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रविवार, 19 मई 2024

परिवार विशेषांक प्रस्तुति: ब्लॉग वागर्थ

नवगीत पर एकाग्र समूह वागर्थ में लगातार काम करने के दौरान हमनें ब्लॉग वागर्थ के परिवार विशेषांक के लिए आप सभी के सहयोग से गीत नवगीत और कुछ चित्र यहाँ एक साथ संजोने की कोशिश की हैं।
          समूह वागर्थ और ब्लॉग वागर्थ की यह संयुक्त प्रस्तुति आप सभी के हँसते खेलते परिवार को समर्पित हैं। आपको हमारा यह प्रयास कैसा लगा आशा है हमें अपनी टिप्पणियों के माध्यम से अवगत कराएंगे।
सादर
मनोज जैन


    नवगीतकार कवि यश मालवीय जी सपरिवार 
 

कीर्तिशेष कवि दिनेश सिंह जी का पत्नी को केंन्द्र में रखकर रचा गया एक नवगीत 

तुम रोती, मैं गाने लगता
__________________
अक्सर क्या होता मुझको
जो मन ही मन शर्माने लगता
तुम रोती, मैं गाने लगता

तुम घर मैं कितना खटती हो
कितने हिस्सों में बटती हो
कड़ी धूप-सी सबकी बातें
आर्द्र भूमि-सी तुम फटती हो

मेरा मन छल-छल कर
आँखों-आँखों से बतियाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता

चूल्हा-चौका रोटी-पानी
सुबह-शाम की राम-कहानी
दिन भर बच्चों की
चिकचिक से
पोछा करती हो पेशानी

दस्तरखान सजाने वाले हाथों को
सहलाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता

तुम पर सास-ससुर का हक़ है
यह कहने में बड़ी खनक है
चुप हूँ मैं जानते हुए भी
यह रिश्ता कितना बुढ़बक है

तदपि अजब परिवार राग
मैं बारम्बार बजाने लगता
तुम रोती मैं गाने लगता

दिनेश सिंह
________


कविवर माहेश्वर तिवारी जी का एक चर्चित नवगीत

एक तुम्हारा होना क्या से
क्या कर देता है।
बेजुबान छत दीवारों को 
घर कर देता है।

ख़ाली शब्दों में आता है 
ऐसे अर्थ पिरोना।
गीत बन गया-सा लगता है 
घर का कोना-कोना।

एक तुम्हारा होना सपनों 
को स्वर देता है।

आरोहों-अवरोहों से 
समझाने लगती हैं।
तुमसे जुड़ कर चीजें भी 
बतियाने लगती हैं।

एक तुम्हारा होना अपनापन 
भर देता है।


पारिवारिक गीत 

गीतों भरी सुबह लगती है,
रंगों डूबी शाम याद बहुत आते हैं कल के 
रिश्ते और प्रणाम 
भाई प्रात ,बहन  
दोपहरी 

माँ संध्या की गोद 
बतरस भीगीं 
लम्बी रातें 
बजते हुए सरोद 
इतनी यात्राओं में लगता
घर भी एक पड़ाव 
पावों से चिपके कितने 
भटकावों के आयाम .
सागर से आशीष पिता के ,
सन्नाटे के वन 
कहाँ कहाँ से भूला, भटक वहीं लौटता मन
एक बहुत बारीक हँसी बजती है कानों में 
डर है कहीं छीन न ले
यह भीड़ों का कोहराम .
       माहेश्वर  तिवारी , 


        परिवार की एकता का प्रतीक चित्र
        __________________________



परिवार विशेषांक
_____________

संयुक्त परिवार की एक जुटता का प्रतीक चित्र साभार गूगल

कव्हर पेज साभार रमेश गौतम जी की तूलिका से

 परिवार विशेषांक 
_______________

अनूप अशेष जी का एक नवगीत

बहुत गहरे हैं पिता
पेडों से भी बड़े
उँगलियाँ
पकड़े हुए हम
पाँव में उनके खड़े ।

भोर के हैं उगे सूरज
साँझ-सँझवाती,
घर के हर कोने में उनके
गंध की थाती ।

आँखों में मीठी छुअन
प्यास में
गीले घड़े ।

पिता घर हैं बड़ी छत हैं
डूब में है नाव,
नहीं दिखती
ठेस उनकी
नहीं बहते घाव ।

दुख गुमाए पिता
सुखों से
भी लड़े ।

धार हँसिए की रहे
खलिहान में रीते,
ज़िन्दगी के
चार दिन
कुछ इस तरह बीते ।

मोड़ कितने मील आए
पाँव से
अपने अड़े ।
अनूप अशेष
_

चर्चित नवगीतकार रमेश गौतम जी के तीन नवगीत

एक

माँ
तूने ही पंख दिए हैं 
तूने ही आकाश दिया। 

माँ मेरी 
पहली उड़ान पर
तेरे जप-तप साथ उड़े 
मेरी मरुथल यात्राओं में 
अधरों से फिर मेघ जुड़े 

तेरे ही 
आशीषों ने माँ 
मेरा पथ निर्विघ्न किया। 

तेरी ही 
आधार शिला पर 
माँ मेरा अस्तित्व खड़ा 
तुझसे ही माँ शक्ति मिली
तो मैंने अपना युद्ध लड़ा

बूँद-बूँद
तू रिक्त हुई माँ 
मैंने सुख भरपूर जिया।

तू घर के
सतिया अंकन में 
जीवनधारा सी स्पन्दित
माँ तू अभिनन्दन-पत्रों पर 
मैं होता महिमा-मण्डित 

छाँव बनी 
तपती दोपहरी 
जब भी तेरा नाम लिया। 

आँगन के 
तुलसीदल में माँ
जल देती तेरी छवियाँ 
मानस की चौपाई जैसी 
माँ  तेरी ही स्मृतियाँ 

माँ पीयूष
मथा मेरे हित 
पर तूने बिषपान किया। 


डॉ.आशीष गोहिया जी की तूलिका से साभार
एक रेखा चित्र

 दो 

आकाश-कुसुम तोड़े 
लहरों को बाँध लिया 
अंतर में रहे हिमालय सा विश्वास पिता। 

कैसे भूलूँ 
दिन-रात तपे अंगारों सा 
तब गढ़ पाए व्यक्तित्व हमारा ज्योतिर्मय 
हे,पिता सारथी 
बने सदा जीवन पथ के
जब कर्मक्षेत्र में घेरे खड़ा रहा संशय 

मन के संगहालय में 
जिसको सौ बार पढ़ा 
ऐसे प्रेरक पन्नों वाला इतिहास पिता। 

मैं गिरा उठाया 
चलना सिखलाया मुझको 
पंखों पर लिखी उड़ानें नीले अम्बर की 
अंजुरी भर-भर कर 
संकल्प दिए हारे मन को 
जीता निधियाँ न्योछावर कर दीं अन्तर की 

पत्थर बीने पथ के
अवरोध न बन जाए 
मेरे हित-चिन्तन में निर्जल उपवास पिता। 

मेरे पथ का आलोक 
पिता की ही छवियाँ
हर सुबह कुशलता लेने अब भी आती हैं 
गम्भीर सिन्धु की 
अनुकम्पा से भरे कलश 
शीतल लहरें आँगन तक बिखरा जाती हैं 

नयनों में बिम्ब 
उभरता तो सारे तीरथ 
स्मृतियों में मथुरा काशी कैलास पिता। 

मिट्टी से रचे 
खिलौने,चित्रों से खेला 
मेरे शब्दों में प्राण पिता तुमने डाले 
अपने अनुभव के
गुरुकुल से दीक्षा देकर 
जीवन पृष्ठों पर लिखें सुनहरे उजियारे 

हर ओर पड़ा सूखा
लेकिन मैं हरा- भरा 
मेरे मरुथल में रहे सदा चौमास पिता। 

रमेश गौतम, बरेली, ( उ प्र )

सुप्रभात की मंगलबेला का एक चित्र


तीन 

बेटा-बहू 
तुम्हारे घर तक 
कैसे आ पाएँ। 

बेंच-बाँच कर बहुत पुराना 
हम पुरखों का घर 
तुमने लिखा पत्र आ जाओ 
पश्चिम महानगर 

भीतर 
खींच रही 
चौखट को कैसे समझाएँ।


बड़ा कठिन अपनी मिट्टी से 
हम रिश्ता तोड़े 
दादी-परदादी सी छत की 
आँखों को फोड़े 

बूढ़ी 
दीवारों को 
कैसे सूली लटकाएँ। 

द्वार खड़े पीपल की छाया
मत जाओ टोके 
आँगन का धूपिया सवेरा 
पैरो को रोके 

साँझ 
दिया-बाती से 
आँखें कैसे फिर जाएँ। 

सुखी रहो तुम वहाँ जहाँ के 
रंग सुनहरे हैं 
हम मटमैले रंगों वाले 
धब्बे गहरे हैं 

पूरब 
पश्चिम 
के अंतर को कैसे समझाएँ। 

            रमेश गौतम, बरेली,( उ प्र )



    पिता हमारे सम्बल हैं

पिता हमारे
संघर्षों के संबल हैं।
गर्मी में चादर, जाड़े में कम्बल हैं।।

जहां जहां हम टूटे हैं
घबराए हैं।
पिता पकड़ कर हाथ
साथ में आए हैं।

कावेरी गंगा 
यमुना हैं, चंबल हैं।।
पिता हमारे संघर्षों के 
संबल हैं ।।

माँ ने हमको रूप दिया
आकार दिया।
हमें पिता नें यह सारा 
संसार दिया।

वार, सोम या शुक्र रहे
पिता हमारे मंगल हैं।।
पिता हमारे संघर्षों के 
संबल हैं।।

धूप ,दीप, अक्षत रोली 
माँ चंदन है।
पिता नारियल से कठोर
अभिनन्दन है।

माँ ममता है,
पिता हमारे अन्तरबल 
पिता हमारे संघर्षों के 
संबल हैं। ।

शिवचरण चौहान 




 चार नजदीकी रिश्तों के चतुष्कोण के इर्द गिर्द घूमता कविवर दिनेश प्रभात जी का एक मार्मिक गीत 

