सोमवार, 10 जनवरी 2022

धूप भरकर मुट्ठियों में : मीमांसा के दायरेमें --------बृजनाथ श्रीवास्तव

रचना की तासीर में वागर्थ प्रस्तुत करता है प्रख्यात नवगीतकार और समालोचक आदरणीय बृजनाथ श्रीवास्तव जी का एक समीक्षात्मक आलेख।
प्रस्तुति
वागर्थ
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धूप भरकर मुट्ठियों में : मीमांसा के दायरेमें 
                                    --------बृजनाथ श्रीवास्तव
             आज की कविता अथवा गीत प्रचलित अवधारणाओं से अपने को अलग रखकर समय के साथ कदम-ताल मिलाकर चलता है . वह जीवन से हारा हुआ अकेले में रुदन नहीं करता बल्कि हर वक्त समाज और उसकी विभिन्न जीवन गतिविधियों से अपने को रू ब रू करता रहता है . और परिस्थितियों से दो-दो हाथ आजमाने को उद्यत रहता है.  समाज शास्त्री वेब्लेन के प्रौद्योगिक निश्चयवाद ( Technological Determinism ) के अनुसार जैसे-जैसे कोई नयी प्रौद्योगिकी  ईजाद होती है और उसका व्यवहार समाज में होने लगता है तो उससे मनुष्य के सामाजिक सम्बंध और जीवन पद्धतियाँ बदलने लगती हैं जैसे कि एक वक्त था जब सहकारिता की बहुत बड़ी आवश्यकता थी . ग्राम्यांचल के लोग छप्पर उठवाने में , खेती-बाड़ी इत्यादि में एक-दूसरे का भौतिक सहयोग करते  थे . आज कृषि कार्य के साथ-साथ विभिन्न कार्यों के लिए  मशीनें एवं उपकरण आ गये और समाज उन पर आश्रित हो गया .यह प्रक्रिया रसोई से लेकर अंतरिक्ष तक व्याप्त विस्तार ले चुकी है.
        परिणामस्वरूप मानव श्रम और मानव सहयोग की आवश्यकता नगण्य सी हो गयी है. आज कम्प्यूटर जैसी मशीनें आने से मानव श्रम औचित्यहीन सा हो गया है . इन सभी उपयुक्त-अनुपयुक्त बदलावों से साहिय जगत भला अछूता कैसे रह सकता है . इसी संदर्भ में प्रतिष्ठित नवगीतकार स्व. दिनेश सिंह ने अपने नवगीत संग्रह ‘ समर करते हुए ‘ में कुछ इस प्रकार कहा है...
             “जो रचना अपने समय का साक्ष्य बनने की शक्ति नहीं रखती ,जिसमें जीवन की बुनियादी सच्चाइयॉ केन्द्रस्थ नहीं होतीं ,जिसका विजन स्पष्ट और जनधर्मी नहीं होता वह अपनी कलात्मकता के बावजूद अप्रासंगिक रह जाती है “
           ‘नवगीत ‘ इन्हीं परिवर्तनों की अद्यतन कविता है जो बदलते हुए समाज की यथार्थता के साथ कदम-ताल मिलाकर चलता है . ‘नवगीत ‘ कल्पनालोक के वायवी वातावरण में विचरण नहीं करता बल्कि प्रतिक्षण जीवन की कटु सच्चाइयों से रू ब रू होता रहता है और घटित होने वाला  सभी कुछ आत्मसात करता रहता है. जीवन की इन्हीं सच्चाइयों से रू ब रू करवाते नवगीतकारों की एक लम्बी लिस्ट है जो अनेक आलोचनाएं सहकर भी बड़ी ही शिद्दत के साथ नवगीत की वीणा के तार झंकृत किए हैं इन्हीं नवगीतकारों के बीच बड़े ही आदर से लिया जाने वाला सर्वसुपरिचित और  स्थापित नाम है मनोज जैन का . मनोज जैन एक सिद्ध और निष्णात नवगीतकार हैं जिनसे मेरा परिचय लगभग एक दशक पुराना है . कानपुर आगमन पर उनके सम्मान में एक कवि-गोष्ठी वरिष्ठ एवं प्रतिष्ठित नवगीतकार आदरणीय भाई शैलेंद्र शर्मा के निवास पर आयोजित की गई थी ,जिसमें उन्हें पूरी शिद्दत के साथ सुनने का अवसर मिला था . उस समय तक उनका एकमात्र नवगीत संकलन ‘ एक बूँद हम ‘ प्रकाशित हुआ था . भाई मनोज जी की रचना धर्मिता अनवरत नये-नये प्रयोगों और नये-नये आयामों के साथ अनवरत जारी है . आप फेसबुक पर ‘ वागर्थ’ नाम से एक समूह प्रसारित कर रहे हैं जिसमें देश के ख्यातिलब्ध नवगीतकारों , शायरों की रचनाएं अनवरत प्रसारित की जा रही हैं जिन पर समालोचकों द्वारा टिप्पणियाँ भी प्रेषित की जाती हैं . अभी वर्ष 2021 में सद्य: प्रकाशित आपके दूसरे नवगीत संकलन ‘ धूप भरकर मुट्ठियों में ‘से रू ब रू होने का अवसर सुलभ हुआ .  
               ‘ धूप भरकर मुट्ठियों में ‘कुल 80 रचनाएं हैं .जो विभिन्न मूड्स की हैं  जिनमें समाज के सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक , धार्मिक और साँस्कृतिक अवयवों के क्षरण और समर्थन के साथ-साथ रिश्तों समाज –व्यवहार की रचनाएं संकलित हैं . इनके मूड्स हैं प्रार्थना, प्रेम ,जीवन-व्यवहार , दर्शन , विरोध , आह्वान ,किसानी , परिवार , पर्यावरण, ऋतूत्सव, राजनीति, अभावग्रस्तता इत्यादि. अपनी वय के 46 बसंत, 46 बरखा और इतने ही कड़क शीत के मौसमों के सुखद-दुखद अनुभवों को झेल चुका कवि मध्य प्रदेश के ‘बामौर कला’ ग्राम्यांचल में जन्मा ,पला-बढ़ा और राजधानी भोपाल नगर को अपनी कार्यस्थली चुना. कहने का तात्पर्य है कि मनोज जैन के कवि हृदय के पास नागरी एवं ग्राम्यांच जीवन के पके अनुभवों का अक्षय कोष है .संकलन की रचनाओं का प्रारम्भ वाणी वंदना के नांदी पाठ से होता है . कवि सर्वप्रथम अपने कल्याण के लिए माँ वागेश्वरी की प्रार्थना करते हुए आगे का मार्ग प्रशस्त करता है.’ वाणी-वंदना ‘ “ गीतों में तमस से मुक्ति  चाहते हुए हृदय की चेतनता की कामना करता है .एतदर्थ वह याचित वर का आकांक्षी है---
“ वीणीपाणि ! हमें यह वर दो 
जड़ता की माँ जड़ें हिला दो 
हृदय-हृदय चेतनता ला दो
ज्ञान पियासी हृदय झील में 
वर-विवेक के कमल खिला दो 
हे माँ ! तेरे लाल करोड़ों 
वरद हस्त सबके सिर धर दो “

