गुरुवार, 13 मई 2021

अनिरुद्ध नीरव जी के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ

~ ।।वागर्थ।।~ 

#पात_झरे_हैं_सिर्फ़_जड़ों_से_मिट्टी_नहीं_झरी
      
       वागर्थ  में आज प्रस्तुत हैं अम्बिकापुर छत्तीसगढ़ में जन्मे अनिरुद्ध नीरव जी के नवगीत ।  
     अनिरुद्ध नीरव जी न सिर्फ़ एक बेहतरीन नवगीतकार रहे बल्कि गद्य लेखन में भी वह सिद्धहस्त थे , अस्सी के दशक में प्रसारित  नाटक ' गोकुलदास 'जब रेडियो आकाशवाणी सुनने का जन -जन अभ्यस्त था बेहद लोकप्रिय  रहा । इस धारावाहिक के तीन लेखकों में अनिरुद्ध जी भी थे , मूल रूप से इस धारावाहिक की योजना अनिरुद्ध जी ने ही बनाई थी ।
      सुदृढ़ व्यक्तित्व ,बेहद मिलनसार , ज़िंदादिल , हाजिर जवाब , निरंतर रचनाशील रहे अनिरुद्ध नीरव जी की पहचान व गणना बेशक नवगीतकार के रूप में रही लेकिन उनके भीतर का गद्यकार उपेक्षित नहीं किया जा सकता ।  सरगुजा काव्य व कहानियों पर प्रसारित कार्यक्रम  ' माटी के आखर '  नाम उन्होंने ही प्रस्तावित किया जो लंबे समय तक प्रसारित हुआ । 
 
   बात करें गीत - नवगीत की तो  अनिरुद्ध जी का मानना था कि  नवगीत कहने का ढंग चाहे जैसा भी हो  महत्वपूर्ण है उसका निर्वाह , माध्यम चाहे प्रतीकों का हो या अभिधात्मक सपाटबयानी हो या व्यंजनात्मक एक बारगी झरा हुआ सा लगे ।  विषय विवेचन से निष्कर्ष तक कहीं कोई जोड़ प्रतीति न हो , गीत नवगीत की महत्ता तब और बढ़ जाती है जब वह संक्षिप्त होकर बड़े कैनवास को भरता है । सटीक शब्द चयन , कारकों का कम प्रयोग , सधे हुए वाक्यांश गीत को और पैना बनाते हैं ।भाषाई फिजूलखर्ची से बचा जाना ही इस दिशा में महत्वपूर्ण काम है ..
        वह चाहते थे कि नवगीत को सिर्फ़ दाद या वाहवाही की परिधि में न बाँधा जाए बल्कि विमर्श की परम्परा स्थापित की जाए , गीतों की पड़ताल और उसकी दिशा - दशा निर्धारित किए जाने की पहल भी हो । हिन्दी क्षेत्र में गीत पीठ की स्थापना की सँभावनाओं पर  विचार हो जो सिर्फ़ आयोजनों तक सीमित न रहे बल्कि गीतिय धरोहरों के संरक्षण , अन्वेषण ,और फेलोशिप देने जैसा कार्य भी करे ।
    स्वयं अनिरुद्ध जी के कथन के निकष पर उनके गीत पाठक को झरे हुए से ही महसूस होते हैं , उनके नवगीतों में नवता समाज की तल्ख हकीकतों व जनजीवन के विविध आयामों की संलग्नता है , प्रस्तुत हैं अम्बिकापुर के दृष्टि संपन्न रचनाकार अनिरुद्ध नीरव जी के नवगीत ....