गीत 

पड़ौसी मार डालेगा
------------------------

छुपा लो गोद में बच्ची
पड़ौसी  मार  डालेगा

रहो तुम व्यस्त चौके में, 
मगर आँगन न ओझल हो
अगर  हैं  बेटियाँ  घर  में,.. 
सुरक्षा भी मुकम्मल हो
               कड़ा ही जब नहीं पहरा
               हिमाकत कौन टालेगा

चमन के मालिकों का आज, 
तितली पर निशाना है 
सुहाने  मौसमों  का  आचरण,  
अब  वहशियाना है 
               पड़ी हैं सोच में कलियाँ 
               उन्हें अब कौन पालेगा 

बुढ़ापे में कहा किसने कि, 
मन चंचल नहीं होता 
पिता का दोस्त भी एकांत में, 
अंकल नहीं होता 
               अगर कुछ हो गया तो 
               दर्द सारी उम्र सालेगा 

हवस के भेड़िये कब तक 
किसी की देह नोंचेंगे 
हमारे "रहनुमा" इस बात को 
किस रोज सोचेंगे 
               अकेला एक कवि
               गीतों में कितने दर्द ढालेगा

दिनेश प्रभात

हरिनारायण सिंह हरि के तीन नवगीत 
 बहुएँ-बेटे आये घर 
 _____________             
                   
बहुएँ-बेटे आये घर गुलजार हो गया!
आँगन खिल-खिल बच्चों से इस बार हो गया! 

अधिक रौशनी दीपों में दिख रहा बंधु है ।
पुलकित होता रह-रह कर हृद-प्यार-सिंधु है ।
घर-दरवाजे भरे-भरे से आज हमारे, 
मन अपना तो हरा -हरा इतबार हो गया ! 

बहुओं की पायल से रुनझुन घर-आँगन है !
बेटे बैठे साथ हृदय का खिला सुमन है !
पोते -पोती खेल रहे किलकारी देकर, 
मित्र!हमारा स्वर्गिक यह संसार हो गया! 

छठ की रौनक और गयी बढ़, पुलकित है मन,
माताएँ आनंदित हो व्रत करतीं पावन।
हम भी संततिवाले हैं अहसास हो रहा ,
बहुत दिनों पर आनंदित परिवार हो गया! 

चित्रकार ऋषि जैन की तूलिका से उभरा एक जीवंत चित्र प्रस्तुति:  वागर्थ

दो
____
यक्षप्रश्न 
_____

जीवन भर तुम हाड़ तोड़कर 
किसके लिए कमाये! 
जब आयी संबल की बारी 
अपने हुए पराये! 

बेटों सब को 
अब अपने बेटों की पड़ी हुई है 
बुड्ढे ने क्या -क्या गलती की 
चर्चा छिड़ी हुई है 
फिर भी तेरे श्रमफल पर
वे रहते आँख गड़ाये! 

भूखा रहकर स्वयं 
संतति के हित पैसे जोड़ा 
उस संतति ने हाय पिता! 
तुमको क्या करके छोड़ा 
महल बनाये तुम 
ओसारे पर अब खुद को पाये! 

मौन युधिष्ठिर 
यक्ष प्रश्न है अब भी बिन उत्तर के 
भौतिकता का तानाबाना 
हुए लोग पत्थर के 
संवेदनयुत् प्राणी 
ऐसे में कैसे टिक पाये!
           
तीन

वन्य प्राणी का एक चित्र ऋषि की तूलिका से साभार

पिता
___

पिता तुम्हारे हित कब क्या हैं
उनकी कब तुम डगर धरोगे
कब समझोगे उनको बेटे 
अथवा केवल मगर कहोगे

ऊपर से तो बहुत कठिन हैं
पल तोला पल मासा छिन हैं 
चाँटें उनके कान गरम हैं,
याद अभी तक वे सब दिन हैं
पर, अंतर उनका है कैसा
उस अंतर में उतर सकोगे 
 
नालायक तेरा बेटा है 
सूरज सिर पर, यह लेटा है
आ-आकर मम्मी से कहते 
सारा अवगुण यह सेता है
इस गुस्से में नेह अधिक है 
क्या इससे तुम मुकर सकोगे

नारिकेल-सा बाह्य कड़ा है
अंदर कोमल हृदय पड़ा है
व्याखाएं इसकी हो कैसे 
सुत के सन्मुख प्रश्न बड़ा है 
पिता तुम्हारा इस गुस्से में 
बेटा कब तक सुधर सकोगे 
                ●
 हरिनारायण सिंह 'हरि' 

गूगल से साभार एक चित्र नायक की प्रतीक्षा में नायिका

वसंत की आहट का एक चित्र 

लोक सँस्कृति को अपने आप में समेटे अनामिका सिंह का अम्मा के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर केंद्रित एक बेहद खूबसूरत नवगीत


अम्मा की सुधि आई 
_______________

शाम सबेरे शगुन मनाती 
खुशियों की परछाई 
अम्मा की सुधि आई ।

बड़े सिदौसे उठी बुहारे 
कचरा कोने - कोने 
पलक झपकते भर देती 
थी  नित्य भूख के दोने 

जिसने बचे खुचे से अक्सर 
अपनी भूख मिटाई 
अम्मा की सुधि आई ।

तुलसी चौरे पर मंगल के 
रोज चढ़ाए लोटे
चढ़ बैठीं जा उसकी खुशियाँ
जाने किस परकोटे 

किया गौर कब आँखों में थी 
जमी पीर की काई 
अम्मा की सुधि आई ।

पूस कटा जो बुने रात-दिन
दो हाथों ने फंदे
आठ पहर हर बोझ उठाया 
थके नहीं वो कंधे

एक इकाई ने कुनबे की 
जोड़े रखी दहाई 
अम्मा की सुधि आई ।

बाँधे रखती थी कोंछे हर
समाधान की चाबी 
बनी रही उसके होने से 
बाखर द्वार नवाबी 

अपढ़ बाँचती मौन पढ़ी थी
जाने कौन पढ़ाई 
अम्मा की सुधि आई

अनामिका सिंह



        मधुर और मोहक मुस्कान 


डॉ.मक्खन मुरादाबादी जी का एक गीत जो हमें अतीत के सांस्कृतिक वैभव की याद दिलाता है।

खेत जोत कर जब आते थे
____________________

खेत जोत कर जब आते थे
थककर पिता हमारे।

कहते! बैलों को लेजाकर
पानी ज़रा दिखाना।
हरा मिलाकर न्यार डालना
रातब खूब मिलाना।।
बलिहारी थे उस जोड़ी पर
हलधर पिता हमारे।

स्वर से लेकर वर्णों तक के
जो भी पाठ पढ़ाए।
इस जीवन में उत्कर्षों तक
ले, जो हमको आए।।
परम शास्त्र के मन्दिर जैसे
गुरुवर पिता हमारे।

इसी लोक से अपर लोक को
जाने वाला रस्ता।
इस पर पड़कर चलने वाला
बाँधे बैठा बस्ता।।
इसी मार्ग से मिल जाते हैं
ईश्वर पिता हमारे।

© डॉ.मक्खन मुरादाबादी

सरोज दुबे 'विधा का एक आह्वान गीत धार दुर्गा रूप बेटी

घूमती बेटी यहाँ पर,  
लाज की चुनरी लपेटी।

हौसला से चाँद को भी, 
खींच धरती पर बुलाती।
प्रेम के फिर गीत गाकर,
कष्ट में भी मुस्कुराती।

जल रहीं हैं मान खातिर, 
आग में वो मौन लेटी।

नोंच कर उनको जड़ो से,
रोप देते दूर जाकर ।
वेदना को कौन समझें, 
भूल जाती प्यार पाकर।

हर दुखो को बाँध कर वह,
स्वप्न सारे फिर समेटी।

भेड़िया का खाल पहने, 
लूट लेते लाज जिसकी।
पूजते देवी बनाकर 
माँगते आशीष उसकी।

कल्पना ही नाचती है 
धार दुर्गा रूप बेटी।

सरोज दुबे 'विधा



लगे प्रेम का गाँव

पिता हमारे जीवन में है
वट तरुवर की छाँव।
माँ की ममता का ऑंचल भी
लगे प्रेम का गाँव ।। 
1
संघर्षों के भोजपत्र पर
अपराजित उल्लास लिखें। 
मन के कोरे कागज पर हम
प्रेम भक्ति विश्वास लिखें । 

मझधारों में पतवारें बन
पार लगाते नाव। 
माँ की ममता का आँचल भी
लगे प्रेम का गाँव। 

2
तुम ही सत्यम शिवम सुंदरम
मेरा सुख संसार तुम्हीं। 
ओंकार का नाद तुम्हीं हो
डमरू की झंकार तुम्हीं

चरण शरण में रहूँ हमेशा
नहीं दूसरा ठाँव।
माँ की ममता का आँचल भी
लगे प्रेम का गाँव।

3
तुमको पाकर इस जीवन को
चंदन- सा महकाया है । 
रामचरित मानस, गीता के
चिन्तन को अपनाया है। 

हुए पराजित हमसे हर दिन
छलनाओं के दाँव
माँ की ममता का आँचल भी
लगे प्रेम का गाँव। 

विजया ठाकुर"
रायपुर छत्तीसगढ़


घर में कितना खटती हो माँ!

घर में कितना खटती हो माँ! 

उठते ही जब झाड़ू थामों
कचरा भागे आगे। 
हँसते मिलता है घर-आँगन, 
सोया घर जब जागे। 
घर में पौ-सी फटती हो माँ। 

फटे वस्त्र की सुइया बनकर, 
करती कभी सिलाई। 
उधड़ी दिखती रिश्ता-सीवन 
करती हो  सुधराई।
रस्सी जैसी बटती हो  माँ! 

