भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कुशल शिल्पी : डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी
प्रसिद्धि, कहें या नाम, हममें से सब अपना नाम कहीं न कहीं और किसी न किसी क्षेत्र में चाहते तो अवश्य हैं पर यह सबके हिस्से में आसानी से आता नहीं है। इस सन्दर्भ में जैन वाङ्गमय की कर्म सिद्धान्त की अनूठी और सटीक दार्शनिक व्याख्याएं मेरी दृष्टि से गुजरी हैं। कर्मों की तिरेसठ प्रकृतियों में एक पूरा चैप्टर यशनाम कर्म के सम्बंध में पढ़ने और समझने का सुअवसर मिला।
अक्सर हमारी ईर्ष्याओं का कारण हमारा अपना अज्ञान है होता है। हम अपनी स्वाभाविक प्रवृर्तियों के चलते, सैद्धांतिक पक्ष को जाने बग़ैर किसी की प्रसिद्धि से स्वयं को दुखी करते रहते हैं। यह बात प्रसंगवश एक "बार जाल फेंक रे मछेरे" जैसी पँक्ति और अमर गीत के कालजयी गीतकार दादा बुद्धिनाथ मिश्र जी के संबन्ध में भी प्रासंगिक है। उनकी उपलब्धियाँ फिर चाहे पर्सनल हो या प्रोफेशनल अथवा साहित्यिक या सामाजिक, मिश्र जी का कद बड़ा है,और उनके समानधर्माओं को स्पर्हणीय भी ! यदि दो एक बातें अपनी तरफ से जोड़कर कहना चाहूँ तो जो तथ्य निर्विवाद निकलकर सामने आता है।
वह यह कि उनकी प्रसिद्धि के पीछे यश नाम कर्म के साथ-साथ बुद्धिनाथ जी के स्वयं के अपने अथक प्रयास भी हैं जो उन्हें बहुश्रुत और बहुपठित बनाने में सहयोगी रहे। मिश्र जी एक ऐसे आदर्श गीतकार हैं जिन्हें पाठ्य और वाचिक दोनों परम्पराओं में व्यापक जनस्वीकृति मिली है।
इसी जन स्वीकृति के चलते वह लोकप्रिय कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं।
बुद्धिनाथ मिश्र जी से मेरा पहला परिचय भोपाल से निकलने वाली तात्कालिक शोध मासिकी "साहित्यसागर" में प्रकाशित किसी एक आलेख से हुआ था,जिसमें बुद्धिनाथ मिश्र जी ने गीत की रचना धर्मिता और रचना प्रक्रिया पर खुल कर प्रकाश डाला था। परिचय के इस प्रस्थान बिंदु से लेकर अब तक मैंने मिश्र जी के अनेक आलेख, भूमिकाएं और संग्रहों को अक्षरशः खँगाल डाला।
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी की रचनाओं में भारतीय सांस्कृतिक चेतना, मूल्यपरकता, वैदिक वांग्मय, दार्शनिक चिंतन के साथ - साथ अपने समय के सामाजिक सरोकारों व युगीन विडंवनाओ का खुलकर वर्णन हुआ है। डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र जी के गीतों नवगीतों में अलग- अलग रंग और ढंग से मानव मन और आज के जटिल जीवन की स्थितियों और परिस्थितियों से साक्षात्कार करने का अवसर मिलता है। उनका पूरा रचनाकर्म अन्तर्मन की प्रतिच्छाया है। कहते हैं कि एक संवेदनशील मन ही अपने बहाने सारे जग की पीड़ा को स्वर देता है।
बुद्धिनाथ मिश्र जी हिन्दी गीत विधा के स्तरीय, स्थापित और लोकप्रिय आइकॉन के रूप में जाने जाते हैं। एक संवेदनशील और मधुर गीतकार होने के साथ ही वे एक जागरूक अध्येता और प्रबुद्ध चिंतक भी हैं। उनकी रचनाओं में, भारतीय संस्कृति की प्रतिबद्धता और संस्कारों की झलक यत्र तत्र सर्वत्र दिखाई देती है।
कथ्य की नवीनता कहन की अभिव्यंजना, समसामयिक सन्दर्भ में मिथकीय प्रयोग युक्ति संगत अनछुये बिम्बों की धूप-छाँव, लोकरंगो की गमक, माटी की महक, प्राकृतिक सौन्दर्य, रूप रस के माधुर्य के कारण उनके गीत भीड़ में भी अलग से पहचान लिए जाते हैं।
