आकलन में पंकज परिमल जी एक संग्रह 'नदी की स्लेट पर' वागर्थ के स्थायी समीक्षक राजा अवस्थी जी का आलेख
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
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. समय की व्यञ्जना से भरे सांस्कृतिक गीत
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कविता मनुष्य के अंतस में संवेदना और सहानुभूति से उपजी आकुलता का परिणाम होती है। इस आकुलता से निवृत्ति के लिए मेधा कोई मार्ग खोजती है और उसे जो श्रेष्ठतम मार्ग मिलता है, वह कविता का होता है ; इसीलिए अनपढ़ और कम पढ़े लिखे लोग भी कवि हुए हैं। तब, प्रश्न यह उठता है कि पढ़े-लिखे कवि की कविता और कम पढ़े लिखे कवि की कविता के बीच भेद क्या हो सकता है। वास्तव में यह भेद होता भी है और होना भी चाहिए। यह भेद उसके भौगोलिक, वैश्विक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक ज्ञान के कारण, उसकी अनुभूतियों के विस्तार के कारण होता है। अनुभूतियों के विस्तार के फलस्वरूप कवि की आकुलता और उसकी गहनता को विस्तार मिलता है। यह विस्तारित आकुलता जब कविता में अभिव्यक्त होती है, तो उसमें उसके परिवेशीय लोक के साथ वैश्विक लोक व्यञ्जित होने लगता है।
वैश्विक व्यञ्जना को गहराई से परखने पर हम पाते हैं कि, जो समस्याएँ, जो स्थितियाँ विश्व के अलग-अलग भौगोलिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक हल्कों में व्याप्त हैं, वास्तव में वे प्रकारान्तर से कवि के अपने लोक में भी कहीं न कहीं विद्यमान होती हैं। यही वह बिन्दु है, जहाँ बहुत पढ़ा-लिखा विद्वान कवि भी स्वयं को अपने ज्ञान के साथ अपने लोक के बीच खड़ा हुआ पाता है और उसकी आकुलता की निवृत्ति जिस कविता का मार्ग चुनती है, वह कविता अपने लोक से सम्पृक्त होती है। मैं जब लोक की बात करता हूँ, तो उसमें भाषा, संस्कार, संस्कृति, उत्सव, संघर्ष, राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक- सामाजिक प्रवृत्तियाँ शामिल होती हैं। मेरे सामने विद्वान कवि डॉ पंकज परिमल का नवगीत संग्रह "नदी की स्लेट पर" है। इस नवगीत संग्रह का पारायण करते हुए मुझे विस्तृत कैनवास पर फैले ज्ञान के साथ लोक की ऐसी ही सम्पृक्ति दिखाई पड़ती है।
कविता के अनेक प्रारूपों के साथ आज कविता के केंद्र में जो प्रारूप है वह नवगीत ही है। इसे कोई और नाम देने का कोई अर्थ नहीं है, और कोई अर्थ इसलिए नहीं है कि `नव` शब्द सदैव नवता का बोध कराता है। यह किसी निश्चित काल-बोध को व्यञ्जित नहीं करता, इसलिए यह सार्वकालिक विशेषण हो सकता है, जो गीत के साथ मिलकर संज्ञा ही बन गया है। गीत के नवगीत प्रारूप ने अपनी कुछ आवश्यकताएँ, गुण, प्रवृत्तियाँ आदि भी विकसित कर ली हैं। नवगीत को नवगीत बनाए रखने के लिए उनका पालन भी जरूरी है। नवगीत के नाम पर कुछ भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। नवगीत की अपनी मान्यताओं के साथ, जब मैं डॉ पंकज परिमल का नवगीत संग्रह 'नदी की स्लेट पर' को देखता हूँ, तो लोक की ऐसी सम्पृक्ति और व्यञ्जना की उपस्थिति को पाता हूँ, जिसमें लोक का असीम विस्तार और तीव्रतर अनुभूति के चित्रात्मक बिम्ब दृश्यमान होते हैं।.
