वरेण्य साहित्यकार मयंक श्रीवास्तव जी का एक गीत "ठहरा हुआ समय" से साभार
प्रस्तुति
ब्लॉग वागर्थ
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यहाँ डाकिया भी
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जीवन के कुछ पृष्ठ
रखो तुम खाली भी
यहाँ हाशिया भी धोखा दे देता है।
कभी कभी तो पाया हमनें ऐसा भी
मुट्ठी में आई तकदीर निकल जाती
कभी टूटकर सामाजिक प्रतिबंधों की
पैरों से पुख्ता जंजीर निकल जाती
किस प्रियवर के
खत की बाट जोहते हो
यहां डाकिया भी धोखा दे देता है।
अपमानित होकर बारात लौट जाती
लड़की के घर आई गाजे बाजे से
कभी पलट कर वार समय ऐसा करता
'यश का ताज लौट जाता दरवाजे से
लिखो गीत तुम लिखो
मगर यह याद रखो
कभी काफिया भी धोखा दे देता है।
अपनी होकर भी तो कभी दृष्टि अपनी
अपनी झोली में धोखे भर देती है
गोदी में लेकर ममता देने वाली
माटी भी पल में माटी कर देती है
हल्दी, चावल
या फिर किसी रंग का हो
कभी सांतिया भी धोखा दे देता है।
मयंक श्रीवास्तव
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