गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

वर्तमान में नवगीत की उपादेयता ____________________________________


साहित्य भारती उत्तर प्रदेश और पंजाब सौरभ भाषा विभाग पंजाब की पत्रिकाओं में प्रकाशित एक
आलेख

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वर्तमान में नवगीत की उपादेयता 
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                                  मनोज जैन 

              आज के संदर्भों में नवगीत की उपादेयता पर विचार करना भी उतना ही आवश्यक है जितना उसके संबंध में जानना जरूरी है, क्योंकि आवश्यकता ही किसी आविष्कार की जननी होती है। यदि नवगीत है,उसका अस्तित्व काव्य के क्षेत्र को यदि प्रभावित कर रहा है,उसकी रचना धर्मिता अपनी जीवन्तता से यदि गीत की परम्परा को आगे ले जा रही है
               उसका सृजन-सौन्दर्य यदि आज के समय और समाज को आन्दोलित कर रहा है और उसके सिरजनहार उसे आगे लेकर यदि आगे आ रहे हैं तो निश्चित है कि नवगीत, गीत का वंशधर होकर भी आज उसके वर्चस्व को यथावत बनाए रखने में काव्य की किसी भी विधा से पीछे नहीं है। वरन वह आगे बढ़ता जा रहा है। 
                            साथ ही साहित्य के इतिहास में अपने को स्थापित करने का अधिक प्रयास कर रहा है। मेरा तो विश्वास है कि नवगीत का भी अपना इतिहास के अंतर्गत एक इतिहास होगा। मैं नवगीत की उपादेयता पर आपसे कुछ बात करूं उसके पूर्व मैं चाहता हूं कि नवगीत की रचना धर्मिता तथा उसके रचना बोध पर कुछ विचार कर लिया जाए, तो अधिक उचित होगा। छंद मुक्त काव्य के रचनाकारों का सदैव यह कहना रहा है कि गीत मर रहा है और उसका काव्य जगत में कोई अस्तित्व नहीं है। 
               मेरा कहना है कि यह उनकी नकारात्मक सोच ही गीत के अस्तित्व की वकालत करती है, क्योंकि जो कोई रचना प्रक्रिया अस्तित्व में है ही नहीं तो उसका विरोध क्यों और कैसे होगा? विरोध  तो उसी का होगा जो अपने अस्तित्व को लेकर अपने समय और समाज को चुनौती देता हुआ आगे बढ़ रहा होता है। 
         गीत है और उसके अपने अस्तित्व के प्रस्थान बिंदु से लेकर आज तक पूरे काव्य जगत के साथ - साथ सामान्य जगत को भी अपने माधुर्य बोध और कथ्य की सार्थकता के बोध से बड़ी शालीनता के साथ प्रभावित भी किया है और वह भविष्य में भी प्रभावित करता रहेगा। गीत कभी न तो मरा है न मारेगा। गीत तो सही अर्थों में काव्य की आत्मा है। आत्मा गीत के शब्दों में कभी मरती नहीं है,  तो फिर गीत कैसे मरेगा।
                 मरता वह है जो अस्थाई होता है। स्थाई होना उसकी अमरता का सूचक है।मेरा तो यह भी विश्वास है कि छन्द मुक्त कविता भी नहीं मरेगी। गीत की कविता में अपनी एक शाश्वत सत्ता है। मेरा तो पूर्ण निश्चय है कि जब से  मानव द्वारा समाज में अपनी सोच को परिमार्जित किया जाने लगा तो कविता आने लगी और जब कविता ने अपने को परिमार्जित किया तो वह गीत के रूप में अवतरित होने लगी तथा जब गीत अपने में परिमार्जित होने लगा तो नवगीत का रूप धारण करने लगा। यह काव्य का ही सहज, सरल और स्वाभाविक स्वरूप है, जी सहानुभूति की गोद में पलकर रूपायित होता है । 
                    नवाचार की दृष्टि से गीत को कितनी संज्ञाओं से अभिव्यक्त किया गया है- गीत,नवगीत जनगीत नवान्तर गीत अनुगीत परन्तु गीत तो गीत ही है। फिर भी प्रचलन की दृष्टि से नवगीत की अवधारणा अधिक सार्थक सिद्ध होती दिखाई देती है।पिछले कई दशकों से नवगीत की दुनिया ने गीत की अर्थवत्ता को अधिक प्राणवंत किया है। अब प्रश्न यह उठता है कि नवगीत है क्या?    
               उसकी पहचान क्या है, उसको कैसे परिभाषित किया जा सकता है। मैं नवगीत को गीत की परंपरा में उसका ही नव्य रूप मानता हूँ जो अपने समय और समाज के साथ नित्य सुनी जाने वाली अनुगूँजों को अपने में धारण करता हुआ चलता है। जो रचना अपने पीछे मुड़कर न देखते हुए केवल युगबोध को अपने में जीते हुए हर एक प्रकार से नयापन देती हुई अपने रूप दिखाने की प्रतिभा से पारंगत होती हुई अपने रूप से स्वरूप  को प्रभावित करती है, मैं उसे नवगीत मानता हूँ। 
              नए युग का नया गान नवगीत है जो नव्यता को साथ  लेकर आगे बढ़ता है। अपने कथ्य और शिल्प के दोनों रूपों में या भाषा और भावों की दोनों दृष्टियों में।
    वास्तव में गीत एक कठिन विधा है और नवगीत उससे भी कठिन क्योंकि वह अन्तर्मुखी होते हुए भी बहिर्मुखी होता है, उसे अपने युग से भी संघर्ष करना पड़ता है तथा अपने रूप से भी। क्योंकि दोनों में ही नएपन का भाव आना नवगीत की अपनी चरितार्थता है। जब छन्द का सटीक और सहज अनुशासन भावानुभूति की अभिव्यक्ति को लेकर व्यष्टि से सर्वसृष्टि की ओर यात्रा करता हुआ अपने लिए नए प्रतिमान गढ़ता है और उन प्रतिमानों के साथ नई रूप रचना करता है तो वह समाज में नए रूप में ही जाना जाता है। 
        जब गीत अपने को अपने नए रूप में पाता है नवगीत हो जाता है। यदि मैं यह कहूँ कि नवनीत छन्द के स्तर पर, उपमेय उपमानों  के स्वर पर  शब्द विन्यास के स्तर पर, भाषा के प्रयोग के स्तर पर तथा कथ्य के स्तर पर अपनी नूतनता से जन  मानस का आकर्षण बनने लगता है तो वह स्वतः ही नवगीत दिखने लगता है। 
              गीत का नया संस्करण नए संस्कारों को जब धारण करता है, तो नवगीत कहलाने लगता है।व्यक्तित्कता, आत्मानुभूति आत्मनिवेदन अर्थ संकेत की अभिव्यंजना कसंक्षिप्तता तथा नूतन बिम्ब बोध की अवधारणा, संवेदना की गहरी अनुभूति तथा चिर नूतन कथ्य की सम्यकता  नवगीत की विशेषताएँ होती हैं। एक स्वच्छ, स्वरूप पारदर्शी लय को लेकर जो रचना अन्तःकरण तक पहुँचती है,मेरे विचार में नवगीत होती है।
         यह युग नवगीत का ही युग है। नवगीत आज अपनी उठान पर है। नवगीतों का पाखी आज वास्तव में अपनी नवीनतम उड़ानों से गीत की दुनिया को नई दिशा की ओर ले जा रहा है जो युग की दृष्टि से स्वागतेय भी है और नई संभावना का संकेत भी । देश में बहुत काम हो रहा है। मूर्धन्य नवगीतकार इस दिशा में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। यह परिचर्चा भी उसी उत्तरोत्तर बढ़ते हुए नवगीत की विकास यात्रा में एक कड़ी है। जैसा कि मैंने विषय को प्रारम्भ करते हुए कहा था कि आज नवगीत की आवश्यकता है, क्योंकि आज के इस उत्तर  आधुनिकतावाद के इस उत्तर आधुनिकतावाद के समय में गीत के इस नव्य रूप को ही लोग स्वीकार कर रहे हैं।   
          क्योंकि नवगीत अपनी पूरी बात  बहुत थोड़े शब्दों में  कहने का आदी होता है।अतः वह समाज का खपता भी बहुत है।कहानी के क्षेत्र में जो काम लघु कथाएं कर रही हैं, वही काम आज नवगीत कर रहे हैं। आज का समय जिन विभीषिका से गुजर रहा है,समाज में जो विसंगतियां उभर कर आ रही हैं, आज का समाज जिन कठिन यातनाओं का सामना कर रहा है, सभी मूल्यों पर कुठाराघात हो रहा है तथा दुख, पीड़ा संत्रास अपने चरम पर है,ऐसे में लोकगीत की वकालत करना बहुत आवश्यक है। जो रचना मर्म पर चोट नहीं करती,वह रचना कैसे हो सकती है। रचना होने के लिए रचना को भी अपने से संघर्ष करना होता है और यह संघर्ष ही रचना को रचना बनाता है।   
        नवगीत का सबसे बड़ा औचित्य है नवीनता की खोज जो मानव समाज को सही दिशा का बोध करा सके ।
सृष्टि में विधाता ने जो कुछ रचा है,वह सब प्रयोजनीय है। चाहे वह जड़ हो अथवा चेतन। उसी प्रकार कवि भी एक प्रकार का विधाता ही है,वह भी काव्य की सृष्टि करता है।चाहे कविता हो,गीत हो नवगीत हो। उसकी रचना का कोई न कोई प्रयोजन तो होगा ही। यह प्रयोजन ही उसकी उपादेयता को सिद्ध करता है। साहित्य के मर्मज्ञों का यह कहना है कि समाज में यदि परिवर्तन ला सकने की किसी में क्षमता है तो वह साहित्य में ही है। साहित्य वह मशाल है जो भटके हुए समाज को सही मार्ग दिखाता है। नवगीत चूँकि साहित्य की आत्मा है अस्तु वह  समाज को अधिक सहज भाव से सुमार्ग पर ला सकता है।
       दुनिया की इस भाग दौड़ में किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह लम्बी लम्बी कविताएँ सुन सके, लम्बे लम्बे गीतों का अनुसरण कर सके। आज तो सूत्र रूप में कुछ सुनने तथा उसे समझने का समय रह गया है। ऐसी पस्थितियों में छोटा होने का कारण तथा संप्रेषण की दृष्टि से तथा सहज होने के कारण नवगीत का अपना एक अलग स्थान बनता जा रहा है। कम शब्दों में अपनी व्यंजना के द्वारा लोगों को अभिभूत कर देना नवगीत की विशेषता है। अतः यह कहने  में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि नवगीत आज वास्तव में समय और समाज के लिए बहुत उपयोगी है। वर्तमान संदर्भों में उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।
मनोज जैन

