बुधवार, 23 जून 2021

प्रस्तुत हैं ब्रजमोहन के जनगीत : प्रस्तुति वागर्थ संपादक मण्डल

ब्रजमोहन के लिखे गीत

1. हड़ताल का  गीत

जब तक मालिक की नस-नस को हिला न दे भूचाल...
        ज़ारी है हड़ताल हमारी, ज़ारी है हड़ताल
         न टूटे हड़ताल हमारी, न टूटे हड़ताल

        हम इतने सारों को मिल ये गिद्ध अकेला खाता
        और हमारे हिस्से का भी अपने घर ले जाता
        हक़ माँगें हम अपना तो ये गुण्डों को बुलवाता

हम सबका शोषण करने को चले ये सौ-सौ चाल —
                                                         ज़ारी है... 

        सावधान ऐसे लोगों से जो बिचौलिया होते
        और हमारे बीच सदा जो बीज फूट का बोते
        और कि जिनके दम पर अफ़सर मालिक चैन से सोते

देखेंगे उनको भी जो हैं सरकारी दल्लाल —
                                                जारी है...

        सही-सही माँगों को लेकर जब हम सामने आए
        इसके अपने सगे सिपाही बन्दूकें ले आए
        जाने अपने कितने साथी इसने ही मरवाए

लेकिन सुन लो अब हम सारे जलकर बने मशाल —
                                                         ज़ारी है...

2. हाथ कुदाली रे

हाथ कुदाली रे
ओ भैया, हाथ कुदाली रे
तेरे दम से ही धरती पर है हरियाली रे...

बोता है खेतों में जीवन
तू ही तो हर साल
किन्तु महाजन हर मौसम में
करता तुझे हलाल
दाब महाजन की गरदन अब चरबीवाली रे...
हाथ कुदाली रे...

गर्मी-सर्दी-आँधी-बारिश
चाहे हो तूफ़ान
ज़मींदार के कोड़े तुझको
करते लहू-लुहान
ज़मींदार की आँखों से अब खींच ले लाली रे...
हाथ कुदाली रे...

3. हाथ हथौड़ा रे

हाथ हथौड़ा रे
ओ भैया, हाथ हथौड़ा रे
तेरी छाती से बढ़कर न पर्वत चौड़ा रे...

गला-गलाकर लोहे को
तू ख़ुद इस्पात बना है
तेरे आगे कोई सीना
कब तक भला तना है
हर युग में ख़ूनी जबड़ों को तूने तोड़ा रे...
हाथ हथौड़ा रे...

ज़हरीले साँपों का दुशमन
तू सबसे पहला है
ज़हरीले साँपों को तूने
हर युग में कुचला है
ज़िन्दा अपने दुशमन को न तूने छोड़ा रे...
हाथ हथौड़ा रे...

4. गीत 

गीत जैसे हरे-भरे खेत में किसान रे
गीत जैसे गूँगी धरती की है ज़ुबान रे...

गीत जैसे चाक को घुमाए है कुम्हार रे
गीत जैसे आँखों में हो ज़िन्दगी का प्यार रे
ज़िन्दगी सफ़र, गीत पाँव की है जाम रे...

गीत जैसे मन में बसा हो कोई सपना
गीत जैसे घर हो किसी का कोई अपना
गीत जैसे हँसता हो कोई इनसान रे...

गीत जैसे दुख को चुराए कोई चोर रे
गीत जैसे माँ की ममता का नहीं छोर रे
माथे से पसीने की उड़ाए है थकान रे...

गीत जैसे बच्चा माँगे दुनिया की ख़ुशियाँ
गीत जैसे काटे नहीं कटती हों रतियाँ
गीत जैसे बेटी हुई घर में जवान रे...

गीत जैसे दिया जल जाए ठीक रात में
गीत जैसे आग लग जाए किसी बात में
गीत जैसे गरजे है देखो आसमान रे...

