तीसरी पुस्तक समकालीन दोहाकारों के चुनिन्दा दोहे और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर मेरी दृष्टि 
●चौथी वागर्थ के माध्यम से किए गए काम को कुल पाँच खण्डों में प्रकाशित करने की योजना है।
यह काम लगभग तैयार है और वागर्थ के चर्चित ब्लॉग में
 सुरक्षित भी है।
इन दिनों लगभग 600 समकालीन दोहे मेरे पास हैं पर फेसबुक पर बिखरे पड़े हैं तैयारी में जुटता हूँ।

11- नई पीढ़ी से क्या कहना चाहेंगे ?

उ. अपने आत्मीय वरिष्ठों, गुरुजनों और माता-पिता के प्रति सदैव कृतज्ञता का भाव ज्ञापित करते रहें क्योंकि आज आप जो कुछ भी हैं।कहीं न कहीं आपकी सफलता के पीछे इन लोगों का थोड़ा - बहुत योगदान तो होता ही है।आप यदि शिखर के कँगूरे हैं,तो यह लोग आपकी नींव हैं और जड़ें भी जो आपको सदैव थामे रहने के लिए तत्पर रहते हैं। वैसे भी वरिष्ठ आपसे श्रेय नहीं चाहते, वह तो श्रेय आपको ही देंगे; बस प्यार के और नेह के दो मीठे बोल की अपेक्षा तो हम लोगों से उनकी हरदम बनी ही रहेगी।
कृतज्ञ रहें ,विनम्र रहें, और सदैव कृतज्ञता ज्ञापित करते रहें लेकिन यह सब सम्यक अनुपात में होना चाहिए।

12- अब तक की बड़ी उपलब्धि किसे मानते हैं? कोई बड़ा पुरस्कार?

साहित्यिक अभिरुचि के अनेक मित्रों से जुड़ना उन्हें जानना, समझना है अपने  आप में किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। मूलतः साहित्य- रसज्ञ होने के कारण मेरे हिस्से में जुड़ी।
पुरस्कार अनेक पर मैं इन्हें उपलब्धि नहीं मानता और उल्लेख भी नहीं करना चाहता, यह तो आपकी प्रतिभा का प्रोत्साहन भर होते हैं। साथ ही उन तमाम संस्थाओं का दिल  आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे इस योग्य समझा। हाँ पहली कृति एक बूँद हम पर लगभग 145 स्तरीय समीक्षाएँ मुझे किसी बड़ी उपलब्धि या बड़े सम्मान से कम नहीं 

13- अब तक कोई बड़ा सम्मान मिला ? ( फेसबुकी प्रमाण पत्र न जोड़ें )

लखनऊ की संस्था राष्ट्रधर्म ने 2013 में मेरी पहली कृति 'एक बूँद हम' को राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रधर्म नवगीत गौरव सम्मान के लिए चुना था जिसकी सम्मान राशि पाँच अंकों में थी।

14- क्या कविसम्मेलन के मंचों पर काव्य - पाठ भी करते हैं ? कितने किए?
  आठ -दस बड़े कवि सम्मेलनों में पाठ का अवसर मिला
परन्तु अपने आपको कवि सम्मेलनी प्रस्तुति के अनुकूल कभी ढाल ही नही पाता !

14- आपने किसी आकाशवाणी/ दूरदर्शन केन्द्र से भी काव्य - पाठ किया है? कब? कहाँ?

जी, भोपाल आकाशवाणी और दूरदर्शन पर मैंने 2006 से लेकर अब तक लगभग 24  से भी अधिक प्रस्तुतियाँ दी हैं। इसके साथ ही मैंने एक कार्यक्रम अपने ग्रह जिले आकाशवाणी के शिवपुरी केन्द्र से भी दिया है।
आकाशवाणी और दूरदर्शन पर समान रूप से खड़ी बोली और लोकभाषा बुंदेली में  मेरे पाठों की रिकार्डिंग होती रहती हैं।


15-- आपने किसी कृति या पत्रिका का सम्पादन भी किया है ? कौन सी?

जी , मैं करीब दस वर्षों तक राजधानी की एक मानक साहित्यिक संस्था 'कला मन्दिर' (अब यह राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय है) का सचिव रहा हूँ , संस्था की वार्षिक पत्रिका 'कला-वीथिका' का सम्पादन किया है।
हाल ही में वागर्थ ब्लॉग और फेसबुक समूह वागर्थ का संचालन किसी e magazine ई पत्रिका  की तर्ज़ पर ही करते आ रहे हैं।

16- हिन्दी - साहित्य में आपकी सर्वाधिक प्रिय पुस्तक कौन सी है?
पहली और पसंदीदा पुस्तक तो
हरिशंकर परसाई के 'प्रतिनिधि व्यंग्य' ही है।
इसके साथ दूसरे ऑप्शन में (जिसे आपने कहने का अवसर ही नहीं दिया पर मैं अपनी तरफ से जोड़ता हूँ।)
'गोदान' मुंशीप्रेमचन्द
'भागो नहीं दुनिया बदलो' राहुल सांकृत्यायन
इसके साथ ही मुझे कांतिकुमार जैन जी के संस्मरण बेहद प्रिय हैं।

17- फेसबुकी काव्य - सर्जना के संदर्भ में आपका मत क्या ?

मेरे मतानुसार फेसबुकी काव्य सर्जना रचनाकर्म में आंशिक मददगार भर हो सकती है अन्तर के काव्यसंस्कार के बिना यह माध्यम भी ज्यादा कारगर नहीं हो सकता पर एक बात तो निर्विवाद रूप से सत्य है, वह यह कि फेसबुक रचनाकार को विज्ञापित करने में बहुत मदद करती है। यह आप पर है कि आप लेखक का आकलन उसकी प्रतिभा से करते हैं या विज्ञापन के प्रभाव से
चेतन जी आपका बहुत आभार
इस बहाने बहुत से संस्मरण स्मृतिपटल पर उभरे
धन्यवाद
_______

मनोज जैन
106
विट्ठलनगर गुफामन्दिर रोड 
लालघाटी 
भोपाल
462030
मोबाइल नम्बर 9301337806

वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

वागर्थ प्रस्तुत करता है वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज  जी के नवगीत
                     गिरीश पंकज एक ऐसे साहित्यकार का नाम है, जो किसी खास विधा में बंधकर लिखने के लिए बाध्य नहीं रहे। वैसे तो एक व्यंग्यकार के रूप में उनकी विशिष्ट पहचान है लेकिन उनकी रचनात्मकता को जानने वालों को पता है कि उन्होंने दस उपन्यास भी लिखे, तीस व्यंग्य  संग्रह भी हैं उनके। चार कहानी संग्रह भी। बच्चों और नवसाक्षरों के लिए भी उनकी अनेक पुस्तकें छप चुकी हैं। लघुकथा लेखन में भी वे पारंगत हैं।उनके सात ग़ज़ल संग्रह और एक गीत संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। 
अपने गीत लेखन के संबंध में वे कहते हैं कि "व्यंग्य मैं दिमाग से लिखता हूँ,तो गीत मेरी आत्मा से अपने आप निःसृत होते हैं । समकालीन समय का अवलोकन करते हुए  अंतस के भाव कोमल गीतों के माध्यम से कब चुपचाप उतर आते हैं, पता ही नहीं चलता। 
गीत नवगीत पर चर्चा करने पर गिरीश पंकज जी कहते हैं कि
        "दरअसल गीत हृदय की विधा है। अंतरात्मा में निर्मम भावनाओं के विरुद्ध जब हस्तक्षेप होता है तो गीत नवगीत बन जाता है। मगर  गीत का पारंपरिक आस्वादन भी जरूरी है। हाँ, बदलते हुए परिवेश की तल्ख़ सच्चाइयों को प्रस्तुत करने के लिए नवगीत भी जरूरी हैं। 
 इसलिए  मेरे अंतर्मन में  गीत और नवगीत समान रूप से प्रवहमान रहते हैं ।" 

यहां प्रस्तुत हैं  गिरीश पंकज के नवगीत

प्रस्तुति 
वागर्थ संपादक मण्डल

गिरीश पंकज के नवगीत

1
अब बेकार हुए
------------------

बूढ़े क्या हो गए पिताजी,
अब बेकार हुए ।।

बचपन में जिन बच्चों को,
दिया हमेशा प्यार ।
वे बच्चे ही बड़े हुए तो,
आज रहे दुत्कार।
हतप्रभ है बूढ़ी काया,
ये क्यूँ मक्कार हुए।।

सारी खुशियाँ अपनी बाँटी,
बच्चे सुखी रहें।
जेब काटकर उन्हें दिया सब,
जीवन मस्त गहें। 
अपने पैर खड़े हो कर सब,
अब तो भार हुए।।

वृद्ध आश्रम में बैठी माँ,
हरदम ही रोती।
काश कभी तो आ जाते,
अपने पोता-पोती ।
लेकिन नहीं कोई आया,
कित्ते त्यौहार हुए।।

2

दिन प्यारे प्यारे
---- - -----------

कैसे भूलें हम बचपन के,
दिन प्यारे -प्यारे।।

पतंग उड़ाना, गिल्ली-डंडा,
भौंरे और बाटी ।
जिस पर लोट-लोट हम खेले,
वह प्यारी माटी।
नदी हमारी माँ जिसमें हम,
तैरे भिनसारे।।

कौन जात है कौन धर्म है,
इसका पता नहीं ।
सबको गले लगाया हँसकर,
कोई खता नहीं।
खेल रहे मंदिर, मस्जिद में,
या फिर गुरुद्वारे।।

कभी किया जंगल में मंगल,
चढ़ गए कभी पहाड़।
मैले हो कर लौटे लेकिन
मिला हमेशा लाड़।
मनचाहा खा कर पहुँचे फिर,
सपनों के दवारे।।

3
याद रखो तुम गाँव
--------------------

याद रखो तुम गाँव
न भूलो
पाप कहाएगा ।

तुम आए क्या शहर
गाँव की मिट्टी
भूल गए।
चकाचौंध क्या देखी  शहरी,
उसमें फूल गए ।
कौन हमारी खुशियां वापस
अब लौटाएगा।

याद न आई अमराई की 
शीतल-प्यारी छाँव।
सबसे प्यारा लगता था जब
तुमको अपना गाँव ।
क्या अब भी मन का
वो कान्हा
गीत सुनाएगा।

परदूषण ही रास आ गया 
हरियाली बिसरी।
खाँस-खाँस बीमार हो गई,
पीढ़ी अब शहरी ।
लौट प्रवासी सुंदर काया
सेहत पाएगा।

4

 वो ही बचा रहा
---------------------

जो भी लोक- हृदय में था 
बस 
वो ही बचा रहा ।

रचने को रच जाओ ढेरों 
पर वो सब बेकार।
वही रहा युग-युग तक जिसको 
करें लोग स्वीकार।
अंदर की आभा सच्ची तू
बाहर सजा रहा।

जब तक मन निर्मल ना होगा 
गीत नहीं बनता।
सर्जक माँ-सी पीड़ा सहकर  
भाव को जनता ।
कविता उतरे है सहसा तू
बैठे 'बना' रहा ।

जो जन-जन की पीड़ा गाए
गीत वही पावन।
जग जिस में खुद को अवलोके
वो ही मनभावन ।
गीत वही, जो भूले जग को
रस्ता बता रहा।

5

उनके लिए अछूत रहे
--------------------------

हम जिनके दरबारी ना थे, 
उनके लिए अछूत रहे।
लेकिन यह संतोष रहा हम, 
जनमानस के दूत रहे ।। 

हमें न भाये राजभवन के, 
तरह- तरह के व्यंजन ।
रूखी-सूखी खा कर भी हम,
 खुश रख पाए जीवन । 
याचक नहीं बने शिखरों के, 
इतने हम मजबूत रहे ।।

भीड़ राग-दरबारी गाए, 
हम आल्हा की तान  ।
अपनी कुटिया में ही खुश हम,
ले कर निज सम्मान ।
चारण-भाट नहीं हो पाए, 
हम कबीर के पूत रहे ।।

जो सर्जक होता है सच्चा, 
दरबारी क्यों गाए । 
होंगे कुछ बन्दे ऐसे भी,
 गा कर पैसे पाए।
हम अपनी खुद्दारी पर ही, 
 मगन रहे, अभिभूत रहे ।।

दुनियादारी में रह कर भी, 
भायी सदा फकीरी। 
कितनी दुखदायी है हमने, 
देखी यहॉं अमीरी।
इसीलिए इस दुनिया में भी, 
हम जैसे अवधूत रहे।।