मंगलवार, 26 अप्रैल 2022

कृति चर्चा : मनोज जैन



"हिंदी हाइकु कोश"
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                       अनुभव सम्पन्न कोशकार डॉ.जगदीश व्योम जी के संपादन में दुनियाभर के हाइकुकारों पर एक महत्वपूर्ण काम हुआ है।

"हिंदी हाइकु कोश" 
संपादक
डॉ. जगदीश व्योम
निशात प्रकाशन,
दिल्ली
मूल्य @1100/-

      728, पृष्ठों में 1075, हाइकुकारों की 6386, श्रेष्ठ हाइकु कविताओं से सुसज्जजित "हिंदी हाइकु कोश" एक सामान्य पाठक से लेकर विद्या के अध्येयता तक  हाइकु से सम्बंधित अधिक से अधिक आधिकारिक जानकारी देता है।
                     कोश की अनेक विशेषताओं में एक विशेषता यह भी है की वह अपने पाठक को अधिक से अधिक विधा से जुड़ी सम्यक जानकारी प्रदान करे। चाहे वह सृजन की हो या हाईकुकारों के नए पुराने संग्रह या  सन्दर्भग्रन्थ की हो या फिर विधा के उद्भव और विकास की!
                            फ़ौरीतौर पर देखनें पर यह कहा जा सकता है की सम्पादक डॉ जगदीश व्योम जी ने अपनी पूरी लगन और निष्ठा से कोश पर काम किया है। 
       अभी मैंने सम्पादकीय और वरिष्ठ साहित्यकार कमलेश भट्ट जी का आलेख ही पढ़ा है जो हाइकु से जुड़ी रोचक जानकारियाँ देता है।
      कोश के पाठक नवीनतम और अद्यतन  जानकारियों से अवश्य अपने आप को समृद्ध करेंगे।
बानगी के तौर पर कुछ हाइकु देखें
1
कंक्रीट -वन
नभचुम्बी भवन
रिश्ते निष्प्राण !

-अनामिका सिंह 

2
अंकुर नहीं
जीवन ही जीवन
बीजों से फूटे

-कमलेश भट्ट कमल
3
कड़ी धूप में 
छतरी बने पेड़
सभी के लिए

-डॉ. कुँअर बेचैन

4
ठंडे पर्वत
रुई पहनकर
ठिठुर रहे 

-डॉ.मिथिलेश दीक्षित

5
बचे रहना
सुख से समझौते
महँगे होते

-पूर्णिमा वर्मन 

6

शिखर पर
चिड़िया बैठी, बोली
चढ़ो ऊपर

-डॉ कमलकिशोर गोयनका

7
होगा सबेरा
जमीन पे लाएँगे
रात के ख़्वाब

-हरेराम समीप

8

लोभ का प्रेत
नदी हुई है रेत
उदास खेत

 -घनश्याम मैथिल अमृत 

       कोश में शामिल दुनियाभर के सभी हाइकुकारों को बहुत बहुत बधाइयाँ। एक और अच्छी बात, कोश का प्रूफ बहुत कुशलता से चैक किया गया है।
   डॉ.Jagdish Vyom जी को अनन्त बधाइयाँ।
प्रस्तुति 
मनोज जैन

सोमवार, 18 अप्रैल 2022

भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कुशल शिल्पी : डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी

आलेख
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 भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कुशल
 शिल्पी : डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी
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मनोज जैन 
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            प्रसिद्धि, कहें या नाम, हममें से सब अपना नाम कहीं न कहीं और किसी न किसी क्षेत्र में चाहते तो अवश्य हैं पर यह सबके हिस्से में आसानी से आता नहीं है। इस सन्दर्भ में जैन वाङ्गमय की कर्म सिद्धान्त की अनूठी और सटीक दार्शनिक व्याख्याएं मेरी दृष्टि से गुजरी हैं। कर्मों की तिरेसठ प्रकृतियों में एक पूरा चैप्टर यश नाम कर्म के सम्बंध में पढ़ने और समझने का सुअवसर मिला। 
          अक्सर हमारी ईर्ष्या का कारण हमारा अपना अज्ञान ही होता है। हम अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के चलते, सैद्धांतिक पक्ष को जाने बग़ैर किसी की प्रसिद्धि से स्वयं को दुखी करते रहते हैं। यह बात प्रसंगवश एक "बार जाल फेंक रे मछेरे" जैसी पँक्ति और अमर गीत के कालजयी गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र जी के संबन्ध में भी प्रासंगिक है। उनकी उपलब्धियाँ फिर चाहे पर्सनल हो या प्रोफेशनल अथवा साहित्यिक या सामाजिक, मिश्र जी का कद बड़ा है,और उनके समानधर्माओं को स्पर्हणीय भी ! 
 यदि दो एक बातें अपनी तरफ से जोड़कर कहना चाहूँ तो जो तथ्य निर्विवाद निकलकर सामने आता है। 
           वह यह कि उनकी प्रसिद्धि के पीछे यश नाम कर्म के साथ-साथ बुद्धिनाथ जी के स्वयं के अपने अथक प्रयास भी हैं जो उन्हें बहुश्रुत और बहुपठित बनाने में सहयोगी रहे। मिश्र जी एक ऐसे आदर्श गीतकार हैं जिन्हें पाठ्य और वाचिक दोनों परम्पराओं में व्यापक जनस्वीकृति मिली है।
इसी जन स्वीकृति के चलते वह लोकप्रिय कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।
                                  बुद्धिनाथ मिश्र जी से मेरा पहला परिचय भोपाल से निकलने वाली तात्कालिक शोध मासिकी "साहित्यसागर" में प्रकाशित किसी एक आलेख से हुआ था,जिसमें बुद्धिनाथ मिश्र जी ने गीत की रचना धर्मिता और रचना प्रक्रिया पर खुल कर प्रकाश डाला था। परिचय के इस प्रस्थान बिंदु से लेकर अब तक मैंने मिश्र जी के अनेक आलेख, भूमिकाएं और संग्रहों को अक्षरशः खँगाल डाला। 
                  डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी की रचनाओं में भारतीय सांस्कृतिक चेतना, मूल्यपरकता, वैदिक वांग्मय, दार्शनिक चिंतन के साथ - साथ अपने समय के सामाजिक सरोकारों व युगीन  विडंबनाओं का खुलकर वर्णन हुआ है। डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र जी के गीतों नवगीतों में अलग- अलग रंग और ढंग से मानव मन और आज के जटिल जीवन की स्थितियों और परिस्थितियों से साक्षात्कार करने का अवसर मिलता है। उनका पूरा रचनाकर्म अन्तर्मन की प्रतिच्छाया है। कहते हैं कि एक संवेदनशील मन ही अपने बहाने सारे जग की पीड़ा को स्वर देता है।
                   बुद्धिनाथ मिश्र जी हिन्दी गीत विधा के स्तरीय, स्थापित और लोकप्रिय आइकॉन के रूप में जाने जाते हैं। एक संवेदनशील और मधुर गीतकार होने के साथ ही वे एक जागरूक अध्येता और प्रबुद्ध चिंतक भी हैं। उनकी रचनाओं में, भारतीय संस्कृति की प्रतिबद्धता और संस्कारों की झलक यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देती है।
          कथ्य की नवीनता कहन की अभिव्यंजना, समसामयिक सन्दर्भ में मिथकीय। प्रयोग  युक्ति संगत अनछुये बिम्बों की धूप-छाँव, लोकरंगो की गमक, माटी की महक, प्राकृतिक सौन्दर्य, रूप रस के माधुर्य के कारण उनके गीत भीड़ में भी अलग से पहचान लिए जाते हैं। 
                   गूढ़ विषयों की अभिव्यक्ति में भी उनके नवगीतों में लालित्य और रस विद्यमान रहता है, यही उनकी नैसर्गिक काव्य प्रतिभा का प्रमाण है। हाल ही में हम सभी ने वैश्विक स्तर संकट का घटाटोप या कहें कि कोरोना का क़हर अपनी आँखों से देखा है। इसी दौरान सोशल मीडिया के फेसबुक पर चर्चित गीत नवगीत पर एकाग्र समूह "वागर्थ" ने उनके कुछ नवगीतों को दो भागों में प्रस्तुत किया था। उन प्रस्तुतियों में डॉ बुद्धिनाथ जी ने एक गीत में बहुत कम शब्दों में युगीन त्रासदी को मार्मिक स्वर दिया था। वैश्विक महामारी कोविड पर उनका एक गीत कितना प्रासंगिक बन पड़ा है। 
                       गीत की पंक्तियाँ में कवि ने कोरोना काल की मनः स्थितियों से उपजे तात्कालिक संवेग जैसे ऊब, उदासी, बैचेनी, घुटन ,संत्रास बंधन और मुक्ति जैसे स्वस्फूर्त त्रासद  बिम्ब रचती हैं। 
               द्रष्टव्य है एक गीत का अंश - "क्या शहर/क्या गांव है/सर्वत्र फैलायह करोना /वायरस नारायणी है/ बंद हैं /अपने घरों में /मित्र सारे/आदमी इस दौर का/ कितना ऋणी है/दूरियां नज़दीकियों से /आज बेहतर/"
                या फिर ;- "बहुत दिनों के बाद/आज बाहर निकला/जो भी देखा, सब/पाने को जी मचला। बाहर की दुनिया देखी/हलचल देखी/ पटरी पर दौड़ती/ रेल एकल देखी/ पिंजरे वाले हैं चिंतित/ क्या होगा कल/ खेतों से सीमा तक/ लेकिन चहल-पहल/बहुत अकेलापन / झेला घरबंदी में/ दौड़ रहा बादल पर/ अब यह मन पगला।बहुत दिनों के बाद/आज बाहर निकला/ जो भी देखा सब पाने को जी मचला/"
         उनके गीत आज के समय की द्वंद्वात्मक स्थितियों,निराशाजनक प्रतिकूल परिस्थितियों की शाब्दिक झाँकी प्रस्तुत कर अपने आप में गुम पाठकों का ध्यान विषय पर केन्द्रित करते हैं। भाषा की मुहावरेदानी और नूतन प्रतीकों का साहचर्य  मिश्र जी के नवगीतों को प्रभावी बनाते हैं।
       यों तो बुद्धिनाथ मिश्र जी के व्यक्तिव और कृतित्व पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है फिर भी उनके एक गीत चाँद उगे चले आना जिसमें प्रेम अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ प्रतिष्ठापित हुआ है, को पाठकों के समक्ष अविकल प्रस्तुत करना चाहूँगा।
          
     चाँद उगे चले आना

चाँद उगे चले आना
पिया, कोई जाने ना।
दूँगी तुझे नजराना
पिया, कोई जाने ना।

जाग रही चौखट की साँकल
जाग रही पनघट पर छागल
सो जाएँ जब घाट नदी के
तुम चुपके से आना
पिया, कोई जाने ना।

सोना देंगे, चाँदी देंगे
पल भर में सदियाँ जी लेंगे
छूटेगा कजरा, टूटेगा गजरा
पूछेगा सारा जमाना
पिया,कोई जाने ना।

पँखुरी-पँखुरी ओस नहाए
पोर-पोर बंसी लहराए
तू गोकुल है मेरे मन का
मैं तेरी बरसाना
पिया, कोई जाने ना।

                 लोकलय में निबद्ध संवाद शैली में कवि अपने प्रेम को सदियों जी लेने का सन्देश बड़ी शिष्टता और शालीनता के साथ देते हैं। देह राग से देहातीत होने तक की पूरी यात्रा का आनन्द मात्र तीन अन्तरों में देने वाले कवि स्वाभिमान के मामले में धनी हैं।
        भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित "ऋतुराज एक पल का" गीत संग्रह में उनके गीतांश में कवि ने एक गीत अपने ही नाम किया वह कहते हैं कि"भूसे से जैसे/अनाज हितकारी है/एक गीत /पूरी किताब पर भारी है/लोग कहें/सिरफिरे हो गये मेरे गीत।"
           कविता अंततोगत्वा हमें एक अच्छा मनुष्य बनाती है। मिश्र जी के गीतों का मर्म भी तो यही है। तभी तो वह अपने एक गीत " पानी देनेवाले गीत लिखो" में कहते हैं।
                      "लिखा शत्रु है जहां/मिटाकर मीत लिखो/ज्योति-विमुख तम की कविता क्यों लिखते हो / मरते दम तक तुम सांसों की जीत लिखो।" 
                              मिश्र जी की लेखनी निर्वाध गति से चलती रहती है हर गीत की पृष्ठभूमि उन्हें याद है।उन्हें यह भी याद है कि किस गीत ने कब और किनपरिस्थितियों और मनः स्थितियों में जन्म लिया। यही कारण है कि हर गीति रचना के नीचे उस स्थल का नाम और तिथि जरूर लिखी होती है ताकि सनद रहे ! मिश्र जी की आस्था सामाजिक समता में है उनका कवि आरक्षण के मसले पर उन प्रतिभाओं के साथ जाकर खड़ा होता है जी अकारण आरक्षण का दंश झेलने के लिए विवश हैं। 
                      कवि धर्म का निर्वहन करते हुए वह दोषियों को तर्जनी दिखाते हैं। कथन की पुष्टि के लिए प्रस्तुत है 2-8-2021 को नोएडा, में लिखे एक गीत के कुछ अंश :-
"इन्द्रजाल
                             बंधु , तुमसे थी बड़ी उम्मीद/काटोगे तुम्हीं आरक्षणों का जाल / नागपाशों में फँसी प्रतिभा सवर्णी / हो रही जिससे यहाँबदहाल।"बंधु,यह अभिशाप/ भारत देश का ही/ जिसे गद्दी पर बिठाओ/चार दिन में अमृतवर्षी/वासुकी बनता विषैला
/छोड़ अपने आत्मबल/तप का भरोसा/नकल करता सूअरों की/खीर तज, लगता निगलने/हवस-मैला/तुम चले तो थे/सभी को साथ लेकर/क्या हुआ/ फिर तुम्हें/बिगड़ी चाल/
                          गीत हों या नवगीत सरल तरल शब्दों के रचाव में कविवर बुद्धिनाथ जी का कोई सानी नहीं है। प्रयोगिक दृष्टि से गीतों में मिथकीय निरूपण अर्थ विस्तार की दृष्टि से युगों को अपनी परिधि में समेट लेता है। उनके गीतों में लोकलय मोहती है समग्रतः यदि सार संक्षेप में कहें तो डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी ने नवगीतों को नया स्वरूप और नूतन सौन्दर्य बोध के साथ साथ अर्थ बोध दिया है। सच्चे अर्थों में डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कुशल शिल्पी हैं।
मनोज जैन
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संचालक 
वागर्थ 
(सोशल मीडिया का चर्चित समूह)
106, विट्ठल नगर गुफ़ामन्दिर रोड
 भोपाल
462030
मोबाइल
9301337806

रविवार, 17 अप्रैल 2022

भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कुशल शिल्पी : डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी

भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कुशल शिल्पी : डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी
            प्रसिद्धि, कहें या नाम, हममें से सब अपना नाम कहीं न कहीं और किसी न किसी क्षेत्र में चाहते तो अवश्य हैं पर यह सबके हिस्से में आसानी से आता नहीं है। इस सन्दर्भ में जैन वाङ्गमय की कर्म सिद्धान्त की अनूठी और सटीक दार्शनिक व्याख्याएं मेरी दृष्टि से गुजरी हैं। कर्मों की तिरेसठ प्रकृतियों में एक पूरा चैप्टर यशनाम कर्म के सम्बंध में पढ़ने और समझने का सुअवसर मिला। 
          अक्सर हमारी ईर्ष्याओं का कारण हमारा अपना अज्ञान है होता है। हम अपनी स्वाभाविक प्रवृर्तियों के चलते, सैद्धांतिक पक्ष को जाने बग़ैर किसी की प्रसिद्धि से स्वयं को दुखी करते रहते हैं। यह बात प्रसंगवश एक "बार जाल फेंक रे मछेरे" जैसी पँक्ति और अमर गीत के कालजयी गीतकार दादा बुद्धिनाथ मिश्र जी के संबन्ध में भी प्रासंगिक है। उनकी उपलब्धियाँ फिर चाहे पर्सनल हो या प्रोफेशनल अथवा साहित्यिक या सामाजिक, मिश्र जी का कद बड़ा है,और उनके समानधर्माओं को स्पर्हणीय भी !                           यदि दो एक बातें अपनी तरफ से जोड़कर कहना चाहूँ तो जो तथ्य निर्विवाद निकलकर सामने आता है। 
           वह यह कि उनकी प्रसिद्धि के पीछे यश नाम कर्म के साथ-साथ बुद्धिनाथ जी के स्वयं के अपने अथक प्रयास भी हैं जो उन्हें बहुश्रुत और बहुपठित बनाने में सहयोगी रहे। मिश्र जी एक ऐसे आदर्श गीतकार हैं जिन्हें पाठ्य और वाचिक दोनों परम्पराओं में व्यापक जनस्वीकृति मिली है।
इसी जन स्वीकृति के चलते वह लोकप्रिय कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।
                                  बुद्धिनाथ मिश्र जी से मेरा पहला परिचय भोपाल से निकलने वाली तात्कालिक शोध मासिकी "साहित्यसागर" में प्रकाशित किसी एक आलेख से हुआ था,जिसमें बुद्धिनाथ मिश्र जी ने गीत की रचना धर्मिता और रचना प्रक्रिया पर खुल कर प्रकाश डाला था। परिचय के इस प्रस्थान बिंदु से लेकर अब तक मैंने मिश्र जी के अनेक आलेख, भूमिकाएं और संग्रहों को अक्षरशः खँगाल डाला। 
                  डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी की रचनाओं में भारतीय सांस्कृतिक चेतना, मूल्यपरकता, वैदिक वांग्मय, दार्शनिक चिंतन के साथ - साथ अपने समय के सामाजिक सरोकारों व युगीन विडंवनाओ का खुलकर वर्णन हुआ है। डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र जी के गीतों नवगीतों में अलग- अलग रंग और ढंग से मानव मन और आज के जटिल जीवन की स्थितियों और परिस्थितियों से साक्षात्कार करने का अवसर मिलता है। उनका पूरा रचनाकर्म अन्तर्मन की प्रतिच्छाया है। कहते हैं कि एक संवेदनशील मन ही अपने बहाने सारे जग की पीड़ा को स्वर देता है।
                   बुद्धिनाथ मिश्र जी हिन्दी गीत विधा के स्तरीय, स्थापित और लोकप्रिय आइकॉन के रूप में जाने जाते हैं। एक संवेदनशील और मधुर गीतकार होने के साथ ही वे एक जागरूक अध्येता और प्रबुद्ध चिंतक भी हैं। उनकी रचनाओं में, भारतीय संस्कृति की प्रतिबद्धता और संस्कारों की झलक यत्र तत्र सर्वत्र दिखाई देती है।
          कथ्य की नवीनता कहन की अभिव्यंजना, समसामयिक सन्दर्भ में मिथकीय प्रयोग  युक्ति संगत अनछुये बिम्बों की धूप-छाँव, लोकरंगो की गमक, माटी की महक, प्राकृतिक सौन्दर्य, रूप रस के माधुर्य के कारण उनके गीत भीड़ में भी अलग से पहचान लिए जाते हैं। 
                   गूढ़ विषयों की अभिव्यक्ति में भी उनके नवगीतों में लालित्य और रस विद्यमान रहता है, यही उनकी नैसर्गिक काव्य प्रतिभा का प्रमाण है। हाल ही में हम सभी ने वैश्विक स्तर संकट का घटाटोप या कहें कि कोरोना का क़हर अपनी आँखों से देखा है। इसी दौरान सोशल मीडिया के फेसबुक पर चर्चित गीत नवगीत पर एकाग्र समूह "वागर्थ" ने उनके कुछ नवगीतों को दो भागों में प्रस्तुत किया था। उन प्रस्तुतियों में डॉ बुद्धिनाथ जी ने एक गीत में बहुत कम शब्दों में युगीन त्रासदी को मार्मिक स्वर दिया था। वैश्विक महामारी कोविड पर उनका एक गीत कितना प्रासंगिक बन पड़ा है। 
                       गीत की पंक्तियाँ में कवि ने कोरोना काल की मनः स्थितियों से उपजे तात्कालिक संवेग जैसे ऊब, उदासी, बैचेनी, घुटन ,संत्रास बंधन और मुक्ति जैसे स्वस्फूर्त त्रासद  बिम्ब रचती हैं। 
               द्रष्टव्य है एक गीत का अंश - "क्या शहर/क्या गांव है/सर्वत्र फैलायह करोना /वायरस नारायणी है/ बंद हैं /अपने घरों में /मित्र सारे/आदमी इस दौर का/ कितना ऋणी है/दूरियां नज़दीकियों से /आज बेहतर/"
या फिर ;- "बहुत दिनों के बाद/आज बाहर निकला/जो भी देखा, सब/पाने को जी मचला। बाहर की दुनिया देखी/हलचल देखी/ पटरी पर दौड़ती/ रेल एकल देखी/ पिंजरे वाले हैं चिंतित/ क्या होगा कल/ खेतों से सीमा तक/ लेकिन चहल-पहल/बहुत अकेलापन / झेला घरबंदी में/ दौड़ रहा बादल पर/ अब यह मन पगला।बहुत दिनों के बाद/आज बाहर निकला/ जो भी देखा सब पाने को जी मचला/"
         उनके गीत आज के समय की द्वंद्वात्मक स्थितियों,निराशाजनक प्रतिकूल परिस्थितियों की शाब्दिक झाँकी प्रस्तुत कर अपने आप में गुम पाठकों का ध्यान विषय पर केन्द्रित करते हैं। भाषा की मुहावरेदानी और नूतन प्रतीकों का साहचर्य  मिश्र जी के नवगीतों को प्रभावी बनाते हैं।
       यों तो बुद्धिनाथ मिश्र जी के व्यक्तिव और कृतित्व पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है फिर भी उनके एक गीत चाँद उगे चले आना जिसमें प्रेम अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ प्रतिष्ठापित हुआ है, को पाठकों के समक्ष अविकल प्रस्तुत करना चाहूँगा।
          
     चाँद उगे चले आना

चाँद उगे चले आना
पिया, कोई जाने ना।
दूँगी तुझे नजराना
पिया, कोई जाने ना।

जाग रही चौखट की साँकल
जाग रही पनघट पर छागल
सो जाएँ जब घाट नदी के
तुम चुपके से आना
पिया, कोई जाने ना।

सोना देंगे, चाँदी देंगे
पल भर में सदियाँ जी लेंगे
छूटेगा कजरा, टूटेगा गजरा
पूछेगा सारा जमाना
पिया,कोई जाने ना।

पँखुरी-पँखुरी ओस नहाए
पोर-पोर बंसी लहराए
तू गोकुल है मेरे मन का
मैं तेरी बरसाना
पिया, कोई जाने ना।

        लोकलय में निबद्ध संवाद शैली में कवि अपने प्रेम को सदियों जी लेने का सन्देश बड़ी शिष्टता और शालीनता के साथ देते हैं। देह राग से देहातीत होने तक की पूरी यात्रा का आनन्द मात्र तीन अन्तरों में देने वाले कवि स्वाभिमान के मामले में धनी हैं।
        भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित "ऋतुराज एक पल का" गीत संग्रह में उनके गीतांश में कवि ने एक गीत अपने ही नाम किया 
वह कहते हैं कि
"भूसे से जैसे
अनाज हितकारी है
एक गीत 
पूरी किताब पर भारी है
लोग कहें
सिरफिरे हो गये मेरे गीत।"

               गीत हों या नवगीत सरल तरल शब्दों के रचाव में कविवर बुद्धिनाथ जी का कोई सानी नहीं है। प्रयोगिक दृष्टि से गीतों में मिथकीय निरूपण अर्थ विस्तार की दृष्टि से युगों को अपनी परिधि में समेट लेता है। उनके गीतों में लोकलय मोहती है समग्रतः यदि सार संक्षेप में कहें तो डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी ने नवगीतों को नया स्वरूप और नूतन सौन्दर्य बोध के साथ साथ अर्थ बोध दिया है। सच्चे अर्थों में डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कुशल शिल्पी हैं।
       

