शुक्रवार, 25 जून 2021

नवगीत चर्चा में कवि उद्भ्रान्त के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

एक और मैं मेरे भीतर से उभरा :कवि उद्भ्रान्त _
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वागर्थ में आज 
पूरी तरह नवगीत को समर्पित समूह वागर्थ अब इंटरनेट की सबसे ज्यादा चर्चित पत्रिका है हमारी प्रस्तुतियाँ भीड़ से अलग और स्तरीय होती हैं यही कारण है कि पाठकों को सूर्य की पहली किरण के साथ ही वागर्थ में प्रस्तुत सामग्री की प्रतीक्षा होती है। आज हम वागर्थ पत्रिका में कवि उद्भ्रान्त   के 5 नवगीत पहले पहल प्रकाशित कर रहे हैं।इस पोस्ट से पहले पूरे इंटरनेट पर उनके नवगीत कहीं भी नहीं थे।
                   यहाँ नवगीत को लेकर लोगों ने बड़ा काम किया मेरे पास अनेक संग्रह और शोध सन्दर्भग्रन्थ हैं पर किसी भी सम्पादक के संकलन में मुझे कवि उदभ्रान्त नहीं दिखे प्रकृति के अनूठे और टटके बिम्ब बुनते हुए कवि की रचनाएँ पाठक को एक अलग ही संसार की सैर कराती हैं।
समूह वागर्थ उनकी रचनाओं को पहले पहल यहाँ पाठकों  के समक्ष रखकर स्वयं में गौरवान्वित है।
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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    उद्भ्रान्त के नवगीत 
. सृजन क्षण 

सूर्य ने पुकारा
कल मेरी आकृति को सूर्य ने पुकारा

उजली उजली किरणें
चेहरे से फूटीं
स्वर के बन्दीगृह की
दीवारें टूटीं

शब्द ने पुकारा
कल मेरी संस्कृति को शब्द ने पुकारा

एक और ’मैं’ मेरे
भीतर से उभरा
’मेरापन’ जीवन के
हर पल पर बिखरा

बिम्ब ने पुकारा
कल मेरी प्रतिकृति को बिम्ब ने पुकारा

धड़कन में रागों की
मदिर सृष्टि डोली
सांस-सांस में, सरगम
की माया बोली 

छन्द ने पुकारा
कल मेरी झंकृति को छन्द ने पुकारा 

2. पीले रंग की बुनाई

जाड़े की धूप उमड़ आई

ठिठुर रही
किरणों के पंख खुल गए
मौसम में
मतवाले शंख घुल गए
रजतवर्ण
होंठों से
सूरज ने सोने की बाँसुरी बजाई
जाड़े की धूप उमड़ आई

पसर गई
दूर तलक गुनगुनी हवा
गुनगुनी हवा
कि प्राण की मदिर दवा
चित्रपटी पर नभ की
उभरने लगी पीले रंग की बुनाई
जाड़े की धूप उमड़ आई

कुहरीली
चादर में आग लग गई
पूरब की
परी पलक खोल जग गई
इठलाकर बढ़ी, और 
सन्नाटे की उसने तोड़ दी कलाई
जाड़े के धूप उमड़ आई

3. गीत के दिन

आ गए
ये गीत के दिन आ गए

हिल रही हैं पत्तियाँ मन की
एक कविता रचें जीवन की
तम गया है बीत
उजली प्रीति के दिन आ गए
ये गीत के दिन आ गए

धड़कनों के राग बोले हैं
सिन्धु में फिर प्राण डोले हैं
झनझनाते
सृष्टि के संगीत के दिन आ गए
ये गीत के दिन आ गए

4. तुमने मुझे निहारा

एक अजूबा गन्ध
लग गई मन में आज महकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा

धूप-दीप जल उठे
प्राण के कोने-कोने में
पलक झपकते —
चितवन बदली
जादू-टोने में

एक अजूबा रंग
लग गया मन में आज दहकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा

सन्नाटे में लगी तैरने
एक मधुर हलचल
खटकाए, हौले से कोई
यादों की साँकल 

एक अजूबा छन्द
लग गया मन में आज चहकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा

5. मुर्दा साँझ का गीत 

मुर्दा यह शाम हुई !