चूल्हा-चौका बरतन-भाँडे, 
कपड़े-लत्ते पूजा। 
काम पूर्ण हों सभी तुम्हीं से, 
करे न  कोई दूजा। 
सैनिक जैसी डटती हो  माँ! 

मन्नत-मँगनी औना-गौना, 
जच्चा-बच्चा सेवा। 
रिश्तों में तुम ऐसे बहती, 
जैसे गंगा-रेवा। 
कभी न पीछे हटती हो माँ! 
           
कुँअर उदयसिंह अनुज


पिता दिवस पर

सोच रहे हैं पिता,
अरे ये 
कैसे नाते हैं।

अंतर्मन में बाह्य जगत की 
पीड़ा सघन समेटे।
डीपी मेरी हँसने वाली 
लगा रहे हैं बेटे।

रोते रहते भीतर
हम, बाहर 
मुस्काते हैं।

तकती रहती आसमान में
जाने क्या दो आँखें।
मन का पाखी उड़ना चाहे 
किंतु कटी हैं पाँखें।

जीवन के पल जाने
क्या-क्या हमें
दिखाते हैं।

दिन पहाड़-सा रात क़त्ल की
कटना है मजबूरी।
चुप्पी के इस बियाबान की
कौन नापता दूरी।

नकली मुस्कानें 
होठों पर
हम चिपकाते हैं।

सन्नाटों की खुली जेल-सा
जीवन अपना कैदी।
साँसों की आवाजाही पर 
साँसों की मुस्तैदी।

पिता दिवस 
पर बकरे जैसा 
हमें सजाते हैं।

मनोज जैन 

     राजा अवस्थी 


झरते रहे पिता

अपने ही खेतों के सौदे
करते रहे पिता
बच्चों की खुशियाँ बन अक्सर
झरते रहे पिता।

गली गुजरते, गाँव भर की
पालागी पर जय हो कहना;
सबकी विजय मनाते हरदम
अपनी हार छुपाये रहना;
सबके गाढ़े दिन के सब दुख
हरते रहे पिता।

शान बचाने की अन्तर्जिद
ऐंठ अकड़ आजाद-सलामत;
बब्बा के उन्नत ललाट को
ऊँचा रखने झेली आफत;
तने रहे संकट में भीतर
मरते रहे पिता।

अक्सर माँ से गुपचुप-गुपचुप
जाने क्या बतियाते;
गाँव गिरानी के दिन भोगे
पिता चिलम चटकाते;
पुरखों का सम्मान बचाने
डरते रहे पिता।

बस्ता कापी पेन किताबें
झक्क-साफ स्कूली कपड़े;
टीनोपाल चमक के ऊपर
सेलो पानी बाॅटल पकड़े;
बिना खाद-पानी मरुथल में
फरते रहे पिता।
2.
बैठे रहे पिता
———-
परदनिया पहने
बैठक में
बैठे रहे पिता।

ऊँची काया चौड़ा माथा
लम्बी दाढ़ी वाले;
सारा गाँव पुकारे बाबा
जय हो जय हो वाले;
खेती-बाड़ी सब ठेंगे से
जो करले हलवाह;
आफत पर आफत आये पर
कभी न निकले आह;
बैठक में
दरबार सजे
या लेटे रहे पिता।

रिश्तेदारों का रुपया भी
अक्सर रौब दिखाये;
कभी न दी तरजीह मस्तमन
साधूभोज कराये;
झक्क सफेदी वाले कपड़े
रामानंदी डाँटी;
जीवन भर ज़मीन जर बेची
कुछ खर्ची कुछ बाँटी;
बात-बात में
अम्मा जी से
रूठे रहे पिता।

राजा अवस्थी, कटनी 
मध्यप्रदेश
 जय कृष्ण तुषार 


: मेरी ही यादों में खोई

अक्सर तुम पागल होती हो
माँ तुम गंगा-जल होती हो!
माँ तुम गंगा-जल होती हो!

जीवन भर दुःख के पहाड़ पर
तुम पीती आँसू के सागर
फिर भी महकाती फूलों-सा
मन का सूना संवत्सर
जब-जब हम लय गति से भटकें
तब-तब तुम मादल होती हो।

व्रत, उत्सव, मेले की गणना
कभी न तुम भूला करती हो
सम्बन्धों की डोर पकड कर
आजीवन झूला करती हो
तुम कार्तिक की धुली चाँदनी से
ज्यादा निर्मल होती हो।

पल-पल जगती-सी आँखों में
मेरी ख़ातिर स्वप्न सजाती
अपनी उमर हमें देने को
मंदिर में घंटियाँ बजाती
जब-जब ये आँखें धुंधलाती
तब-तब तुम काजल होती हो।

हम तो नहीं भगीरथ जैसे
कैसे सिर से कर्ज उतारें
तुम तो ख़ुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें।
तुझ पर फूल चढ़ाएँ कैसे
तुम तो स्वयं कमल होती हो।

जय कृष्णराय तुषार




एक गीत

सोच रहा परदेसी....

सोच रहा परदेसी
कैसे होंगे घर के दिन

आँगन में तुलसी का बिरवा
झूम रहा होगा
घुटनों पर घर भर में बेटा
घूम रहा होगा

लेकिन नींद न आयी होगी
उसको मेरे बिन

कंघे में सिन्दूर लगाकर
माँग भरी होगी
दरपन के आगे जाते ही
आँख भरी होगी

पोंछ लिये होंगे पल्लू से
आँसू के पल-छिन

घर आई बहना भी
बिटिया सुला रही होगी
 'आ मामा आ मामा',कहकर
बुला रही होगी

सरक रही हैं बोझिल घड़ियाँ
छवियों को गिन-गिन

भाभी ने दुलार के मेरे
कितने नाम धरे
उसकी मीठी छेड़छाड़
अब यादों में अखरे

अब भी भइया से सौ नखरे
जैसे हो कमसिन

भूल-भूलकर माँ हमको ही
टेर रही होगी
अनमन सी बैठी बस माला
फेर रही होगी

भूखी रही स्वयं औ' हमको
दिया दूध का ऋण

बाबू ने मुश्किल से मुँह में
कौर धरा होगा
भरा-भरा घर होगा,मन भी
भरा-भरा होगा

कई घरेलू बातें मन में
चुभो रही हैं पिन।

यश मालवीय




 


माँ
 
माँ कबीर की साखी जैसी
तुलसी की चौपाई-सी
माँ मीरा की पदावली-सी
माँ है ललित रुबाई-सी

माँ वेदों की मूल चेतना
माँ गीता की वाणी-सी
माँ त्रिपिटिक के सिद्ध सुत्त-सी
लोकोक्तर कल्याणी-सी

माँ द्वारे की तुलसी जैसी
माँ बरगद की छाया-सी
माँ कविता की सहज वेदना
महाकाव्य की काया-सी

माँ अषाढ़ की पहली वर्षा
सावन की पुरवाई-सी
माँ बसन्त की सुरभि सरीखी
बगिया की अमराई-सी

माँ यमुना की स्याम लहर-सी
रेवा की गहराई-सी
माँ गंगा की निर्मल धारा
गोमुख की ऊँचाई-सी

माँ ममता का मानसरोवर
हिमगिरि-सा विश्वास है
माँ श्रृद्धा की आदि शक्ति-सी
कावा है कैलाश है

माँ धरती की हरी दूब-सी
माँ केशर की क्यारी है
पूरी सृष्टि निछावर जिस पर
माँ की छवि ही न्यारी है

माँ धरती के धैर्य सरीखी
माँ ममता की खान है
माँ की उपमा केवल है
माँ सचमुच भगवान है

डॉ. जगदीश व्योम


शशिकान्त गीते का एक नवगीत

माँ के सपने 
माँ के सपने, केवल अपने
सुख-दुख भी तो
होते होंगे ।

सूख गई
हैं फ़सलें सारी
खरपतवारों के आने से।
जुगनू निकल न पाए बाहर
अन्धकार के
तहख़ाने से।
कोई सिसकी नहीं सुनी पर
क़ैदी चुप-चुप
रोते होंगे ।

अमरित
चाहें देव भयाकुल
विष चाहें, विश्वासी योगी
नीलकण्ठ-सी
सिद्ध-साधना
केवल साधक माँ की होगी
सारे बोझे ढोती जैसे
शेष धरा को
ढोते होंगे ।

शशिकांत गीते


माँ!  मैं तुझे बुलाऊँ
  

माँ रह-रह मैं, तुझे बुलाऊँ
यहीं कहीं तू है फिर भी क्यों 
देख न पाऊँ

खोज-खोज कर हार गया मैं
इस माया में।
बहुत थक गया, प्राण न जैसे
इस काया में।

नींद लगे जो चौंक पड़ूँ मैं
उठ-उठ जाऊँ।

बढ़ता जाता भार बहुत
मन में चिंतन का।
व्यर्थ लगे सब भाव न उसमें
तेरे मन का ।

फेंक सभी, बस तेरी छवि में
ध्यान लगाऊँ।

सकल सृष्टि में ब्रह्म सरीखी
तेरी गोदी
मधुर-मधुर वह मन्द पवन-सी
तेरी लोरी

शब्द-नि:शब्द सभी
सुन-सुन शिशुवत
सो जाऊँ ।                                     

    -वीरेन्द्र आस्तिक


नहीं  पिता के हिस्से आया

नहीं पिता के हिस्से आया
कभी कोई इतवार।

राशन के थैले में लाता,
हर संभव मुस्कानें।
उसके अनुभव के साँचे में,
ढलती हैं संतानें,।
उसके दम से माँ की बिंदी,
बिछिया, कंगना,हार।
नहीं पिता के हिस्से आया
कभी कोई इतवार।