गिरीश पंकज
__________

परिचय

गिरीश पंकज : जनवरी 1 नवंबर 1957 
शिक्षा: एमए. (हिंदी) , बीजे ( प्रावीण्य सूची में प्रथम), लोक संगीत में डिप्लोमा।
 प्रकाशन : दस उपन्यास, अट्ठाईस व्यंग्य संग्रह सहित विभिन्न  विधाओं में सौ पुस्तकें प्रकाशित ।
सम्मान पुरस्कार : व्यंग्य साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए हिंदी भवन दिल्ली व्यंग्यश्री सम्मान, अट्टहास सम्मान, पंडित बृजलाल द्विवेदी सम्मान, संसद के केंद्रीय कक्ष में राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान, त्रिनिडाड वेस्टइंडीज में हिंदी सेवाश्री सम्मान सहित अनेक  पुरस्कार।  अमरीका, ब्रिटेन सहित अनेक देशों की साहित्यिक यात्राएँ। 
संपर्क : सेक्टर -3, एचआईजी- 2/ 2 ,
दीनदयाल उपाध्याय नगर,
 रायपुर - 492010
मोबाइल- 8770969574

-

शनिवार, 26 जून 2021

डॉ पंकज परिमल जी का एक आलेख :गद्य का पद्यांतरण ही नहीं करता नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

।। गद्य का पद्यांतरण ही नहीं करता नवगीत।।
---------------------------------------------------------------
नवगीत को जो कहना होता है, उसे प्रतीकों में कहता है। प्रतीक को बुनने में बिंब उसकी सहायता करते हैं। बिंब प्रायः अभिधेयात्मक होते हैं, वे चाक्षुष ही अधिक होते हैं, चाक्षुष नहीं होते तो श्रौत होते हैं। अर्थात, जिस बिंब को हमारी आँखों ने नहीं भी देखा, पर हमारे कानों ने सुना। हमारी चेतना को जिसकी मर्मस्पर्शिता ने महसूस किया.... ये सब इंद्रिय सापेक्ष बिंब हैं। कुछ घटनाएँ अख़बारों से, दृश्य-श्रव्य माध्यमों से हमारी चेतना तक पहुँचते हैं। हम वो वाल्मीकि नहीं हैं जिन्होंने क्रौंच का व्याध द्वारा वध किए जाते हुए देखा तो चेतना द्रवित हुई।हमने तो क्रौंच-वध का समाचार ही पढ़ा, ज़्यादा से ज़्यादा उसकी रिकोर्डिड वीडियो-क्लिप देखी। क्या हमारी चेतना समान ही ऊष्मा से द्रवित होगी? क्या हमारी संवेदना का स्तर समान ही रह पाएगा? या हम ऐसे दृश्यों के अब आदी हो चले हैं! ये संवेदना के स्तर को लेकर रूखे और जटिल प्रश्न हैं।

इसी क्रम में, हमारी चेतना को यह भी तय करना है कि किस सीमा तक वह व्याध को अपने शाप से बाँधेगी और किस सीमा तक क्रौंच के विलाप में शामिल होगी! घायल हंस के बच्चे को  बालक सिद्धार्थ संरक्षित करते हैं, उसकी प्राणरक्षा करते हैं, वाल्मीकि ऐसा नहीं कर पाते। वे व्याध को द्रवित करने का वाचिक उपक्रम ही करते हैं। या तो उन्हें इस सत्य का ज्ञान है कि अब क्रौंच पक्षी पुनर्जीवित नहीं होगा। उनका द्रवित होना उनका मुनि-स्वभाव है तो अटल सत्य के आगे मौन होना उनका ऋषि-स्वभाव। खैर, इस घटना से संसार को एक महान कवि अवश्य प्राप्त होता है।

तो, हम वाल्मीकि की परंपरा के कवि बनें,भले ही क्रौंच की रक्षा न कर पाएँ, पर संवेदना का स्तर ग्रावाहृदयविद्रावण हो, पत्थर को भी पिघला देने वाला हो। मुझे नहीं पता कि पहले और दूसरे विश्वयुद्ध में कितने लोग राष्ट्रों के युद्धोन्माद के चलते मारे गए। मुझे नहीं पता कि कोरोना के विश्वव्यापी संक्रमण के चलते किंतने लाख लोग मारे गए।मुझे सही तौर पर यह भी नहीं पता कि ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में फैली भीषण दावाग्नि में कितनी प्रजातियों के लाखों कि करोड़ों वन्य जीव जल कर स्वाहा हो गए। लेकिन, इस सृष्टि के अधिपतियों की ही नहीं, साधारण जनों की भी संवेदना का अर्थापन इस बात से होता है कि वह कितना आभ्यंतर से द्रवित हो पाते हैं। और, कम-से-कम एक कवि को तो इसकी महती आवश्यकता है। एक राजा का उसकी संरक्षित प्रजा के रक्षण और भरण-पोषण का नैतिक दाय होता ही है, इसमें नया क्या! मुझे रामचरितमानस के सुंदरकांड की वह पंक्ति हठात स्मरण हो आई है जो समुद्री जीवों के राम के बाण से व्यथित होने पर समुद्र की अंतर्व्यथा का अंकन करती है--

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।

यह एक राजा के देखने योग्य नहीं है कि संहारक बाण किसका है। वह जगन्नियंता राम का ही अमोघ बाण क्यों न हो, यह किसी प्राकृतिक आपदा का ही संहारक बाण क्यों न हो, अपनी प्रजा की रक्षा इस बाण के घात से करना उसका नैतिक और परम दायित्व है।...