जबकि दूसरे प्रार्थना गीत ‘ माँ वाणी का प्यार मिला ‘ में अपने से अलग हटकर समष्टि के कल्याण की कामना की गई है ---“ बड़भागी हैं जिन्हें रात-दिन / माँ वाणी का प्यार मिला / मिली शब्द की सत्ता जिनको  / शब्दों का संसार मिला “
       सांस्कृतिक एवं भौतिक जीवन-दर्शन पर केंद्रित भव-भ्रमण की वेदना ,सोया है तन के अंदर और बूँद में समंदर जैसे कई गीत हैं . ‘ बूँद का मतलब समंदर है’ गीत में कवि ने सत्यं, शिवं , सुंदरम की दार्शनिकता का निरूपण करते हुए ‘ निराकार , सर्वव्यापी , एकोsहं की विराटता को उधाटित करता है .उसका मानना है कि बूँद-बूँद से  समंदर बनता है . देखिए---

“ ब्रह्म-वंशज हम सभी हैं 
ब्रह्ममय हो जायेंगे 
बैन सुन अरिहंत भाषित 
शिव अवस्था पायेंगे 
जीतकर खुद को हमें 
बनना सिकंदर है “ 
     ‘प्रेम’ के क्षेत्र में कवि परिपक्व वैचारिकी का स्वामी है जिनमें प्रेम को विभिन्न दृष्टिकोणों से जीने के साथ-साथ मांसलता और वासना से विरत अलौकिक एवं त्यागमयी गार्हस्थ्य प्रेम में अनुरक्ति सर्वाधिक परिलक्षित होती है .तू जीत गई , मैं हार गया ,याद रखना हमारी मुलाकात को ,चुंबनों के फूल ,मौन तो तोड़ो, देख कर श्रृंगार, मधुर मुस्कान , तुम हमारी हो ,मंगल हुआ ,फिर उत्फुल्ल हुआ इत्यादि रचनाएं प्रेम के विविध आयामों को बड़ी ही संजीदगी से जीवंत किये हैं . गार्हस्थ्य की लुका-छिपी के बीच अनबन से उपजा मानिनी को मनाने का गीत जीवन के मील के पत्थर की भाँति स्थापित है क्योंके जीवन की आनंदमयी यात्राएं यहीं से अपनी दिशा , कर्म और त्याग तय करती हैं . चित्र दृश्य देखें ---

