मंगलवार, 22 जून 2021

शान्तिसुमन जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ संपादक मण्डल

~।।वागर्थ।। ~
            में आज प्रस्तुत हैं आदरणीया शांति सुमन जी के नवगीत ।

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     वागर्थ में आज की चर्चा की शुरुआत शांति सुमन जी के व्यक्तित्व के उन पहलुओं से रू-ब -रू कराने से है , जिससे आज की पीढ़ी शायद अपरिचित हो ।
     एक संस्मरण जोकि उनके व्यक्तित्व का खाका खींचता है बात वहाँ से शुरू करती हूँ ।
      लखनऊ में आयोजित एक त्रिदिवसीय साहित्यिक सेमिनार में महादेवी जी का बीज वकतव्य जो कि नारी विमर्श पर केन्द्रित था , विषय था 'सामयिक वातावरण में समाज में जो अराजकता ,अमानवीयता ,हिंसा , करुणाहीनता आदि जो भी नकारात्मकता  है उन सबके मूल में मातृ तत्व का ह्रास है ' विषय का मूल तो चौंकाने वाला था , किन्तु वहाँ उपस्थित महनीय क़लमें  डाक्टर कमलारत्नम जी , डाक्टर रमा सिंह, डाक्टर शशि प्रभा शास्त्री जी आदि की चुप्पी व सहमति से चकित होकर शांति सुमन जी जोकि स्वयं को उस समय उपस्थित आभामण्डलों के समक्ष अनुभवहीन समझ रहीं थीं , इसके बावजूद उन्होंने निर्णय लिया कि उन्हें अब इस का प्रतिरोध करना है , उन्हीं के शब्दों में ..
बड़े -बड़े लोग भी ऐसी बातें कर लेते हैं जो छोटे लोगों को पसंद नहीं होती हैं ।

       माननीया मंच पर आयी तीन अग्रजाओं ने आपका बीज वक्तव्य सुना उन्हें अटपटा नहीं लगा , कोई असहमति नहीं जताई , मुझे नहीं पता ऐसा कैसा हुआ , बड़ा होना बड़ा दिखना अलग बात है मगर बातों को उनकी संगति में कहना अलग बात है ।मगर मैं आपकी इस बात से कतयी इत्तिफ़ाक़ नहीं रखती कि समाज में जो भी विसंगतियाँ हैं उनके मूल में मातृ शक्ति का ह्रास है। आपका बीज वक्तव्य सरासर अन्याय है , स्त्रियों के प्रति अमानवीय व अपमानित करने वाला है , आप ही कहें जो आपका जीवन स्तर है वह देश की कितनी स्त्रियों का जीवन स्तर है , आपके घर में रेशम का पर्दा हिलता है मगर मेरे पास रेशम की साड़ी नहीं है , जब यहीं आपमें और मुझमें इतना बड़ा फर्क हो गया तो पूरे देश की स्त्रियों के बावत आप क्या कह पायेंगी । देश की बीस प्रतिशत सुविधाभोगी संपन्नघरों की महिलाओं को छोड़कर बाकी जो आधी आबादी है जिसके मध्य से वह स्वयं पहुँची थी , उसकी असल तस्वीर उन्होंने पेश की।
  बिहार की इस चेतना के व्यक्तित्व में जो बिन्दु सुभाष वसिष्ठ जी ने महसूस किया उससे हम भी पूरा इत्तिफ़ाक़ रखते हैं , कि उनमें बच्चों जैसी निश्छलता है , विनम्रता है जो हमने उनके संस्मरण को सुनते वक्त शिद्दत से महसूस किया। 
   अपने समय में इतनी विपुल मात्रा में नवगीत व अन्य विधाओं पर सृजन करनी वाली एकमात्र महिला नवगीत कवयित्री के इस महनीय साहित्यिक अवदान पर वरिष्ठजनों ने सतत कार्य किया है । वर्तमान पीढ़ी जो , एकाध संकलन प्रकाशित होने पर ही इतराने लगती है , को ऐसे विनम्र व सरल व्यक्तित्व से बहुत कुछ सीखना ,आत्मसात करना चाहिये ।
    वागर्थ संपादक मण्डल की विशलिस्ट में शांति सुमन जी के नवगीतों पर चर्चा की इच्छा बहुत दिनों से थी , किन्तु विदुषी शांति सुमन जी जैसे व्यक्तित्व पर कुछ लिख पाना इतना आसान न था ,ऐसी परिस्थिति में उन पर कुछ न लिखते हुये यह असमर्थ भावाँजलि प्रस्तुत है ।
      महीयसी महादेवी जी के आभामण्डल के समक्ष प्रतिरोध करने वाले इस बेबाक व जनवादी स्वर के नवगीत अपने समय की व्यवस्थाओं , विसंगतियों ,विवशताओं और समाधान ' #बाहर_बेचैनी_कर_देंगे_जन_जन_को_समरस_कर_देंगे' प्रस्तुत करते व आत्म मंथन को विवश करते जनवाद को समर्थ स्वर देते आप सभी के समक्ष प्रेषित हैं ।
     वागर्थ आपको सततशीलता व स्वस्थ्य जीवन की शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।