मनोज जैन
____________

संचालक 
वागर्थ 
(सोशल मीडिया का चर्चित समूह)
106, विट्ठल नगर गुफ़ामन्दिर रोड
 भोपाल
462030
मोबाइल
9301337806

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AE%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%9B%E0%A4%B2_%E0%A4%B9%E0%A5%88_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%AE%E0%A4%A7%E0%A5%81%E0%A4%B0%27

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

शतायु कामना महोत्सव की तीन चार विविध छवियाँ प्रस्तुति : वागर्थ

मूर्धन्य गीतकार दादा मयंक श्रीवास्तव जी के शतायु कामना महोत्सव की सांध्य बेला में कल दिनांक 11अप्रैल 2022 की तीन अलग भंगिमाओं में लिया गया चित्र और एक मंचासीन अतिथियों की मोहक छवि 
प्रस्तुति 
वागर्थ

शनिवार, 9 अप्रैल 2022

सरल रेखीय गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी की गीतात्मक यात्रा का वृत्तान्त : मनोज जैन

सरल रेखीय गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी की गीतात्मक यात्रा का वृत्तान्त 
                   
        मनोज जैन
        ____________



                               पुरानी डायरी के एक पेज पर क़रीने से सजी अख़बार की कतरन पर जब-जब मेरी नज़र पड़ती डायरी के इस पन्ने को उलटकर जरूर पढ़ता। इस तरह डायरी के इस पन्ने से अनायास मेरा प्रगाढ़ सम्बन्ध जुड़ता चला गया। मेरे लिए यह कागज़ महज कतरन भर नहीं था अपितु एक जरूरी दस्तावेज था जिसे मैंने कभी किसी, पत्र के रविवारीय के अंश से निकाल कर अपनी डायरी में चस्पा कर लिया था। कतरन में तीन अंतरे का एक बहुत प्यारा गीत छपा था जो मुझे आज भी कंठस्थ है।
            यह गीत किसी और का नहीं बल्कि देश के चर्चित गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी का है जो शिक्षा विभाग से सेवा निवृत्ति के उपरांत मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में रहकर अब भी साहित्य की साधना में निमग्न हैं। मयंक श्रीवास्तव जी के गीतकार मन से मेरे परिचय का आरम्भ यहीं से होता है। यह परिचय उनसे भेंट के लगभग 10 वर्ष पहले का रहा होगा।
               छन्द को समर्पित राजधानी की छंदधर्मी संस्था "अंतरा" की गोष्ठी,जो कीर्ति शेष दिवाकर वर्मा जी के आवास पर आयोजित थी, जिसमें मुझे पहली बार युवा रचनाकार के नाते आमन्त्रित किया गया था। उस गोष्ठी में ऊँची पूरी कदकाठी के एक पुरुष जिन्हें मैनें पहली बार नीले आसमानी रंग के सफारी सूट पहनें गम्भीर मुखाकृति में देखा और कड़क रौवदार आवाज में गीत प्रस्तुत करते सुना था। यह दस्तावेजी कतरन जो मेरे पास अब भी संरक्षित है, के भौतिक गीतकार मयंक जी से मेरे पहले परिचय की दूसरी कड़ी थी। तदुपरांत उनसे मुलाकातों का सिलसिला इसलिए भी जारी रहा क्योंकि उनके व्यवहार में वरिष्ठता या कनिष्ठता जैसा कोई भेद-भाव नहीं रहता वह अपने मित्रों से पूरी अनौपचारिक आत्मीयता के साथ प्रस्तुत होते हैं। 
             कारणों की पड़ताल में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि मयंक जी की संवेदनशीलता ने कभी भी अन्दर के अफ़सर एस• सी• वर्मा को सार्वजनिक जीवन में हावी नहीं होने दिया 40 वर्षीय कार्यालयीन कार्यकाल में मयंक जी की मिसाल ईमानदार अफसर के रूप में भी दी जाती रही है।
            मयंक जी ने अपनी आधा दर्जन कृतियों के सृजन के साथ-साथ गीत विधा के लिए प्रेसमेन के साहित्य संपादक के रूप में थोड़े से समय में ही अविस्मरणीय प्रयास किए उन्हीं के प्रयासों का सुफल है कि देश भर में गीत की नई पौध लहलहाती दिखाई देने लगी। एक समय वह भी रहा है जब प्रेसमेन के युवा विशेषांक के लिए उन्हें ढूँढें से भी रचनाकार नहीं मिलते थे।
                          रामावतार त्यागी की परम्परा को आगे बढ़ाते-बढ़ाते मयंक जी अपने समय सापेक्ष सृजन के चलते जल्द ही नवगीतकार के रूप में याद किये जाने लगे। यद्धपि उन्होंने स्वयं को कभी नवगीतकार नहीं कहा। आज भी वह गीतों में नवता की पैरवी करते हैं और गीत को गीत ही रहने दो की धारणा के प्रबल पक्षधर हैं।
                        पूरे गीत परिदृश्य इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया पर खासी नज़र रखने और सन्दर्भ ग्रंथों को सिरे से पढ़ने वाले मयंक जी के मन में आज भी यह कसक है कि नई पीढ़ी में गीत धर्मिता को लेकर जो जोश होना चाहिए वह न के बराबर है बकौल मयंक श्रीवास्तव "समकालीनता के चलते गीत की शाश्वतता को बड़ा नुकसान पहुँचा है। उनका मानना है की गीत सार्वभौमिक और सर्वकालिक होनें चाहिए।"
                  मयंक जी ने न केवल गीत को लिखा है बल्कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से गीत को जिया भी है।उन्होंने जितना लिखा वह पूरे का पूरा गीत-नवगीत के युगीन दस्तावेजों में दर्ज है।
                    ऐसा नहीं कि उन्हें किसी बड़े सम्मान की चाह न हो, लेकिन आज के युग में  जिन तरीकों और पैंतरों को अपनाकर सम्मान हासिल किए जाते हैं उनसे उनका गीतकार कभी भी समझौता नहीं करना चाहता।
                    मयंक जी के पास पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक शेष और कीर्तिशेष मित्रों की एक लंबी फ़ेहरिश्त है। उनका आधा समय आज भी मित्रों से गपियाने में व्यतीत होता है।  कीर्तिशेष में वह राम अधीर, दिवाकर वर्मा, कुँवर किशोर टण्डन, विनोद तिवारी, हुकुम पाल सिंह "विकल" राजेन्द्र सोनी, महेन्द्र गगन के अलावा उन सभी मित्रों के साथ बिताए पलों को याद करते हैं जिनका उनसे मन मिला रहा।
               देवेन्द्र शर्मा "इंद्र" जी ,विद्या नंदन राजीव जी, महेश अनघ जी को आदरेय भाव देनें में सदैव उदारता दिखाने वाले मयंक जी की निजी लायब्रेरी में मित्रों के पत्र सँग्रह और संकलन सब कुछ व्यवस्थित मिलेंगे उन नामों का जिक्र भी जिन्होंने पढ़ने या शोध के नाम पुस्तकें लेकर उड़ा दीं पर शिकायत किसी से नहीं मयंक जी का का यह वीतराग भाव हमें बड़ी प्रेरणा देता है। 
           उनका मानना है कि हमें सम्बन्धों की एक खिड़की सदैव खोलकर रखनी चाहिए और वह सम्बन्धों की उस खिड़की को उन दोस्तों के लिए खोल कर रखते भी हैं जिहोंने समय-समय पर कोमल मन के इस गीतकार को घातों की सौगातें भेंट की परन्तु मयंक जी के निर्लिप्त और निर्विकार मन ने शिकायतों को आज तक नहीं छुआ हाँ ! याद करते समय एक जोरदार ठहाका भर लगते हैं।
                       निजी स्तर पर मयंक श्रीवास्तव जी मेरे सदैव सहयोगी और मार्गदर्शक रहे हैं। उनके आशीर्वाद से ही मेरा पहला नवगीत संकलन "एक बूँद हम" 2011 में आ सका यही नहीं संग्रह का नामकरण संस्कार भी उन्हीं का किया हुआ है। चर्चित संकलन "सप्तराग" में उनके साथ शामिल होनें का सौभाग्य मिला है।
         मयंक जी का पाँच दशकों का सृजन अनेक युगीन चर्चित पत्र पत्रिकाओं, शोध सन्दर्भ ग्रन्थों, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के महत्वपूर्ण दस्तावेजों में दर्ज है। वर्तमान में जो दो एक पत्रिकाएँ चर्चा में हैं वह मयंक जी के प्रेस मेन के अपडेट वर्जन भर हैं।
               उनके प्रेसमेन के अवदान की तुलना धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे चर्चित पत्रों से अकारण नहीं की जाती। मयंक जी का काम बोलता है आज भी यदि कोई शोधार्थी गीत नवगीत पर शोध करना चाहे तो उसे उसके हिस्से का महत्वपूर्ण मटेरियल प्रेसमेन के पुराने अंको की पूरी फाइल से आसानी से मिल सकता है।
        गीतकार की रचनाधर्मिता को किसी एक छोटे से आलेख में नहीं समेटा जा सकता लेकिन उनकी रचना धर्मिता पर उनके मित्र प्रेमशंकर शुक्ल जी की अकाट्य टीप को समसामयिक सन्दर्भ में प्रस्तुत अवश्य किया जा सकता है। 
                        " ठहरा हुआ समय " के फ्लैप मैटर में वह लिखते हैं कि "मयंक श्रीवास्तव का गीतकार स्वाभाविक लयों से अपने गीतों का अनुभूति के स्तर पर रचाव करता है। इसके लिए वह प्राचीन छंदों के रचना विधान के निकट जाने की बजाय अपनी स्वतंत्र छन्द रचना का विकास करता है। इस विकास प्रक्रिया में मयंक लोक की आर्षय शक्ति को अपनी गीत रचना में एक ऊर्जा केन्द्र की तरह अपनाता हुआ अपनी विषयगत कल्पना,भावना,आत्मानुभूति और रागात्मकता को कलात्मक अभिव्यक्ति की सार्थकता प्रदान करता है।"
       अपने साथ ही चलते चलते पाठकों को उस कतरन के गीत से भी जोड़ना चाहूँगा जो पूरे लेख और मेरे मन के केन्द्र में आज भी है।