5. दमड़ी 

चमड़ी बेशक जाए रे भैया, दमड़ी लियो बचाए
चमड़ी तो फिर आ जाएगी, दमड़ी आए न आए
                              रे भैया दमड़ी का ही राज
                               दमड़ी के सर पे ही ताज
                               दुनिया दमड़ी की मोहताज... हो... 

सारा ख़ून-ख़राबा लूट और मारकाट के क़िस्से
दमड़ी के लोभी करवाते खाते सबके हिस्से
राम के नाम का चक्कर कोई दमड़ी न ले जाए
                                                     रे भैया...

ऊँच-नीच औ’ जात-पात औ’ हिन्दू-मुस्लिम दंगे
ज़ालिम दमड़ी के चेहरे ही हैं, ये रंग-बिरंगे
मरे हज़ारों-लाखों, चाहे देश भाड़ में जाए
                                                     रे भैया...

झण्डे-कुरते-टोपी-कुरसी-लाठी-गोली-फ़ौज
गंगू तेली पर शासन दमड़ी का राजा भोज
दमड़ी का रथ चले ख़ून की सड़कों पर इतराय
                                                   रे भैया...

6.  फिर बसन्त आया है

फिर बसन्त आया है, केंचुली उतारेंगे साँप
सालाना भूख के कलेजे में, आज दंश मारेंगे साँप — 

     सूद चढ़ी बहियाँ फिर आएँगी
     असल तो रहेगा बकाया ही
     शक़्ल में हमारी बस, सूद-सूद खाएँगी

ओंठ न किसी के भी हिल पाएँ, रह-रह फुफकारेंगे साँप — 

     ये हिसाब साँपों के ज़हर भरे दाँतों का
     निगल रहा है अमृत
     बेटे के बेटे के बेटे की आँतों का

बेटों के बेटे ही नेवले बनेंगे कल कुचल-कुचल मारेंगे साँप —


7.  ख़ाली पेट

बन रहे हैं आग ख़ाली पेट
आओ खेलें फाग ख़ाली पेट...

आओ
जीवन के अभाव के अबीरों से
अब उनके मुँह मल दें
याकि उनको भाँग की तरह
किसी सिल पर मसल दें

और मिलकर साथ सड़कों पर
गाएँ होली राग ख़ाली पेट...

आओ
हम उनको डूबा दें
ख़ून की हर नदी में
जो हुई है लाल
इस पूरी सदी में

तोड़कर पिंजरें-सलाखें तोड़कर के
आओ पलटें भाग ख़ाली पेट...


8.   देखो रे सियार देखो

देखो रे सियार देखो
ठग बटमार देखो
कुर्सी की मार देखो
नेताजी का प्यार देखो

देखो आज बस्ती में देखो आज गाँव में
टोपीवाले बगुले आए हैं चुनाव में

आए हैं चुनाव में तो सपने दिखाएँगे
सपने दिखा के फिर दिल्ली उड़ जाएँगे
दिल्ली उड़ जाएँगे तो फिर नहीं आएँगे
नोटों से तैरेंगे वोटों की नाव में ...

हर कुर्सी रुपए की भैंस निराली
करती है नोटों की ख़ूब जुगाली
नेता के चेहरे पर रहती है लाली
नेता के जहाज़ उड़े फिर तो हवाओं में ...

संसद है गोल, भैया, नेता भी गोल है
ये पैसे वालों का ही एक ठोल है
इसका भी सरकारी नाटक में रोल है
कव्वे बने हैं कैसे कोयल सभाओं में ...

ऐ भैया, अब तुम भी सोचो-विचारो
पानी बिना इनको तड़पा के मारो
पाँच साल का रे भूत उतारो
कुछ नहीं रखा है अब काँव-काँव में ..