गूढ़ विषयों की अभिव्यक्ति में भी उनके नवगीतों में लालित्य और रस विद्यमान रहता है, यही उनकी नैसर्गिक काव्य प्रतिभा का प्रमाण है। हाल ही में हम सभी ने वैश्विक स्तर संकट का घटाटोप या कहें कि कोरोना का क़हर अपनी आँखों से देखा है। इसी दौरान सोशल मीडिया के फेसबुक पर चर्चित गीत नवगीत पर एकाग्र समूह "वागर्थ" ने उनके कुछ नवगीतों को दो भागों में प्रस्तुत किया था। उन प्रस्तुतियों में डॉ बुद्धिनाथ जी ने एक गीत में बहुत कम शब्दों में युगीन त्रासदी को मार्मिक स्वर दिया था। वैश्विक महामारी कोविड पर उनका एक गीत कितना प्रासंगिक बन पड़ा है।
गीत की पंक्तियाँ में कवि ने कोरोना काल की मनः स्थितियों से उपजे तात्कालिक संवेग जैसे ऊब, उदासी, बैचेनी, घुटन ,संत्रास बंधन और मुक्ति जैसे स्वस्फूर्त त्रासद बिम्ब रचती हैं।
द्रष्टव्य है एक गीत का अंश - "क्या शहर/क्या गांव है/सर्वत्र फैलायह करोना /वायरस नारायणी है/ बंद हैं /अपने घरों में /मित्र सारे/आदमी इस दौर का/ कितना ऋणी है/दूरियां नज़दीकियों से /आज बेहतर/"
या फिर ;- "बहुत दिनों के बाद/आज बाहर निकला/जो भी देखा, सब/पाने को जी मचला। बाहर की दुनिया देखी/हलचल देखी/ पटरी पर दौड़ती/ रेल एकल देखी/ पिंजरे वाले हैं चिंतित/ क्या होगा कल/ खेतों से सीमा तक/ लेकिन चहल-पहल/बहुत अकेलापन / झेला घरबंदी में/ दौड़ रहा बादल पर/ अब यह मन पगला।बहुत दिनों के बाद/आज बाहर निकला/ जो भी देखा सब पाने को जी मचला/"
उनके गीत आज के समय की द्वंद्वात्मक स्थितियों,निराशाजनक प्रतिकूल परिस्थितियों की शाब्दिक झाँकी प्रस्तुत कर अपने आप में गुम पाठकों का ध्यान विषय पर केन्द्रित करते हैं। भाषा की मुहावरेदानी और नूतन प्रतीकों का साहचर्य मिश्र जी के नवगीतों को प्रभावी बनाते हैं।
यों तो बुद्धिनाथ मिश्र जी के व्यक्तिव और कृतित्व पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है फिर भी उनके एक गीत चाँद उगे चले आना जिसमें प्रेम अपनी सम्पूर्ण सत्ता के साथ प्रतिष्ठापित हुआ है, को पाठकों के समक्ष अविकल प्रस्तुत करना चाहूँगा।
चाँद उगे चले आना
चाँद उगे चले आना
पिया, कोई जाने ना।
दूँगी तुझे नजराना
पिया, कोई जाने ना।
जाग रही चौखट की साँकल
जाग रही पनघट पर छागल
सो जाएँ जब घाट नदी के
तुम चुपके से आना
पिया, कोई जाने ना।
सोना देंगे, चाँदी देंगे
पल भर में सदियाँ जी लेंगे
छूटेगा कजरा, टूटेगा गजरा
पूछेगा सारा जमाना
पिया,कोई जाने ना।
पँखुरी-पँखुरी ओस नहाए
पोर-पोर बंसी लहराए
तू गोकुल है मेरे मन का
मैं तेरी बरसाना
पिया, कोई जाने ना।
लोकलय में निबद्ध संवाद शैली में कवि अपने प्रेम को सदियों जी लेने का सन्देश बड़ी शिष्टता और शालीनता के साथ देते हैं। देह राग से देहातीत होने तक की पूरी यात्रा का आनन्द मात्र तीन अन्तरों में देने वाले कवि स्वाभिमान के मामले में धनी हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित "ऋतुराज एक पल का" गीत संग्रह में उनके गीतांश में कवि ने एक गीत अपने ही नाम किया
वह कहते हैं कि
"भूसे से जैसे
अनाज हितकारी है
एक गीत
पूरी किताब पर भारी है
लोग कहें
सिरफिरे हो गये मेरे गीत।"
गीत हों या नवगीत सरल तरल शब्दों के रचाव में कविवर बुद्धिनाथ जी का कोई सानी नहीं है। प्रयोगिक दृष्टि से गीतों में मिथकीय निरूपण अर्थ विस्तार की दृष्टि से युगों को अपनी परिधि में समेट लेता है। उनके गीतों में लोकलय मोहती है समग्रतः यदि सार संक्षेप में कहें तो डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी ने नवगीतों को नया स्वरूप और नूतन सौन्दर्य बोध के साथ साथ अर्थ बोध दिया है। सच्चे अर्थों में डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कुशल शिल्पी हैं।
मनोज जैन
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