मंगलवार, 22 जून 2021

नईम के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

वागर्थ में आज नईम के नवगीत
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                      नईम के बहाने आज मुझे नईम के साथ प्रसंगवश भोपाल के अक्षय बाबू को भी याद करने का अवसर मिला और जब भी अवसर मिला मैंने हाथ से नहीं जाने दिया यह मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे बुजुर्गों के पास बैठने उन्हें पढ़ने और सुनने का खूब अवसर मिला आज भी मेरे अनेक मित्र इसी आयु वर्ग से आते हैं।
             नईम पर बोलते हुए अक्षय बाबू ने उन प्रश्नों के ज़बाब दे दिए थे जिन्हें बहुत सारे जड़मति आज भी हवा में ढूँढने की नाकाम कोशिशें करते हैं।मेरा इशारा उन दो चार लोगों की तरफ है जो नवगीत का नाम सुनते ही ऐसे भड़कते हैं जैसे उनपर पहाड़ टूट पड़ा हो जबकि भोपाल के यह मित्र अक्षय बाबू के अनेक विमर्शों में शामिल हुए हैं यह बात में दावे से कह सकता हूँ।
                                 काश!यह बेचारे उनके ज्ञान का लाभ भी उठा पाते अक्षय बाबू सच्चे कम्युनिष्ट थे उनकी सोच व्यापक थी आज नईम के नवगीतों के बहाने यहाँ नईम पर बोलते हुए उनके पूरे उद्धरण को जस का तस वागर्थ के पाठकों के समक्ष रखता हूँ,इससे पाठकों को गीत और नवगीत के मध्य जो अंतर की महीन रेखा है उस रेखा  को समझने में मदद मिलेगी।
                          "नईम गीतकार हैं,पर पुरानी परिपाटी के लिजलिजे गीतकार नहीं हैं ये उस तरह के गीत लिखते रहे हैं,जिसकी परम्परा निराला से प्रारम्भ होती है।यह नई परम्परा नवगीत के नाम से जानी जाती है।नवगीत ने गीत को अंतरमुखी भावाभिव्यक्ति की कैद से मुक्त करने में अपना ध्यातव्य योगदान दिया है।
                                इसलिए नईम नवगीत आन्दोलन के उल्लेखनीय कवि माने जाते हैं इसी विशेषता के कारण वे धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी तत्कालीन पत्रिकाओं में लगातार ख्यात रहे हैं।नवगीत की विशेषता यही रही है कि इसमें कवि अपने अकेलेपन से नहीं जूझता।आम जनता की बदहाली इनके नवगीतों में उभरती है।नवगीत परम्परा को जीवित रखते हुए और उसके नए स्वरूप को सजा संवार कर उसे पेश करते हैं।मेरा मतलब है गीत की परम्परा को छोड़ना और परम्परा को बदलने के अंतर को समझना आवश्यक है।
    नईम ने गीत परम्परा को छोड़ा नहीं है उसे खूबसूरती के साथ बदला है।"
आइये पढ़ते हैं नईम के नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ 
सम्पादक मण्डल

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वागर्थ में आज प्रस्तुत है नईम जी के गीत....

(१)

कुछ भी तो अब
तन्त नहीं है-
ऊपरवाले की लाठी में।

दीमक चाट गयी है शायद-
ये भी ऊपरवाला जाने,
भुस में तिनगी जिसने डाली-
वही जमालो खाला जाने।

हम तो खड़े हुए हैं
घर के
पानीपत हल्दीघाटी में।

दो ही दिन में बासी
लगने लगते हैं परिवर्तन
प्रगतिशील होकर आते
घर-घर में अब ऋण।

अपने को
रूँधा कुम्हार सा,
कस ही नहीं रहा माटी में।

श्राद्धपक्ष ही नहीं, किन्तु अब
उनकी बारहमास छन रही,
पात्र-कुपात्र न देखे भन्ते !
कच्ची,क्वाँरी कोख जन रही।

तेल नहीं रह गया
हमारी
परम्परा औ’ परिपाटी में।

(२)