“ क्या सही , क्या है गलत / इस बात को छोड़ो / मौन तो तोड़ो
नेह के मधुरिम परस से / खिले मन की पाँखुरी 
मौन टूटे तो बजे / मनमीत ! मन की बाँसुरी 
अजनबी हम तुम बने / सम्बंध तो जोड़ो 
रचें मिलकर एक भासःआ / राग की , अनुराग की 
जो कभी बुझती नहीं / उस प्रीत वाली आग की 
कामना के पंथ में तुम / प्रेम-रथ मोड़ो “ 
         जीवन और जागतिक व्यवहार में कवि बहुत ही समृद्ध और पारदर्शी है . उसे साफगोई पसंद है. वह उचित व्यवहार को बड़े ही सलीके से सम्प्रेषित करने में सक्षम है . हम बहुत कायल हुए हैं , प्यार के दो बोल बोलें , फंसते हैं फंदों में ,साध कहां पाता हर कोई ,भीड़ में मैं हूँ अकेला  इत्यादि रचनां इसी मूड्स की हैं .कुछ उद्धरण दृष्टव्य हैं---

“ कुछ नहीं दें किंतु हँसकर / प्यार के दो बोल बोलें 
हम धनुष से झुक रहे हैं / तीर से तुम तन रहे हो 
हैं मनुज हम , तुम भला फिर / क्यों अपरिचित बन रहे हो 
हर घड़ी शुभ है चलो , मिल / नफरतों की गाँठ खोलें 
हाथ पर सरसों जमाना / तूल देना छोड़ देना 
हम न अब तक सीख पाए / व्यर्थ में मन तोड़ देना 
साक्ष्य ईश्वर को बनाएं / और अपने को टटोलें  “
   दुनियादारी और मूल्यों के क्षरण को भोगते हुए प्रायं कवि अवमूल्यन से सामंजस्य नहीं बिठा पाता , क्योंकि उसे अराजक , अमानुष , अतार्किक  व्यवहार पसंद ही नहीं है . लोगों ने मूल्यों के अपने-अपने मानक गढ़ लिये हैं . कुछ लोग ऐसी ही लूटों से महान बन गये हैं .कवि ऐसे समाज से शिकायत भरे लहजे में अपने शब्दों में प्रतिरोध का ओजस्वी स्वर भर कर हुंकार लगाता कि ---
“ हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के / जो बोलोगे रट जायेंगे 
है सोच हमारी ब्योहारिक / परवाह न जंतर-मंतर की 
लोहू है गरम शिराओं का / उर्वरा भूमि है अंतर की 
संदेश नहीं विज्ञापन के / जो बिना सुने कट जायेंगे 
उलझन से भरी पहेली का / इक सीधा-सादा सा हल है 
बेअसर हमारी बात नहीं / अपना भी ठोस धरातल है 
हम बोल नहीं हैं नेता के / जो वादे से नट जायेंगे  “
   कवि नकली कवियों पर भी चुटकी लेते हुए कहता है कि---“ नकली कवि कविता पढ़कर जब / कविता –मंच लूटता है / असमय लगता है धरती पर / तब ही आकाश टूटता है “
    अभी कुछ माह पूर्व सरकारी कुनीतियों के कारण देश का अन्नदाता किसान अनेक यातनाओं को झेलता हुआ अपने अस्तित्व के लिए न जाने कितना क्या- क्या नहीं सहा . सरकारी अराजकता के कारण लगभग सात सौ किसान अकाल मृत्यु को वरण कर बलिदानी हो गये . मनोज जैन का कवि हृदय भी बिना द्रवित हुए न रह सका . और कवि की वाणी से असकृत श्ब्द निर्झर फूट पड़ा ---
“ कृषक कर्म करता है / खलिहानें भरता है 
रोटी की चाहत में / तिल-तिल जो मरता है 
कीमत कब आँकी जाती है / श्रम के अवदान की      
जय बोलो एक बार / मिलकर किसान की 
आशाएं बोता है / चिंताएं ढोता है 
मुस्कानें गिरवीं रख / जीवन भर रोता है 
आरती उतारें हम / भूखे भगवान की “