तुम रुपहले चित्र की 
झाँकी न दिखलाओ मुझे
मैं सुलगते स्वप्न की
        चिनगारियाँ तो देख लूँ।
स्वर अभी अनुभूतियों का
बंद हो पाया नहीं
गीत मैने वेदना का 
बेवजह गाया नहीं
मैं खुला आकाश
देखूँगा मगर पहले मुझे
घेरकर बैठी हुईं 
        बरबादियाँ तो देख लूँ।
कुछ अभागे पल
बचाकरके रखे हैं पास में
लिख सके शायद कथानक 
ये कभी इतिहास में
अब तलक करता रहा
उपयोग मैं दिल खोलकर
हैं अभी कितनी मुखर
        अभिव्यक्तियाँ तो देख लूँ।
हो सकेगा क्या पता
कोई हमारा प्रश्न हल
उड़ रही विश्वास की
रंगत हवा में आजकल 
हाकिमों,भूमाफियाओं
की निगाहों से बचीं
साँस अंतिम से रहीं
       हरियालियाँ तो देख लूँ।
                      गीत के तीसरे अन्तरे में गीतकार ने अपने सजग सामाजिक दायित्वबोध के चलते आम आदमी की तरफ से ऐसे प्रश्नों को उठाया था जिनका उत्तर गीतकार को तब से लेकर आज तक नहीं मिला अमूमन सरकार तक आम आदमी की आवाज़ पहुँचती ही नहीं यदि पहुँच भी जाय तो प्रतियुत्तर के मामले में सरकार का रुख किसी गूँगे बहरे की तरह रहता हैं।
        आशा है मयंक जी ने गीत में जो प्रश्न उठाये हैं उनका उत्तर उन्हें आज नहीं तो आने वाले कल के अगले प्रहर में जरूर मिलेगा!
                     आज मेरे प्रिय गीतकार मयंक श्रीवास्तव जी अपने जीवन के अस्सी बसंत पूरे कर रहे हैं।वह शतायु हों ! और वह निरन्तर सृजन रत रहें।
 मनोज जैन
106 विठ्ठल नगर गुफ़ामन्दिर रोड, भोपाल 462030
मोबाइल 
9301337806

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

कवि परिचय : गणेश गम्भीर जी प्रस्तुति वागर्थ

परिचय


गणेश गम्भीर

नाम- गणेश शंकर श्रीवास्तव
जन्मतिथि- 07 सितम्बर 1954
पिता- स्व० विश्वनाथ लाल
माता- स्व० इन्दुरानी
शिक्षा- परास्नातक

कृतियाँ-
तुम्हारे नाम के अक्षर - कविता संग्रह
फैसला दो टूक, संवत् बदले, वंश-वृक्ष का वन संकट में, शब्द हैं या शब्द के अक्षर, नहीं के आस-पास - सभी नवगीत संग्रह
रास्ता बर्फ़ है, साफ़गोई, अनुभव है जाना-पहचाना - सभी ग़ज़ल संग्रह

सम्पादन-
 'समकालीन गीत सोहराई' समवेत संकलन (नचिकेता जी के साथ सम्पादन) 
'विन्ध्य वैभव' - विन्ध्य महोत्सव समारोह ग्रन्थ 1999
 नवगीत पत्रिका- 'उत्तर'

विशेष-
अनेक समवेत संकलनों के सहयोगी कवि। 
देश की प्रायः सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। 
दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रसारण। 
 उ०प्र० हिन्दी संस्थान के 'बलवीर  सिंह रंग' पुरस्कार समेत अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित। 

सम्पर्क-

घास की गली, वासलीगंज, मीरजापुर,  उ०प्र०-231001
मोबाईल- 9335407539, 7985426007

वरेण्य नवगीतकार गणेश गम्भीर जी के पाँच नवगीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ

परिचय
गणेश गम्भीर जी


वरेण्य नवगीतकार गणेश गम्भीर जी मीरजापुर उत्तरप्रदेश से आते हैं। आप बलबीर सिंह रंग पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात नवगीतकार हैं।

वागर्थ प्रस्तुत करता है 

गणेश गम्भीर जी के नवगीत

एक
सबकी यही पसंद
____________________

बोलचाल भी बंद हो गई
सबकी यही पसंद हो गई।

शान्त सतह है
नीचे क्या है
छिपा पीठ के
पीछे क्या है

मन की काई, तन पर आई
फैली और फफूंद हो गई।

सावधान
रहना मजबूरी
प्राण बचाना
बहुत जरूरी

सम्बन्धों की झील सूखकर
शव जैसी निस्पंद हो गई।

दो

जमी हुई है काई
__________________

कदम-कदम पर
जमी हुई है काई
कोई कितना काँछे।

कहीं हरापन नया-नया है
कहीं-कहीं पर काले धब्बे
यहाँ निरर्थक हो जाते हैं
टायलेट-क्लीनर के डब्बे

फिसलन से
बचने की कोशिश में
हर आता-जाता नाचे।

वहाँ यही रस्ता ले जाता
जहाँ जश्न है रक्त-पान का
कौन उलंघन कर सकता है
नरबलि के स्वर्गिक विधान का

जन समूह को सम्बोधित कर
धर्मग्रन्थ
उपदेशक बाँचे।

कितनी आँखें चमक रही हैं
कितने चेहरे उत्साहित हैं
विस्फोटों के लिए शहर के
बड़े-बड़े मन्दिर चिन्हित हैं

कैसे जिन्दा रहे
अभी तक
ये बुतखाने, काफिर ढाँचे।

तीन

माँ!

माँ! तुम्हारा नहीं होना
फूल सहलाती
हवा का
नमी खोना!

आँख में
आकाश है
जितना भी फैला
धीरे-धीरे
हो रहा है
कुछ मटीला

बस
तुम्हारी याद का
दुधिया है कोना!

था यहाँ कुछ
जो नहीं अब
रह गया है
लहर का पानी
लहर में
बह गया है

साथ लेकर
दूब-अक्षत
दीप-दोना!

दूर सारे दर्द
मोतियाबिंद
खाँसी
छू न पाएगी
तुम्हें
कोई उदासी

एक
फोटो-फ्रेम में
चुपचाप सोना!

चार

इस अमृत में जो अमृत है
__________________________

इस अमृत में जो अमृत है
उसे बचाना  है
तय करना है 
अब जीना है या मर जाना है 

गौरव- गाथाओं पर
भारी ग्लानि -कथाएं हैं
यहाँ आत्महंता होने की 
रूढ़ प्रथाएं हैं

इतिहासों के इस दलदल से
बाहर आना है 

हुए पराजित किसी तरह 
पर हुए पराजित तो
हुए विभाजित किसी तरह 
पर हुए विभाजित  तो

करें जोड़ने की कोशिश 
कुछ नहीं घटाना है 

हवन-कुण्ड भी रहे अनवरत
चूल्हे बुझे नहीं
गुप्त स्रोत अमृत का  
मिल जायेगा यहीं कहीं

राह कठिन है 
किन्तु  लक्ष्य तक चलते जाना है 

कुण्ठाओं के -कुत्साओं के 
कई अंधेरे हैं
रातों का उत्तर देने को
नये सवेरे  हैं

मृत्यु -वरण करने का मतलब
जीवन पाना है  ।।

पाँच

काश
           -------
हो रहा है जो 
न होता काश! 

