गुरुवार, 24 जून 2021

कवि अश्वघोष के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ संपादक मण्डल

तोड़ चुके हैं सब गाँधी से अपने रिश्ते नाते:अश्वघोष
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                                                इंटरनेट की चर्चित पत्रिका वागर्थ में आज प्रस्तुत है कवि अश्वघोष जी ने नवगीत।अश्वघोष जी बड़ी बात छोटे मीटर में लिखते हैं मेरा अपना मानना है कि छोटे मीटर में लिखना सरल तो बिल्कुल भी नहीं प्रस्तुत नवगीत बिना द्राविण व्यायाम कराए पाठक को पूरा आनन्द देते हैं चिंतन मनन को विवश करते हैं।
     कुछ और नवगीतकारों ने भी इस विशेष शैली में खूब रचा परन्तु उनमें में से,मुझे अश्वघोष जी ने बहुत प्रभावित किया यह बात और है कि मैं उनके साथ "धारपर हम" भाग दो में एक साथी रचनाकार के रूप में हूँ।इन दिनों गुटबाजी का बाजार बहुत गरम है देखने में यह आता है कि हम सिर्फ उनकी सराहना करते हैं जिनसे हमें सीधा लाभ होता है या जो हमें कहीं पहुँचा सकते हैं।
          इन सब कवायदों से साहित्य का कभी भला नहीं हुआ अच्छी रचना पाठकों के सिर पर चढ़कर बोलती है।
जैसे कि मेरे मस्तिष्क में आज भी बहुत पहले पढ़े अश्वघोष जी के नवगीत जस के तस हैं आज सिर्फ उन्हें पटल पर अपने निमित्त से पाठकों के सामने रख भर रहा हूँ।
आइये

पढ़ते हैं
अश्वघोष जी को
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वागर्थ में आज
अश्वघोष के नवगीत

https://www.facebook.com/groups/181262428984827/permalink/1128193287625065/

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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1
जेबों में डर
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ठूँठ पर
बैठा कबूतर
देखता है जाल ।

जाल में है एक चिड़िया
सेर भर दाने,
छटपटाते शब्द हैं
कुछ तप्त अगिहाने,

ढेर सारी
चुप्पियाँ
दब रहा भूचाल ।

दूरवर्ती झाड़ियों से
दो बघेली आँख
शातिराने ढँग से
गुपचुप रही है झाँक

हो न जाए
कोई कछुआ
भील या संथाल !

2
भीड़ भरे बाजारों में
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भीड़ भरे इन बाजारों में
दुविधाओं के अंबारों में
खुद ही खुद को
खोज रहे हम।

लिए उसूलों की इक गठरी
छोड़ी नहीं अभी तक पटरी
छूटे नहीं अभी तक हमसे
पहले वाले,
वे सब क्रम।

संबंधों ने वचन नकारे
छीज रहे हैं अनुभव सारे
मृगजल की लहरों पर लहरें
चारों ओर
उगे हैं विभ्रम।

चले जा रहे जगते-सोते
बंजर में हरियाली बोते
डर लगता है व्यर्थ न जाए
आगत की राहों पर
यह श्रम।

3
कैसे सहें छतों का बोझा 
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कैसे सहें
छतों का बोझा
सीलन से भीगी दीवारें ।

पानी-पानी अन्तर तल है
टुकड़े-टुकड़े बिखरा सीना,
देख-देख बुनियादें दुबली
पेशानी पर घिरा पसीना ।

जल्लादों-सी
तेज़ हवाएँ
दौड़-दौड़ चाबुक से मारें ।

आँतों में दीमक की हरकत
आले-खिड़की लदे गोद में,
चिड़ियों ने सब खाल खुरच दी
आमादा होकर विरोध में

कोढ़ सरीखी
चितकबरी-सी
उभर रही तन पर बौछारें ।
कैसे सहें
छतों का बोझा
सीलन से भीगी दीवारें ।

4
संसद के गलियारे-
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चहल-पहल से
भरे हुए हैं
संसद के गलियारे