   कवि मध्य प्रदेश में स्थित  प्राकृतिक सौंदर्य की लीलास्थली ‘ भीम बेटका’ को अपनी स्मृतिपटल से तिरोहित नहीं कर पाता है . प्रकृति के अन्य अवयवों में विभिन्न ऋतुओं के नैसर्गिक आनंद के गीत कवि ने जी भरकर गाये है .  मेघ आए , ठूँठ बसंत हुआ, बेला के फूल, काँप रहे गाँव  जैसी रचनाएं इसी प्रकृति भावभूमि की समृद्ध उपज हैं . बेला के फूल से एक उद्धरण देखें जिसमे मौसम ने उद्दीपन का कार्य किया है और कवि मन ऐसी पावस ऋतु में अपनी सलोनी प्रिया से मनुहार की मुद्रा में प्रस्तुत हो रहा है--- 
“ बलखाती  नदिया के / हँसते हैं कूल 
बेला के फूल खिले / बेला के फूल 
उम्मीदें करती हैं / सोलह सिंगार 
मौसम ने बाँहों के / डाल दिए हार 
होने को आतुर है / मीठी सी भूल 
डोल रही दिशा-दिशा / मुग्धा मनुहार 
छलक रहा नयनों में / रस भीना प्यार    
सुधियों में प्रियतम की / प्रीत गई झूल “ 
        इसके विपरीत ‘ मैं नदी थी ‘ गीत में नदी के क्षरणशीका स्वरूप को चित्रित किया गया है . अब नदी सावन-भादों की नीरपूर्णा नदी न होकर क्षरण को प्राप्त होने वाली रेत डूबी कृशकाया वाली हो चली है . चित्र देखें----
“ मैं नदी थी / रह गई अब एक मुट्ठी रेत 
घूमतीस बेघर हुई अब / ज्यों भटकता प्रेत “
    कवि को अपने समाज में मनाये जाने वाले होली, दीवाली जैसे त्योहारों की महत्ता को भी अपनी गीतों में शब्दाकार दिया है ज्योतिपर्व दीवाली को केंद्र में रखक एक मनोरम गीत को बड़ी ही चारुता के साथ प्रस्तुत किया है कवि ने . चित्र देखें ---
“ स्वर्णिम किरण धरा पर उतरी / जी भर मुस्काई / दीवाली आई 
रोशन हुआ धरा का आँगन / माँडे राँगोली 
सौगातों को दे आमंत्रण / फैलाकर झोली 
नेह पगे अंतर अब उच्चारें / आखर ढाईं 
फुलझड़ियों से नित्य नेह के / सुंदर फूल झरें 
वंचित , शोषक की कुटिया में / चलकर दीप धरें 
भेदभाव की चलें पाट दें / युग-युग की खाईं “  
  अभी तक हमने पढ़ा था कि परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला है किंतु आज के भौतिक युग में वह सांस्कृतिक शिक्षा नहीं रह गई है जो समाज और परिवर को नियंत्रित कर सके / बच्चों को देश से विदेश तक की यात्राएं करके अपनों से सुदूर निर्वासित होना पड़ता है . साथ ही अशिक्षा , मँहगाई और बेरोजगारी की वह स्थिति आ गई गै कि पढे-लिखे बच्चे भी भयंकर बेरोजगारी और अभावग्रस्ता से जूझ रहे है. उनमें हीनभावना पनप रही है और उनकी बात-चीत के ढंग भी बदलने लगे हैं . आज के अधिकांश  बच्चे अपने परिवार के बड़े-बुजुर्गों का कहाँआ न मानकर उल्टे उन्हें जवाब देने पर आमादा हो जाते हैं . ऐसा ही कवि द्वार निरूपित यथार्थपरक चित्र दृष्टव्य है ---
“ बात-बात में बात काटता / बेटा अपने बाप की 
कौन भला समझेगा पीड़ा / युग के इस संताप की
मूल्य सनातन हुए पुरातन / कहता सब बेमानी है
बैठे-ठाले बात-बत पर / होती खींचा-तानी है
निऋणय थोपे ऐसे , जैसे / हो पंचायत खाप मी 
संदर्भों से कटकर सोंचे / आसमान में उड़ने की 
पिता सँजोये चाहत मन में / अपनी जड़ से जुड़ने की 
छोड़ो, समय गिना ही देगा / कमियाँ इस आलाप की “

