गीतल - 1
पानी-पानी हुई कहानी पानी की।
पीड़ा किसने समझी जानी पानी की।।
बनकर मोती चमके सबकी आँखों में।
प्रेम भरी यह अमिट निशानी पानी की।।
रहा सदा ही संग उसी के पानी भी।
कीमत सच्ची जिसने जानी पानी की।।
हरा गलीचा धरती ने तब बिछा लिया।
जब बादल ने चादर तानी पानी की।।
आकर हम सब उस पड़ाव पर ठहर गए।
हुई जहाँ बरबाद जवानी पानी की।।
ढूँढ जरा इस धरती पर भी ढूँढ जरा।
मिलती है क्या कोई सानी पानी की।।
बहता था अमृत नदियाँ की धारा में।
फिर से खोजो वही खानी, पानी की।।
चलना पड़े कहीं ना मीलों बहनों को।
जन-जीवन में हो आसानी पानी की।।
कूप सरोवर नदियाँ झूमे झरने भी।
वर्षा रानी बड़ी सयानी, पानी की।।
पानीदार हुए पानी के बल पर ही।
महिमा भारी हिन्दुस्तानी पानी की।।
बीस की बोतल अब तो बदलो प्याउ में।
है सेवा की रीत पुरानी पानी की।।
सारी दुनिया यहाँ दिवानी पानी की।
देख-देखकर घटा सुहानी पानी की।।
गीतल - 2
घटती जाती धार बिचारी नदियाँ की।
कब जाएगी यह बीमारी नदियाँ की।।
मेघ बावरा धरती के आँचल पर उमड़ा।
मचल उठी है लहर करारी, नदियाँ की।।
घायल हुआ किनारा ज्यों ही अंधी-सी।
घुपी धार की तेज कटारी नदियाँ की।।
जब प्रपात, झरनों की सीढ़ी से उतरी।
पर्वत, जैसे लगे अटारी नदियाँ की।।
घाट-घाट पर कॉप रही है हॉप रही।
कचरा-गठरी कहाँ! उतारी नदियाँ की।।
छोड़े सभी मगर धारा में दूषण के।
केवल तुमने मछली मारी, नदियाँ की।।
दुनिया सारी है आभारी नदियाँ की।
गंगा-यमुना जैसी प्यारी नदियाँ की।।
तट को काटे कभी किनारों से दूरी।
मार करेगी धार दुधारी नदियाँ की।।
बालू ढोई, धारा लाई नहरों से।
लो दुनिया पर हुई उधारी नदियाँ की।।
संपर्क
____
सजल मालवीय
‘मानस मणि’ ए.एल.-315, राजीव नगर,
अयोध्या बायपास, भोपाल (म.प्र.) 462041
मो:- 7974917691
सजल मालवीय जी की सजल बैक ग्राउंड में एक तस्वीर
रमेश गौतम जी की तूलिका से संवेदनाओं का बेहतरीन रेखांकन
परिचय
रमेश गौतम, बरेली (उप्र)
8394984865
नवगीत के पर्याय वरेण्य नवगीतकार रमेश गौतम जी नवगीत में शिल्प और संवेदना को बड़ी कुशलता से बुनते हैं।
रमेश गौतम जी न सिर्फ कवि हैं बल्कि निष्णात चित्रकार भी हैं इस अंक में आपने
जल/ग्रीष्म/पर्यावरण को केंद्र में रखकर हमें अनमोल सामग्री भेजी हैं।
_____________________________
रमेश गौतम, बरेली (उप्र)
8394984865
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अब नहीं सिंगार
प्रणय याचना के
मैं लिखूँगा गीत जल संवेदना के।
पूंछते हैं
रेत के टीले हवा से
खोखला संकल्प क्यों जल संचयन का
गोद में
तटबंध के लगता भला है
हो नदी का नीर या पानी नयन का
अब नहीं मनुहार
मधुवन यौवना के
मैं लिखूँगा गीत जल अभिव्यंजना के।
ताल के अस्तित्व पर
हँसती हुई जब
तैरती हैं सुनहरी अट्टालिकाएँ
बादलों से
प्रश्न करती मछलियाँ तब
किस जगह अपना घरौंदा हम बनाएँ
अब नहीं व्यापार
कंचन कामना के
मैं लिखूँगा गीत जल आराधना के।
एक दिन
हो जाएगा बंजर धरातल
बीज वर्षा के यहाँ बोने पड़ेंगे
तप्त अधरों पर
कई सूरज लिए हम