करतूतों जैसे ही सारे काम हो गए,
किष्किन्धा में

लगता अपने राम खो गए।

बालि और वीरप्पन से कुछ 
कहा न जाये,
न्याय माँगते शबरी,
शम्बूकों के जाये।

करे धरे सब हवन-होम भी
हत्या और हराम हो गए

स्वपनों,सूझों की जड़ में ही 
ज्ञानी मट्ठा डाल रहे हैं।
अपने ही हाथों अपनों पर 
कीचड़ लोग उछाल रहे हैं।

जनपदीय क्षत्रप कितने ही
आज केन्द्र से वाम हो गए

देनदारियों की मत पूछो,
डेवढ़ी बैठेंगी आवक से,
शायद इसीलिए प्रभु पीछे 
पड़े हुए हैं मृगशावक के

वर्तमान रिस रहा तले से,
गत, आगत बदनाम हो गए।

(३)

हो न सके खुलकर अपनों से,
वो भी कब किसके हो पाए?

बीच धार में खड़े हुए हम
विकट ज़िन्दगी का ये मंजर,
पार उतरना, किन्तु डर रहे,
ढीले-ढाले अंजर-पंजर।
ख़ौफ़नाक हमले सपनों के,

नींद न हम अपनी सो पाए।

हो न सके हम पूत ठीक से,
पिता न हो पाये करीब से।
रिश्ते भी क्या रिश्ते होते,
महँगाई में इस ग़रीब के ?

मोल नहीं जाने वचनों के
अपने बोझ न हम ढो पाए।

इनसे भी क्या गिला करें हम,
उनकी भी अपनी मजबूरी।
मिली कहाँ अब तक इन उनकी,
मेहनत की वाज़िब मज़दूरी ?
सोच-समझकर सौ जतनों से
दाग़ न हम अपने धो पाए।

(४)

खड़े न रह पाए जमकर
हम किसी ठौर भी
लिखा-पढ़ा कुछ काम न आया
किसी तौर भी

रहे बांधते हाथ कामयाबी के सेहरे,
देते रहे पाँव अपने गैरों के पहरे
मैं ही एक अकेला जन्तु
नहीं हूँ, माना
होंगे मेरे जैसे लागर
कई और भी

रहे जोतते इनके,उनके खेत जनम से
मालिक मकबूजा से मारे हुये भरम के
छिनते रहे हमारे कब्जे
बड़े जतन से
हुए न अपने शाजापुर
मक्सी,पचौर भी

जिनका नहीं विगत उनका भी क्या आगत है?
अनबन ठनी हुई,अपने पर थू -लानत है
रातों लगी रतौंधी
दिन में साफ नहीं कुछ
अपने विकट पतन का
दिखता नहीं छोर भी
विवश भिखारी ठाकुर का
गब्बर घिचोर भी

लिखने जैसा 
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लिखने जैसा लिख न सका मैं
सिकता रहा भाड़ में लेकिन,
ठीक तरह से सिक न सका मैं ।

गत दुर्गत जो भी होना थी,
ख़ुद होकर मैं रहा झेलता,
अपने हाथों बना खिलौना,
अपने से ही रहा खेलता.
परम्परित विश्वास भरोसों पर
यक़ीन से टिक न सका मैं ।

अपने बदरँग आईनों में,
यदा-कदा ही रहा झाँकता,
थी औक़ात, हैसियत, 
लेकिन अपने को कम रहा आँकता,

ऊँची लगी बोलियाँ लेकिन,
हाट-बाज़ारों बिक न सका मैं ।

अपने करे-धरे का अब तक, 
लगा न पाया लेखा-जोखा,
चढ़ न सकेगा अपने पर अब 
भले रँग हो बिलकुल चोखा,

चढ़ा हुआ पीठों मँचों पर
कभी आपको दिख न सका मैं ।

(६) 
पाँचों घी में
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उनकी
टेढ़ी या सीधी हों,
लेकिन हैं पाँचों ही घी में

रहे छीजते 
अपने ही ग्रह,
और नखत ये धीमें धीमें

जिसको जो भी मिला ले उड़े,
खुरपी टेढ़े बेंट आ जुड़े
होना था जिनको आधा वो 
एक रात में हुए डेवढ़े