बोल , कबीरा बोल ,राजनीति की उठापटक में , कैसा है यह देश , कुर्सी का आराधक नेता , राजा जी , सरकार ,जैसी रचनाएं विशुद्ध राजनीतिक उठापटक और दाँव-पेचों से जुड़ी हैं जिनका सीधा-सीधा प्रभाव आम जनता पर पड़ता है . एक गीतांश देखें ---
“ राजनीति की उठापटक औ’ धींगामुश्ती में 
केवल जनता ही है जिसको चूना लगता है 
इनका क्या , इनकी नजरें तो / केवल मुद्दों पर टिकती हैं 
जन-गण-मन इनको कब सूझे  / इन्हें कोठियाँ ही दिखती हैं 
इनकी अपनी समझ कूट संकेतों में 
हमको दिल्ली , पर इनको वो पूना लगता है  “

जीवन के विभिन्न आयामों , संगतियों / विसंगतियों , उठापटक को जीते हुए भी कवि के अंदर आशाओं के दीप की बातियाँ अभी भी प्रकाशमान हैं .उसे अभी भी विश्वास है कि कोई न कोई तो दिन ऐसा आयेगा जब यह मानव समाज विश्वबंधुत्व को जीते हुए एक-दूसरे के सुख-दुख में निस्पृह शामिल होते हुए कल्याणी मार्ग का अनुसरण करेंगे . इसी आशावाद के आह्वान की भावभूमि पर केंद्रित करना होगा सृजन , बंधुवर !, काश ! हम होते ,लिखें लेख ऐसे , दीप जलता रहे , सगुन-पाँखी ! लौट आओ, इत्यादि रचनाएं रचनाकार को ‘ तमसो मा ज्योतिर्गय ‘ का पावन मार्ग प्रशस्त करती हैं .कुछ बानगी देखें ---
“नेह के ताप से / तम पिघलता रहे / दीप जलता रहे
शीश पर सिंधुजा का / वरद हस्त हो 
आसुरी शक्ति का / हौसला पस्त हो
लाभ-शुभ की घरों में / बहुलता रहे / दीप जलता रहे 
दृष्टि में ज्ञान-विज्ञान का वास हो 
प्रेम में प्रीत का दर्श उल्लास हो 
चक्र समृद्धि का / नित्य चलता रहे / दीप जलता रहे “ 
     निष्कर्षत: मैं यही कहना चाहूँगा कि मनोज जैन के कवि ने जीवन के आंतरिक एवं बाह्य जगत को बड़ी ही सूक्ष्म एवं निरीक्षक दृष्टि से देखा ,जाँचा, परखा है , इन गीतों की भाषा , बोलचाल की सर्वबोधगम्य एवं सम्प्रेषणीय है .पाठक पढ़ता जाता है और भावार्थ को आत्मसात करता जाता है . कहीं-कहीं लोकोक्तियों के ये प्रयोग भी किये हैं जैसे---‘ हो पंचायत खाप की ‘ रचनाओं एवं रचनाकार के सुखद भविष्य की कामना के साथ....शेष पाठकों के हिस्से में ...
पुस्तक का नाम : धूप भरकर मुट्ठियों में     

सम्पर्क: 
21, चाणक्यपुरी ई-श्याम नगर 
न्यू पी.ए.सी लाइंस , कानपुर-208015
मोबा: 09795111907

परिचय

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परिचय
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 बृजनाथ श्रीवास्तव
जन्म एवं स्थान : 15 अप्रैल 1953
जन्म स्थल  :   ग्राम- भैनगाँव,जनपद- हरदोई (उ.प्र.) 
शिक्षा :  एम.ए.(भूगोल)
 दो दर्जन नवगीत संग्रह प्रकाशित
अनेक पत्र पत्रिकाओं सहित समवेत समवेत संकलनों में नवगीत / प्रकाशित
 उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान , लखनऊ द्वारा ‘ निराला सम्मान-2017 ‘ से सम्मानित एवं पुरस्कृत एवं अन्य विभिन्न साहित्यिक , सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित 
भारतीय रिजर्व बैंक के प्रबन्धक पद से सेवानिवृत्त
सम्प्रति  :  पठन,पाठन, लेखन एवं  पर्यटन
सम्पर्क :  21 चाणक्यपुरी, 
  ई-श्याम नगर,न्यू.पी.ए.सी.लाइंस , कानपुर- 208015  
   Email: sribnath@gmail.com

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