घर के खर्चे हुए सयाने,
बिगड़ गयें हैं थोड़ा।
हारी-बीमारी ने अबकी
दामन कब है छोड़ा? 
रही जूझती स्वेद ग्रंथियाँ,
मेहनत से हर बार।
नहीं पिता के हिस्से आया,
कभी कोई इतवार।

झुकी पीठ पर लदे हुए हैं,
कर्ज़ औ' फर्ज़ तमाम।
इच्छाओं की सूची लंबी
पैंडिंग है आराम। 
चिंताओं की वर्ग पहेली,
फिर सुलझी न इस बार।
नहीं पिता के हिस्से आया,
कभी कोई इतवार।

मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार,मुरादाबाद

कल सपने में आई अम्मा
--------------------------------
कल सपने में आई अम्मा,
पूछ रही थी हाल।

जबसे  दुनिया गई छोड़कर,
बदले घर के ढंग।
दीवारों को भी भाया अब,
बँटवारे का रंग।
सांझी छत की धूप बँट गयी,
बैठक पड़ी निढाल।

आँगन की तुलसी भी सूखी,
गेंदा हुआ उदास।
रिश्तों को मधुमेह हो गयी,
फीका हर उल्लास।
बाबू जी का टूटा चश्मा,
करता रहा मलाल।

घुटनों की पीड़ा से ज़्यादा,
दिल की गहरी चोट।
बीमारी का खर्च कह रहा,
 बूढ़े में  ही खोट।
बासी रोटी से बतियाती,
बची खुची सी दाल।
 
कल सपने में आई अम्मा,
पूछ रही थी हाल।

मीनाक्षी ठाकुर,मिलन विहार
मुरादाबाद।


 मोबाइल और मैडम 

मोबाइल के साथ 
रात दिन काट रही मेडम ।।

मोबाइल ले हाथ ,
बैठ जाती भिनसारे से ।
प्यार दिखाकर चाय मांगती
सिर्फ़ इशारे से ।

व्हाट्स एप की मीठी चटनी 
चाट रही मैडम ।।
मोबाइल के साथ
रात दिन काट रही मैडम ।।

बच्चों का गुट एक बनाकर 
गेम सिखाती है ।
हमको टीम विरोधी का कह 
फूट बढ़ाती है ।
अपने घर को दो खेमों में
बांट रही मैडम ।।

मोबाइल के साथ 
रात दिन काट रही मैडम ।।

दूध जला सब और गंध से 
सब की  सांस घुटी  ।।
मोबाइल को छोड़
बुझाने चूल्हा नहीं उठी !!!!!!

अपनी मां से
घंटों करती बात रही मैडम ।।

मोबाइल के साथ 
रात दिन काट रही मैडम।।

घर के अन्दर जब से आई
यह रंगीन बला ।
कसम आपकी तब से घर में
चूल्हा नहीं जला।।
कुछ बोलो तो उल्टे हमको
डांट रही मेडम ।

मोबाइल के साथ रात दिन
काट रही मेडम ।।



रामकिशोर दाहिया के तीन नवगीत
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 अम्मा 
----------

मुर्गा बाँग न देने पाता
उठ जाती
अँधियारे अम्मा
छेड़ रही
चकिया पर भैरव
राग बड़े भिनसारे अम्मा ।

सानी-चाट
चरोहन चटकर
गइया भरे दूध से दोहनी
लिये गिलसिया
खड़ी द्वार पर
टिकी भीत से हँसी मोहनी

शील, दया,
ममता, सनेह के
बाँट रही उजियारे अम्मा ।

चौका बर्तन
करके रीती
परछी पर आ धूप खड़ी है
घर से नदिया
चली नहाने
चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है

आँगन के
तुलसी चौरे पर
आँचल रोज पसारे अम्मा ।

पानी सिर पर
हाथ कलेबा
लिये पहुँचती खेत हरौरे
उचके हल को
लत्ती देने
ढेले आँख देखते दौरे

जमुला-कजरा
धौरा-लखिया
बैलों को पुचकारे अम्मा ।

घिरने पाता
नहीं अंधेरा बत्ती-
दिया जलाकर धरती
भूसा-चारा
पानी-रोटी देर-
अबेर रात तक करती

मावस-पूनों
ढिंगियाने को
द्वार-भीत-घर झारे अम्मा ।
             •••
      
मेरे पदचिह्नों पर 
--------------------

मेरी पीर लकीरें उसकी
उभरी हुई पड़ीं
मेरे पदचिह्नों पर बिटिया
होने लगी बड़ी ।

देख डाकिए को उत्कंठा
पथ के रोध चलांँगे
खींच रहे थे मन के घोड़े
बिन पहियों के तांँगे

वेग समय के माप रही थी
चलती नहीं घड़ी ।

पेपर, कॉपी, कलम, डायरी
औ' फाइल के पन्ने
छीन रही माँ उसकी उससे
रहती है चौकन्ने

चीर-फाड़, जिद में डरवाती
लेकर हाथ छड़ी ।

वेशकीमती खेल-खिलौने
उनसे मुंँह मोड़े
आंँगन से देहरी तक फैले
हाथी, भालू, घोड़े

रोती, पत्र-लिफाफे को फिर
आकर पास अड़ी
             •••

 मरथल माँ 
------------
महरी छोड़े पोंछा - बर्तन
मरथल माँ लकवे से जूझे
मारे  घर  बातों  के  कोड़े
हाथ-पांँव नौकर के जोड़े।

कपें उँगलियांँ औंजें पानी
घड़े - घिनौची  को  हैरानी
ढँनगा लोटा गिरा अधर से
मैं  भी  लौटा  हूंँ दफ्तर से
बहू डॉक्टर अपनी  ड्यूटी
देख - भाल में  कैसे छोड़े!
हाथ-पाँव नौकर के  जोड़े।

फूल   सरीखे   बेटे  झरते
मोबाइल   से  बातें  करते
चादर मांँ के माछी भिनकें
बात-बात पर बहुएँ तिनकें
जूठी थाली  संँझली  धोती
महिनों से मँझली मुंँह मोड़े
हाथ-पांँव नौकर के  जोड़े।

बेटे  चार -  चार   हैं  मांँ के
एक  दूसरे  का   मुंँह  ताके
जिनके बल पर खड़े किए हैं
फुर्सत के क्षण  नहीं मिले हैं
मांँ  तो  मांँ   है  माफ  करेगी
समय   माफ   करेगा  थोड़े
हाथ - पाँव नौकर  के जोड़े।
             •••

रामकिशोर दाहिया
        
 कीर्तिशेष कवि डॉ.कुँवर बेचैन जी की बहुचर्चित रचना

बेटियाँ
शीतल हवाएँ हैं
जो पिता के घर बहुत दिन तक नहीं रहतीं।

ये तरल जल की परातें हैं।
लाज़ की उज़ली कनातें हैं।
है पिता का घर हृदय-जैसा,
ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं।

बेटियाँ
पवन-ऋचाएँ हैं
बात जो दिल की,कभी खुलकर नहीं कहतीं।

हैं चपलता तरल पारे की।
और दृढता ध्रुव-सितारे की।
कुछ दिनों इस पार हैं लेकिन,
नाव हैं ये उस किनारे की।


बेटियाँ
ऐसी घटाएँ हैं
जो छलकती हैं, नदी बनकर नहीं बहतीं।

कुँवर बेचैन



तुम छत से छाये
जमीन से बिछे
खड़े दीवारों से
तुम घर के आंगन
बादल से घिरे
रहे बौछारों से

तुम 'अलबम 'से दबे पांव
जब बाहर आते हो
कमरे -कमरे अब भी अपने
गीत गुंजाते हो
तुम बसंत होकर
प्राणों में बसे
लड़े पतझारों से
तुम ही चित्रों से
फ्रेमों में जड़े
लदे हो हारों से

तुम किताब से धरे मेज़ पर
पिछले सालों से
आँसू बनकर तुम्हीं ढुलकते
दोनों गालों से
तुम ही नयनों में
सपनों से तिरे
लिखे त्योहारों से
तुम ही उड़ते हो
बच्चों के हाथ
बंधे गुब्बारों से

यदा -कदा वह डॉट तुम्हारी
मीठी -मीठी सी
घोर शीत में जग जाती है
याद अँगीठी सी
तुम्ही हवाओं में
खिड़की से हिले
बहे रस धारों से
तुम ही फूले हो
होंठों पर सजे
खिले कचनारों से

माँ !!!

जाती हुई धूप संध्या की
सेंक रही है माँ
अपना अप्रासंगिक होना
देख रही है माँ

भरा हुआ घर है
नाती पोतों से, बच्चों से
अन बोला बहुओं के बोले
बंद खिड़कियों से
दिन भर पकी उम्र के घुटने
टेक रही है माँ

फूली सरसों नही रही
अब खेतों में मन के
पिता नहीं हैं अब नस नस
क्या कंगन सी खनके
रस्ता थकी हुई यादों का
छेक रही है माँ

बुझी बुझी आँखों ने
पर्वत से दिन काटे हैं
कपड़े नहीं, अलगनी पर
फैले सन्नाटे हैं
इधर उधर उड़ती सी नजरें
फेक रही है माँ

यश मालवीय

मत हमसे पूछिए कि कैसे जिए पिता?

बूँद-बूँद से भरा किए घट खुद खाली होकर
कांटे-कांटे जिए स्वयं हमको गुलाब बोकर,
हमें भगीरथ बन गंगा की लहरें सौंप गए,
खुद अगस्त्य बन सागर भर-भर आँसू पिए पिता।

झुकी देह जैसे झुक जाती फल वाली डाली,
झुक-झुक अपने बच्चों की ढूँढ़े हरियाली,
लथपथ हुए पसीने से लो, कहाँ खो गए आज
थके हुए हमको मेले में कांधे लिए पिता।

बली बने तो विहंस दर्द के वामन न्यौत दिए,
कर्ण बने तो नौंच कवच कुंडल तक दान किए,
नीलकंठ विषपायी शिव को हमने देखा है
कालकूट हो या कि हलाहल हँस-हँस पिए पिता

तुम क्या जानो पिता-शब्द के अंतर की ज्वाला,
कितना पानी बरसाता बादल बिजली वाला,
अंधकार में दीपावलि के पर्व तुम्हीं तो थे
घर आँगन देहर पर तुम ही जलते दिए पिता।

मंदिर मस्जिद गिरजा, गुरुद्वारों में क्या जाना,
क्या काबा, क्या काशी - मथुरा बस मन बहलावा
जप तप जंत्र मंत्र तीरथ सब झूठे लगते हैं
ईश्वर स्वयं सामने अपने आराधिए पिता।

कुशल-क्षेम पूछने स्वप्न में अब भी आते हैं,
देकर शुभ आशीष पीठ अब भी सहलाते हैं,
हम भी तुम से लिपट-लिपट कर बहुत-बहुत रोए
देखो अंजुलि भर-भर आँसू अर्पण किए पिता।

मौन हुए तो लगा कि मीलों-मीलों रोए हैं,
शरशैया पर जैसे भीष्म पितामह सोए हैं,
राजा शिवि की देह हडि्डयों में दधीचि बैठा
दिए-दिए ही किए अंत तक कुछ ना लिए पिता।

हमसे मत पूछिए, चिता आँखों में जलती है
हमसे मत पूछिए हमारी जान निकलती है
हमसे मत पूछिए कलेजा कैसे फटता है
बिना तुम्हारे फटे कलेजे किसने सिए पिता।

विष्णु विराट


डॉ. इंदीवर पांडेय जी 

पुण्य दिवस पर पिता हमारी 
तुमको जै जै राम 
दूर क्षितिज के पार पिघलती
राँगे जैसी शाम 

बीत गए फिर पांच बरस के
कड़वे तीखे दिन
शेष रह गए स्वादों के ये
नन्हें से पल छिन 
यादों की उँगली सहलाती
दुखता सिर अनगिन 
लम्हा लम्हा संशय गहरा 
चुभता कोई पिन

भूखा प्यासा मानस टेरे 
कातर कातर नाम
पुण्य दिवस पर पिता हमारी 
तुमको जै जै राम 

दफ्तर से घर, घर से दफ्तर
बँधे बँधे से पाँव 
पीता रोज दर्द होठों पर 
कसकर नया दबाव 
धनुहीं की डोरी सा खिंचता
नस नस भरा तनाव 
राह जंगली और सुरंगें 
दिखती कहीं न ठाव

घर बाहर फुफकार रहे हैं
नागी फन अविराम 
पुण्य दिवस पर पिता हमारी 
तुमको जै जै राम

हर छाया है गुत्थमगुत्था 
घर में चारो ओर 
घर तो अपना शीशे का है
गूँज रहा बस शोर
पत्थर का अंबार लगा है  
ध्वनियाँ  तोर या मोर
ऐंठा जीवन ऐसा लगता 
राख हुई ज्यों डोर

अंधकार का गुच्छा उगता 
आँखों में गुमनाम 
पुण्य दिवस पर पिता हमारी
तुमको जै जै राम

खेत बगीचा काला जादू 
काले वन में यान 
चक्कों में उलझा हो जैसे 
गोमत तट मैदान 
फिसल गई है नीचे धरती
ऊपर से आसमान
बालू में हैं आँख गड़ाए
हम कितने नादान 

टुकड़ा टुकड़ा रिश्ता नाता 
विखर गया भर गाम 
पुण्य दिवस पर पिता हमारी
तुमको जै जै राम
      - इंदीवर -

 ■


             रिश्तों की बाज़ारें

 बाज़ारें हैं रिश्तों की
 खुशियाँ हैं मृगजल

 भेज रही कम्पनी
 सोनिया को अमरीका
 खुश पापा हैं
 धड़क रहा है
 दिल मम्मी का

 हो पाएँगे कैसे
 पीले उसके करतल
 खुशियाँ हैं मृगजल

बिटिया बता रही है
टूट गई है चैटिंग
संस्कारों की टकराहट में
कैसी मैचिंग

पापा के कम्प्यूटर पर
भीगा है काजल
खुशियाँ हैं मृगजल

नये अर्थ के युग में हैं
नव निर्मित रस्ते
सोच एक से
कर्म एक-से
बनते रिश्ते

पापा ने ई-मेल किया
मम्मी का आँचल
खुशियाँ हैं मृगजल  ।


             एक पढ़ाकू


   एक पढ़ाकू
   और गया अमरीका
   बस्ती है सन्नाटे में

   इस धरती से होनहार का
   दाना-पानी छूट गया
   परिवर्तन का स्वप्न एक था
   ताकतवर ने छीन लिया

  हीरा तो जड़ गया मुकुट में
  और खदानों का श्रम
  घाटे में

  कल तक कहता था
  जन्मों की मैं
  अंधेर  मिटाऊँ गा
  कोई कहीं न भागे
  इस बस्ती को स्वर्ग बनाऊँ गा

 आज विदेशी हुआ भगीरथ
 पानी ही पानी है आटे में

 बापू ख़त में लिखा रहे हैं
 धूल बुलाती गलियों की
 माथे के टीके पर कैसी
 नज़र लगी है परियों की

 आँख फँसी अलका नगरी में
 जैसे मछली फँसती
 काँटे में
              -आस्तिक

  गीत
____

धरम, करम, व्रत, पूजा,
ये सब अम्मा के हिस्से। 
बड़ी बहू का चूल्हा चौका,
छोटी के सिंगार। 
नंद अटा पर चढ़ी,
किसी से करती आँखे चार। 
सबके अपने अपने दुख सुख,
कौन कहे किस से। 
कक्का पीपल तले,
लगाये रहते हैं मजमा।
पानी और गुड़ भेज भेज कर,
खीज रहीं अम्मा। 
कक्का अपनी ज्वानी वाले,
फेंक रहे किस्से। 
राय, मशविरा,पंचायत,
सब कक्का सुलटायें। 
ज्यादा फ़ैशन वाली उनको,
लगती कुल्टायें।
घर की बहुएँ रील बनाती,
कहें मगर किस से?

हरगोविन्द ठाकुर
ग्वालियर


एक नवगीत

कुछ रस्मों में 
कुछ बंधन में 
बंध कर खड़ी हुई 
लड़की बड़ी हुई ।

बिटिया क्या है
बापू की इज्ज़त का झंडा है
ऐसी पगड़ी है
जिसके होते सर नंगा है ।

आधी ससुरे में 
आधी पीहर में जड़ी हुई।

बिन मांगे ही घर बदला
आंगन भी बदल गया
उसकी चाहत वाला
भीगा सावन बदल गया ।

भूल गई हंसना
केवल आंसू की लड़ी हुई ।

सोनचिरैया जाने कितने 
घाव छिपाती है 
अम्मा से जब भी मिलती है
गाना गाती है ।

हर रिश्ते को जोड़े रक्खे 
ऐसी कड़ी हुई ।।

राम बाबू रस्तोगी


 गीत
(१)
-----
परंपरागत सास 
बहू की बातें समकालीन 
एक जलाती दिया 
दूसरी फूँक मारती है 

घर में दाने नहीं मगर धुन 
चना भुनाने की 
तन पर चिथड़े लेकिन 
आदत पान चबाने की 
खोटी किस्मत शाही सपने 
क्या होगा अंजाम 
एक पूजती प्रेत
दूसरी भूत झारती है 

पानी सुबह शाम की सब्जी 
तू तू मैं मैं रोज 
घर का बूढ़ा गंगू तेली 
बाकी राजा भोज 
हल्दीघाटी कुरुक्षेत्र में 
ठन जाता संग्राम 
एक चलाती तीर 
दूसरी खड़ग धारती है 

जी में जैसलमेर बसा है 
अधरों पर जलगांव 
घर में चलती चामुंडा के 
देख रहा हूं पांव 

ममता माया व्यंग दनादन 
घोड़ी बिना लगाम 
एक डुबाती नाम
दूसरी वंश तारती है

निर्णय करना बहुत कठिन है 
किसमें कितनी आग 
मिल्टन से टकराता रहता 
रोज ईशुरी फाग 
किसको कहूं अशर्फी गिन्नी
किसको कहूं छदाम
एक सुष्मिता सेन 
दूसरी उमा भारती है 
एक जला दिया दूसरी
फूँक मारती है।

जंगबहादुर बन्धु


खुद से हारे मगर पिता
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दुनिया भर से जीते 
खुद से -
हारे मगर पिता .

सफर  पाँव मे और 
आँख मे 
सपनों   की   नगरी 
छाती पर संसार 
शीश पर 
रिश्तों की गठरी 

घर की खातिर 
बेघर भटके 
सारी उमर पिता.

जिनको रचने मे 
जीवन का 
सब कुछ होम दिया 
कदम-कदम 
उन निर्मितियों ने 
छलनी हृदय किया 

किसे दिखाते 
टुकड़े-टुकड़े 
अपना जिगर पिता !

बोये थे जो 
उम्मीदों के बीज 
नहीं जन्में 
क्या जाने , क्या था -
बेटा -बेटी 
सबके मन मे 

कहाँ-कहाँ , किस-किस पर 
आखिर 
रखते नज़र पिता !


माँ जैसा होना...
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माँ होना ही 
हो सकता है -
माँ जैसा  होना.

धरती, नदिया , धूप-
चाँदनी , 
खुशबू , शीतलता 
धैर्य, क्षमा, करुणा, ममता 
शुचि- 
स्नेहिल- वत्सलता
किसके हिस्से है -
उपमा का 
यह अनुपम दोना !

अंजुरी मे - 
आशीषों का अक्षय 
अशेष सागर 
अंतस मे खुशियों का 
अविरल 
अंतहीन अंबर 
तीन लोक से विस्तृत 
माँ के -
आँचल का कोना .