खैर, इस समय सारी मानवता व्यथित है। उसे गहरे अनिष्ट की छाया सर पर मंडराती हुई दिखाई दे रही है। वह कहीं-कहीं किंकर्तव्यविमूढ़ भी है, तो कहीं रचनात्मक, रक्षात्मक और सर्जनात्मक ऊर्जा से भी भरी हुई। उसे साधुवाद। कोटि-कोटि अंतरतम के धन्यवाद।

और, ऐसे क्रूर समय में हमारा कवि क्या कर रहा है? वह अखबारों की कतरनें बटोर रहा है। वह मीडिया पर आँख-कान लगाए हुए है। वह अफवाहों को मनोयोगपूर्वक गुन रहा है। वह उनमें अपनी कविता की सम्भावना तलाश रहा है। वह, जो बात गद्य में सहजता से कही जा रही है, उसे राग-रागिनी में ढाल रहा है, पद्यबद्ध कर रहा है। समाचारपत्रों में छपवाकर अपनी रचनात्मकता के विस्तार-प्रसार से खुश है। क्या यह पद्यबद्ध गायन ही आज की कविता का चेहरा है? लगता तो यही है। यह जनमानस को द्रवित न करने वाली कविता की लोकव्याप्ति का चेहरा है। यह मीडिया का कविता-संस्करण है। उस कवि को लग रहा है कि कोरोना शब्द का कविता में उल्लेख न करूँ तो यह कोरोनाकाल की कविता नहीं होगी। उसे चमगादड़ों, चीन, वुहान के उल्लेख से अपनी कविता को प्रामाणिक बनाना ही है। यही उसका कविता-विषय है। वह हाय कोरोना, मर कोरोना, भाग कोरोना, डूब कोरोना, प्रभृति तुकबन्दियाँ लिखकर गद्गदमन है। इस कृत्रिम किन्तु वृहत आपदा के त्रास की स्थितियों पर जिन बहुत कम कवियों का ध्यान गया है, उनमें नवगीतकार शामिल हैं। इनके उल्लेख द्रवित करने वाले हैं। हृदय की गहराई को, संवेदना को छूने वाले हैं। 2-4 दिन पूर्व, मेरा एक कर्मचारी, जो कोविद-19 की ड्यूटी में तैनात है, अपने साथ घटी एक घटना का ब्यौरा दे रहा था। वह रात्रि दस बजे की ड्यूटी के लिए जब बाइक से जा रहा था, तो कुत्तों के एक उग्र दल ने उसे दौड़ा लिया। यह साधारण तौर पर कुत्तों का गाड़ी के पीछे भागना नहीं था।इसमें पर्याप्त उग्रता थी। कुछ आगे फिर ऐसा हुआ। उसका निष्कर्ष था कि कुत्ते कई दिनों के भूखे हैं। उनके भरण-पोषण के साधनों पर वज्र-सा पड़ गया है। जिन हलवाइयों की दुकानों पर उनका अड्डा था, जहाँ वे आगन्तुकों के उच्छिष्ट से पोषित होते थे, वह साधन जाता रहा।  धर्मपारायण लोग, जो कुत्तों, चींटियों और आवारा पशुओं को ब्रेड, रोटी, बिस्किट, गुड़-आटे से तृप्त करते हुए घूमते थे, उनकी आवाजाही बंद है। धर्म कहता है कि क्षुधा से बड़ा कोई पाप नहीं है--बुभुक्षितं किं न करोति पापं। कल मेरे आवास पर एक घटना हुई। कई दिनों से एक बीमार बंदर यहाँ चक्कर काट रहा था। घण्टों अशक्त होकर लोट जाता। कल बंदरों के एक बड़े समूह ने घर को घेर लिया, भान हुआ कि कदाचित वह बन्दर या तो मर गया या अधिक गंभीर है। इसके साथ ही हमने देखा कि दीवार की रंग की परत जहाँ-जहाँ से उखड़ रही थी, वहाँ-वहाँ कुछ बंदर जीभ लगाकर रेह चाट रहे थे। फूलों को तो उन्होंने छोड़ा नहीं। तो, अनुमान यही हुआ कि वे अपने साथी की व्यथा से तो व्यथित थे ही, भूखे भी थे। जो फल-सब्जी वाले गले-सड़े फल छोड़कर उठ जाया करते या उनकी अनवधानता में बंदरों का दाँव चल जाता, वह सब अब बन्द है। मैं लॉक-डाउन खुलने की हिमायत नही कर रहा, इस पक्ष पर भी आपकी दृष्टि का एक छोटा निक्षेप चाह रहा हूँ।

हमारा कवि क्या लिख रहा है अधिकांश में, वही जो गद्य में कहा जा रहा है, उसे पद्य में ढालकर। सामाजिक दूरी बनाओ। हाथ न मिलाकर अभिवादन करो, हाथ धोओ, सफाई रखो, वगैरह.. क्या गद्य का पद्य-रूपांतरण करना ही कविता है?  इसीलिए, नवगीत की ओर और नवगीतकारों की ओर मैं अतिरिक्त आशा से देखता हूँ। मुझे, अधिक तो नहीं पर कुछ तो आशा है कि वे अपनी कलम से हमारी संवेदनाओं को गहराई तक छुएँगे। आशा रखने में मेरी क्या हानि है?

पंकज परिमल 21.04.2020

पंकज परिमल जी का आलेख: सन्दर्भ नवगीत : छन्द, शब्दावली, प्रतीक और बिंब प्रस्तुति : वागर्थ

।।सन्दर्भ नवगीत : छन्द, शब्दावली, प्रतीक और बिंब।।
----------------------------------------------------------------------
लोगों की प्रायः जिज्ञासा होती है कि नवगीत और गीत में मूलभूत अंतर क्या है। मैं विभिन्न अवसरों पर इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश करता हूँ। पहली बात, इनमें केवल प्रकृतिगत अंतर होता है, रचावगत नहीं। रचने के लिए तो हमें वे ही उपादान और मूलभूत वस्तुओं की आवश्यकता होती है, जिनकी एक पारम्परिक गीत को होती है। इसमें सबसे पहले छन्द का स्थान है। छन्द के बिना गीत नहीं होता।नवगीतकार  को उसी छन्द का चयन करना चाहिए जिसमें उसकी अभिव्यक्ति छन्द के आयास से न बाधित हो। अर्थात उसका समग्र ध्यान अपनी रचना की अंतर्वस्तु पर ही रहे। तुकांत या समान्त ऐसे हों जिन्हें ढूँढने में किसी तुकांत कोष की आवश्यकता न पड़े और कवि के स्मृति कोष से निकलकर वे ज़रूरत से पहले ही सामने आते जाएँ। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मुझे नवगीत के लिए चौपाई, हरिगीतिका, विधाता, विष्णुपद जैसे कुछ छन्द अति प्रिय और सरल लगे हैं। उसका कारण है कि ये हमारी साहित्य-काव्य परंपराओं के माध्यम से हमारी स्मृति और आत्मा में रचे-बसे छन्द हैं। इनमें  मापनीयुक्त  मात्रिक से ज़्यादा मापनीमुक्त मात्रिक छंदों का स्थान है। चौपाई, हरिगीतिका, भुजंगप्रयात, दोहा आदि तो रामचरितमानस के पारायण से स्मृति-गर्भित छन्द हैं। दोहा चेतना में व्याप्त होने के बावजूद मुझे गीत या नवगीत की सर्जना के लिए कभी उपयुक्त नहीं लगा। चाहें तो इसे आप मेरा पूर्वाग्रह मान सकते हैं। और भी जिन मित्रों ने दोहा को आधार बनाकर गीत लिखे हैं, वे भी मुझे कभी प्रिय नहीं लगे।