                       . .                .     प्रस्तुति 
                                           ~।। वागर्थ ।।~
                                          सम्पादक मण्डल
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(१)

फुलवसिया
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फुलबसिया फुलबसिया
उतर गई
खेतों में
हाथों में लेकर हँसिया

फुलबसिया की काया
साँवली अमा है
चमक रहा हाथों में
किन्तु चन्द्रमा है
यह चन्द्रमा
दूध-भात
क्या देगा बच्चों को
लाएगा पेज और पसिया

फुलबसिया
पल्लू को खींच
कमर काँछ कर
साँय-साँय काट रही
बाँह को कुलाँच कर
रीपर से तेज़ चले
सबसे आगे निकले
झुकी-झुकी-सी एकसँसिया

फुलबसिया
खाँटी है खर - खर खुद्दार है
बातों में पैनापन
आँखों में धार है
काटेगी जड़
इक दिन
बदनीयत मालिक की
बनता है साला रसिया ।

(२)

तवे पर रोटी
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तवे पर छोटी
होने वाली है रोटी

तौल के
हल्के हो जाएँगे पैमाने
बड़े होकर आएँगे
     गेहूँ के दाने

पसीना जाया होगा
ज्यों नल की टोंटी

और शायद
कुछ घट जाए
     रूपए का व्यास
कहीं
गीले आटे में
     ठनकेगा उपवास
कहीं हो जाएगी
चरबी की तह मोटी

लकड़बग्घे का
कोई
     गोश्त न खा पाए
न बाघों की
कुरबानी
     जायज ठहराए

कोई बकरा ही तो
होगा बोटी-बोटी ।

(३)

ससुराल से बेटी 
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खिलखिलाती आ गई
ससुराल से बेटी
मन गुटुरगूँ हुआ
जैसे कबूतर सलेटी

आँख से
कहने लगी
     सारी कथा
भूल कर
दो बूँद
     रोने कि प्रथा

रह गए रिक्शे में
पाहुर पर्स और पेटी
दौड़ माँ को
भर गई
     अँकवार में
पिता ने
जब भाल चूमा
फ़्रॉक हुई दुलार में

और बहना को
हवा में उठा कर भेंटी

और फिर
शिकवे-नसीहते
     रात भर
भाइयों से भी
लड़ी कुछ
चूड़ियाँ झनकार कर

चार दिन में हो गई
चौदह बरस जेठी ।

(४)

भरे नयन सी
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अन्तरिक्ष से धरती
भरे नयन-सी लगती है

तीन भाग डबडब-सा
खारा जल मँडराता है
थोड़ा-सा भू अँचल
जिस पर दुख हरियाता है

कोई सपन सलोना दीखे
बात सपन-सी लगती है

हरे दाने के ऊपर
भर पेट का खाता है
हर बरगद के नीचे
गुलशन ज़ख़्म खिलाता है
टेढ़े न्याय तुला पर
कोई आँख वज़न-सी लगती है

सारा मीठा पानी
मरुथल बाँट रहे भैया
खेत मलाई वाले
कुत्ते चाट रहे भैया

शस्य श्यामला की वत्सलता
निचुड़े थन-सी लगती है

ये विष के चंदोवे
कालकूट होती नदियाँ
नए धान्य थाली में
आत्मघात की नव विधियाँ

अर्थ अराजक होड़ हवा में
कढ़ते फन-सी लगती हैं ।

(५)

खत्म हुई बात
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एक खड़ी पाई
के आगे
     ख़त्म हुई बात

कहने को था
बहुत-कुछ मगर
हो न सके
भाषा के बाजीगर
     सिर्फ़ जगहँसाई
     के आगे
        ख़त्म हुई बात

हमने तो थी
सिर्फ़ साँस ली
और किया
     अल्प था विराम
किन्तु उधर से
उँगली यूँ उठी
जैसे हो
     वाक्य ही तमाम

     खड़ी चौधराई
     के आगे
        ख़त्म हुई बात

सारे हक़
हर्फ़ों में
     टँक गए
मौक़े पर ये
काले भेड़ हुए अन्ततः
लाठी के
बाड़े में
     हँक गए

     स्याह रौशनाई
     के आगे
        ख़त्म हुई बात ।

(६)

धान की फसल
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लहलहाती
धान की यह फ़सल
आएगी खलिहान में
लेकर हिसाब
सूद कितना
और कितना असल