पानी वाली आँखों मे 
आशा के- 
गुलमोहर 
साँसों मे सोंधे सपने 
सपनों मे -
सुख-निर्झर

और किसे आता है-
सपनों मे 
सपने बोना !

जय चक्रवर्ती



भैया से दूरी है

भाभी से अनबन
भैया से दूरी है।

निपट अकेला रहना 
अब मजबूरी है।
अब अपने रूखे दिन हैं
रूखी रातें
कोई करता नहीं मिठास 
भरी बातें।

ऐसे लगता है 
जिन्दगी अधूरी है।

रिश्ते क्या टूटे सब 
टूट गए सपने
दादा दादी भी तो
नहीं रहे अपने

नहीं देखती 
मुझे देख अंगूरी है।

अब बंटवारे के सारे 
दुख सहना है।
केवल शहरी बाबू बन-
कर रहना है।

जहाँ जमाती 
केवल रंग हुजूरी है।

यह जीवन की कितनी 
बड़ी विषमता है।
मुझको मेरा गाँव 
काटने लगता है।

दर्द लाद कर 
चलना हुआ जरूरी है।

मयंक श्रीवास्तव


मधु शुक्ला के गीत

 राखी आई है

भाई है परदेश बहन की 
राखी आई है।
राखी के संग प्यार भरी इक 
पाती आई है ।

हल्दी, कुमकुम, अक्षत, रोली 
कस्तूरी चन्दन ।
विश्वासों की डोर लिये आया 
रक्षाबन्धन ।
आशीषों के तिलक सगुन के
नेह भरे धागे 
बाँध रहा मन को 
पावन रिश्तो का अपनापन 
लेकर नयी उजास 
दीप की बाती आई है ।

माँ का लिखा दुलार पिता का 
प्यार भरा सम्बल।
ओढ़ लिया ज्यों भरी शीत में 
नरम नरम कम्बल।
आखर-आखर लगे छलकने 
भावों के कलसे 
भिगो गया फिर अहसासों को 
जैसे गंगाजल।

तोड़ मौन के बाँध नदी 
बरसाती आई है।

लौटे खेल-खिलौने झूले 
लौटा फिर बचपन 
त्योंहारों की चहल-पहल 
वाला वो घर आँगन 
उभरे इन्द्रधनुष यादों के 
मन के अम्बर में 
सुन्दर परी कथाओं वाले 
वो कजरी के वन 
गीत नये सावन के 
पुरवा गाती आई है ।

राखी के संग प्यार भरी 
इक पाती आई  है ।
   

एक तुम्हारे जाने से माँ! 
जग कितना वीरान हुआ ।
मौन हो गया सारा उपवन 
बिना सुरों का गान हुआ। 

तुम थी नित्य सुबह की पूजा 
और साँझ की बाती थी  
ममता की सोंधी खुशबू से 
घर-आँगन महकाती थी। 
बिना तुम्हारे घर अब जैसे 
खण्डहर पड़ा मकान  हुआ। 

दूर रहा करती थी फिर भी
कितना बड़ा सहारा थी।
जीवन की सूखी रेती में 
बहती रस की धारा थी।
अब तो सूखी हुई नदी का 
तट कितना सुनसान हुआ। 

बैठे-बैठे घिर जाता है 
मन गहरे अवसादों में। 
दिशा भ्रमित हो भटका करता 
उन्हीं पुरानी यादों में।
साथ तुम्हारे डूबा जो  दिन 
उसका नहीं बिहान हुआ। 
         
दादी माँ 

फूलो-फलो नहाओ-दूधो 
कह सहलाती है। 
दादी माँ नित आशीषों की 
झड़ी लगाती है। 

जर्जर तन में जैसे पूरी 
सदी समेटे है।
झीने आँचल में ममता की 
नदी समेटे है 
बचपन की सुधियों को 
ज्यों रह - रह दुलराती है। 

ठूंठ हुआ है तरुवर तन का 
निर्बल काया है।
मन का निर्झर लेकिन,
अब तक सूख न पाया है।
आँगन की तुलसी सी 
पावन गंध लुटाती है। 

कष्ट पूर्ण जीवन की,
यद्यपि कई कथाएं हैं ।
साथ जुड़ी संघर्षों की
कितनी गाथायें हैं।
फिर भी अपने युग को
वह स्वर्णिम बतलाती है। 

काम काज में निशदिन 
जिसको खटते देखा है।
कठिन समय में कभी न
पीछे हटते देखा है ।
लाचारी उसकी अब मुझको
बहुत सताती है। 
दादी माँ नित आशीषों की
झड़ी लगाती है ।

मधु शुक्ला, भोपाल।

बेटी आएगी

बहुत दिनों के
बाद बियाही
बेटी आएगी

रहती है वह
महानगर के
छोटे से घर में
बिजली से ही
हवा-रोशनी
पाती  भीतर में

बहुत दिनों के
बाद खुली
अँगनाई पाएगी

उसे देखकर
रंभाएगी
चितकबरी गइया
पिकी-पोखरा
ले आएँगे
पोखर से भइया

बहुत दिनों के
बाद भतीजे
को नहलाएगी

खोंट रही है
दादी उलुहा-
 उलुहा चौलाई
बना रही है
खाजी-खाई
बड़की भौजाई

बहुत दिनों के
बाद तीवरा-
भाजी खाएगी

चिड़ियों जैसी
चहकेगी वह
सखियों को पाकर
रोज सुबह
माथा टेकेगी
देवथान जाकर

तीजा-पोला
परब मनाकर
वापस जाएगी
         
-ईश्वरी प्रसाद यादव


घर में कितना खटती हो माँ!

घर में कितना खटती हो माँ!
उठते ही जब झाड़ू थामों
कचरा भागे आगे। 
हँसते मिलता है घर-आँगन, 
सोया घर जब जागे। 
घर में पौ-सी फटती हो माँ। 

फटे वस्त्र की सुइया बनकर, 
करती कभी सिलाई। 
उधड़ी दिखती रिश्ता-सीवन 
करती हो  सुधराई।
रस्सी जैसी बटती हो  माँ! 

चूल्हा-चौका बरतन-भाँडे, 
कपड़े-लत्ते पूजा। 
काम पूर्ण हों सभी तुम्हीं से, 
करे न  कोई दूजा। 
सैनिक जैसी डटती हो  माँ! 

मन्नत-मँगनी औना-गौना, 
जच्चा-बच्चा सेवा। 
रिश्तों में तुम ऐसे बहती, 
जैसे गंगा-रेवा। 
कभी न पीछे हटती हो माँ! 
           
कुँअर उदयसिंह अनुज

दो

कैसी चर्चा भाई की!

भरत-लखन की चर्चा के बिन,
कैसी चर्चा भाई की!

स्वयम् वक्ष पर झेलें अपने, 
संकट के सब बाणों को। 
जीवन-रण में लड़ हुंकारें, 
रखें हथेली प्राणों को। 
ढाल सरीखे अड़े रहें जो, 
लाज रखें रघुराई की। 

भुजा भ्रात की भेंट भ्रात से, 
नींव बने परिवारों की। 
और मोड़ दें मार ठोकरें, 
दिशा रावणी धारों की। 
पाँवों की बिछिया से रखते, 
पहचानें भौजाई की। 

विश्व-पटल पर भाई की यह, 
भारत की परिभाषा है। 
सिंघासन की चाह तुच्छ है, 
भातृ-प्रेम अभिलाषा है। 
इसीलिए सारा जग पूजे, 
रामायण अच्छाई की। 
          
तीन

बहने वारिस बाप की!

भाई होते कब हो पाईं,
बहनें वारिस बाप की!

राखी पर बस साड़ी देकर,
उसे सदा ही दूर रखा।
भाई हूँ मैं यह दिखलावा,
भाई ने भरपूर रखा।
बहन लगे सरकार केजरी,
दिल्ली वाली 'आप' की।

कोठी-बँगला खेती-बाड़ी,
सब भाई के नाम चढ़ी।
संतोषी माता की बेटी,
बहन नहीं पर कलप-कुढ़ी।
कब सुन पाये कोई सिसकी,
उसके रुद्ध विलाप की। 

औना-गौना मामेरे के, 
होने वाले खर्चे में। 
अपनी छाती फुला-फुला कर, 
भैया रहते चर्चे में। 
कभी नहीं ली थाह किसी ने, 
उसके मन के ताप की। 
          
कुँअर उदयसिंह अनुज


 देश बाबुल के
   ———
एक चिड़िया 
फिर उड़ी है 
देश बाबुल के।

भेजती है बहन राखी
हवा पछुआ बन
घिरे बादल बरसता है
नेह भर सावन,

घुल गए हैं
आँख में फिर
रंग काजल के।

झूलता है सुआ झूला
बंद पिंजरे में
रुमालों पर भाई के हक
टँके गहरे में

रुँध गए हैं
भींजते मन
कंठ आँचल के।

माई बापू याद सबकी
जोहती राहें
संग सखियाँ बाढ़ नदिया
मचलकर बाहें

गाय बछिया
टेरते हैं
गए दिन कल के।
    

तुम ऐसी ही रहना
       ......
माँ तुम ऐसी ही रहना
सदा नदी की निश्छल धारा
बन अविरल बहना।

छल प्रपंच से दूर
बांध ममता की डोरी
आंचल की छाया दे
गाती स्नेहिल लोरी

माँ तुम ऐसी ही रहना
बचपन की दहलीजों पर
हाथ पकड़ चलना।

संस्कार माटी वाले
धरती सा एहसास
प्रथम पाठशाला तुम मेरी
दृढ़ मन का विश्वास

माँ तुम ऐसी ही रहना
बोली भाषा का अपनापन
होंठों पर गढ़ना।

रोज घनी रातों में
कहतीं परी कथाएँ
थपकी दे सपनों की
हरतीं सभी बलाएँ

माँ तुम ऐसी ही रहना
सूरज की लाली अंतस तक
उजलापन भरना।
      
जयप्रकाश श्रीवास्तव


कैसी है अब माँ...
--------------------

किसको चिन्ता किस हालत में
कैसी है अब माँ

सूनी आँखों में पलती हैं
धुंधली आशाएँ
हावी होती गईं फ़र्ज़ पर
नित्य व्यस्तताएँ
जैसे खालीपन काग़ज़ का
वैसी है अब माँ