छन्द को नवगीत  के लिए आवश्यक मानते हुए पुनः कहूँगा कि अंततः, अंतर्वस्तु ही मुख्य है और छन्द गौण। मैं इस लांछन को स्वीकार करता हूँ कि मेरे तुकांत या समान्त कई अवसरों पर दोषपूर्ण होते हैं। सम्यक्  हों तो बहुत अच्छी बात, इसका कोई विरोध नहीं। शुद्धता हमेशा अच्छी लगती है और स्पृहणीय भी है, पर मैंने अपना ध्यान हमेशा नवगीत की अंतर्वस्तु पर ही केंद्रित रखा।यद्यपि, कोशिश मैं भी करता हूँ कि मेरे समान्त शुद्ध हों।

अब बात नवगीत में प्रतीक और बिम्ब के विधान की। ये वे तत्त्व हैं जिनमें नवगीत की आत्मा बसती है। यही पारम्परिक गीत से नवगीत को अलगाने में सहायक तत्त्व हैं। बिंब और प्रतीक दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं, एक नहीं। बिंब प्रायः इन्द्रियसापेक्ष होते हैं। जैसे,चाक्षुष बिम्ब, घ्राण बिम्ब आदि। ये दृश्य का वर्णन करने वाले और प्रायः अभिधेयात्मक होते हैं। जैसा दिखा, वैसा अंकित कर दिया। रचना या कविता के सिक्के का यह एक पहलू है। दूसरे पहलू में प्रतीक उपस्थित हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। कभी-कभी प्रतीक की रचना में उपस्थिति का तरीका दूसरा होता है। उस पर चर्चा बाद में। पहले प्रस्तुत नवगीत की बात करूँगा। 

छन्द की दृष्टि से यह आल्हा छन्द है, 16, 15 के मात्राविधान के साथ। प्रयोग में बहुत सहज है और प्रवाहपूर्ण तो है ही। शेष जानकारी छन्द के विषय में देना यहाँ अभीष्ट नहीं है। यह भी एक तरह से हमारी स्मृति और आत्मा में रचा-बसा छन्द है। इसके निर्वाह में पहले तो त्रुटि होने की संभावना नहीं है, अगर है भी तो बहुत कम। कविता के नए अभ्यासकर्ताओं को ऐसे छंदों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

गीत की टेक की या ध्रुवपंक्ति की आरंभिक पंक्ति देखें--
'अवधपुरी में डंका बाजा, नगरी टीके को तैयार'
यह सीधे-सीधे एक अभिधेयात्मक और चाक्षुष बिंब है, जिसे पकड़ने में पाठक, श्रोता या भावक को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती। स्वतः समझ में आता है। पहला अंतरा या बन्द भी कमोबेश ऐसा ही है। पहले बन्द के बाद की ध्रुवपंक्ति से रचना में प्रतीकात्मकता का प्रवेश होने लगता है धीरे-धीरे।

संविधान की पोथी में से, निकला एक कूट उपचार

यहाँ संविधान शब्द नितांत आधुनिक युग का शब्द है और रचना में अपने प्रवेश से प्रतीक-विधान का सूत्रपात करता है। इस समय के राजनीतिक घटनाक्रमों में आगे के उल्लेख प्रासंगिक हैं। कवि की आत्मा प्रतीकों के पैनेपन को लेकर अभी अतृप्त और असंतुष्ट है, और इसी कारण, यह नवगीत बंदों की संख्या में काफी आगे निकल गया है, नकि समान्तों के अधिकाधिक दोहन की इच्छा से। यहाँ बताता चलूँ कि कुछ समान्त बहुत उर्वर होते हैं, जैसे --'आर'।

गीत के आगे के बंदों में ये प्रतीक अधिकाधिक स्पष्ट होते चले हैं और कवि को अर्थापन में ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। फिर भी यदि भावक राम के अभिषेक की अयोध्याकाण्डीय तैयारी से बाहर नहीं निकल पाता और अपने समय को नहीं देख पाता तो यह उसका नितांत व्यक्तिगत दोष है, कवि का सर्जना-दोष नहीं। पर, स्पष्टता को लेकर कवि अभी भी संतुष्ट नहीं है, इसलिए वह आधुनिक युग के व्यंजक शब्दों का खुलकर प्रयोग करना ज़रूरी मान लेता है। अब पंक्तियाँ देखिए--

कहें मीडिया से अब रघुबर
दिया पिता ने वन का राज
सेवा कर वन के लोगों की
शुद्ध करेंगे अपने काज

भीतर के पृष्ठों पर जाने
क्या क्या छाप रहे अख़बार

यहाँ, मीडिया और अखबार के आ जाने से चीज़ें और ज़्यादा साफ होने लगती है। यहाँ, यह भी उल्लेख करना ज़रूरी है कि मीडिया और अखबार के स्थानापन्न हिंदी शब्दों की अर्थव्याप्ति दुर्बल होगी, इसलिए, भाषा को हिंदी रखते हुए, मैं जीवन में रच-बस चुके विदेशी भाषा के शब्दों के स्थानापन्न  हिंदी शब्दों के प्रयोग के पक्ष में नहीं हूँ।

।।नगरी टीके को तैयार।।
------------------------------------
अवधपुरी में डंका बाजा
नगरी टीके को तैयार
आयोजन से पहले कोई
घुस आया देखो बटमार

रात-रात भर चली मंत्रणा
माथा पकड़े हैं महराज
कूटनीति ने आज बिगाड़े
सकल मनोरथ वाले काज

संविधान की पोथी में से
निकला एक कूट उपचार

सभी सभासद गुपचुप-गुपचुप
करते नए-नए गठजोड़
सिखलाते है विशेषज्ञ सब
संवैधानिक नित नव तोड़