हैं हवा में 
प्रश्न ऐसे ढेर सारे 
लग रहे हैं
बदले-बदले चाँद-तारे

सूर्य 
धीरज यूँ न खोता, काश! 

एक हलचल 
दूर तक आकाश में है 
गड़बड़ी
पायी गयी इतिहास में है 

विवश होकर 
सच न रोता,काश!

सामने 
बिफरे हुए ईरान -टर्की 
याद फिर
आने लगा है नागासाकी 

समय
आशंका न बोता ,काश!
___                      

गणेश गम्भीर 
घास की गली,वासलीगंज 
मीरजापुर -231001
उ0प्र0
________________
प्रस्तुति

मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

"धूप भरकर मुठ्ठियों में" कृति चर्चा : अनामिका सिंह


चर्चित नवगीतकार अनामिका सिंह जी ने रचना की तासीर में एक कृति
 "धूप भरकर मुठियों में"
की समीक्षा की है। 
अनामिका अच्छी नवगीतकार के साथ साथ कुशल समीक्षक भी हैं।
     पढ़ते हैं उनका एक आलेख

चेतना को स्पंदित करते नवगीत:
____________________________________
                                   अनामिका सिंह

                   सद्य प्रकाशित नवगीत संग्रह '"धूप भरकर मुट्ठियों में"की शुरुआत स्मृतिशेष पंकज परिमल जी की भूमिका से होती है। खटमिट्ठी भूमिका से आगे बढ़ते ही अगली सम्मति प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज जी की है जिसमें वे एक गीतांश के जरिये नवगीतकार की आत्मीयता / निश्छलता/निर्मलता  को रेखांकित करते हैं। कोई भी सजग पाठक इसी वाक्यांश से नवगीतकार के व्यक्तित्व की विशेषताओं से जुड़ाव महसूस कर संकलन के गीतों का मजमून भाँप सकता है ।
                                  अगली सम्मति आदरणीय राजेन्द्र गौतम जी की है जो उनके गीतों में लोक कल्याण और युगीन विडम्बना के दृश्य एवम् भाषा के स्तर पर उतरोत्तर व्यंजनात्मक  उत्कर्ष की उम्मीद रखते हैं ।
                   'बाजारवाद के संकट में सचेत कवि स्वर ' शीर्षक के तहत आदरणीय कैलाश चंद्र पंत जी एवं 'बात इतनी सी ' यानी बात पूरी और सही  ' शीर्षक के तहत स्मृतिशेष कुमार रवीन्द्र जी ने अपनी सूक्ष्म व आत्मीय दृष्टि से अर्थ पूर्ण नवगीतों की शुभाशंषा की है। फ्लैप मैटर में आदरणीय माहेश्वर तिवारी जी ने कृति के गीतों पर अपनी स्नेह दृष्टि डाली है ।
 
   किसी साहित्यिक कृति की सार्थकता सिर्फ़ कथ्य , शिल्प से ही नहीं वरन उसकी सामाजिकता से भी जाँची परखी जानी चाहिये । साहित्य अपने समय एवम् समाज का दस्तावेज होता है तब जबकि साहित्यकार बिना किसी पूर्वाग्रह के समय /समाज का सच लिखे ।

     हर्ष का विषय है कि संकलन के नवगीतों ने समय से सच्चा साक्षात्कार किया है । श्रेष्ठ काव्य वही है जो संवेदनशील हृदय को स्पर्श कर उसकी चेतना को स्पंदित करे । मनोज जैन जी के नवगीत समरस समाज के निर्माण की बात बहुत -बहुत  शिद्दत से करते हैं ।
                वे स्वस्थ्य समाज की स्थापना की कामना सकारण करते हैं, क्योंकि उनका कविमन सामाजिक अंतर्विरोधों,राजनीतिक दुरभिसंधियों , युगीन त्रासदियों,स्वार्थपरता , अवसरवादिता और पारिवारिक विघटन के तमाम कटु , यथार्थ दृश्यों को जीवन में आस -पास घटित होते देख रहा है । 
               सामाजिक विसंगतियों के मध्य आत्मसंघर्ष और लोकपीड़ा से उपजे संग्रह के नवगीत संवेदना , सघन अनुभूति , सधी भाषा व शिल्प के साथ वर्तमान यथार्थ और सामाजिक समस्याओं से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करते हुये  इन तमाम युगीन विसंगतियों पर शालीन विरोध दर्ज करते हैं ।
                    संग्रह का आरम्भ कुत्सित आत्मवृत्तियों से मुक्ति हेतु प्रार्थना के साथ ही समष्टि की शुभेच्छा की कामनाओं के साथ हुआ है । कहना न होगा कि सांस्कृतिक एवम् आध्यात्मिक चेतना के गीतों में व्यक्ति से लेकर समष्टि तक की बेहतरी हेतु मनोयोग से की गयीं कामनाओं में जुड़ी हथेलियाँ हैं । 
                  शब्द शाश्वत हैं, शब्द की सत्ता अनिर्वचनीय है , सिर्फ़ शब्द ही वो माध्यम है जिससे साहित्यकार की स्वअनुभूति पाठक को समानुभूति के स्तर तक पहुँचाती है । शब्द ही स्वयं का भोगा हुआ यथार्थ अथवा पर की समानुभूति , जीवन एवम् समाज के अनुभव ही साया करते हैं । ऐसे में इस संग्रह के प्रथम गीत की पंक्तियाँ उदात्त कामनाओं से लबरेज़ हैं । आज के आपाधापी भरे कृत्रिम जीवन में जब बिना किसी स्वार्थ के 
किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं रह गया ऐसे में कवि की यह कोमल कामना हृदय को स्पर्श करती है ।
       कुछ नहीं दें किन्तु हँसकर 
       प्यार के दो बोल बोलें
       हर घड़ी शुभ है चलो 
       मिल नफरतों की गाँठ खोलें
       शब्द को वश में करें 
       आखरों की शरण हो लें ...( पृष्ठ - ३५ )
                 यथार्थ की अनुभूतियाँ संग्रह के गीतों में पंक्ति -दर -पंक्ति उपस्थित हैं । कवि ने छद्म उजालों का अनावश्यक स्तुतिगान न करके समाज , साहित्य , राजनीति के स्याह पक्षों को अनावृत किया है ।
           लाज को घूँघट /
           दिखाया/
           पेट को थाली /
           आप तो भरते रहे घर, 
           हम हुये खाली/
           गीत- हम बहुत कायल हुये ( पृष्ठ - ३८)

   स्वाभिमानी एवम् आत्मविश्वासी होना किसी भी व्यक्ति की नैसर्गिक चाह होती है । कवि को अपनी नैसर्गिकता बेहद प्रिय है जो इन पंक्तियों में तटस्थ होकर उभरती है 

            हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के 
            जो बोलोगे रट जायेंगे // 
            हम भी दो रोटी खाते हैं /
            तुम भी दो रोटी खाते हो ।  ( पृष्ठ- ३९)

                  संयुक्त परिवारों का  समाज में उदाहरण दिया जाता था / है  किन्तु भौतिकतावादी मशीनी युग में संयुक्त परिवारों की मूल पर मट्ठा डालने का कार्य हमने ही किया है ।  जहाँ पिता और पुत्र के मध्य संवाद के लहजे में भी परिवर्तन आया है । बीती बात हुई जब पुत्र- पिता का संवाद गरिमामय होता था । भौतिकता , स्वार्थपरता ,आधुनिकता ने हमारी संवेदनाओं और शऊर को गटक लिया है , आज की पीढ़ी अपने परिजनों से स्वस्थ्य संवाद करने में असमर्थ है। भारतीय परिवारों के बेहद आम किन्तु कष्टकारी दृश्यों को गीत के लिबास में हू-ब-हू पेश किया है ....

