सोमवार, 21 जून 2021

राजेन्द्र श्रीवास्तव जी के समकालीन दोहे

आदरणीय मनोज जी, सप्रेम नमस्ते 🙏


इन दोहों पर आपकी समीक्षक दृष्टि चाहता हूँ, साथ ही यदि वागर्थ पेज के अनुरूप हो तो कृपया अवसर दीजिए ।



1- नीति-रीति की बात को, कहिए सीना तान।
      राजनीति कहते नहीं, इसको चतुर सुजान।। 

 2- दिन को दिन बतलाइए, कहें रात को रात। 
     हित-अनहित मत सोचिए, कहिए सच्ची बात।। 

3- जीवन के मैदान में, हार मिले या जीत। 
      होठों पर मुस्कान हो, मन में सच्ची प्रीत।।

 4- आता है चुपचाप वह, जाता है चुपचाप। 
     बुरा कहो अथवा भला, समय की न पदचाप।। 

 5- मर जाते मानव यदपि, जीवित रहती आह। 
      कुरुक्षेत्र में आज भी, सुनने मिली कराह।।

 6- जन-हित के अनुरूप यदि,नहीं रहा जनतंत्र
     तो पनपेंगे तंत्र में,   स्वार्थ और षडयंत्र।।
  
 7-  एक बोलता जा रहा, दूजा है चुपचाप।
      होना तो संवाद था, होता एकालाप।।

 8- दर्पण तो है काँच का,  रहता है चुपचाप। 
     मन-दर्पण में झाँकिए, साहस करके आप।।

 9-लोप हुई आकाश में, या   पैठी पाताल।
    'राहत' लाख-करोड़ की,खोज रहे कंगाल।।

10- अगर असंभव लग रहा,अन्न, वस्त्र,धन दान
      तो हर्षित मन बाँटिए, कपट रहित मुस्कान ।।

11- नहीं समाहित  सृजन में, मूल्य और आदर्श। 
        वह लेखन किस काम का,जिसमें नहीं विमर्श।।

 12- बन जाते घोड़ा कभी, या बन जाते रेल। 
        दादा जी को सुख अमित, पोते को है खेल।। 

 13- सारी रैना  चाँद को,  तकता रहा चकोर। 
         हाथ पकड़कर चाँद का, साथ ले गयी भोर।।

 14- -उनका दोहरा आचरण, देख उपजती खीज
         बात करें  पुरुषार्थ की,पहिन गले ताबीज।।
  
 15- भेड़ों  की अनुगामिनी, भाग  रही  है  भेड़।
         जब मन चाहा हाँक लीं,या फिर दिया खदेड़।। 

                राजेंद्र श्रीवास्तव विदिशा म.प्र

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