कई उदाहरणों से होता
सच्चा साबित मिथ्याचार

मँझली रानी सीख रही है
कुबड़ाओं से नूतन दाँव 
छान उड़े जो उनके सिर से
अपने सिर पर आए छाँव

हुए राजगुरु बूढ़े अब तो
उनके मत की क्या दरकार

कहें मीडिया से अब रघुबर
दिया पिता ने वन का राज
सेवा कर वन के लोगों की
शुद्ध करेंगे अपने काज

भीतर के पृष्ठों पर जाने
क्या क्या छाप रहे अख़बार

राजसदन में अफरातफरी
क्या जाने कल क्या हो जाय
राजमुकुट सत्ता की हलचल
जाने किसके सर धर आय

राजभवन घुस चैनल वाले
लेते सबके साक्षात्कार

जनता का भी अभिमत पूछा
जनता सारी पर है स्तब्ध
किसके पुण्य फलेंगे, किसके
आड़े आएगा प्रारब्ध

जयजयकार मचेगी किसकी
किसके घर अब हाहाकार

भर पाए हम दोनों से ही
नृप चाहे कोई हो जाय
हर सूरत में अपना घाटा
ये ही है नैसर्गिक न्याय

और कमर टूटेगी अपनी
और बढ़ेगी कर की मार

गद्दी पर हो चाहे कोई
उसको देंगे मंत्र सुमंत्र
है बराबरी के अंतर पर
सचिवों का भी अपना तंत्र

भाँज रहे हैं सारे क्षत्रप
नित अपनी-अपनी तलवार

रानीजी तो होंय रिटायर
राजाजी जाएँ सुरलोक
वैभव भोगेंगीं रानीजी
जनता सब भोगेगी शोक

वल्कल चीर धारना उनका
ठग जाता है फिर इक बार

खोटे सिक्के, खरी अशरफी
हम सबको इसका क्या ज्ञान
राजदण्ड है जिनके हाथों
उनका ही करना सम्मान

कब प्रतिपक्ष पक्ष बन जाए
निष्ठा बदलें बारंबार

पंकज परिमल 14.04.2020

विनम्र श्रद्धांजलि प्रस्तुति : वागर्थ

विनम्र श्रद्धांजलि
_____________
कल की एक खबर हम सब को चौंकाने और स्तब्ध करने वाली थी।राजधानी के ख्यात कवि और कथाकार मध्यप्रदेश लेखक संघ के पूर्व प्रांताध्यक्ष और संरक्षक बटुक चतुर्वेदी जी हमारे बीच नहीं रहे उनका व्यक्तित्व और कृतित्व समान रूप से प्रभावशाली था।पूरे प्रदेश में लेखक संघ की जड़ें जमाने का काम बटुक जी ने ही किया था जो आज हरी भरी शाखाओं के रूप में लहकती  दिखाई दे रही हैं।लेखक संघ के साथ सबसे अच्छी बात यह रही की बटुक जी ने अपने जीते जी लेखक संघ को ईमानदार और समर्पित उत्तराधिकारियों की टीम और अध्यक्ष अपने जीते जी ढूँढ कर दे दिया और संघ की कमान उन्हें सौंपकर खुद निश्चिंत हो गए।
        जीते जी उन्हें खूब यश मिला वह हम सभी के चहेते थे।जैसा कि कल हम सबने सोशल मीडिया पर उनकी  वायरल पोस्टों के माध्यम से यह जाना और समझा अब वह हमारे साथ सशरीर नहीं हैं पर उनके  लिखे शब्द हमारे साथ सदैव रहेंगे।उन्हें राष्ट्र एवं प्रदेश व्यापी अनेक सम्मान मिले जिनमें प्रदेश का कबीर सम्मान भी शामिल है।विक्रम विश्वविद्यालय से उनके उपन्यास हेमन्तिया उर्फ क्लेक्टरनीबाई पर शोध कार्य सम्पन्न हुआ।ऐसा एक अन्य कार्य जीवाजी विश्वविद्यालय से भी संपन्न हुआ है।
उनके द्वारा रची "खूब भरो है जम कैं मेला" बुंदेली कविता ने एक समय में मंचों पर खूब धूम मचाई।देश भर में उन्होंने मंचों पर प्रस्तुतियाँ दीं बालकवि वैरागी जी और नीरज जी के निकट रहे।मैं उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ।ईश्वर उनकी आत्मा को शाँति दे।अमूमन लोग दिवंगत को याद करते समय अपने साथ वाला फ़ोटो खोज खोजकर लगाते हैं,पर ऐसा इस अवसर विशेष पर करना मुझे अनुचित लगता है।
मेरा आशय यह बिल्कुल नहीं है कि लोग जो करते हैं वह गलत है पर ऐसे मैं मुझे कवि को उसके कृतित्व के साथ याद करना ही श्रेयस्कर लगा।
     प्रस्तुत हैं उनके लिखे कुछ दोहे अवसर भी बिल्कुल वही है जिस माहौल विशेष पर कभी कवि ने अपनी कलम चलाई थी।बटुक जी ने जिन कवियों और रचनाकारों पर अपनी कलम चलाई थी,आज के समय इनमें से अनेक कवि हमारे साथ हैं और अधिसंख्य नहीं भी।पर,अफसोस इस पोस्ट को देखने या सुनने के लिए दादा बटुक जी हमारे मध्य नहीं हैं।

उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि और नमन 

मनोज जैन 
________________________
 बटुक चतुर्वेदी जी के चंद होलियाना दुमदार दोहे साभार प्रस्तुत है 
 चंद दुमदार दोहे –
          डॉ. शिव मंगल सिंह “सुमन”
          _____________________
हमें न पतझड़ जानिए, हम हैं ललित वसंत,
झांको अन्तर में तनिक, भूल जाओगे पंथ।
जाओगे कभी नहीं फिर अंत।।
         आचार्य रामेश्वर शुक्ल “अंचल”
_____________________________
संस्मरणों में आपके, कसकन अति गंभीर,
कविताओं में खींचते, यौवन की तस्वीर।
समझता कोई न अपनी पीर।।
             श्री नरेश मेहता
               ____________
अपना मालव देश भी, कैसा गहन गंभीर,
घोर उपेक्षा झेलकर, छोड़ न पाता धीर।
बदलती घूड़े की तकदीर।।
            श्री गोपालदास ‘नीरज’
             _________________
नीरज धीरज धारिए, अब वैसे दिन नाहिं,
जिस द्वारे पर जा डटें, वह ही देय पनाह।
बुढ़ापे में जवानों सी आह।।
          श्री हरिशंकर परसाईँ
________________
परसाईं के व्यंग्य हैं, ज्यों भीलों के वाण,
ठीक निशाने पर लगें, हरे न लेकिन प्राण।
बन्द कमरे में सकल जहान।।
          श्री राजेन्द्र अवस्थी
         ________________
खूब बुझाई आपने, अपने मन की प्यास,
मगर न होती तृप्ति सो, मनवा रहे उदास।
बदलते रहे रोज गिलास।।
          श्रीमती मालती जोशी
          __________________
कथा कथा में भेद है, गीत गीत में भेद,
कभी नहीं भाता इन्हें, गिनें किसी के छेद।
आपका है इनसे मतभेद।।
          श्रीमती मेहरुन्निसा परवेज
         ______________________
पाकर नित्य-प्रसाद को, है इनको परहेज,
इसीलिए क्या लिख रहीं, आत्मकथा परवेज?
डायरी में कुछ कोरे पेज।।
         डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय
________________
अपनों ने ही ठाठ से दिलवाया वनवास,
जड़ें काट दीं उन्हीं ने, जिन पर था विश्वास।
बुझाते कलकत्ते में प्यास।।
         श्री बालकवि बैरागी
        ________________
बैरागी के हो गये, यारों बाल सफेद,
फिर भी फिरते खोजते, हैं साहित्यिक छेद।
नहीं देते औरों को भेद।।
        श्री रमेश चन्द्र शाह
          _______________
क्या काव्य आलोचना, सबके है उस्ताद,
क्यारी हिन्दी की मगर, है अंग्रेजी खाद।
एक ही डिश में अनगिन स्वाद।।
         श्री माणिक वर्मा
         _____________
खींच रहे कविताई में, यह व्यंगों की खाल,
पर गजलों के साथ ये, देते दिखते ताल।
मगर आगे ठनठन गोपाल।।
        श्री अशोक वाजपेई
         _______________
जिधर देखिए आप हैं, आप और बस आप,
जिसको देखो कर रहा, सिर्फ आपका जाप।
यही कुर्सी का पुण्य प्रताप।।
         श्री हरि जोशी
         ___________
ऊबे लगते व्यंग्य से, फिक्शन में है व्यस्त,
हक्कानी यों हांकते, ज्यों हो जग से त्रस्त।
जमाना केवल नगद परस्त।।
         श्री यशवन्त व्यास
______________
खाल खींचना छोड़िये, व्यंगों की यशवन्त,
संपादन के काम में है अद्भुत आनन्द।
आपके लटके बड़े ज्वलंत।।
          डॉ. देवेन्द्र दीपक
           _____________
दीपक यदि जलता रहे, सार्थक उसका नाम,
बुझे दिये को बोलिए, कैसे होय प्रणाम।
पार लगाएगा हरि नाम।।
            श्री विजय वाते
             ____________
कहाँ पुलिस की ड्रेस है, कहाँ ग़ज़ल का फेस,
कहां गीत का फेस है, कहाँ कथा का शेष।
जवानी में खाई है ठेस।।
            डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी
             _____________
व्यंगों के इंजैक्शन, हरदम हैं तैयार,
किसको कब ये ठूंस दें, कहना है बेकार।
पोंछते लिटरेचर की लार।।
           श्री वसंत निरगुणे
______________
इस निर्गुणी वसंत पर, न्यौछावर तन-प्राण,
एक मोहिनी रूप ही ले सकता है जान।
जानता इनको सकल जहान।।
           श्री लीलाधर मंडलोई
_________________
लीलाएँ अद्भुत गजब, सभी आपके कृत्य,
मन मयूर बैठा करे, अद्भुत अद्भुत नृत्य।
आपके पौ बारह हैं नित्य।।
             प्रस्तुति 
           मनोज जैन
साभार –
छींटे रंग गुलाल के
कविता संग्रह से

मनोज जैन

राहुल आदित्य राय के समकालीन दोहे प्रस्तुति : वागर्थ


राहुल आदित्य राय के समकालीन दोहे
____________

दोहे
दर्द पराया देखकर, अगर न उभरे पीर
तो समझो मर गया है, दो नयनों का नीर

अपना भी कुछ इस तरह, मिलना होता काश
जैसे सावन में मिले, धरती से आकाश

आंखों आंखों में मिले, जब दो दिल की प्यास
सागर भी छोटे पड़ें, बढ़ती जाती आस

बाहर से ज्यादा मिला, दिल के अंदर शोर
चिंता, शोक और खुशी, मांगें अपना ठोर

सागर ने समझी नहीं, उस नदिया की प्यास
जो पर्वत को लांघकर, आई उसके पास

बांटें से बढ़ती सदा, पूंजी ऐसी प्यार
दिल के द्वारे खोल दो, बांटो प्रेम अपार

ऐसा हो इस देश में, धर्मों का सम्मान
मस्जिद में गीता पढ़ें, मंदिर पढ़ें कुरान

प्यार बिना जीवन नहीं, ये जीवन का सार
जब तक ये धड़कन रहे, दिल चाहे बस प्यार

अपनों ने समझी नहीं, मेरे मन की पीर
आंखों से बहता रहा, दुख में भीगा नीर

नीचे कितना गिर गया, देखो अब इंसान
पीड़ा का दोहन करे, बस पैसों पर ध्यान

कदम कदम पर छल मिला, कदम कदम पर झूठ
सच के रस्ते में मिले, जाने कितने ठूंठ

धंधे चौपट हो गये, छिना यहां रुजगार
उस पर महंगाई बढ़ी, जीवन है दुश्वार

आसमान तक चढ़ गये, सब चीजों के दाम
सरकारें इठला रहीं, मुश्किल में आवाम

बातों से बनती नहीं, कैसे भी तकदीर
पाना है मंजिल अगर, सन्नाटे को चीर

कुछ भी स्थायी नहीं, सब कुछ है गतिमान
तुम पद का गुरूर करो, या धन का अभिमान

दर्द पराया देखकर, पिघले गर इंसान
दुनिया की मुश्किल सभी, हो जाएं आसान

राजा आत्ममुग्ध है, भक्त करें जयकार
दुखियारी प्रजा मगर, करती हाहाकार

तब तक दुनिया साथ है, जब तक चले नसीब
बुरा हुआ जो वक्त तो, मिलते रोज रकीब

(राहुल आदित्य राय)