नाप-नापकर अंगुल-अंगुल
जिनको बड़ा किया
डूब गए वे सुविधाओं में
सब कुछ छोड़ दिया
ओढ़े-पहने बस सन्नाटा
ऐसी है अब माँ

फ़र्ज़ निभाती रही उम्र-भर
बस पीड़ा भोगी
हाथ-पैर जब शिथिल हुए तो
हुई अनुपयोगी
धूल चढ़ी सरकारी फ़ाइल
जैसी है अब माँ

- योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
AL-49, उमा मेडिकोज के पीछे,
दीनदयाल नगर-प्रथम, कांठ रोड,
मुरादाबाद-244001

सारे फ़र्ज़ निभाती है
--------------------

माँ का होना मतलब
दुनियाभर का होना है

तकलीफ़ें सहकर भी
सारे फ़र्ज़ निभाती है
उफ़ तक करती नहीं
हमेशा ही मुस्काती है
उसका मकसद घर-आँगन में
खुशबू बोना है

अँधियारों में से उजलेपन
को ही चुनती है
हर पल आने वाले कल के
सपने बुनती है
बच्चों का जीवन ही
उसका असली सोना है

जीवन की संध्या में
उसको कष्ट न कोई हो
ध्यान रहे उसकी अभिलाषा
नष्ट न कोई हो
माँ को खोना मतलब
दुनियाभर को खोना है

 योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'

मधुश्री के का एक नवगीत

माँ

मां के आँचल की छतरी
फिर कैसी बिजली कैसा पानी।

सोनचिरैया सोनचिरौटे
को सेती है पंखों नीचे।
ममता की गुनगुनी छांव में
पैर उगेंगे आँखे मीचे।

बिना किसी भी भेदभाव के 
रोज चुगाती दाना पानी।

लोरी के धागों से बुनती
सपनों  का वो ताना बाना।
संवेदन की गुदड़ी ढाँपे
सिखा रही  है जीवन  ध्याना।

ममता की तख्ती पर अक्षर
लिखती मेटती बनती ज्ञानी।

घर का आँगन और खटोला 
आशीषों  से भरा  बिछौना।
आती जाती पुरवाई से
मन्नत माँगे भर भर दोना।

तुलसी  बिरवे के जैसी माँ
करे रात दिन बस  निगरानी।

माँ के आँचल की छतरी
फिर कैसी बिजली कैसा पानी।
मधुश्री


डॉ रामवल्लभ आचार्य जी के दो गीत


सारे देव स्वरूप पिता हैं
__________________

सारे तीरथ बसे पिता में
सारे देव स्वरूप पिता हैं ।
बारम्बार प्रणाम पिता को
जग में परम अनूप पिता हैं ।।

जिनके कारण सकल सृष्टि है 
जिनसे है अस्तित्व हमारा ।
जिनसे पालित पोषित हैं हम,
जिनसे है व्यक्तित्व हमारा ।
है परिवार पिता के कारण
अपने घर के भूप पिता हैं ।।
बारम्बार प्रणाम पिता को
जग में परम अनूप पिता हैं ।।

हाथ हमारा थाम सिखाया 
हमें पिता ने पग पग चलना ।
अनुचित उचित हमें समझाया
पुण्य साध पापों  से टलना ।
थोथा उड़ा सार को गहते
गुण अवगुण के सूप पिता हैं ।।
बारम्बार प्रणाम पिता को
जग में परम अनूप पिता हैं ।।

जब जब गिरे उठाया हमको
कठिनाई में दिया सहारा ।
संबल बनकर रहे सदा ही
हर मुश्किल से हमें उबारा ।
दुख की तपती दोपहरी में 
शीतल जल के कूप पिता हैं ।।
बारम्बार प्रणाम पिता को
जग में परम अनूप पिता हैं ।।

उनके ऋण से जन्म जन्म में 
संभव नहीं उऋण हो पाना ।
उनके अगणित उपकारों का 
सदा असंभव मोल चुकाना ।
जीवन की कँपकँपी भोर में
ऊदी ऊदी धूप पिता हैं ।।
बारम्बार प्रणाम पिता को
जग में परम अनूप पिता हैं ।।

 दो
बेटियाँ

मन के कोमल भावों जैसी
कोमल कोमल बेटियाँ ।
गंगा के निर्मल जल जैसी
निर्मल निर्मल बेटियाँ ॥

बेटी हो तो चौक माँडने
आँगन में राँगोली ।
बेटी हो तो अक्षत चंदन
हल्दी कुमकुम रोली ।
पूजा के पावन मंत्रों सी
मंगल मंगल बेटियाँ ॥
गंगा के निर्मल जल जैसी
निर्मल निर्मल बेटियाँ ॥

बेटी हो तो जुही चमेली
चंपक बेला महके ।
बेटी हो तो सरसों जैसी
फूले झूमे लहके ।
तितली जैसी, चिड़ियों जैसी
चंचल चंचल बेटियाँ ॥
गंगा के निर्मल जल जैसी
निर्मल निर्मल बेटियाँ ॥

बेटी हो तो कजरी सोहर
मंगल गीत बधाये ।
बेटी हो तो तोरण द्वारे
वंदनवार सजाये ।
रुनझुन रुनझुन चूड़ी कंगन 
पायल पायल बेटियाँ ॥
गंगा के निर्मल जल जैसी 
निर्मल निर्मल बेटियाँ ॥

बेटी आये तो घर आँगन 
खुशियों से भर जाये ।
बेटी जाये तो नयनों को
सौ सौ बार रुलाये ।
बेटी बिन जग निर्बल निर्बल
संबल संबल बेटियाँ ॥
गंगा के निर्मल जल जैसी
निर्मल निर्मल बेटियाँ  ॥
- डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

गोविन्द अनुज जी का एक नवगीत

पिता तुम्हारे आशीषों से 
----------------------------
सुख सुविधाओ के 
मनभावन 
झूले झूल रहे ।
पिता, 
तुम्हारे आशीषों से 
हम फलफूल रहे ।।

अपना सारा 
जीवन तुमने 
हम पर होम किया ।
खुलकर हम 
उड पायें एसा 
विस्तृत व्योम दिया ।।

बडे बडे 
झंझावतो में 
हर दम कूल रहे ।।

ठोकर जब जब 
खायी हमने 
सम्बल तुम्हीं बने ।
सर्दी की 
काली रातों में 
कम्बल तुम्ही बने ।।

मीठे कडवे 
अनुभव वाला 
इक स्कूल रहे ।।

आशीषों का 
हाथ हमारे 
सर पर रखे रहो ।
जो भी कहना है 
खुलकर के 
हमसे खूब कहो ।।

कान पकड़ कर 
डाटो हमको, 
कोई भूल रहे ।।
पिता तुम्हारे 
आशीषों से 
हम फलफूल रहे ।
गोविन्द अनुज, शिवपुरी 


शिवानन्द सहयोगी जी का एक नवगीत

आग अंदर थी 

पिता की लत थी
कि वह बीड़ी जलाते थे
आग अंदर थी
जिसे अक्सर बुझाते थे
 
नहीं छूते थे 
कभी सिगरेट की डिबिया
ली नहीं कोई
दवाई की कभी टिकिया
नीम की पतई
व तुलसी-दल चबाते थे

छी किये खैनी 
नहीं था पान से नाता
बंदगी प्यारी
रहा बस काम से नाता
सोरठी जब तब
अलावों पर सुनाते थे

खूब खाते थे
टिकोरा की बनी चटनी
भजन गाते थे
लगी हो खेत में कटनी
बीच में रुक-रुक
बुझौवल भी बुझाते थे 
पिता की लत थी
कि वह बीड़ी जलाते थे

माँ! तुझे बुलाऊँ
-----------------    

माँ रह-रह मैं, तुझे बुलाऊँ
यहीं कहीं तू
है फिर भी क्यों देख न पाऊँ

खोज-खोज कर हार गया मैं
इस माया में
बहुत थक गया, प्राण न जैसे
इस काया में

नींद लगे जो चौंक पड़ूँ मैं
उठ-उठ जाऊँ

बढ़ता जाता भार बहुत
मन में चिंतन का
व्यर्थ लगे सब भाव न उसमें
तेरे मन का 

फेंक सभी , बस तेरी छवि में
ध्यान लगाऊँ

सकल सृष्टि में ब्रह्म सरीखी
तेरी गोदी
मधुर-मधुर वह मन्द पवन -सी
तेरी लोरी

शब्द-निशब्द सभी सुन-सुन 
शिशुवत
सो जाऊँ ।                                     

    -वीरेन्द्र आस्तिक


गहन अँधेरे में हैलोजन-
लाइट है अम्मा!

जब-जब भटका राह, तपाकर
ख़ुद को, राह दिखाई 
याद विवेकानंद दिलाये मुझको
जब-जब झपकी आई 
पिता रहे यदि लेफ्ट हमेशा 
राइट है अम्मा!

टूटी-फूटी, बिखरी लेकिन
हँसकर मिली जुड़ी है मुझको
टिफिन-बाक्स मिल गया समय से
कभी न देर हुई है मुझको

भरकर मुझमें रंग ब्लैक-एँड-
व्हाइट है अम्मा!