खेत पुरखों से हमारे
बीज
पिण्डों-सा दिया
पम्प से पानी पटा कर
समझ लो तर्पण किया

वे न पढ़ पाए बही
शायद पढ़े यह शकल
लोग कहते हैं
पटा मत
लिख शिकायत
होड़ कर
हम भला
कैसे मरेंगे
कर्ज़ कफ़नी ओढ़कर

लोग हँसते हैं
बड़ी हैं भैंस
या फिर अकल ।

(७)

कटा हुआ खेत
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कटा हुआ खेत कभी-कभी
कर जाता है
मन को रेत कभी-कभी

धान छोड़कर गया
हवाओं में सोच कुछ
डंठल
सूखे पुआल
पंखध्वनि
झरे हुए दानों पर चोंच कुछ

गिद्धों का हमला
समवेत कभी-कभी
कर जाता है
मन को रेत कभी-कभी

कटी खूँटियों के घावों में
गंधों का
आख़िरी प्रणाम है
खेतों की गहराती
सूखती बिवाइयाँ
उस बूढ़े कमिए
की एड़ी के नाम है

बच्ची बनिहारिन का
पेट कभी-कभी
कर जाता है
मन को रेत कभी-कभी

हम भी तो थे
ख़ुशबूदार कुल प्रजाति के
लेकिन संदर्भों से कट गए
छठे में चुकौती में
हंडी में भीख में
अक्षत उत्कोचों में बँट गए

ख़ुद को पैरोट लगे
प्रेत कभी-कभी
कर जाता है
मन को रेत कभी-कभी ।

(८)

एक अदद तितली
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पंखों पर
     जटगी के खेत लिए
     एक अदद तितली इस शहर में दिखी

इसके पहले ये मन
गाँव-गाँव हो उठे
नदिया के तीर की
कदम्ब छाँव हो उठे
     वक्ष पर
     कुल्हाड़ों की चोट लिए
     एक गाछ इमली इस शहर में दिखी

उठता है सूर्य यहाँ
ज्यों शटर दुकान में
गिरती है संध्या
रोकड़ बही मीजान में
     नभ के चंगुल में
     बंधक जैसी
     चंदा की हँसली इस शहर में दिखी

उत्तेजित भीड़ पुलिस
गलियाँ ख़ूनी हुईं
जब तक समझे क्या है
सड़कें सूनी हुईं
     और तभी
     होठों पर तान लिए
     एक नई पगली इस शहर में दिखी

विज्ञापन झोंक गए
हमको बाज़ार में
बंदी हैं पचरंगे रैपर में
जार में
     यहीं से सुदूर
     भरी लाई से
     बाँस बनी सुपली इस शहर में दिखी ।

(९)

रंग मरे हैं सिर्फ़
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पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी

     अभी न कहना ठूँठ
     टहनियों की
         उँगली नम है
     हर बहार को
     खींच-खींच कर
        लाने का दम है

रंग मरे हैं सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी

     अभी लचीली डाल
     डालियों में
        अँखुएँ उभरे
     अभी सुकोमल छाल
     छाल से
        गंधिल गोंद ढुरे

अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी

     ये नंगापन
     सिर्फ़ समय का
        कर्ज़ चुकाना है
     फिर तो
     वस्त्र नए सिलवाने
        इत्र लगाना है

भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी ।

(१०)

उड़ने की मुद्रा में 
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उड़ने की मुद्रा में
चिड़िया
     पत्थर हो जाए तो ?

बदलें
यदि सरसब्ज़ लताएँ
     लोहे के ग्रिल में
खौल उठे
तेजाबों की बू
     कलियों के दिल में

झूली-झूली
बरगद की लट
     अजगर हो जाए तो ?

उड़ती तितली
बैठक में
     प्लास्टिक बन जाती है
खानों से
आती नदिया
     ’डामर’ कहलाती है

तिरने की कोशिश में
मछली
     पिंजर हो जाए तो ?