मरुथलों में युद्ध पानी के लड़ेंगे
अब नहीं
दरबार में नत प्रार्थना के
मैं लिखूँगा गीत जल शुभकामना के।
-----------
सिर्फ टूटी नींद
आँखों में लिए
आयु भर ढोता रहा जल
एक बादल।
सिन्धु से
आजन्म निर्वासन मिला
दूर तक
फैला दुखों का सिलसिला
साथ रहकर
भी दिशाओं के कभी
पा सका कब नेह-आँचल
एक बादल।
बिजलियों
के पीठ पर कोड़े सहे
पाँव
बंधन में हवाओं के रहे
सो नहीं पाया
धरा की गोद में
कर समर्पित देह घायल
एक बादल।
जो स्वयं को
बाँट कर रीते हुए
सभ्यता ने
चरण कब उनके छुए
सींचता प्यासे
मरुस्थल ही रहा
मौन पीकर दर्द के पल
एक बादल।
-----------
मुक्त हो
आकाश-धरती धुंध से अब
हम हवाओं को पहन कर मुस्कुराएँ।
हम पढ़े
जलवायु के अक्षर घरों में
और रोपें
एक मधुवन बन्जरों में
हाथ जोड़े
प्रार्थनाओं में सुबह की
धूप गाएँ ,छाँव का चन्दन लगाएँ।
पुष्प को बाँचें
यहाँ फिर से प्रजाजन
हर हृदय तक
गंध के पहुँचे निवेदन
इस तरह
परिवेश की मिलकर करें सब
हरितवसना वेशभूषा,भंगिमाएँ।
कर लिया जबसे
प्रकृति का अपहरण है
टाँग सूली पर
दिया पर्यावरण है
खोल कर
पिंजरा चलो आजाद कर दें
एक रिश्ता तो कहीं हम भी निभाएँ।
--------------
ग्रीष्म ऋतु
तुम हो तभी तो
जन्म होता बादलों का।
तुम
तपस्या काल हो
फल हैं भरे-पूरे सरोवर
सघन
हरियाली लिए
पावस रंगे सबके कलेवर
गूँजता है
आम्रपुष्पी
गंध से स्वर कोयलों का।
ताप
कितना भी कठिन हो
टेरती फिर भी धरा है
ग्रीष्म
तुमने देह को
इसकी उजालों से भरा है
एक
जीवन रस निहित है
ग्रीष्म में ही कोंपलों का।
ग्रीष्म में
अवकाश के दिन
आ गए उपहार में घर
इन्द्रधनुषी
मन लिए बच्चे
चले फिर पर्यटन पर
देखते ही रह गए
जादू यहाँ के जंगलों का।
-----------
परिचय
आप देख रहे हैं
सरदार सरोवर बाँध से वरेण्य नवगीतकार रविशंकर पांडेय जी को
पांडेय जी छोटे मीटर में बड़े नवगीत बुनने में दक्ष हैं। प्रस्तुत है
रविशंकर पांडेय जी का एक नवगीत
जल बिच मीन
पियासी साधो
जल बिच मीन पियासी ।
दूर दूर तक
जल ही जल है
जल के बीच मगर बैठा है
पुरसुकून माहौल
भले हो
लेकिन अंदर डर बैठा है,
कोई फर्क न
दिखता साधो
हो काबा या काशी ।
परजौटी की
बात करें क्या
राजा प्यासे रानी प्यासी
बुंदेलों की
कौन सुने जब
खुद दिल्ली राजधानी प्यासी,
सूख गई
सागर की गागर
झांसी बनी गले की फांसी।
आस पास में
प्यास वहीं है
जहां दिख रहा जल ही जल है
प्यास और
पानी को लेकर
कब से होता आया छल है,
पानी और प्यास
पर जीवित
मुद्दा एक सियासी।
कहत कबीर
सुनो भाई साधो
एक अचंभा देखा ऐसा
पानी नहीं
मगर जलकल से
पानी सा बहता है पैसा,
नंगे सच पर
भारी रहती
अक्सर सरकारी फंतासी ।
डॉ कीर्तिकाले
वाचिक परम्परा की बेहद सशक्त कलम नवगीतों में खासी दक्षता
पानी बचाओ
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सुनो सुनाती हूं मैं अपनी
व्यथा गीत में ढ़ाल के
मैं पानी की बूंद हूँ मुझको
रखना जरा सम्हाल के
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मैं नदिया की कल- कल धारा
सागर का विस्तार हूं
बादल बनकर उड़ती मैं ही