लोक का एक महत्वपूर्ण पहलू उसका सांस्कृतिक रूप होता है। कई बार संस्कृति में व्याप्त इन मान्यताओं के ठोस वैज्ञानिक और प्रत्यक्ष आधार दिखाई नहीं पड़ते, किन्तु डॉ परिमल इन्हें भी अपनी कविता में गहरे व्यञ्जनात्मक अर्थों में कह लेते हैं। इनके एक नवगीत 'ज्योतिषी को हाथ दिखला ले पवन' को देखें तो यह इसकी बानगी भर है। संग्रह के कई नवगीतों में ऐसे प्रयोग भरे पड़े हैं। इस पूरे नवगीत में 'पवन' केंद्रीय तत्व है, जो हमारे समय को व्यञ्जित करता है, वहीं ज्योतिष, ज्योतिषी को हाथ दिखलाना, हाथ की लकीरों से भाग्य पढ़ना आदि आधारहीन, किन्तु भारतीय जनमानस में भीतर तक अकाट्य सत्य की तरह बैठी मान्यता है। किंतु, इतना ही नहीं, इस गीत में, और इस तरह के दूसरे गीतों में भी डाॅ पंकज परिमल हमारे समय का जो चित्र अंकित करते हैं, वह दारूण है और इतना यथार्थ है कि यहाँ कवि की पीड़ा, जो प्रकारांतर से लोक की पीड़ा भी है, दृश्यमान हो उठती है। इस गीत के कुछ अंश को यहाँ रखना जरूरी है। देखें -
शेष कितनी हाथ में तेरे
अनर्थों की लकीरें
ज्योतिषी को हाथ दिखला ले
पवन!
चिरंजीवी कर गए
दारुण विपद सब
दृश्य देखो ध्वंस के
अनवरत छाते जा रहे हैं,
शकुन पक्षी
मौन होते जा रहे हैं,
गीध ही कर करुण-क्रंदन
अब प्रभाती गा रहे हैं
और उल्कापात
तेरे हाथ से
कितने लिखे हैं,
ज्योतिषी को हाथ दिखला ले पवन।
इस गीत में ही नहीं कई गीतों में पंकज परिमल लोक में व्याप्त उन मान्यताओं, संस्कारों, और प्रवृत्तियों को अपनी बात कहने का माध्यम बनाते हैं, जिनकी जड़ें भारतीय मानस में इतनी गहरी और जीवंत हैं, जितनी कि उसकी सांसे। किंतु, इसके साथ तिरोहित होती आशाओं, बढ़ती विकराल दुविधाओं को भी अपने गीत के केंद्र में ले आते हैं, और वह ऐसा कर पाते हैं। यह उनकी काव्य साधना का ही परिणाम है।
कविता में एक बड़ा रहस्य छुपा हुआ है। इस रहस्य के विषय में कभी बात की ही नहीं गई। यही कारण भी रहा कविता के शिल्प के अराजक हो जाने का। प्रकृति में जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह अंततः अपने उत्स में ही विलीन भी होता है। यदि वह भौतिक है, तो उसे भौतिक रूप से ही विलीन भी होना होगा। जीवन के साथ मृत्यु की अनिवार्यता इसी कारण से है। ऐसा भी बहुत कुछ है, जो भौतिक नहीं है, वह भी तो होता है, तो उसके 'होने' से लेकर 'न होने' की गति भी अनिवार्य है। जो कुछ भी जहाँ से होता है, उसे वहीं जाकर विलीन होना ही होता है। अपने उत्स में विलीन होना, उससे जुड़ना ही प्रियता का भी रहस्य है। यह न हो तो प्रियता का भाव भी मिट जाएगा। आज है, कल नहीं होगा, यह ज्ञान ही प्रियता का मूल है। आत्मा के परमात्मा में विलीन होने की अवधारणा का मूल भी यही रहस्य है । जब भी किसी वस्तु या विचार को उसके उत्स से उचित समय पर विलीन होने या जुड़ने से रोका जाएगा, उसमें विकृति आना अनिवार्य है। तो, हम जिस रहस्य पर यहाँ बात कर रहे हैं, वह कविता का रहस्य कैसे हुआ? वास्तव में कविता भी बार-बार अपने उत्स से जुड़ती है। प्रत्येक अन्तरे के बाद मुखड़े के भाव बोध और लय-प्रवाह की पंक्तियों का आना, उसका अपने उत्स से