एक दूसरे को
जा-जाकर सांसद कथा सुनाएँ,
राजनीति के
दाँव पेच में
डूबी क्षेत्र कथाएँ
छूट रहे हैं
कहकहों के शानदार फव्वारे

जनता के दुखदर्द
जरा भी नहीं किसी को भाते,
तोड चुके हैं
सब गाँधी से
अपने रिश्ते-नाते
दीवारों पर लिखवाते हैं
खुशहाली के नारे

हिंसा को
हथियार बनाकर
अपना राज्य चलाएँ
घर से लेकर खेतों तक ये
बस दहशत फैलाएँ
मानवता का खून करें ये
खुले आम हत्यारे

5
 लाजवंती धारणाएँ
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लाजवंती धारणाएँ
पढ़ रहीं
नंगी कथाएँ

नीतियाँ बेहाल हैं
आदर्श की धज्जी उड़ी है,
रीतियाँ होकर
अपाहिज
कोशिशों के घर पड़ी है,
पुस्तकों में
कैद हैं नैतिक कथाएँ

मूल्य सारे
टूटकर बिखरे पड़े हैं,
प्रचलन को
स्वार्थ,
अब ज़िद पर अड़े हैं,
तेज होती जा रहीं
पछुआ हवाएँ

6
आम आदमी 
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व्यर्थ जा रही सारी अटकल
कितना बेबस, कितना बेकल
आम आदमी ।

मन में लेकर सपनों का घर
खड़ा हुआ है चौराहे पर
चारों ओर बिछी है दलदल
कैसे खोजे राहत के पल
आम आदमी ।

तन में थकन नसों में पारा
कंधों पर परिवार है सारा
कहाँ जा रहा मेहनत का फल ?
सोच-सोच कर होता दुर्बल
आम आदमी ।

उखड़ी-उखड़ी साँस ले रहा
संसद को आवाज़ दे रहा
मीलों तक पसरा है छल-बल
बार-बार होता है निष्फल
आम आदमी ।

7
भाव कुछ अपवाद के
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लड़खड़ाए शब्द
फिर अनुवाद के ।

भोर के दिल में अनोखी धुंध है
धूप का भी व्याकरण अब कुंद है
जुड़ गये हैं भाव
कुछ अपवाद के ।

शीत में इक अग्निवर्णी घाम है
शान्ति में भी हर तरफ़ कोहराम है
होंठ सूखे जा रहे
अवसाद के ।

देख ली हमने शरारत शूल की
पसलियाँ हैं रक्तरंजित फूल की
टूटकर सपने गिरे
आल्हाद के ।

लड़खड़ाए शब्द
फिर अनुवाद के ।

8
प्रीत गंध -
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वासन्ती रूप की तरह
केसरिया धूप की तरह
प्रीत-गन्ध फैली।

ऋतुओं ने तोड़ दिए
वक़्त के कगार
मोती-सा दमक उठा
मटमैला प्यार।

स्वप्नमयी हूर की तरह
तन के मयूर की तरह
नाच उठी चेतना रुपहली
प्रीत-गन्ध फैली।

आँगन भर अनुभव ने
मोहबेल छोड़ी
जगवंती हो गई
आस्था निगोड़ी।

अपराजित राग की तरह
फागुनी अनुराग की तरह
गूँज उठी एक स्वर-शैली
प्रीत-गन्ध फैली

9
मनचाहे सपनों को 
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मनचाहे सपनों को
कोख में दबा
बंजारे दिन
हो गए हवा

नयनों के गेह से
गूँगा विश्वास
सहमा-सा देख रहा
अनुभव की प्यास
तन-मन में ेमी हुई
नींद की दवा

सूली पर लटके-से
लगते हैं दिन
चिड़ियों-सी उड़ जातीं
रातें दुल्हिन
सड़कों पर बिखरा है
मौन का रवा
हो गए हवा ।

10
नये साल में
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नए साल में
प्यार लिखा है
तुम भी लिखना