--©विवेक आस्तिक




बहुत दिनों के बाद
----------------------------
पी सबने फिर चाय साथ में
बहुत दिनों के बाद।।

प्रमुदित होकर फेर रही है
अम्मा सर पर हाथ,
बेटे लौटें हैं विदेश से
परिवारों के साथ,
हँसी-ठिठोली गूँज रही है
घर लगता आबाद।।

बापू का मन वृन्दावन-सा
बच्चों से कर मेल,
खेल रहा है कैरम-लूडो
चला रहा है रेल,
हर दिन गुजरे बस ऐसे ही,
उनकी है फ़रियाद।।

हर कोने की छटा अनोखी
चौखट छेड़े राग,
बहुओं के यों आ जाने से
जगे गेह के भाग,
मानो कल तक क़ैदी थे सब
और आज आज़ाद।।

© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'



पिता मेरे 
----------

क्या सही है ? क्या गलत है ?
जानते थे पिता मेरे ।

दे रही थी एक पैनी
दृष्टि हम पर रोज पहरा 
मुस्कुराहट में छिपाकर 
ज़िंदगी का दर्द गहरा ।
आज उसकी याद है नम ।
याद से आबाद हैं हम ।
भूल मेरी क्षमा करते ।
प्यार में ही रमा करते ।
चूक होने से ही पहले
भाँपते थे पिता मेरे ।

कौन अपना ? क्या पराया ?
हाथ हर-पल खुला रखते ।
भूल कुण्ठा,वर्जनाएँ
हृदय अपना धुला रखते ।
सलीके से पाँव रखते ।
सोचकर हर दाँव रखते ।

सुख-दुखों की जटिल दूरी
नापते थे पिता मेरे ।

क्या सही है ? क्या गलत है ?
जानते थे पिता मेरे ।
       

   मीठी-मीठी माँ 
------------------------

घी-शक्कर के कट्टू जैसी
मीठी-मीठी माँ ।

पौ फटने के पहले उठती,
चूल्हे पर रोटी-सी सिकती ।
मैले बासन पर कूची-सी
घिसती-घिसती माँ ।

मुन्ना-मुन्नी को नहलाती,
बड़े चाव से टिफिन लगाती ।

पापड़ की कोमलता जैसी
तीखी-तीखी माँ ।

भीतर रोती बाहर हँसती,
फूलों-सी काँटों में खिलती ।

सिलबट्टे पर 
चटनी जैसी
घिसती-घिसती माँ ।

उलझी बातों को सुलझाती,
रोज़ प्यार का दीप जलाती ।

सन्यासी के जीवन जैसी
सुलझी-सुलझी माँ ।

घी-शक्कर के कट्टू जैसी
मीठी-मीठी माँ ।


१-शाम की चाय
आज शाम की चाय साथ में
पी लें हम।

जुड़े रहें, आँगन- दीवारें
घर- परिवार बनाने में,
आधी उमर बिता दी हमने
रूठे हुए मनाने में,
बेगाने-जैसे अपनों से
दुआ-सलाम निभाने में।
आओ कुछ पल अपनी ख़ातिर
जी लें हम।।

वंदनवारों के फूलों से
आँसू लड़ते रहते हैं,
मुस्कानों से मुँह मोड़े हैं
किस पीड़ा में दहते हैं,
पर्दों के पीछे के जाले
उदासीनता सहते हैं।
अवसादों का बंद पिटारा,
खोलें हम।।

कितनी बार प्रताड़ित सपने
बीच राह में छोड़े हैं,
रिश्ते-नाते मूल न देते
जीवन के दिन थोड़े हैं,
खुद पर भी कुछ ख़र्च करें अब
पेट काट जो जोड़े हैं।
ऋण में डूबी फ़टी चादरें
सी लें हम।।

 २- चुभते वन्दनवार
अंतर्मन की चौखट दरकी,
चुभते वदंनवार।

मुरझाकर भी, हर पल सुरभित ,
पात-पात साँसों का,
मन को मजबूती देता है ,सम्बल कुछ यादों का .
क्षण भर हँसकर, बहुत  रुलाता,
कुछ अपनों का प्यार,
सारी उमर  बिताकर पाया,
ये अद्भुत उपहार।।

सिहरन नस –नस में जब दौड़े, हाथ हवा गह जाती,
बीती एक जवानी छोटी, सकल कथा कह जाती,
यूँ तो गँवा चुके हैं अपनी
सज-धज सब सिंगार,
है अभिमान अभी तक करता,
नभ झुककर सत्कार।।

दो प्यासी आँखें नित जिनके, देख रही हैं सपने,
होली -दीवाली में आते, अतिथि –सरीखे अपने,
ये क्या कम है खिँची नहीं है ,
आँगन में दीवार।
भाग कहाँ ले आया जीवन ,
एकाकी है द्वार।।

संघर्षों के बीच न जाने, कैसे यौवन काटा
याद नहीं कितने हिस्सों में, अपना जीवन बाँटा,
कोने –कोने दहक रहे हैं ,
बेगाने अंगार।
कब तक ढोऊँ इकतरफ़ा इन
संबंधों का भार।।

अटखेली करती मनमानी ,अल्हड़ –सी भूलों की
उम्र बढ़े आँगन में खिलते महक रहे फूलों की,
मिल जाता सुख-चैन देखकर
सकुशल है परिवार।
मान-मनौती से पाया है ,यह सुखमय संसार।।

 
 
1-नई बहू

जब से आयी
बहू नयी
बाबू रहते डरे-डरे
 
सोचा था घर, सँवर जाएगा
बिगड़ा छुटका, सुधर जाएगा
बिन महतारी के  बच्चों  को
माँ  का  आँचल  मिल जाएगा
हुज्जत करती
रहे चिढ़ी
सबसे रहती 
परे-परे 
 
आँगन में दो चूल्हे  जलते
भीतर ही भीतर वे  गलते
भूख नहीं लगती दिन-दिन भर
आँख चुराकर  खैनी  मलते
तीर चलाती
ज़हर बुझे
बोल कँटीले
खरे- खरे
 
रामकली  की यादें     ओढ़े
खाते कालगती  के     कोड़े
काँख रहे, बेटा  मुँह    मोड़े 
किसको पकड़े किसको छोड़े
टूटी धन्नी देख रहे 
आँखें रहते
भरे-भरे
 
2-टाइल लगे फ़र्श

चलो गाँव तक
हो  आएँ,
शहरों में ऊबन होती है।।
 
ऊँची-ऊँची बिल्डिंग लेकिन  
छोटापन भीतर,            
हाँक रहे हैं कोरी शेखी,     
ओछापन जीकर ।।
चरण जिया के
धो आएँ,
महलों में हूकन होती है।।
 
रिश्ते तो रोपे हैं लेकिन,
धूप न मिल पाती।
आस लिए अंकुर फूटे पर,
कली न खिल पाती।।
गले नीम से    
मिल आएँ,
आँखों में सूजन होती है
 
टाइल लगे फ़र्श हैं लेकिन
छप्पर याद करूँ !
जब तारे गिनते थे छत पर
अक्सर याद करूँ
कपिल मुँडेरी
छू आएँ,
कमरों में टूटन होती है।।
 

3-घर का फ़र्नीचर

एक अटा के नीचे जलते
सिसक रहे चूल्हे।
 
सीले-सीले सम्बन्धों को
निभा रहे हैं
आँखें मींचे।
हृदय नहीं मिलता है लेकिन
बाँहों को बाँहों में भींचे।
खेप नये रिश्तों की आयी
मटकाती कूल्हे।
 
वास्तु-टिप्स की 
आड़ें लेकर
बदल दिया 
घर का फ़र्नीचर।
लेकिन एक 
कक्ष बाबा का,
सबको लगता
वहीं शनीचर।
टाँग दिए हैं वहाँ किसी ने
फिर जूते -उल्हे।
 
बिना खिंची इन
दीवारें को,
लाँघ नहीं पाती मुस्कानें।
पर्व और 
उत्सव में मिलते,
उलाहनों की भौहें तानें।
शांत दुल्हनें, अपने-अपने 
समझातीं दूल्हे।

 
भावना तिवारी
आई-११,सेक्टर-२७
नोएडा -२०१३०१
drbhavanatiwari@gmail.com
 
 
माँ की आई याद 
घुल गयी मन में 
चन्दन गंध 
धूप की 

शूलों-पली
गुलाब रही माँ 
त्याग-तपस्या की 
थी मूरत 
सरस्वती-पार्वती-लक्ष्मी से 
मिलती थी 
उसकी सूरत 

करुना की थी स्त्रोत 
और निर्मल-ममता का 
दिव्य रूप थी 

माँ की आँखों से ही 
परखा-जाँचा
जीवन के जंगल को 
उसके अनुभव से ही 
सीखा
पार लगाना 
हर दंगल को 

मरुथल में माँ 
तृषा मिटाती 
मीठे जल का 
एक कूप थी 

पावन सुधि में 
माँ की 
अक्सर आँखें लगतीं 
यमुना-गंगा 
रही मार्गदर्शक 
बचपन की 
रहा न अब तक भूखा-नगा 

मिला न कोई 
माँ के जैसा 
धरती पर सबसे अनूप थी 
- मधुकर अष्ठाना
 
 

कविवर सुभाष वसिष्ठ जी का एक नवगीत
________________________________
ओ पिता !

ओ पिता !
तुमने सदा ही सलवटें देखीं क़मीजों की,
और मेरी जिन्दगी जीवन्तता को रही मरती।
यह सही है, पुत्र नामक खून का क़तरा,
तुम्हारे, हम ।
पर , कहाँ यह सिद्ध होता है
खिड़कियों को बन्द कर
जीते रहे संभ्रम।

ओ पिता!
तुमने सदा ही ऋचा बाँची है मसीहों की,
और मेरी जिन्दगी व्यामोह हन्ता को रही मरती।

  

समकालीन कलासाधक चित्रकार अजामिल जी की एक खूबसूरत पेंटिंग

हरगोविंद ठाकुर
   
संपादन
मनोज जैन मधुर
प्रस्तुति वागर्थ समूह