होने को-
क्या शेष रह गया
कर लो जो भी आए जी में

मान-मूल्य सब हुए तिरोहित, 
सब ही अपने हुए पुरोहित
पन्नों में ही लिखे रह गए, 
शुभ की सायत और महूरत

धरे रह गए
मयनोशी के
अदब-कायदे और करीने

अपने राम पड़े साँसत में, 
कहाँ रहें अब,किस भारत में?
एक एक से बढ़कर प्राणी, 
जगह पा गये हैं गारद में

फर्क नहीं-
कर पाता हूँ मैं,
अपने लेखे ग़लत सही में

उनकी क्या 
पूछो हो साधो!
जिनकी हैं पाँचों ही घी में।

(७)

नज़र लग गई है
शायद आशीष दुआओं को
रिश्ते खोज रहे हैं अपनी
चची, बुआओं को

नज़रों के आगे फैले बंजर, पठार हैं
डोली की एवज अरथी ढोते कहार हैं
चलो कबीरा घाटों पर स्नान ध्यान कर-
लौटा दें हम महज शाब्दिक
सभी कृपाओं को

सगुन हुए जाते ये निर्गुन ताने-बाने
घूम रहे हैं जाने किस भ्रम में भरमाने?
पड़े हुये क्यों माया ठगिनी के चक्कर में
पाल रहे हैं-
बड़े चाव से हम कुब्जाओं को

रहे न छायादार रुंख घर, खेतों, जंगल
भरने को भरते बैठे घट अब भी मंगल
नदियाँ सूख रही
अंतस बाहर की सारी-
सूखा रोग लग गया शायद सभी प्रथाओं को।

(८)

अब न रहे वो रुंख
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अब न रहे वो रुंख कि जिन पर,
पत्ते होते थे।
फूलों, कोंपल आँखें,
शहद के छत्ते होते थे।

उखड़े-उखड़े खड़े अकालों आए नहीं झोंके
आते थे जो काम हमारे मौके बेमौके
जिनकी छाँव बिलमकर हम तुम
सपने बोते थे।

क्या होंगे पत्ते फूलों औ' फुनगी शाखों से?
मौन प्रार्थनारत हैं वो मिलने को राखों से।
रहे नहीं अब रैन-बसेरा
मैना तोते के।

आँखों के बीहड़ सूखे ने सुखा दिया जड़ से,
इस सामान्यों की क्या तुलना पीपल औ बड़ से
नहीं रहे कंधे जिनसे लग के
दुखड़े रोते थे

अब न रहे वो रुंख कि जिन पर
पत्ते होते थे ।

(९)

समय को साधना है
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भूत प्रेतों को नहीं, केवल समय को साधना है।
बंधु! मेरी यही पूजा-अर्चना,आराधना है।

शब्द व्याकुल हैं
समय के मंत्र होने के लिए
और यह भाषा
व्यवस्था तंत्र होने के लिए।
हो सकें तो हों हृदय से,ये हमारी कामना है।

देखता बुनियाद पर ही
हो रहे आघात निर्मम
छातियों चिपकाए
लाखों लाख संभ्रम।
राह में मिलते विरोधों का निरंतर सामना है।

आज बाबा की बरातें
सभा सदनों में जमी
कर रहे शव साधना शिव
पूछते हो क्या कभी?
पिलपिला गणतंत्र अपना बंधु सबको व्यापना है।

(१०)

अपने हर अस्वस्थ समय को
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अपने हर अस्वस्थ समय को
मौसम के मत्थे मढ़ देते
निपट झूठ को सत्य-कथा सा–
सरेआम हम तुम मढ़ लेते

तनिक नहीं हमको तमीज हँसने–रोने का
स्वांग बखूबी कर लेते भोले होने का
जिनकी मिलती पीठें खाली¸
बिला इजाजत हम चढ़ लेते

वर्ण¸वर्ग¸नस्लों का मारा हुआ ज़माना¸
हमसे बेहतर बना न पाता कोई बहाना
भाग्य लेख जन्मांध यहां पर
बड़े सलीके से पढ़ लेते

दर्द कहीं पर और कहीं इज़हार कर रहे
मरने से पहले हम तुम सौ बार मर रहे
फ्रेमों में फूहड़ अतीत को काट–छांट कर¸
बिला शकशुबह हम भर लेते

इधर रहे वो बुला
उधर को हम बढ़ लेते

(११)
क्या कहेंगे लोग
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क्या कहेंगे लोग¸
कहने को बचा ही क्या?
यदि नहीं हमने¸
तो उनने भी रचा ही क्या?