मैं हिम का आकार हूं
मैं जीवन का मूल तत्व हूं
मेरी कीमत पहचानो
मुझको व्यर्थ बहाओ ना तुम
इतना सा कहना मानो
वरना लाले पड़ जाएंगे
सबको रोटी दाल के।
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युगो युगो से हर प्राणी की
मैंने प्यास बुझाई है
मुझे प्रदूषित किया मनुज ने
ये कड़वी सच्चाई है
अभी नहीं चेते हे मानव
तो पीछे खल जाएगा
जल के बिना जगत ये सारा
निश्चित ही जल जाएगा
कारण तुम्ही बनोगे
आने वाले हर भूचाल के
-------------------------------------
डॉ कीर्ति काले
जल संसार की एक झलक
परिचय
डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर'
अन्वेषी संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और फेमश ब्लॉगर के साथ सुप्रसिद्ध क्षणिकाकार और
अँग्रेजी कविता के जानकार हैं।
◆
किसको जल की चिन्ता
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
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सब के सब व्यस्त बहुत हैं
किसको जल की चिन्ता
किसको कल की चिन्ता
दुनिया चलती
एक फॉर्म पर।
बाँच रहे कुछ शोधपत्र हैं
सेमिनार में,
खेल रहे कुछ मानसून से
नवाचार में।
माथे पर कुछ लकीर
गहरी उकरी हैं
हल कुछ नहीं
जोर दे रहे
केवल रिफॉर्म पर।
कुछ चमकदार लोटों से
जल सींच रहे हैं,
कुछ पौधारोपण की फोटो
खींच रहे हैं।
कल अख़बारों में
समाचार भेजेंगे
चहकेंगे हर
सोशल मीडिया
प्लेटफॉर्म पर।
© डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
(अध्यक्ष- अन्वेषी संस्था)
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ. प्र.)
पिन कोड- 212601
veershailesh@gmail.com
□
परिचय
_________
राजीव राज
वाचिक परम्परा के रस सिद्ध कवि
काव्य मंचों पर खासे चर्चित दिल्ली के लालकिले से अनेक बार कविता का पाठ
एक गीत
धरती प्यासी है
___________
सूखे ताल तलैया पोखर
नदिया हारी मैला ढोकर
रस्ता देख रही हैं अखियाँ
बादल गये कहाँ से होकर
वन उपवन बाग़ान खेत खलिहान उदासी है।
धरती प्यासी है॥
आस भरी नज़रों से ताके आसमान को लाली।
खेतों से हरियाली रूठी आँगन से ख़ुशहाली।
बादल बरसेंगे तो रिश्तों में अमृत घोलेंगे।
दीदी का गौना होगा बाबा हँसकर बोलेंगे।
हम पर खीजेगा ना भैया
मैया लेगी रोज़ बलैया
काग़ज़ वाली नाव चलेगी
हम नाचेंगे ता ता थैया
सुन भी ले अरदास कहाँ तू घट घट वासी है।
धरती प्यासी है॥
सौंधी सौंधी माँटी महके बीत गये हैं बरसों।
संयम की फलियाँ फूटी थीं, झरी लाज की सरसों।
संग संग रोपें धान पिया की नज़र फ़िसल जाती थी।
बूँद - बूँद पे देह मछरिया मचल - मचल जाती थी।
अब वो बादल है ना पानी
छूटी खेती गयी किसानी
बालम गए विदेश, कमाने
अँखियां बाट जोह पथरानी
जौवन तपे तवा सो जोगन रूह रुआसी है।
धरती प्यासी है॥
कुआँ बाबड़ी नदिया पनघट सब के सब सूखे हैं।
सम्बन्धों में नमी नहीं व्यवहार हुए रूखे हैं।
पानी उतर गया नल का, हर दमयंती दर-दर है।
पछुआ की बातों में पुरवा भूली सही डगर है।
जीवन की शैली लासानी
जिसको छोड़ा समझ पुरानी
छूना है आकाश अगर तो