कवि परिचय में प्रस्तुत हैं राहुल आदित्य राय प्रस्तुति : वागर्थ

बायोडाटा
-------------
नाम: राहुल आदित्य राय
पिता का नाम: स्व.विशम्भर दयाल श्रीवास्तव
जन्म तिथि: 5 जुलाई 1974 
जन्म स्थान: जौरा, जिला मुरैना
निवास: 5 बी डीएस मेंशन, आदित्य नगर मुरार ग्वालियर
सम्प्रति: पत्रकारिता ( दैनिक आचरण, नवभारत, दैनिक भास्कर, नईदुनिया, प्रदेश टुडे, पत्रिका में विभिन्न पदों पर सेवाएं दीं।
लेखन: करीब 25 वर्ष से
विधा: ग़ज़ल, गीत, कविताएं, दोहे
 मुख्य विधा: ग़ज़ल
प्रकाशन: युगीन काव्या, सरस्वती सुमन, शिवम्, समांतर, मधुमति, मरु गुलशन, नई ग़ज़ल, ग़ज़ल के बहाने, लोक मंगल, उत्तरायण गुफ्तगू सहित कई अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं और विभिन्न संग्रहों में ग़ज़लों, गीतों का प्रकाशन। आकाशवाणी से कई रचनाओं का प्रसारण। दूरदर्शन से भी प्रसारण।
समाचार पत्रों में सेवाओं के दौरान कई लेखकों की पुस्तकों की समीक्षा की।

मोबाइल:9165429800
ईमेल: rahuladityarai@gmail.com

।। कविता : विषयवस्तु और भाषा की परिवर्तनशीलता।। पंकज परिमल जी का आलेख

।। कविता : विषयवस्तु और भाषा की परिवर्तनशीलता।।
----------------------------------------------------
क्या साहित्य-रचना,विशेषकर कविता की विषयवस्तु और उसकी भाषा शाश्वत होते हैं, जिनमें यथास्थितिवाद रूढ़ि की तरह जड़ जमाए बैठा रहता है? अगर वास्तव में ऐसा है तो आगे कुछ लिखने-सिरजने की गुंजाइश ही नहीं रहती। 

क्या कविता में से गद्य का भी पूर्ण निषेध है? अगर ऐसा है तो संस्कृत भाषा का बहुत सारा गद्यसाहित्य काव्य कहलाने की पात्रता ही नहीं रखता,जिसे कभी से काव्य की संज्ञा से अभिहित किया गया है।

आप एक बात तो कह सकते हैं कि काव्य और कविता, ये दो वस्तुएँ हैं,एक नहीं। पर वस्तुतः यह हमारे कथन और स्थापनाओं को सुविधाजनक बनाने की वाचिक कोशिश है। एक तरह से सत्य को अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास। पर चलिए,हम इसे भी स्वीकार कर लेते हैं।

विषयवस्तु का क्षेत्र न तो सीमित होता है और न शाश्वत। साहित्य के विषय हमेशा परिवर्तनशील रहे हैं,काव्य और कविता के भी।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जिस प्रकार काव्य का काल-विभाजन किया है, यदि विषयवस्तु  शाश्वत रहती तो यह विभाजन संभव न होता। यह आधुनिक क्या कविता का उत्तर-आधुनिक काल है।प्रत्येक 5 या 10 वर्षों के अंतराल पर यह काल परिवर्तनशील है, इसे पीछे लौटा लेना सम्भव नहीं।

परम्परा वही है जो हमेशा नवता के स्वागत के लिए उद्यत है, नहीं तो वह त्यागने योग्य रूढ़ि है। रूढ़ियाँ जड़ होती हैं, उनमें भी रस-प्राण रहित मृत जड़। जिसमें से नव-पल्लव के फूटने-विकसने की सम्भावना न बचे।

खेद है कि स्वयंभू आचार्यगण शास्त्रों से चिपके हुए हैं और उनके उल्लेखों को अपौरुषेय वेद की ऋचाओं की तरह आप्तवचन मानते हैं जबकि शास्त्रों में हमेशा लोच की प्रवृत्ति रहती आई है। दर्शन में भी। द्वैत भी,अद्वैत भी,विशिष्टाद्वैत भी। और भी अनेक दर्शन। एकं सत विप्रा: बहुधा वदन्ति जैसी मान्यता भी आयातित न होकर हमारी परम्पराओं की ही मंगलध्वनि है।

मुझे आश्चर्य होता है कि हमारे सर्जकों में इतना कठमुल्लापना और जड़भाव कहाँ से घुस आया? कहाँ से इतनी कूपमण्डूकता पैदा हो गई। याकि इस जड़ता में ही उन्हें अपना जीवन दिखाई देता है। आजकल सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण इस जड़ता ने अपने पाँव समेटे नहीं हैं, उल्टे फैलाए हैं। कोई अपने घर मे कछुआ रख रहा है, कोई विंड-चैम्प चौखट के बीच लटका रहा है तो मोटे से थुलथुले व्यक्ति को लाफिंग बुद्धा बताकर सत्कारने में लगा हुआ है। मतलब यह,कि हमारी रूढ़ियाँ कम पड़ने लगी हैं और हम रूढ़ियों का आयात किए जा रहे हैं।

बलिहारी हमारे ज्योतिषशास्त्रियों की और व्हाट्सएप के विद्वानों की, वे विभिन्न प्रकार की मांगलिक वस्तुओं के आधान और अवस्थापन में सुख-समृद्धि के निर्देश बताने में लगे है और लोग सत्यवचन महाराज कहकर उनका अनुसरण करने में जी-जान-जेब से जुटे हैं।

अनुसरण की यह भेड़चाल यह भी स्थापित करती चलती है कि अमुक कार्य या क्रिया तो पूर्णतः वर्जित है ही। हम विकास का नहीं,वर्जनाओं का और निषेध का शास्त्र रचने में लगे हैं।ऐसा शास्त्र हमें डराने में लगा है जिसकी कभी बहुत अधिक प्रासंगिकता रही ही नहीं।। पंकज परिमल