              बात -बात में बात काटता /
              बेटा अपने बाप की 
              कौन भला समझेगा पीड़ा /
              युग के इस संताप की । ( पृष्ठ- ९७)

              कैसा है भाई! 
              बैठ गया आंगन में /कुंडलियामार/ 
              गिरगिट से ले आया 
              रंग सब उधार/ 
              हक मांगो / दिखलाता/ 
              कुआँ कभी खाई/ 
              चूस रहा रिश्तों को 
              बनकर तू जोंक/ 
              जब चाहे बन जाता/
              चाकू की नोंक/ 
              घूरता हमें/
              जैसे अज को कसाई । (पृष्ठ - ४३)

आत्मबोध और आध्यात्मिक दृष्टि कोण कविमन में समानांतर उपस्थित रहा है , आत्मबोध की  प्रक्रिया के फलस्वरूप उच्चतम मानवीय बोध से संपृक्त समष्टि शुभता के गीत रचे गये हैं । 

           काश! हम होते /
           नदी के तीर वाले तट / 
           हम निरन्तर भूमिका /
           मिलने -मिलाने की रचाते /
           पाखियों के दल उतरकर/
           नीड़ डालों में सजाते /
           चहचाहट सुन /
           छलक जाता हृदय घट (पृष्ठ - ४४)

बीते समय की बात हुई  जब जनप्रतिनिधियों की छवि सम्मान योग्य होती थी , वर्तमान में  ' नेता ' सुनते ही मन मस्तिष्क में जो छवि उभरती है वो इस गीतांश से इतर नहीं होती ....

           'चित ' पर नजर रखता पैनी
            पट में भी रखता है आशा
            पल-भर में हो जाता तोला
            क्षण- भर में हो जाता माशा 

           जो अंडे सोने के देता
           केवल उसी को है सेता // ( पृष्ठ- ७८)

 सत्ताओं और उनके सुशासन का हाल किसी से छिपा नहीं है । कवि ने  इसे रेखांकित करने में किसी तरह की कोताही नहीं बरती है ।

            कुछ प्रश्नों को //
            एक सिरे से /
            हँसकर टालकर गया //      
            मन को साल गया // 
            शकुनि सरीखी नया सुशासन चलकर चाल गया …( पृष्ठ -६१)
             मैं पूछूँ तू खड़ा निरुत्तर 
             बोल कबीरा बोल 
             चिंदीचोर विधायक के घर 
             प्रतिभा भरती पानी ।
             राजाश्रय ने वंचक को दी 
             संज्ञा औघडदानी । 
             खाल मढ़ी है बाहर -बाहर 
             है भीतर तक पोल । (पृष्ठ -७५)

राजनीति की उठापटक औ धींगामुश्ती में 
केवल जनता ही है जिसको चूना लगता है । (पृष्ठ -७६)

         चारो तरफ अराजकता है 
         कैसा यह परिवेश है,
         कैसा यह देश। (पृष्ठ -७७)

एक गीतकार के लिये गीत ही आत्मबल का केन्द्र होता है , उसके लिये गीत ही विषम परिस्थितियों में वह प्रकाश स्तम्भ  है जिसके जरिये अंधकार की सरणियों में उम्मीद की लौ जलाई रखी जा सकती है । ऐसे में कवि स्वयं तो विसंगतियों को उजागर करने हेतु प्रतिबद्ध है ही,वो कविकुल से भी इसी मुखरता की प्रत्याशा रखता है।

           दिखा आइना जो सत्ता का /
           पारा नीचे कर दे /
           जो जन गण के /
           पावन मन को समरसता से भर दे/   
           शोषक ,शोषण का विरोध जो करे  
           निरंतर हटकर .. ( पृष्ठ -११३)

    कृतिकार सामाजिक विसंगतियों के झंझावात से जूझने में प्रेम को दफ्न होने नहीं देता । हालांकि अजब विरोधाभास है कि प्रेम सदियों से समाज की आँखों की किरकिरी रहा अब भी है किन्तु प्रेम की महत्ता और अस्तित्व सृष्टि के उद्भव से है और चिरकाल तक रहेगा। शायद ही इस जगत में कोई ऐसा हो जिसे प्रेम न हुआ हो या प्रेम को किसी भी स्वरूप में महसूस न किया हो । कृतिकार प्रेम और उसकी नाजुकी की अभिव्यक्ति वर्ज्य नहीं समझता, संग्रह के कई गीत अपनी सम्पूर्ण भव्यता के साथ  प्रेम की सत्ता के अधीन हैं। 

      चाह थोड़ी इधर , चाह थोड़ी उधर 
      बंद आँखों से देखे गुलाबी अधर 
      सब्र के बाँध टूटे ,सभी रात को ।

(याद रखना हमारी मुलाकात को )   ( पृष्ठ- ५४)

कहा जाता है जब मन प्रेम के अधीन हो तो व्यक्ति विवेक ( संयम )खो देता है । ऐसे ही नाजुक पल का दृश्य इन पंक्तियों में उपस्थित होता है....

     हो गई है आज हमसे 
     एक मीठी भूल 
     धर दिये हमने अधर पर 
     चुंबनों के फूल /...
     लाजवंती छवि नयन में 
     फिर गई है झूल //  ( पृष्ठ -५५)

        इन्द्रधनु सा खींचता है
        कौन अपना ध्यान ।
        द्वंद्व में जा फँसा गहरे
        बुद्धि का विज्ञान ।
        हारने को सहज 
        अपना मन हुआ तैयार । (पृष्ठ- ६४ )

                    प्रेम सम सरल एक गीत की पंक्तियाँ अपनी सरलता से सम्मोहित करती हैं , जिनमें गीतकार गीत का गुरुत्व बढ़ाने हेतु भारी भरकम आयातित शब्दावली का प्रयोग न करके बाल कविता जैसे शब्दों का प्रयोग करता है और यही सहज शब्दावली इस गीत को वजनी बना देती है....

         मन का हिरन कुँलाचें भरता
         मन का मोर मगन हो झूमे
         मन का खरहा यूँ शरमाये
         मन की तितली उड़-उड़ जाए
         मन का पाँखी पंख पसारे ।
( पृष्ठ -९१)

 भाषा के स्तर पर मनोज जैन स्पष्ट एवं सहज संप्रेषणीय भाषा के पक्षधर हैं। संग्रह के गीतों की भाषा पाठक से मानसिक कसरत नहीं कराती अपितु गहन व्यञ्जनात्मक अभिव्यक्ति से संपृक्त नवगीतों की भाषा बेहद सरल और सहज है। बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग कर रचे गये ये गीत पाठक से तत्काल जुड़ते हैं , प्रचलित तत्सम शब्दों का प्रयोग भी संग्रह के गीतों में हुआ किन्तु अर्थबोध में बिना रुकावट पैदा करे ।
    संग्रह के विविधवर्णी गीतों को पढ़कर एक बिन्दु पर ध्यान बार - बार  अटकता है कि मनोज जी का चिंतन सामयिक व तर्कसम्मत है फिर भी वे कौन से कारक रहे जो कुछ गीतों में गीतकार की घनीभूत आस्था , चिंतन एवं तर्क की तरफ पीठ फेर बैठी है । बहुत सँभव है बचपन के संस्कार या ऐसा परिवेश जहाँ एक सजग कवि और आस्था का परस्पर सानिध्य हो। जिसका प्रभाव कुछ गीतों में उभरकर आता है।

                               कवि के चिंतन ने सँग्रह में प्रकृति पर्यावरण और परिवेश को महत्वपूर्ण स्पेस दिया है। इस खुरदुरे समय में जब, बच्चे आक्सीजन की कमी से दम तोड़ देते हैं, शमशान की राख ठण्डी नहीं होती, सत्ता आत्ममुग्धता के सारे पैमाने तोड़ निरंकुश हो लोक हितों के विपरीत नीतियाँ बनाकर अट्टहास कर रही है,तब "धूप भरकर मुट्ठियों" के नवगीत समाज,परिवार में प्रेम एवं समरसता के गुरुतर मूल्यों का प्रसार करते हैं।

             अनामिका सिंह

शनिवार, 2 अप्रैल 2022

मयंक श्रीवास्तव जी का एक गीत प्रस्तुति : वागर्थ



वरेण्य साहित्यकार मयंक श्रीवास्तव जी का एक गीत "ठहरा हुआ समय" से साभार
प्रस्तुति

ब्लॉग वागर्थ
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यहाँ डाकिया भी
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जीवन के कुछ पृष्ठ 
रखो तुम खाली भी
यहाँ हाशिया भी धोखा दे देता है।

कभी कभी तो पाया हमनें ऐसा भी
मुट्ठी में आई तकदीर निकल जाती
कभी टूटकर सामाजिक प्रतिबंधों की
पैरों से पुख्ता जंजीर निकल जाती
किस प्रियवर के
खत की बाट जोहते हो
यहां डाकिया भी धोखा दे देता है।

अपमानित होकर बारात लौट जाती
लड़की के घर आई गाजे बाजे से
कभी पलट कर वार समय ऐसा करता
'यश का ताज लौट जाता दरवाजे से

लिखो गीत तुम लिखो
मगर यह याद रखो
कभी काफिया भी धोखा दे देता है।

अपनी होकर भी तो कभी दृष्टि अपनी
अपनी झोली में धोखे भर देती है
गोदी में लेकर ममता देने वाली
माटी भी पल में माटी कर देती है
हल्दी, चावल
या फिर किसी रंग का हो
कभी सांतिया भी धोखा दे देता है।

मयंक श्रीवास्तव
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