देना सदा जड़ों को पानी
पानी है अनमोल समझ लो बात ज़रा सी है।
धरती प्यासी है॥
डॉ राजीव राज
परिचय
ख्यात नवगीतकार डॉ विनय भदौरिया
लालगंज उत्तर प्रदेश से हैं नवगीत समालोचना और नवगीतों में सांस्कृतिक चेतना के अध्येयता हैं।
दो नवगीत
________
बूंद- बूंद है हमे
सिरजना,
बेश कीमती पानी है।
जल को केवल जल
मत समझे
जीवन की रजधानी है।
नभ से पवन,पवन से पानी
पानी से उत्पन्न अगन,
और अग्नि से धरा बनी यह
जिस पर हैं अनगिन जीवन।
चार तत्व के
मध्य बिराजे
ताकतवर ये पानी है।
मृत्युलोक मे जल की मात्रा
सब तत्वों से ज्यादा है
जीव- जन्तु सब सदा तृप्त हों
इसका एक इरादा है।
पृथ्वी को
अपनी गोदी मे
लिए हुए यह पानी है।
ऊसर -बंजर ,वन-उपवन हों
समतल हो या हो पर्वत
भेद भाव के बिना हमेशा
करता है सबका स्वागत।
बिना शर्त के
हरदम बांटे
ऐसा औघड दानी है।
यदि बर्बाद करेंगे जल को
कसके हम पछतायेगे।
टोटा हुआ अगर पानी का
तो प्यासे मर जायेंगे।
नल को खुला
छोड़ देने की
करते हम नादानी है।
पेड़ों के ही कारण हरदम
आकर्षित होते बादल ,
हो संकल्प कि रोपे पौधे
और नही काटें जंगल
पर्यावरण
सुरक्षित रक्खें
शुद्ध हवा यदि खानी है।
विनय भदौरिया
परिचय
डॉ मुकेश अनुरागी
ग्वालियर अंचल से नवगीत को प्रतिनिधित्व करते हैं टिप्पणियों के लिए भी जाने जाते है
मुकेश अनुरागी के जल्द ही दो नवगीत संग्रह आने की प्रतीक्षा में हैं।
एक नवगीत
मिट गई है जिंदगी,इस बहते पानी में।
बैठकों पर बैठकें हैं, राजधानी में।
देखने आकाश से
फैली तबाही को।
नग्न लाशें,भग्न घर
मिलते गवाही को।
लौट कर कहते अधूरा सच, बयानी में।
बैठकों पर बैठकें हैं राजधानी में।
भूख से व्याकुल कहीं पर
ठण्ड से कांपें।
उड़ रहे आकाश में पर
धरा को मापें।
किंतु उठते हाथ न दिखते निशानी में।
बैठकों पर बैठकें हैं राजधानी में।
कुछ अनोखे लोग भी हैं
जो बचाते हैं।
कुछ अनोखे लोग भी हैं
जो सताते हैं।
दे रहा है सीख पानी इस रवानी में।
बैठकों पर बैठकें हैं राजधानी में।
@ डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी
परिचय
जय प्रकाश श्रीवास्तव जी चर्चित नवगीतकार हैं आपके नवगीतों में बिम्बों की नवीनता मन मोहती है।
जल है जीवन
जल है जीवन
जीवन जल है
जल के कारण
सब मंगल है।
साध पंख पर जीवन अपना
विचरण करते लेकर सपना
छू लें नभ को
नभ में जल है।
पलता बीज कोख धरती की
पीर मिटी ना पर परती की
कल है आज
आज ही कल है।
प्यास जगी है बूँद-बूँद पर
आस लगाए हर बादल पर
ऊपर नभ है
नीचे जल है।
चित्र परिचय
_________
प्रस्तुत रेखाचित्र वरिष्ठ नवगीतकार रमेश गौतम की तूलिका से उभरकर सामने आया है चित्र में एक बाला नभ में घिरे बादलों के साथ साथ पंछियों को निहारते हुए
रेखा चित्र बेहद खूबसूरत और जीवंत बन पढ़ा है।
चित्र परिचय
एक बूँद हम
कुँअर रविन्द्र जी की तूलिका से एक नवगीतकार की कृति का परिकल्पना चित्र
स्थल परिचय
गोलाकोट तहसील खनियाधाना
एक कृत्रिम झील के पास प्रकृति को निहारती मातृशक्ति
आशीष दशोत्तर
युवा समालोचक साहित्य की अनेक विधाओं में दखल
1.