9.   हई गई फ़सल जवान

हई गई फ़सल जवान रे धनुआ, हई गई फ़सल जवान
हई गई फ़सल जवान रे हरिया, हई गई फ़सल जवान
देख-देख के फ़सल लहरती
अपना लगे जहान रे फुलवा, हई गई फ़सल जवान

घबराओ मत रघ्घू काका मेहनत के बदले
एक भी दाना बनिए को हम न देंगे सुन ले
गाँव-भर की धरती चाहे हो जाए लहू-लुहान रे ...

अब न पड़ेंगे, भैया, साहूकार के पाँव में
घुस के ले देख दरोगा अब के रे गाँव में
हरी-भरी ये फ़सल हमारी, लेंगे सीना तान रे

खटते-खटते बीत गया रे सारा ही जीवन
सपने में ही ख़ुशियाँ देखी हैं रे तूने मन
अब की बार निकालेंगे हम मन के अरमान रे ...

10.  फ़सलें देती हैं आवाज़

फ़सलें देती हैं आवाज़
खेत हैं लेते अँगड़ाई
बुलाता है गाँव चल तू भी...

शैतानों को पाँव तले अब रौन्द रहा इनसान
धरती बोल रही
बिजली की गर्जन की भाँति कौन्ध रहा इनसान
धरती बोल रही
भय से थर-थर काँपे ताज... खेत ...

लपटों में बदला है देखो सारा ख़ून-पसीना
धरती डोल रही
खड़ा सामने बन्दूकों के हर फ़ौलादी सीना
धरती डोल रही
मौत से लड़ते हैं जाँबाज़ ... खेत ...

आग लगी बहियों में देखो उड़ता कितना ख़ून
धरती खोल रही
देखो जँगल का टूटा है हर जँगली कानून
धरती खोल रही
बदलता जीने का अन्दाज़ ... खेत ...

11.  गाँव-गाँव में

गाँव-गाँव में फ़सल तैयार
खेतों की आँखें चार रे
होशियार हुए हैं घर-द्वार
डाकू हैं पहरेदार रे ...

आन्धी ने जब पेड़ गिराया, भागे मन से भूत सभी के
गाँवों के भूतों पर रोता, भूतों का वह पेड़ तभी से
गाँव का भूत है नम्बरदार ...

बर्फ़ीली रातों को देखो लपटें लड़ती शीत-लहर से
चिमनी के मुँह खोल के निकले हैं लाखों घर-बार शहर से
दिल-दिल में सुलगते अंगार ...

सेनाओं की भर-भर गाड़ी, धूल उड़ाती आती देखो
दिल्ली की कुर्सी गाँधी की लाठी आज घुमाती देखो
कैसी भागी फिरे है सरकार ...

जन्म-जन्म का फेर छोड़कर इसी जन्म की बात उठी है
कल तक जो भी पाँव तले थे अब उनकी ही लात उठी है
कमेरे हाथ हुए हैं हथियार ...


12.  खाने को न देंगे 


खाने को न रोटी देंगे कृष्ण-कन्हैया
ज़ालिमों से लड़ने को एक हो जा रे भैया

तेरी ही कमाई पे खड़े ये कारख़ाने
तुझको ही मिलते न पेट-भर दाने

गिद्धों के जैसा तुझसे मालिक का रवैया

ख़ून चूस-चूस के जो देते हैं मजूरी
हम से न कम होगी मालिकों की दूरी

अपनी नैया के हम ही खिवैया

अपने दिलों में सदा उनके ही गीत
चाहते बदलना जो दुनिया की रीत

सीने में हमारे ज़िन्दा किश्ता-भूमैया


परिचय
______
 जन्म01 अगस्त 1955
 जन्म स्थानदिल्ली, भारत
 कुछ प्रमुख कृतियाँ
दुख जोड़ेंगे हमें (1986),
 किसी बच्चे से पूछो (1991)
और घास का मैदान (कहानी-संग्रह)

अपने एक ही संग्रह से हिन्दी कविता में बेहद चर्चित और लोकप्रिय कवि



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