रविवार, 23 मई 2021

महेश अनघ के दोहे

सातवीं कड़ी
महेश अनघ
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समकालीन दोहा की सातवीं कड़ी में प्रस्तुत हैं व्यंजना के विशुद्ध कवि महेश अनघ जी के समकालीन दोहे

              महेश अनघ जी की मूल पहचान भले ही नवगीत कवि के रूप में हो, परन्तु उन्होंने जिन अन्य विधाओं में लिखा, वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उनके घर का नाम 'व्यंजना' यों ही नहीं है। पिछली छह कड़ियों के नोट में, मैंने सरलता और सहजता को मुख्य रूप से हाईलाइट किया था, परन्तु प्रस्तुत दोहों के सन्दर्भ में यहाँ सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि अनघ जी के दोहाकार से तादात्म्य स्थापित करने के लिए आपको जो दोहे के रूपाकार में चंद शब्द दिखाई दे रहे हैं,आपको अर्थ की निष्पत्ति के लिए दिखाई देने वाले शब्दों के उस पार उतरना होगा केवल तभी जाकर आप अर्थ से जुड़ सकेंगे।
                                                 इन दोहों में रसराज का आनन्द है। नीति की सूक्ष्म सूक्तियाँ हैं। संवाद के स्वगत कथ्य हैं साथ ही कवि, कविता और कविधर्म की परिभाषाएं हैं। बिम्ब और प्रतीक के बिना तो व्यंजना की सम्पूर्णता होती ही नही इसलिए यह नहीं कहूँगा कि इन दोहों में व्यंजना भी है बल्कि यह कहना समीचीन होगा कि इन दोहों में पूरी की पूरी व्यंजना ही है। तभी तो वह अपने एक दोहे में कहते हैं ,--सूरज निकला काम पर पहन के ओवरकोट ! 
          अब आप ही देखिए इस पंक्ति में कल्पना और मानवीयकरण अलंकार साहचर्य और जितना प्यारा रूपक यहाँ देखने को मिलता है वह अन्यत्र कहाँ !
 इसीलिए तो कहते हैं अनघ जी तो अनघ जी थे उनकी तुलना किसी और से फिलहाल तो असम्भव ही है!

                             आइए पढ़ते हैं
महेश अनघ जी के समकालीन दोहे

टिप्पणी
मनोज जैन
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           सूरज निकला काम पर पहने ओवरकोट
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            बाँह बड़े की जब गही,बौना हुआ शरीर।
       चलना हुआ लकीर पर,धारण कर जंजीर।।

           सबसे पहले मान्यवर,ऊँट करे जलपान।
        कुआँ खोदने के समय,चींटी का गुणगान।।

               भाव बुलंदी पर हुए,और सितारे मंद।
             अँगुली में पहने हुए,अष्टधातु के छंद।।

        गोरा पर्वत मोम का,काली किरण वियोग।
     इस अद्भुत संयोग को, कवि कहते है लोग।।

         जीवन छाया जेठ की,मन पावस की धूप।
           खारे जल में देखिए, कभी हमारा रूप।।

             हँसी हमारी दूबरी,दुख पलाश के फूल।
   जब सुलगे तब शुभ लगें ,महके तो प्रतिकूल।।

          वधशाला है प्रेस की, राजा की टकसाल।
       इन दोनों के बीच में, कविता की ससुराल।।

          कविता कूदी आग में,बाकी बची लकीर।
   अब क्या करने आ रहे,ज्योतिष पीर फकीर।।

              ये पलाश को ले गये,वे ले गये गुलाब।
            जंगल मेरे पास है,सीधा सरल हिसाब।।

       शीतल जल रोटी गरम,मिल कर चले शरीर।
         इस कारण दौनों रखे,तुलसी और कबीर।।

            राम राम कर जी रही,धरती आधी मौत।
         बरस बाद लौटे पिया,लेकर बिजुरी सौत।।

          बादल मतवाला हुआ,छुआ धरा का गात।
            लाज शरम ऐसी तजी,दिन देखे न रात।।

         कजरी गावै ब्याहता, बिटिया गाये मल्हार।
               पैंग हिंडोले पर चढ़ै,जैसा चढ़ै सवार।।

          कलश भरे पुरवा खड़ी,पिछवाड़े के द्वार।
           घर में आये पाहुने,भाभी खोल किवार।।

            सारस आये ताल पर,धरे सतोगुणी रूप।
          शरमा कर पीली पड़ी, स्वर्णपरी सी धूप।।

                 दिन में आधी रात है,रातें हुईं मसान।
           जो जागै शमशान में,होय ब्रह्म का ज्ञान।।
 
          वन उपवन कुहरा घना,नदी धुंध की ओट।
          सूरज निकला काम पर,पहने ओवरकोट।।

               दाँतों की वीणा बजी,सांसों का संगीत।
          भीम पलासी पर हुई,मालकौंस की जीत।।

             लेकर नभ ने चन्द्रमा,बांटा धवल उजास।
            एक रुपये में लीजिए,धरती भरा कपास।।

                जग जाहिर होने लगा,चकवा तेरा प्यार।
               ताजमहल हो जाएगा,अब सारा संसार।।
 
महेश अनघ
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