उंगलियां हम पर उठाये–कहें तो कहते रहें वे¸
फिर भले ही पड़ौसों में रहें तो रहते रहे वे।
परखने में आज तक¸
उनको जंचा ही क्या?

हैं कि जब मुँह में जुबानें¸ चलेंगी ही।
कड़ाही चूल्हों–चढ़ी कुछ तलेंगी ही।
मुद्दतों से पेट में–
उनके पचा ही क्या?

कहीं हल्दी¸ कहीं चंदन¸ कहीं कालिख¸
उतारू हैं ठोकने को दोस्त दुश्मन सभी नालिश
इशारों पर आज तक
अपने नचा ही क्या?

(१२)
पानी उछाल के
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आओ हम पतवार फेंककर
कुछ दिन हो लें नदी-ताल के।

नाव किनारे के खजूर से
बाँध बटोरं शंख-सीपियाँ
खुली हवा-पानी से सीखें
शर्म-हया की नई रीतियाँ

बाँचें प्रकृति पुरुष की भाषा
साथ-साथ पानी उछाल के।

लिख डालें फिर नए सिरे से
रँगे हुए पन्नों को धोकर
निजी दायरों से बाहर हो
रागहीन रागों में खोकर

आमंत्रण स्वीकारें उठकर
धूप-छाँव सी हरी डाल के।

नमस्कार पक्के घाटों को
नमस्कार तट के वृक्षों को

हो न सकें यदि लगातार
तब जी लें सुख हम अंतराल के।

(१३)

चिट्ठी पत्री ख़तो किताबत
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चिट्टी पत्री ख़तो किताबत के मौसम
फिर कब आएंगे?

रब्बा जाने,
सही इबादत के मौसम
फिर कब आएँगे?
चेहरे झुलस गये क़ौमों के लू लपटों में
गंध चिरायंध की आती छपती रपटों में
युद्धक्षेत्र से क्या कम है यह मुल्क हमारा
इससे बदतर
किसी कयामत के मौसम
फिर कब आएंगे?

हवालात सी रातें दिन कारागारों से
रक्षक घिरे हुए चोरों से बटमारों से
बंद पड़ी इजलास
ज़मानत के मौसम
फिर कब आएंगे?
ब्याह सगाई बिछोह मिलन के अवसर चूके
फसलें चरे जा रहे पशु हम मात्र बिजूके
लगा अंगूठा कटवा बैठे नाम खेत से
जीने से भी बड़ी
शहादत के मौसम
फिर कब आएंगे?

परिचय
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नईम
जन्म: एक अप्रैल सन पैंतीस को फतेहपुर (हटा)
जिला: दमोह (म.प्र.) में
शिक्षा :हिन्दी में स्नातकोत्तर। मध्यप्रदेश के विभिन्न शासकीय महाविद्यालयों में अध्यापन के बाद सेवानिवृत्त। ९ अप्रैल २००९ को निधन

लेखन-प्रकाशन-
सन् ५९ से लेखन, तभी से शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशन।

प्रकाशित रचनाएं-
दो संकलन - 'पथराई आंखें' (सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली से) इसी संकलन पर म.प्र. साहित्य परिषद् का 'दुष्यंत पुरस्कार'। 'बातों ही बातों में' (ज़रूरत प्रकाशन, इंदौर)।

भवभूति सम्मान व परिवार सम्मान द्वारा सम्मानित नईम ने कविता, सॉनेट, गीत और गज़ल लेखन के साथ साथ, पिछले दिनों काष्ठ-शिल्प के काम में नये आयाम स्थापित किए हैं।

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