गुरुवार, 13 मई 2021

श्याम श्रीवास्तव जी के दो नवगीत

किसी को मौन गुमसुम मुँह ढके देखा नहीं जाता : 
___________________________________
श्याम श्रीवास्तव 
____________
                           ' लीड फ्रॉम द फ्रंट '
                           _______________

                            देश के मुखिया राज्य के चुनावों में मुखर और संकट की घड़ी में भले ही मौन हों पर साहित्य के प्रेमियों ने हमेशा संकट की घड़ी में सांत्वना के दो बोल बोलकर निराशा के घटाटोप में आशा की किरण जगाकर जीवन में, नये उत्साह का संचार किया है। 
                                                 आचार्य विनोबा भावे ने अपने एक कथन में कहा है कि संघर्ष और उथल पुथल के बिना जीवन बिल्कुल नीरस हो जाएगा इसलिए इनसे घबराएं नहीं। चुनौतीपूर्ण समय में आज जब यह आसन्न संकट समूची सृष्टि को निगलने के लिए मुँह बाए खड़ा है तब हमें चाहिए कि हम माहौल को सकारात्मक बनाने की पहल क्यों न अपने आस-पास से ही करें।
                   आइए पढ़ते हैं आशा का संचार करते इन दो गीतों को गीत के रचेयता लखनऊ निवासी श्याम श्रीवास्तव जी हैं आप केवल बहुत प्यारे गीतों के लिए ही नहीं जाने जाते बल्कि आपके ठहाके लेने का अंदाज भी मित्रों में चर्चा का विषय बनता है ।
                        प्रस्तुत हैं श्याम श्रीवास्तव जी के ,आशा का संचार करते दो गीत ' लीड फ्रॉम द फ्रंट ' की बात करें तो इस दायित्व का भार सदैव सत्ता के बनिस्बत साहित्य ने पूरी ईमानदारी से वहन किया है और आज भी बख़ूबी कर रहा है।
टिप्पणी
मनोज जैन
________

    

1

लहर जैसे 
_______

लहर हैं हम 
अजाने रास्तों को आजमाते हैं 
सुगंधें साथ ले आते 
निशानी छोड़ आते हैं 

हमारी आदतें ऐसी 
कि चुप बैठा नहीं जाता 
किसी को मौन, गुमसुम मुँह 
ढके देखा नहीं जाता 
हमारे पास तेवर भी 
जिगर -जज्बा मिलन का भी 
भिड़े तट से कभी हम
चाँद से आँखें मिलाते हैं 

हमारा दल न झंडा
किंतु रेला साथ चलता है 
नहीं चमचे, हमारे साथ में 
पुरुषार्थ चलता है 
कहीं छूटे न कोई बीच में 
रूठे नहीं कोई 
पिछड़, कोने पड़े उनको 
पकड़ आगे बढ़ाते हैं 

जवानी प्रिय, मगर यह शर्त है 
कुछ आग पानी हो 
घटा, कैसी घटा ,जिसमें,
न बिजली हो,न पानी हो 
फसल हो,रूप हो कोई
कि हो कोई सदानीरा,
रवानी , चाल की लय, ताल 
कलकल स्वर लुभाते हैं।

2

रूप के उस पार 
____________

यह मुआ 
अखबार फेंको
इधर 
हरसिंगार देखो 

जागते  ही 
बैठ जाते 
आँख पर ऐनक चढ़ाके 
भूल जाते 
दीन- दुनिया दृष्टि खबरों
पर गढ़ाके 
क्या धरा 
गुजरे- गये में 
डोलती मनुहार देखो 

चाहे बाजू 
में धरी है 
गर्म है 
प्याली भरी है 
लौंग, तुलसी ,
मिर्च काली 
सोंठ -मिसरी सब पड़ी है 

जो नहीं 
मिलता खरीदे
घुला वह भी प्यार देखो

बह रही 
नदिया, खड़े हो
घाट पर टाई लगाये
हर लहर की 
एक हद
अंतर्व्यथा कैसे बताये
घाट से क्या 
पाट से क्या
देखना तो धार देखो

देखना, वैसे न 
जैसे देखते
बाजार वाले
भावनाएँ सतयुगी
थापी हुई 
मन के शिवाले

रूप देखो 
या न देखो 
रूप के उस पार देखो

श्याम श्रीवास्तव
____________

साभार
शब्दायन 'दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि'
उत्तरायण 
प्रकाशन वर्ष 2012
सम्पादक
निर्मल शुक्ल जी
Nirmal Shukla  जी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें