मंगलवार, 22 जून 2021

नामबर सिंह जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

नामवर सिंह के नवगीत

1. पारदर्शी नील जल में

पारदर्शी

नील जल में

सिहरते शैवाल

चाँद था, हम थे,

हिला तुमने दिया

भर ताल

क्या पता था,

किन्तु,

प्यासे को मिलेंगे आज

दूर ओठों से,

दृगों में

संपुटित दो नाल ।

2. धुंधुवाता अलाव

धुन्धुवाता अलाव,

चौतरफ़ा

मोढ़ा मचिया

पड़े

गुड़गुड़ाते हुक्का

कुछ खींच मिरजई

बाबा बोले

लख अकास

'अब मटर भी गई'

देखा सिर पर

नीम फाँक में से

कचपकिया

डबडबा गई-सी,

कँपती

पत्तियाँ टहनियाँ

लपटों की आभा में

तरु की

उभरी छाया ।

पकते गुड़ की

गरम गंध ले

सहसा आया

मीठा झोंका।

'आह,

हो गई कैसी

दुनिया !

सिकमी पर दस गुना।

सुना

फिर था वही गला

सबने गुपचुप गुना,

किसी ने

कुछ नहीं कहा ।

चूँ-चूँ बस कोल्हू की;

लोहे से

नहीं सहा

गया। चिलम फिर चढ़ी,

ख़ैर, यह

पूस तो चला...'

पूरा वाक्य न हुआ

कि आया खरतर

झोंका

धधक उठा कौड़ा,

पुआल में

कुत्ता भोंका।

3. मंह मंह बेल कचेलियाँ

मँह-मँह

बेल कचेलियाँ,

माधव मास

सुरभि-सुरभि से

सुलग रही

हर साँस

लुनित सिवान,

सँझाती,

कुसुम उजास

ससि-पाण्डुर

क्षिति में

घुलता आकास

फैलाए कर

ज्यों वह

तरु निष्पात

फैलाए बाहें

ज्यों

सरिता वात

फैल रहा

यह मन जैसे

अज्ञात

फैल रहे प्रिय,

दिशि-दिशि

लघु-लघु हाथ !

4. नहीं बीतती साँझ

दिन बीता,

पर नहीं बीतती,

नहीं बीतती साँझ

नहीं बीतती,

नहीं बीतती,

नहीं बीतती साँझ

ढलता-ढलता दिन

दृग की कोरों से ढुलक न पाया

मुक्त कुन्तले !

व्योम मौन मुझ पर तुम-सा ही छाया

मन में निशि है

किन्तु नयन से

नहीं बीतती साँझ

5. नभ के नीले सूनेपन में

नभ के नीले सूनेपन में

हैं टूट रहे बरसे बादर

जाने क्यों टूट रहा है तन !

बन में चिड़ियों के चलने से

हैं टूट रहे पत्ते चरमर

जाने क्यों टूट रहा है मन !

घर के बर्तन की खन-खन में

हैं टूट रहे दुपहर के स्वर

जाने कैसा लगता जीवन !

6. उनये उनये भादरे

उनये उनये भादरे

बरखा की जल चादरें

फूल दीप से जले

कि झरती पुरवैया सी याद रे

मन कुयें के कोहरे सा रवि डूबे के बाद रे।

भादरे।

उठे बगूले घास में

चढ़ता रंग बतास में

हरी हो रही धूप

नशे-सी चढ़ती झुके अकास में

तिरती हैं परछाइयाँ सीने के भींगे चास में

घास में।

7. विजन गिरिपथ पर

विजन गिरिपथ पर

चटखती

पत्तियों का लास

हृदय में

निर्जल नदी के

पत्थरों का हास

'लौट आ, घर लौट'

गेही की

कहीं आवाज़

भींगते से वस्त्र

शायद

छू गया वातास ।

8. कभी जब याद आ जाते

कभी जब याद आ जाते

नयन को घेर लेते घन,

स्वयं में रह न पाता मन

लहर से मूक अधरों पर

व्यथा बनती मधुर सिहरन ।

न दुःख मिलता, न सुख मिलता

न जाने प्रान क्या पाते ।

तुम्हारा प्यार बन सावन,

बरसता याद के रसकन

कि पाकर मोतियों का धन

उमड़ पड़ते नयन निर्धन ।

विरह की घाटियों में भी

मिलन के मेघ मंडराते ।

झुका-सा प्रान का अम्बर,

स्वयं ही सिन्धु बन-बनकर

ह्रदय की रिक्तता भरता

उठा शत कल्पना जलधर ।

ह्रदय-सर रिक्त रह जाता

नयन घट किन्तु भर आते ।

कभी जब याद आ जाते ।

9. फागुनी शाम

फागुनी शाम अंगूरी उजास

बतास में जंगली गंध का डूबना

ऐंठती पीर में

दूर, बराह-से

जंगलों के सुनसान का कुंथना ।

बेघर बेपरवाह

दो राहियों का

नत शीश

न देखना, न पूछना ।

शाल की पँक्तियों वाली

निचाट-सी राह में

घूमना घूमना घूमना ।

10. हरित फौवारों सरीखे धान

हरित फौवारों सरीखे धान

हाशिये-सी विंध्य-मालाएँ

नम्र कन्धों पर झुकीं तुम प्राण

सप्तवर्णी केश फैलाए

जोत का जल पोंछती-सी छाँह

धूप में रह-रहकर उभर आए

स्वप्न के चिथड़े नयन-तल आह

इस तरह क्यों पोंछते जाएँ ?

नामवर सिंह :

ग्राम जायतपुर, वाराणसी, उत्तरप्रदेश में जन्मे नामवर सिंह (1927-2019) को ज़्यादातर हिन्दी के पाठक एक मशहूर और नामवर आलोचक के रूप में जानते हैं, लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि उन्होंने कविताएँ और नवगीत भी लिखे थे। ’वागर्थ’ को आज अपने पाठकों के सामने उनके नवगीत प्रस्तुत करते हुए गर्व की अनुभूति हो रही है। उनकी सभी किताबें आलोचना से ही जुड़ी हुई हैं। उनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं : कविता के नए प्रतिमान, छायावाद, इतिहास और आलोचना, कहानी-नई कहानी, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, दूसरी परम्परा की खोज, वाद-विवाद सम्वाद, कहना न होगा, आलोचक के मुख से। 1971 में नामवर जी को ’कविता के नए प्रतिमान’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उन्हें हिन्दी अकादमी, दिल्ली ने ’श्लाका सम्मान’ से सम्मानित किया तो उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने उन्हें साहित्यभूषण सम्मान दिया। इसके अलावा उन्हें सन 2010 में ’महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान’ देकर सम्मानित किया गया था।

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