उखड़े से लगते हैं लोग
टूटा-टूटा सा परिवेश 
बर्फ़ हुआ जाता आवेश 
हिचकी-सी लेते उपभोग

चौराहे पर अपनी
धड़कन नीलाम हुई !

बारूदी गन्ध अब झाँकती
खिड़की से, काँपती निशा
हाँफ़-हाँफ़ जाती दिशा
बेचैनी अम्बर को ताकती

जंग लगी चिन्तन में
यात्रा यह जाम हुई !

टूट-टूट शृंखला बिखरती
सीटी-सी बजती है कानों में
इन बीहड़ जंगल-मैदानों में
अस्त-व्यस्त भावना विचरती

चलती रहने वाली
ज़िन्दगी विराम हुई !
मुर्दा यह शाम हुई !

उद्‌भ्रान्त 

परिचय
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उद्‌भ्रान्त की रचनाएँ
जन्मतिथि 4 सितम्बर, 1948 ई. नवलगढ़ (राज.) - कागजों में 6 मई, 1950 ई; कानपुर में शिक्षा-दीक्षा: वर्ष 1959 से रचनारंभ। प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 120 से अधिक, प्रियदर्शनी अकादमी का ‘प्रियदर्शनी’ सम्मान (त्रेता), म. प्र. साहित्य अकादेमी का भवानीप्रसाद मिश्र पुरस्कार (अनाद्यसूक्त), हिंदी अकादमी का ‘साहित्यिक कृति पुरस्कार’ (लेकिन यह गीत नहीं), उ.प्र. हिंदी संस्थान के ‘जयशंकर प्रसाद पुरस्कार’ (स्वयंप्रभा) और ‘निराला पुरस्कार’ (देह चांदनी) उल्लेखनीय हैं। कानपुर में प्र.ले.स. के सचिव रहे; अनेक भारतीय भाषाओं में रचनाएँ अनूदित। सरकारी, निजी दर्जन भर संस्थानों में विभिन्न पदों पर कार्य के बाद भारतीय प्रसारण सेवा, ’90 के अंतर्गत चयन। मई 2010 में अवकाश-ग्रहण के समय उपमहानिदेशक।

प्रमुख पुस्तकें
अभिनव पांडव, अनाद्यसूक्त, त्रेता एवं प्रज्ञावेणु (महाकाव्य); राधामाधव (उड़िया में भी अनूदित), स्वयंप्रभा एवं वक्रतुण्ड (प्रबंधकाव्य); ब्लैकहोल (काव्य नाटक); देवदारू-सी लम्बी गहरी सागर-सी, अस्ति, शब्दकमल खिला है, हंसो बतर्ज़ रघुवीर सहाय एवं इस्तरी (समकालीन कविता); समय के अश्व पर (गीत-नवगीत), मैंने यह सोचा न था (ग़ज़लें)-रा.प्र. शर्मा ‘महर्षि’ द्वारा किया गया उर्दू लिप्यांतरण उ.प्र. सरकार से पुरस्कृत, डुगडुगी और मेरी प्रिय कथाएं (कहानी-संग्रह); कहानी का सातवाँ दशक (संस्मरणात्मक समीक्षा) तथा सदी का महाराग (चयन डॉ. रेवतीरमण); आलोचक के भेस में एवं मुठभेड़ (आलोचना), सृजन की भूमि (भूमिकाएं), आलोचना का वाचिक (वाचिक आलोचना), स्मृतियों के मील-पत्थर (संस्मरण)।

स्थायी पता: ‘अनहद’, बी-463, केन्द्रीय विहार, सेक्टर-51, नोएडा-201303, दूरभाष: 0120-2481530, 09818854678

ई.मेल: udbhrant AT gmail.com

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