नवगीत-
ग्रीष्म की बारात में
उड़ रहे पत्ते
हवा के साथ में।
कल ही आए थे नए अरमान से,
टूटकर अब जा रहे मेहमान से।
सब चले हैं
ग्रीष्म की बारात में।
सुन सकें तो सुन ही लें पदचाप ये,
खड़खड़ाता है कहीं आलाप ये।
चैन देगी ये तपन
कुछ रात में।
हर विसर्जन में नई उम्मीद है,
आज ओझल कल उसी की दीद है।
फिर सृजन होगा
नई बरसात में।
आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर
रतलाम
मो.9827084966
मेल-ashish.dashottar@yahoo.com
2.
नवगीत-
कल की जीत है
एक दरिया है किसी
कशकोल में।
हाथ में आते हैं मोती प्यार के,
फलसफे इनमें छुपे संसार के।
कुछ मिला आखिर
मधुरतम बोल में।
आज की है हार कल की जीत है,
रार भी है, रंज भी है, रीत है।
खोजिएगा और क्या
भूगोल में।
सत्य को ही ये यहां पर आंकता,
झूठ को तत्काल ही पहचानता।
ये रहा इक सा किसी
माहौल में।
आशीष दशोत्तर
12/2, कोमल नगर
रतलाम
मो.9827084966
मेल-ashish.dashottar@yahoo.com
चित्र परिचय
___________
विनय त्रिपाठी जी की फेसबुक वॉल से साभार
एक पारम्परिक कला कृति
____________________
चित्र परिचय
____________
एक जल स्रोत की सुन्दर तस्वीर
चित्र परिचय
एक ढलती साँझ
परिचय
सुरेश कुशवाहा तन्मय
नवगीत कृति "यह बगुला मन" के कृतिकार फेसबुक पर सक्रिय लघुकथा में दखल
एक गीत
कितना चढ़ा उधार
एक अकेली नदी
उम्मीदें
इस पर टिकी हजार
नदी खुद होने लगी बीमार।
नहरों ने अधिकार समझ कर
आधा हिस्सा खींच लिया
स्वहित साधते उद्योगों ने
असीमित नीर उलीच लिया
दूर किनारे हुए
झाँकती रेत, बीच मँझधार।
नदी खुद
सूरज औ' बादल ने मिलकर
सूझबूझ से भरी तिजोरी
प्यासे कंठ धरा अकुलाती
कृषकों को भी राहत कोरी
मुरझाती फसलें,
खेतों में पड़ने लगी दरार।
नदी खुद
इतने हिस्से हुए नदी के
फिर भी जनहित में जिंदा है
उपकृत किए जा रही हमको
सचमुच ही हम शर्मिंदा हैं
कब उऋण होंगे
हम पर है कितना चढ़ा उधार
नदी खुद होने लगी बीमार।
सुरेश कुशवाहा तन्मय
9893266014
अलीगढ़
चित्र परिचय
___________
रेगिस्तान के जहाज
चित्र परिचय
भेड़ाघाट का विहंगम दृश्य
परिचय
कुसुम कोठारी
ब्लॉग जगत में खासी चर्चित
सनातनी छन्दों की जानकार ब्लॉग में युवा पीढ़ी की मेंटर
दो गीत
नवगीत में जल
गाद से भरती सुधा धार
पर्वतों की पाग पिघली
चल पड़ी जल धार अविरल
आँसुओं की क्षीण धारा
बह रही ज्यों गाल पर ढल
धूप से करके सगाई
नेह में फूली समाती
संपदा अपनी बढ़ाकर
शीश वसुधा को नमाती
ये शिला पाषाण चीखें
काट देती धार कोमल
पत्थरों पर ताल बजती
झूमती मचले लहरती
सर्पिणी सी सरसराकर
तुंग की चोटी उतरती
खेलती नगराज गोदी
क्षीर सा बहता अमृत जल
नीर लेकर जो चली थी
भूमि का वरदान बनकर
रस सुधा हर धार में थी
सार बहता स्वर्ण छनकर
गाद को भरता रहा फिर
मानवों के स्वार्थ का छल
◆
नवगीत में ग्रीष्म
दग्ध मौसम
लोहित जैसा आसमान ने
थूका पान चबाकर
धरा गात पर पड़े फफोले
पात गिरे मूर्च्छा कर।।
सूरज तपता ब्रह्म तेज सा
आँख दिखाती धूप
दिशा सुंदरी लगे भूत सी
उजड़ा मोहिनी रूप
रस से हीन हुई रसवंती
दुखड़ा रोये गाकर।।
दहकन कैसी बढ़ती जाती
ताप लगाता झापड़
भूमि बनी अंगार सरीखी
पाँव सिके ज्यों पापड़
धुआँ व्यथित सा ढूँढे अम्बर
रोता चिता जलाकर
भूगर्भिक पय सिसकी भरते
ताल उबल के सूखे
कलझाये से पेड़ पौध भी
हरित स्नेह के भूखे
ले आओ बनकर भागीरथ
गंगा एक बहाकर
सूरज भी निकलेगा कल को
छतरी एक लगाकर
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
परिचय
_______
नवगीत में नए स्वर
महेन्द्र नारायण का एक नवगीत
प्यासा पानी
घड़े-घड़े से
कौआ प्यासा,
बूँद-बूँद से
बनी कहानी ।
कंकड़ - कंकड़
कहते-कहते,
अब काँव - काँव भी
भूल गए ।
कल के जल में
जल के कल में
ब्याज के संग भी
मूल गए ॥
कल क्या होगा
किसे पता है,
स्वयं रहेगा
प्यासा पानी।
कविता में कविता
ज्यों कहता,
भाव समस्या
कवि की जैसे।
चिन्ता तो
संवाद मात्र है ,
बनी रहे
जैसे थी वैसे ॥
राजनीति का
पाठ अमिट यह,
ज्यों कबीर की
उल्टी बानी।
फोड़ सके
पत्थर का सीना
तोड़ सके
तटबन्ध जवानी ।
मोड़ सके सरिता ,
सागर को ,
छोड़ सके कैसे
जग पानी ।।
जीवन का
इतिहास पढ़ेगा,
कौन?
वारि यदि बना निशानी।
महेन्द्र नारायण
विजया ठाकुर जी का एक गीत
देख चिरैया प्यासी है
ठूंठ हुए है कानन -कानन,
फैली आज उदासी है ।
पानी भरा सकोरा रख दे,
देख चिरैया प्यासी है ।
1
विधवा सी लगती है धरती
कोई तो श्रृंगार करे ,
आसमान है रूँठा-रूँठा ,
बूँदों सी न मल्हार झरे ,
पतझर ने मधुमास कर दिया
रघुवर सा वनवासी है ।
पानी भरा सकोरा रख दे,
देख चिरैया प्यासी है।।
2
सूखीं नदियाँ ,ताल, तलैया
हाल हुआ बेहाल बड़ा,
खोलों अपनी भ्रम की गाँठें,
सीना ताने प्रश्न खड़ा,
भेद नहीं गहरा खुल पाया,
लगता बात जरा सी है ।।
पानी भरा सकोरा रख दे
देख चिरैया प्यासी है ।।
विजया ठाकुर
परिचय
मधु शुक्ला जी
त्रैमासिकी नया अंतरा की संपादक नवगीत में आलेख सृजन की लम्बी पारी मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान से समानित गीतों में माधुरी प्रकृति चित्रण का आप पर्याय हैं।
पानी मांगे ताल
____________
सूखी नदिया, झील पियासी
पानी मांगे ताल
मौसम के सिर चढ़कर नाचे
फिर अगिया बेताल।
उल्टी सीधी शर्त लगाये
नाचे दे- दे ताली
सुलग रहा हर बिरवा- बिरवा
झुलस रही हर डाली
ढूंढे मिले न उत्तर
ऐसे पूछें कठिन सवाल।
मौन बस्तियों में पसरे हैं
आतंकी सन्नाटे
आते- जाते हवा लगाती
है लपटों के चाटे
सहमे गली और चौराहे
सुबक रहे चौपाल।
झुलसे पंख लिये गौरैया
दुबकी घर के कोने
टिके पेड़ से हांफ रहे हैं
ये बेवस मृगछौने
मरी बिचारी सोन मछरिया
ऐसा पड़ा अकाल।
चिंताओं की गठरी लादे
धनिया खड़ी दुआरे
सोच रही है कैसे
आँगन के दुःख- दर्द बुहारे
किसे दिखाये घाव हृदय के
किसे सुनाये हाल।
मधु शुक्ला, भोपाल।
Email ---- madhushukla111@gmail.com
इंजीनियर अभिषेक जैन अबोध के कैमरे से एक क्लिक
नदी को निहारता प्रतिभाशाली माँ का एक लाल
अनामिका सिंह
____________
चर्चित नवगीतकार अनामिका सिंह शिकोहाबाद उत्तर प्रदेश से आती हैं।
देशज शब्दों के सुगढ़ प्रयोग में इनका कोई सानी नहीं चर्चित नवगीत संकलन "आलाप" और न बहुरे लोक के दिन" जैसी बेजोड़ कृतियों से खासी पहचान वागर्थ समूह की संचालक
एक गीत
अहेरी आया लेकर जाल
___________________
फुनगी बैठी
गौरेया ने ,
भारी हुआ मलाल ।
देख अहेरी
आया लेकर ,
जंगल में जब जाल ।।
बरगद पीपल
नीम सभी में ,
दारुण हाहाकार ।
लगी जड़ों पर,
चलने ठक –ठक,
शाखा लगी कुठार ।।
अपनों ने ही
घात किया फिर,
किससे करें सवाल ।
धरती को
छलनी कर डाला ,
अनगिन करके छेद ।
जल खातिर
मारामारी का ,
नहीं हृदय में खेद ।
रीती गागर
पनिहारिन की,
दृश्य दिखें विकराल ।
शासन से
जो राशि मिली,
कर डाली बंदरबाँट ।
शाख-पात,
फल - फूल घनेरे,
दिए मूल से छाँट ।।
दस्तावेजों में
संरक्षण,
करते रहे दलाल ।
~अनामिका सिंह
संपादक के कैमरे में नेचर की एक नेचुरल क्लिक
बेतवा के परीछा डैम से एक क्लिक
परिचय
नवगीत समवेत संकलन "सूरज है रूमाल में" की प्रधान संपादक मातृशक्ति को केंद्र में रखकर नवगीत के अध्याय में एक प्रयोग के लिए जानी जाती हैं।
शीला पाण्डेय जी का एक गीत
_______________________
।। सूखे सोते ।।
ताल सूखकर पानी माँगे
भीतर का गहराव चुक गया
प्यासी मिट्टी सूखे सोते
जीवन जुड़ा प्रवाह रुक गया ।
जलचर गहरे गोते खाते
कमल नाल भी थीं इठलाती,
कोइयाँ फूलें ऊषा काल में
नाव सिंघाड़े भर-भर जाती
रामदीन-घर चूल्हे जलते
खुशियों भरा बहाव रुक गया ।
खेत, बाग़ विस्तारित तट पर
किलहट, बगुला व्यस्त बहुत थे,
फसलों की बाली लहरातीं
दिनों-दिनों भर मस्त बहुत थे
भरे-पुरे सारे अँखुआये
भावी पथ का गाँव फुँक गया ।
शीला पांडे, लखनऊ
मो 9935119848
परिचय
वीरेन्द्र आस्तिक
नवगीत की समालोचना में खासा दखल "धार पर हम" भाग 1 भाग 2 से पूरे नवगीत परिदृश्य में चर्चित आपको लखनऊ हिन्दी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान से अलंकृत
दो नवगीत
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पर्यावरण बचाओ
हृदय रहे खुशहाल
फेफड़ा, जिगर बचाओ
लेकिन पहले पानी, फिर
पर्यावरण बचाओ
खिसक रही हैं क्यों ऋतुवें
क्यों पराबैंगनी किरणें
सूखे से मुँह मोड़,बाढ़ पर
बादल लगे बरसने
भुवन भरा है कचरा से
ऋतु-व्याकरण बचाओ
गलियों में है कीचड़,घर में
काटें डेंगू मच्छर
भरे रोग से अस्पताल क्यों
आम आदमी बदतर
जागेगी इकदिन जनता
जन-जागरण बचाओ
क्यों सागर क्रोधित होकर
लील रहा है थल हरियल
धरती कौन हिला देता है
किसका कितना मंगल
उस भौतिक विज्ञानी से
वन्याभरण बचाओ
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जेठ दुपहरी
महानगर की
जेठ दुपहरी
मृगजल दिखता है
प्यास, प्यास है धनिकों की
बिसलरियों के नलके हैं
खाली जेबें जलती हैं
पिघली-पिघली सड़कें हैं
टपक गये दस लू से
पक कर
पेपर कहता है
दर्शन दुर्लभ प्याऊ के
फुटपाथों के टूटे नल
सिर पर सूर्य धरे,धीरज
छलक रहा भीतर का जल
शीत-बिल्डिंगें
उगलें गर्मी
श्वसन अटकता है
मेघ चले हैं खाड़ी से
इन्द्रभवन में अटके हैं
शायद देखो बच निकलें
इधर-उधर कुछ टपके हैं
राहत-कोषों की राहत पर
सूखा पड़ता है ।
-वीरेन्द्र आस्तिक
परिचय
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सुप्रसिद्ध कवयित्री डॉ भावना तिवारी जी "बूँद बूँद गंगाजल" कृति की कृतिकार और शिवोहम साहित्यिक मंच एवं गाथा की सीईओ हैं।
कोकिल कंठी डॉ भावना तिवारी बेहद रोचक प्रस्तुतियों के लिए जानी जाती हैं।
एक गीत
क़ीमती खज़ाना है
वचन लो, बचाना है
बूँद -बूँद पानी ।।
सभ्यता के मूल में
कोश में समाया
प्राण तत्व जल-थल में
जीव को बचाया।
बोतलों में क़ैद अब
रूप रस रवानी ।।
रंग पीत धरती में
मिटकर भी भरता
फ़िक़्र कोई करता ना
डला -पड़ा -फ़िरता
देखना अँधेरे में
बीते न जवानी।।
लोग कहीं प्यासे हैं
दूर तक क़तारें
डूब कर नहातीं हैं
गाड़ियाँ भुरारे
तरस रहे लोग कहीं
घूँट-घूँट पानी।।
पीढ़ियों के प्रश्न कल
हल न हो सकेंगे
आज यदि न सोचा तो
पाप हम करेंगे
खेत कहीं सूखेंगे
बनेगी कहानी ।।
संगम से सेल्फी
परिचय
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युवा कवि
गणतंत्र ओजस्वी जैन दर्शन के अध्येयता
और सँस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित शिक्षा से शास्त्री और पेशे से अध्यापक नवगीतों में खासा रुझान
एक नवगीत
अम्बर प्यासा,
भूमि अधीर!
और कहाँ से लायें नीर!!
बादल से विश्वास उठ गया,
मन की उपज अधूरी अब!
बंजर-बंजर लगे दिशायें,
कौन करेगा पूरी अब!!
जिसको लाये,
वो छलिया है!
मिटे कहाँ से अपनी पीर!!
कुटिल-काल की चाल निराली,
किसको शह दे किसको मात!
कोइ बना है पल में राजा,
कोइ रहा है खाली हाथ!!
सिंहासन अब,
चिढ़ा रहा है!
और लुटाओ! तुम तकदीर!!
हवा बही थी अच्छी दिन में,
अच्छे दिन अब हवा हुये!
बीमारी के वक्त लगे वे,
घाव ही खुद की दवा हुये!!
मर्ज-कर्ज का,
फर्ज निभाते!
निचुड़ा पूरा भरा शरीर!!
गणतंत्र जैन ओजस्वी
रमेश गौतम जी की एक कलाकृति
रघुवीर शर्मा
परिचय
नवगीत में विस्थापितों का दर्द उकेरने वाले अकेले नवगीतकार निमाड़ अंचल में खासी पकड़ और जबरदस्त जनसमर्थन
लुप्त हुई जीवन रेखाएँ
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ऊपर
ऊँचे बांध नदी के
नीचे पानी कैसे आए.
मुरझाई
तट की हरियाली.
सूख रही
अमुआ की डाली.
प्यास लिए
इस तट परआकर
कोयलिया फिर कैसे गाए
डबरों में
मूर्छित मछलियाँ.
आस हीन हैं
शंख सीपियाँ.
निर्वसना,निरूपाय
नदी अब कैसे
अपनी लाज छुपाए.
शापित है
खेतों की फसलें.
बादल रूठे
मौसम बदले.
खोज रही है
बस्ती इसमें
लुप्त हुई जीवन रेखाएं
रघुवीर शर्मा
परिचय
नवगीत में विचार पक्ष को प्रखरता से बुनने की लगातार कोशिश में प्रयासरत मरुप्रदेश जयपुर से आते हैं। स्पष्ट विचार साफ छवि इनकी पहचान का अहम हिस्सा आशा है जल्द ही नवगीत को पूरी तरह साध लेंगे
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प्रस्तुत है एक गीत
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सौ डिग्री के ताप- सी
धधक रही है प्यास।
आकुल देह घट उठाए
बहे नहीं पर नीर
मरुथल देखे कोस रही
पल पल निज तकदीर।
यह सच है धरती का
समझो मत उपहास।
जल जल की रटन लगाए
सूखतें जो शरीर
देखो तुम इस संकट को
समझो भू की पीर।
रोको यह नाश चक्र
कहता है इतिहास।
प्रस्तुति समूह वागर्थ एवं ब्लॉग वागर्थ
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अंक पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत
टीम वागर्थ
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