समकालीन दोहे
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मनोज जैन
106 विट्ठल नगर गुफा मंदिर रोड
लालघाटी भोपाल-462030
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किस्तों में जीवन कटा, घटी उम्र की नाप।
नया दौर यह दे रहा, हमें नये अभिशाप।।
समझ न मुझको नासमझ, और न दर्शक मूक।
मेरे काँधे टेककर, चला न निज बंदूक।।
दल सब होते एक से, किसे कहें हम नेक।
पाकर सत्ता-सुन्दरी, खोते सभी विवेक।।
एक तीर से कर लिए, तुमने कई शिकार।
लाठी भी टूटी नहीं, दिया साँप भी मार।।
नहीं किसी के पास इस, तुरुप-चाल की काट।
बौने को घोषित किया, सबने यहाँ विराट।।
दोनों ही हैं एक-से, पंडित हों या शेख।
तेल डालकर आग में, रहे तमाशा देख।।
पत्थर बोला प्यार से, सुन ओ संगतराश।
अनगढ़ में भी देवता, ढूँढा होता काश।।
चंदन से आई नहीं, जिनको कभी सुगंध।
वे ख़ुशबू पर लिख रहे, अपना शोध प्रबन्ध।।
नेता सब चारण हुए, छुटभैये सब भाट।
दीमक बनकर देश की, रहे प्रतिष्ठा चाट।।
अब भी चर्चा में यहाँ, है पंचायत खाप।
निज हाथों कानून ले, जो बोती अभिशाप।।
इससे ज्यादा और फिर, क्या होगा अंधेर।
जब सियार को कह रहे, सारे गीदड़ शेर।।
चक्रव्यूह में जा घिरा, अभिमन्यू स्वयमेव।
टुकुर-टुकुर बस ताकते, सारे रक्षक देव।।
गधे पँजीरी खा रहे, कुत्ते खाते खीर।
बँटी प्रजा में इस तरह, राजा की जागीर।।
आदर्शों को इस तरह, मिला यहाँ सम्मान।
गणिका खुलकर खींचती, शीलव्रता के कान।।
पच्चीकारी में निपुण, लालगंज का चोर।
अंधकार को कह रहा, उजली-उजली भोर।।
खुले मंच से कर रहे, संस्कृति का उपहास।
छक कर भोजन कर लिया, फिर रखते उपवास।।
सरकारें करती रहीं, धन का सत्यानाश।
जनमानस होता रहा, पल-पल यहाँ निराश।।
ख़ुशफ़हमी का है न इस, दूर-दूर तक अंत।
भरी सभा में कह रहा, तुक्कड़ खुद को पंत।।
प्रतिभा ही आधार हो, या फिर अर्जित अंक।
आरक्षण इस देश में, सबसे बड़ा कलंक।।
साज़िश जो रचता रहा, रोज बिछाकर जाल।
वही मित्र नित पूछता, कैसे हैं जी हाल।।
किनको हम अपना कहें, किनको मानें ग़ैर।
जिनको पोसा प्रेम से, वही उखाड़ें पैर।।
दहशत में हर आदमी, निकल रही है चीख।
माँग रहा सरकार से, अच्छे दिन की भीख।।
फिर अच्छे लगने लगे, फागुन वाले रंग।
मन खजुराहो हो गया, पाकर तेरा संग।।
विक्रम से बेताल ने, पूछा एक सवाल।
मछली वाले ताल का, मालिक क्यों घड़ियाल।।
कभी शहद-सी जिंदगी, कभी जहर का घूँट।
बदले नित-नित करवटें , यह किस्मत का ऊँट।।
जाड़ा चाबुक गात पर, फटकारे दिन-रैन।
झोपड़ियों के हो रहे, सावन-भादौं नैन।।
निर्विकल्प हो प्रेममय, योग रहा मैं साध।
एक नदी सी बह रही, तू मुझमें निर्बाध।।
उँगली फिर कौंचा पकड़, धर काँधे पर लात।
शूकर जी चढ़ शीश पर, दिखा रहे औकात।।
कहने में अब डर लगे, किसको कह दूँ खास।
खण्ड-खण्ड होने लगा, इस मन का विश्वास।।
नेकी के बदले मिला, दुख का एक पहाड़।
देखा है हमने यहाँ, तिल को बनते ताड़।।
आग लगाकर जिंदगी, डाल रही घी-तेल।
मेरे दिल से खेल अब, मित्र! आग का खेल।।
पैरों में बेड़ी पड़ीं, हाथों में जंजीर।
मन! मीलों चलना तुझे, होना पर न अधीर।।
जलते हुए सवाल का, उत्तर देगा कौन।
हल थे जिनके पास में, वे साधे हैं मौन।।
बगुलों को मत दीजिये, हंसों-सा सम्मान।
रखिये कोयल-काग की, कुछ बाकी पहचान।।
राजा जी दिख जाएगी, पल भर में औकात।
वक़्त साधकर पीठ पर, मारेगा जब लात।।
सेंध लगाकर घुस गया, घर में काला चोर।
सब कुछ लेकर कह रहा, यह दिल माँगे मोर।।
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मनोज जैन
वागर्थ पटल पर आज समकालीन दोहों में चिरपरिचित नाम देखकर आश्चर्य हुआ कि एक मंजा नवगीकार अपने दोहों में कितने सलीके से अपने समय का दिग्दर्शन करा देता है, बगुलों को मत दीजिए हंसों सा सम्मान कहने वाला नवगीतकार निश्चय ही नीर-क्षीर विवेक रखने वाला होगा। उसकी इस बात का प्रमाण है पटल की संपादकीय प्रस्तुतियां। सार्थक और सामयिक सृजन को पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश केलिए हृदय से आभार, उनकी अपनी बात अभिव्यंजित करता दोहा उनकी लेखनी का घोषणापत्र है- समझ न मुझको नासमझ, नहीं दर्शक मूक, मेरे कांधे टेककर नहीं चला बंदूक। मात्र दो पंक्तियों में संपूर्ण युगबोध को समेटकर अभिव्यंजित करने वाले भाई मनोज मधुर जी से हिंदी साहित्य को बहुत अपेक्षाएं हैं, उनकी लेखनी को सादर प्रणाम,
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