मंगलवार, 11 मई 2021

इसाक अश्क दो नवगीत टिप्पणी मनोज जैन

विज्ञापन हो गई जिंदगी रिश्ते हुए दुकान : इसाक अश्क के दो नवगीत

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                     तराना,जिला-उज्जैन मध्य-प्रदेश,के कवि इसाक अश्क अपने समय के महत्वपूर्ण रचनाकार रहे हैं। वे सिर्फ रचनाकार ही नहीं थे, कुशल और निष्णात सम्पादक भी थे। उन्हें गीत और नवगीत में अंतर करना बखूबी आता था। उनके सम्पादकत्व में निकलनेवाली एक स्तरीय पत्रिका 'समानातंर' के अंक वरिष्ठ कवियों के पास अब  भी सुरक्षित होंगे। यह उनकी अन्तर दृष्टि का ही कमाल था कि वह गीत अलग और नवगीत अलग कॉलम में प्रकाशित करते थे। 'समानातंर' में न तो किसी की निन्दा के लिए कोई छिछला और बेहूदा कॉलम था और न ही फ्रंट पेज पर कोई मादक बिखेरती नवयौवना की अदाओं पर फिदा हो जाने वाला कोई कलरफुल फोटो !
उनकी पत्रिका में शायद ही कभी स्वयं के विज्ञापन में कसीदे गढ़ने वाली  कोई टिप्पणी या फैमिली फोटोग्राफ्स प्रकाशित हुआ हो !
               हाँ, डॉ इसाक अश्क स्वाभिमानी क़िस्म के व्यक्ति जरूर थे,और हठीले और जिद्दी इतने कि ,हो सकता आपके प्रणाम प्रेषित या नमस्कार करने पर वह दूसरी ओर मुँह फेरकर खड़े हो जाएं ! इस मामले में उनका व्यक्तित्व पूरी तरह संकल्प रथ के यशस्वी सम्पादक राम अधीर जी से मेल खाता था, और उक्त विशेषताएं लगभग दोनों कवियों में समानरूप से विद्यमान थीं। दोनों ने अपनी दम पर पत्रिकाओं को लम्बे समय तक चलाया जब  गीत नवगीत के  बनिस्बत नयी कविता पर ज्यादा बात होती थी।इन दोनों कुशल शिल्पियों और निष्णात सम्पादकों ने गीत नवगीत के लिए ता उम्र अविस्मरणीय संघर्ष किया।
                                   कहने का आशय यह कि यदि व्यक्ति सैद्धांतिक है और अपनी धुन का पक्का है तो भले ही इस फ़ानी दुनिया से कूच कर जाए, परन्तु वह अपने पीछे  जो, सद्कर्मों की विरासत और आदर्शों की संरक्षित बौद्धिक सम्पदा छोड़कर जाता है ,वह सदैव अनुकरणीय होता है। यही कारण है कि इसाक अश्क आज जब वह हमारे बीच नहीं हैं तब भी वह  हम जैसों के चहेते हैं ।      आज  भी उनका लिखा  उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले कभी था ।
        प्रासंगिक होने के लिए रचना के केंद्र में समता , न्याय, बंधुत्व ,दया और करूणा के समुच्चय का होना बहुत जरूरी है यह सारे तत्व सिर्फ रचना में जान डालने के लिए भर न हो बल्कि हमारे जीने की शैली में भी झकलने चाहिए यह नहीं कि रचना तो हो उच्चकोटि की और निजी जीवन शैली में आप अपने पडौसी को भी एडजेस्ट नहीं कर पाते हों!
        इसाक अश्क के प्रस्तुत नवगीत उनके व्यक्तित्व का आईना भी है। और इस आईने में  वर्तमान समाजिक ढाँचे की नींव में धसीं तमाम तल्ख़ विसंगतियों के अक़्स पूरी ईमानदारी से देखे जा सकते हैं।
   आज के लिए इतना ही
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टिप्पणी
मनोज जैन

1

दिन आते हैं
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रोते हैं 
जब नयन 
अधर मुस्काते हैं
ऐसे दिन 
हाँ-ऐसे दिन भी 
आते हैं 

सबके अपने 
अलग-अलग हैं 
            तौर-तरीके जीने के 
जगह-जगह से 
फटी उम्र को 
            जैसे-तैसे सीने के 

बिना पिये 
महुआ 
ताड़ी मदमाते हैं

इस दुनिया की 
चहल-पहल के- 
                    रँग-ढँग दस्तूर निराले 
उजले वसन 
पहन बैठे हैं- 
          मन से जनम -जनम के काले 
करनी से 
हर कथनी को 
झुठलाते  हैं

2

रिश्ते हुए दुकान 
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विज्ञापन हो गई 
जिन्दगी /रिश्ते हुए दुकान 
भीतर से इसलिए 
सभी हैं /घायल -लहू लुहान 

                        जाने किस 
                        जन -समूह, भीड़ में -
                               खोया अपनापन 
                        परिचित तो है 
                        यहां सभी पर -
                        कोई नहीं स्वजन 

घर होकर रह गए 
ईंट-पत्थर के /सख्त मकान
                        हमें नहीं होता 
                        औरों की 
                        पीड़ा का अहसास 
                        भावरूप 
                        भावुकता लगती है -
                        विशुद्ध बकवास 
पैठ नहीं पाती
अन्तर तक /मुँह देखी मुस्कान

इसाक अश्क
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