                                      अनामिका सिंह

       

(१)

आग बहुत है-
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भीतर-भीतर आग बहुत है
बाहर तो सन्नाटा है

सड़कें सिकुड़ गई हैं भय से
देख ख़ून की छापें
दहशत में डूबे हैं पत्ते
अँधकार में काँपें
किसने है यह आग लगाई
जंगल किसने काटा है

घर तक पहुँचानेवाले वे
धमकाते राहों में
जाने कब सींगा बज जाए
तीर चुभें बाहों में
कहने को है तेज़ रोशनी
कालिख को ही बाँटा है

कभी धूप ने, कभी छाँव ने
छीनी है कोमलता
एक कराटेन वाला गमला
रहा सदा ही जलता
ख़ुशियों वाले दिन पर लगता
लगा किसी का चाँटा है।

(२)
कोई रक्तपलाश-
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अबके इस होली में कोई रक्तपलाश खिले
अनुबंधों की याद दिलाये, पीत कनेर हिले

घाट नहाती लड़की जैसे
डूबी हुई हवा
हुई अनमनी छाँहों वाली
गुमसुम लाल जवा
राजमहल कैसे बन जाते कैसे बने किले
पेड़ों की मुँडेर पर चिड़ियों के हैं पंख सिले

अक्षर-अक्षर छींट गया है
कोई सुबह उदासी
घूँट-घूँट पानी से तर
कर लेता रोटी बासी
चिन्ता तो होती है, पर किससे वह करे गिले
इंच-इंच बिक गया तपेसर होली कहाँ जले

इस मौसम में फिर कोई
जादू ऐसा जनमे
फागुन-फागुन हो जाए दिन
परवत पीर कमे
मजबूरी है वरना कोई कैसे नहीं मिले
रंग-रंग के मेले, मन के नियम नहीं बदले

(३)

ऐसे ही जीकर देखेंगे 
दुख को कर भीतर देखेंगे

आँखों में भर लेंगे हम तो 
यह मामूली खुशी कहीं भी
आँधी नहीं उड़ा सकती है 
घास उगी तो उगी कहीं भी 

बाहर बेचैनी कर देंगे 
जन -जन को समरस कर देंगे

नींद नहीं है जिसको हासिल 
मोरपंख उसके सिरहाने
परदे समेट खिड़की के 
गाये हवा फसल के गाने

सीढ़ी दर सीढ़ी उतरेंगे
धूपों के आखर सिरजेंगे 

थोड़ी सी उम्मीद बची है 
फिर से कोयल भी कूकेगी
हरियाली का दामन थामे
राहों बीच हवा रोकेगी

पीतल के गहने दमकेंगे
अपने सारे सुख सँवरेंगे 

(४)

बादल लौट आ -
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दुख रही है अब नदी की देह
बादल लौट आ

छू लिए हैं पाँय संझा के
सीपियों ने खोल अपने पंख
होंठ तक पहुँचे हुए अनुबंध के
सौंप डाले कई उजले शंख

हो गया है इंतज़ार विदेह
बादल लौट आ

बह चली हैं बैंजनी नदियाँ
खोलकर कत्थई हवा के पाल
लिखे गेरू से नयन के गीत
छपे कोंपल पर सुरभि के हाल

खेल के पतले हुए हैं रेह
बादल लौट आ

फूलते पीले पलाशों में
काँपते हैं ख़ुशबुओं के चाव
रुकी धारों में कई दिन से
हौसले से काग़ज़ों की नाव

उग रहा है मौसमी संदेह
बादल लौट आ

(५)
पत्थरों का शहर-
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यह शहर पत्थरों का 
पत्थरों का शहर 

टूटी हुई सुबहें यहाँ
झुकी हुई शाम
जेलों से दफ्तर के 
शापित आराम 
गाँठों की गलियों में 
भरी -भरी बदबू

साफ हवा की जगह 
पियें सभी जहर
पत्थरों का शहर 

घुटते संबंधों की 
चर्चा बदनाम 
धुँयें के छल्लों सा 
जीना नाकाम 
मछली के जालों सी
बिछी हुयी उलझनें

सतही शर्तों से सब 
दबे हुए पहर
पत्थरों का शहर

(६)

एक विराट हिमालय रखकर 
पीड़ा के सब आवेगों पर 
कभी न लेकर नाम तुम्हारा 
मैं जी लूँगी 

एक पराया सा अपनापन 
घेरे जीवन का सूना क्षण 
बरसे घन ,आँखों का आँचल 
मैं सी लूँगी 

कहीं -कहीं संझा मुरझेगी 
कहीं व्यथा की कथा कहेगी 
तभी राग के मधु आसव को 
मैं पी लूँगी ।

(७)

खुशी के आँसू-
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उनके घरों की तस्वीरें हँसती हैं
अपने  घर  की  दीवारें  रोती हैं

जोड़ रही उँगली पर आधे 
अपने बीते दिन को 
कितने कब भूखे सोये बच्चे
लगे गडाँसे मन को 

बिना जले वह धुआँ -धुआँ होती है 

दिनों से दीखा कुछ नहीं कभी 
खुशी के आँसू जैसा
दरवाजे तक बहुत उड़ा 
है कागज साँसों का 

बदली हुयी हवा नारे बोती है

नींदों भरे सपनों से उसको  
हासिल नहीं हुआ जो 
संगीत के उम्मीद़ के 
जिला -जिला रखती जो

कठिन हौंसले ही मन के मोती हैं

(८)

एक प्यार सब कुछ-
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मुझमें अपनापन बोता है
सांझ-सकारे यह मेरा घर

उगते ही सूरज के-
रोशनदान बांटते ढेर उजाले
धूपों के परदे में
खिल-खिल उठते हैं खिड़की के जाले
चिडि़यों का जैसे खोता है
झिन-झिन बजता है कोई स्वर

एक हंसी आंगन से उठती
और फैल जाती तारों पर
मन की सारी बात लिखी हो
जैसे उजली दीवारों पर
एक प्यार सबकुछ होता है
जिससे डरते हैं सारे डर

दरवाज़े पर सांकल मां की
आशीषों से भरी उंगलियां
पिता कि जैसे बाम-फूटती
एक स्वप्न में सौ-सौ कलियाँ
जहां परायापन रोता है
लुक-छिप खुशी बाँटती मन भर

(९)
सच कहा तुमने -
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यह सदी रोने न देगी
सच कहा तुमने।

हँसी होगी शाप
पथरा जाएँगी आँखें
ओठ होंगे काठ
कटने लगेंगी शाखें
सच कभी होने न देगी
धूप के सपने।

बाँह में आकाश होगा
कटे होंगमछिलिख
मछलियाँ जलहीन
तट पर बिछे होंगे शंख
पास में बहने न देगी
नदी या झरने।

थके होंगे शब्द
ढोते अर्थ् दुहरे
प्यास को दीखा करेंगे
जल सुनहरे
प्रिय कभी होने न देगी
खुशी के गहने।

(१०)
बेरोजगार हम-
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पिता किसान अनपढ़ माँ
बेरोजगार हैं हम
जाने राम कहाँ से होगी
घर की चिन्ता कम

आँगन की तुलसी सी बढ़ती
घर में बहन कुमारी
आसमान में चिड़िया सी
उड़ती इच्छा सुकुमारी

छोटा भाई दिल्ली जाने का भरता है दम ।

पटवन के पैसे होते
तो बिकती नहीं जमीन
और तकाजे मुखिया के
ले जाते सुख को छीन

पतली होती मेड़ों पर आँखें जाती है थम ।

जहाँ-तहाँ फटने को है
साड़ी पिछली होली की
झुकी हुई आँखें लगती हैं
अब करुणा की बोली सी

समय-साल खराब टँगे रहते बनकर परचम ।

                 ~ शांति सुमन

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