ये चिमनी
सीमेंट मिलों की
    ये विष के बादल
विकसित होने की
परिणति हैं
     या पापों के फल

हल से
मक्खन होती मिट्टी
     बंजर हो जाए तो ?

(११)

यह नदी
रोटी पकाती है
हमारे गाँव में

हर सुबह
नागा किए बिन
सभी बर्तन माँज कर
फिर हमें
नहला-धुला कर
नैन ममता आँज कर

यह नदी
अंधन चढ़ाती है
हमारे गाँव में

सूखती-सी
क्यारियों में
फूलगोभी बन हँसे
गंध
धनिए में सहेजे
मिर्च में ज्वाला कसे

यह कड़ाही
खुदबुडाती है
हमारे गाँव में

यह नदी
रस की नदी है
हर छुअन है लसलसी
ईख बनने
के लिए
बेचैन है लाठी सभी

गुनगुना कर
गुड़ बनाती है
हमारे गाँव में ।

(१२)

भीतर से भीतर जाने में
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भीतर से भीतर जाने में
     चुक जाता हूँ

भीतर जीवाश्म भरे स्वप्न के
चट्टानी अँधकारों की तहें
मायावी क्रूर भयावह मगर
वे ख़ुद को इन्द्रधनुष भी कहें

     इन पर कोई रौशन ज़ख़्म-सा
     दुख जाता हूँ

पहले कुछ धूसर बदरंग-सा
फिर गहरा नीला फिर बैंजनी
इसके आगे कोई ठोस तह
निर्मम निर्भेद्या काली घनी

     आगे कोई वश चलता नहीं
     रुक जाता हूँ

बाहर की त्रासदियों का वज़न
सहता आया भींचे मुट्ठियाँ
इस तम का दाब टनों है मगर
कड़कड़ बज उठती हैं हड्डियाँ

     टूटूँगा इस भय से क्या करूँ ?
     झुक जाता हूँ

मैं कोई विस्फोटक बाँध कर
आता तो यह निर्मम टूटता
फिर मेरा सूर्य यहाँ बन्द जो
अँगड़ा कर क्षितिजों पर छूटता

     अपनी असफलता की आग में
     फुँक जाता हूँ ।

(१३)

तितलियाँ पकड़ने के दिन
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तितलियाँ पकड़ने के दिन
बीत गए मरु की यात्राओं में
क्या होगा
       अब कोई
       छींटदार पंख लिए
       आँगन की
       थाली में 
       व्योम का मयंक लिए
बिजलियाँ
जकड़ने के दिन
बीत गए तम की व्याख्याओं में
        नाज पलीं
        त्रासदियाँ
        प्यास पली लाड़ से
        फिर भी
        खारी नदियाँ
        स्वप्न के पहाड़ से
झील के लहरने के दिन
बीत गए तट की चिन्ताओं में
काफ़ी था
        एक गीत
        एक उम्र के लिए
        लगता है
        व्यर्थ जिए
पी-पी कर काफ़िये
शब्द में
उतरने के दिन
बीत गए व्योम की कथाओं में।

                       ~ अनिरुद्ध नीरव 

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परिचय -

जन्म- १ जुलाई १९४५ का जन्म अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़, भारत में।
शिक्षा- वाणिज्य स्नातकोत्तर 
कार्यक्षेत्र-
बैंक अधिकारी एवं नवगीत, कहानी, ललित निबन्ध, बाल साहित्य, लोक साहित्य एवं आकाशवाणी हेतु नाटकों एवं रूपकों का बहुतायत से लेखन, विगत ४५ वर्षों से
प्रकाशित कृतियाँ-
नवगीत संग्रह- उड़ने की मुद्रा में। इसके अतिरिक्त लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। बाल साहित्य में विशेष कार्य।
सम्प्रति-
बैंक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त होने के पश्चात स्वतंत्र लेखन।
१८ फरवरी २०१६ को उनका निधन हो गया।

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