#कौआरोर_मची_पंचों_में_सच_की_कौन_सुने_
वागर्थ प्रस्तुत करता है आदरणीय Rajendra Verma जी के
नवगीत ।
राजेन्द्र वर्मा जी के नवगीतों की व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति धीरे से बहुत कुछ ऐसा कह जाती है जिसे लोकहित में कहना नितान्त आवश्यक है , नवगीतों में शिल्प व व्याकरण का सौंदर्य उल्लेखनीय है । आपके समृद्ध नवगीत कथ्य और शिल्प में पुष्ट , विसंगत समय की नब्ज़ टटोलते हैं , जिनमें गहरी व्यंजना है । आपके गीतों का विशिष्ट शब्द सौष्ठव ,संप्रेषणीय कथ्य , तीक्ष्ण दृष्टि , विषय की व्यापकता , शालीन व गम्भीर कहन विशिष्ट बनाते हैं जिनकी बुनावट में बनावट नजर नहीं आती अतः पाठकों से सहज संवाद स्थापित करते हैं ।
वागर्थ आपको नववर्ष पर उत्तम स्वास्थ्य एवम् उन्नत साहित्यिक सक्रियता हेतु स्वस्ति कामनाएँ प्रेषित करता है ।
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(१)
काग़ज़ की नाव
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बाढ़ अभावों की आयी है,
डूबी गली-गली ,
दम साधे हम देख रहे
काग़ज़ की नाव चली ।
माँझी के हाथों में है
पतवार आँकड़ों की,
है मस्तूल उधर ही इंगिति,
जिधर धाकड़ों की,
लंगर जैसे जमे हुए हैं
नामी बाहुबली ।
आँखों में उमड़े-घुमड़े हैं
चिन्ता के बादल,
कोरों पर सागर लहराया
भीगा है आँचल,
अपनेपन का दंश झेलती
क़िस्मत करमजली ।
असमंजस में पड़े हुए हम
जीवित शव जैसे,
मत्स्य-न्याय के चलते साँसें
चलें भला कैसे ?
नौकायन करने वालों की
है अदला-बदली ।
(२)
कौन सुने
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कौआरोर मची पंचों में,
सच की कौन सुने ?
लाठी की ताक़त को
बापू समझ नहीं पाए,
गए गवाही देने
वापस कंधों पर आए,
दुश्मन जीवित देख दुश्मनी
फुला रही नथुने ।
बेटे को ख़तरा था,
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली,
अम्मा दौड़ीं बहुत,
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली,
कुलदीपक बुझ गया,
न्याय की देवी शीश धुने ।
सत्य-अहिंसा के प्राणों को
पड़े हुए लाले,
झूठ और हिंसा सत्ता के
गलबहियाँ डाले,
सत्तासीन गोडसे हैं,
गाँधी को कौन गुने ।
(३)
जिजीविषा पगली
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कब तक जियें जि़न्दगी जैसे
दूब दबी-कुचली ।
जिसे देखिए, वही रौंदकर
हमको चला गया,
अपशब्दों की चिंगारी से
मन को जला गया,
छोटे-बड़े, सभी ने मिल
छाती पर मूँग दली ।
लानों में बिछ इज़्ज़त खोयी
जो थी बची-खुची,
जीने को तो मिली जि़न्दगी,
पर सँकुची-सँकुची,
शीश उठाया, तो माली ने
की हालत पतली ।
क्यारी का हर फूल हँसे,
अपनी हालत खस्ता,
कली-कली पर नज़र गड़ाए
बैठा गुलदस्ता,
मान और सम्मान न जाने
जिजीविषा पगली ।
(४)
किससे करें गिला
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रोटी मिले पेट-भर भाई !
समझो, बहुत मिला ।
दो जोड़ी कपड़े,
सिर पर छत—
सपने ही तो हैं,
भूखे-प्यासे संगी-साथी
अपने ही तो हैं ।
मिला न क़िस्मत
लिखने वाला,
किससे करें गिला !
फुटपाथों पर लगा हमारा
साझे का बिस्तर,
लोकतंत्र मुँह ढाँपे पहुँचा
पूँजीपति के घर,
बुढ़ा गये, लेकिन अभाव का
दरका नहीं क़िला ।
होनहार बिरवे के पत्ते
बने धनिक के गण,
वैभव की चाहत में खोये
परिवर्तन के क्षण,
बच्चे बदल रहे जिंसों में,
थमता न सिलसिला ।।
- राजेन्द्र वर्मा
राजेन्द्र वर्मा
जन्म
8 नवम्बर 1957, बाराबंकी (उ.प्र.) के एक गाँव में ।
प्रकाशन-प्रसारण
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गीत-नवगीत, ग़ज़ल, दोहा, मुक्तक, कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, निबन्ध, उपन्यास आदि
विधाओं में पचीस पुस्तकें प्रकाशित । महत्वपूर्ण संकलनों में सम्मिलित ।
लखनऊ दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से रचनाएँ प्रसारित ।
पुरस्कार-सम्मान
उ.प्र.हिन्दी संस्थान के व्यंग्य एवं निबन्ध-नामित पुरस्कारों सहित
देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित ।
सम्प्रति
भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबन्धक के पद से
सेवानिवृत्ति के बाद स्वतन्त्र लेखन।
सम्पर्क
3/29 विकास नगर, लखनऊ 226 022 (मो. 80096 60096)
ई-मेल : rajendrapverma@gmail.com
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