प्यार प्रकृति का शिल्प
काव्यमय ढाई आखर
प्यार सृष्टि पयार्य
सभी हम उसके चाकर

प्यार शब्द की
मयार्दा हित
बिना मोल, मीरा-सी-बिकना

प्यार समय का कल्प
मदिर-सा लोक व्याकरण
प्यार सहज संभाव्य
दृष्टि का मौन आचरण

प्यार अमल है ताल
कमल-सी,
उसमें दिखना।

11

कोयल के कानों में कह दी
कुछ बात रस भरी
सुधियों में फूल गई आम्र-मंजरी।

हरियाले पत्तों की पहने क़मीज़
अंग-अंग फूल रहे सृजन के बीज
तारों की दुनिया में
प्रियतम को छोड़
फुनगी पर बैठी है रात की परी।

सूरज ने चैता के डाकिए के हाथ
भेजी है प्यार की चटकिल सौगात
लज्जा के आँचल से
यौवन को ढाँप
धरती को देखती पसार अंजुरी
सुधियों में फूल गई आम्र-मंजरी।

12
तुमसे मिलके 
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तुमसे मिलके
खुश रहता हूँ
तुमसे मिलके

उजले लगते
धूल धूसरित मैले से दिन
तुमसे मिलके

जग से मिलते
बंजारे मेरे सब पल-छिन
तुमसे मिलके

अनायास ही
हट जाते कुंठा के छिलके
तुमसे मिलके

वात्सल्य का
एक अजब झरना सा झरता
तुमसे मिलके

मन आँगन में
तुलसी जैसा बोध उभरता
तुमसे मिलके

13
मुक्ति का उल्लास ही
हर ओर छाया
प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

रूप, रस और गंध की
सरिता मचलती
सुधि नहीं रहती यहाँ
पल को भी पल की
विश्व व्यंजित नेह कन कण में समाया
प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

आचरण को व्याकरण
भाता नहीं है
शब्द का संदर्भ से
नाता नहीं है
मुक्ति के विश्वास की उन्मुक्त काया
प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

मौसमों ने त्याग कर
ऋतुओं के डेरे
कर लिए इस लोक में
आकर बसेरे
हार में भी जीत का आनंद आया
प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

परिचय
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 जन्मः २० जुलाई १९४१, रन्हेरा बुलंदशहर उ.प्र. में।
शिक्षाः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए., पी-एच.डी.
प्रकाशित कृतियाँ
शोध - हिंदी कहानीः सामाजिक आधारभूमि
खंड काव्य - ज्योतिचक्र, पहला कौंतेय
कविता संग्रह - १. तूफ़ान में जलपान, २. आस्था और उपस्थिति, ३. अम्मा का ख़त, ४. हवाः एक आवारा लड़की
५. माँ, दहशत और घोड़े, ६. जेवों में डर, ७. सपाट धरती की फसलें, ८. गई सदी के स्पर्श
बाल काव्य-संकलनः डुमक-डुमक-डुम, तीन तिलंगे, राजा हाथी, बाइस्कोप निराला
उत्तर-साक्षरता साहित्यः धन्य-धन्य तुम नारी, अच्छा है एक दीप जलाएँ, स्वास्थ्य-रक्षा की कथा, धरती माँ की दुःख, किस्सा भोला का, हमारा पर्यावरण।
पुरस्कार- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, उ.प्र. प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, लखनऊ तथा संभावना संस्थान मथुरा द्वारा पुरस्कृत।
सम्मान- 'समन्वय', सहारनपुर तथा भारतीय बाल-कल्याण संस्थान कानपुर द्वारा सम्मानित।
पाठ्यक्रम में संकलित - स्वामी रामतीर्थ मराठवाड़ा वि.वि., नांदेड में बी.ए. प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में 'अम्मा का खत' कविता संकलित।
संपर्क - ७, अलकनंदा एन्क्लेव, जनरल महादेव सिंह रोड, देहरादून- २४८००१, उत्तरांचल।

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