जुड़ना ही है। जब भी कविता अपने उत्स से बार-बार जुड़ने के नियम को भंग करती है, वह स्वयं कवित्व को खो देती है। वह अपने मूल गुण और अपनी शक्ति व सामर्थ्य को खो देती है। वह अपने प्रभाव को भी खो देती है। यह प्रमाण हमें भारतीय कविता ही नहीं विश्व कविता में भी मिल जाएगा। किंतु, प्रकृति की भी अपनी सामर्थ्य है, कि वह जो कुछ भी सृजित करती है, वह उससे कितनी भी दूर जाए, उसे अपनी ओर खींच ही लेती है। बाॅब डिलेन का का विश्व कविता के पटल पर महिमावान घोषित किया जाना भी इसी बात का प्रमाण है।
जब हम कविता के प्रभाव की बात करते हैं, तो अज्ञेय की यह पंक्ति याद आती है कि 'दुख सबको मांजता है', यहाँ मैं यह भी जोड़कर देखता हूँ, कि कविता दुख से निवृत्ति का भी कारण है, दुख से मोक्ष दिलाने का काम भी कविता करती है। यही कारण है कि डॉ पंकज परिमल माँ की त्रयोदशी से निवृत्त होकर भी भीतर की व्याकुलता से निवृत्त नहीं हो पाते। इस आकुलता से मोक्ष उन्हें तब मिलता है, जब वे कविता लिखते हैं, "काश! की माँ सब से बतियाती"। यह गीत जहाँ अपने भीतर, जितनी मार्मिक पीड़ा माँ के चले जाने की व्यक्त करता है, वहीं उसके भीतर माँ के जीवन-संघर्ष के बहाने घर, परिवार और समाज की प्रगति के लिए किए गए एक स्त्री के संघर्ष की पूरी कहानी भी कहता है। इसमें उसके प्रति लोगों के दृष्टिकोण भी गुम्फित हैं। जिस परिवार के लिए, बच्चों के लिए माँ ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, उनके द्वारा भी अकेले कर दिए जाने की कथा के बहाने कवि ने हमारे समय में भौतिक सुविधाओं के लिए परदेसी हो रहे बच्चों और तद्जनित माता-पिता के अकेलेपन का पूरा परिदृश्य ही अंकित कर दिया है। माँ को केंद्र में रखकर रचे इस गीत की गहनता उल्लेखनीय है। इस गीत के सरोकार व्यापक हैं। इसको अमिधा और व्यंजना में भी समझा जाना जरूरी है। देखें यह गीत -
भरवां शिमला - मिर्च बनी है
कल दूजे व्यंजन की बारी
काश! कि माँ थोड़ा चख पातीं
कुछ विडंबना नौकरियों की
अर्थ - द्वन्द्व या मन की भटकन
बच्चों की मासिक-साप्ताहिक
रही परीक्षाओं की अड़चन
कामकाज से मिली न फुरसत
आज भरी है घर की द्वारी
काश! कि माँ थोड़ा रुक पाती
' नदी की स्लेट पर' संग्रह के सभी गीतों का पारायण करने पर जो उल्लेखनीय बात लगती है, वह यह है कि प्रकृति के उपादानों की उपस्थिति। यह आपको उनके अधिकांश गीतों में मिलेगी। डॉ पंकज परिमल मिथकों का भी बहुत अधिक और बारीक व्यञ्जनाओं के संदर्भ में प्रयोग करते हैं। देखें-
मछलियों के पेट में है
प्यार की खोई निशानी
उधर तुम राजन
इधर अभिशप्त रानी
शकुन पाँखी
शीश पर छाया किए थे
स्वप्न - विरहित आँख की
काया किए थे
तब सुखी थे या कि अब हैं?
द्वन्द्व के अब
गरुड़ डैनों के तले हम
धूप से तो नहीं
छाया से जले हम
मिला जीवन
बाँधते यमपास कब हैं?
मन हुए बूढ़े
उफनती देह में अब तक जवानी
उधर तुम राजन
इधर अभिशप्त रानी
या फिर -
आज वे राजा रहे कब
या रहीं रानी
पेट से
अब तो उगल दे मुद्रिका
मछली
आज भौतिक समृद्धि की चाह में चेतना ऐसी और इतनी अंधी हो चुकी है, कि आगत भविष्य का अकेलापन कल्पना में भी नहीं आता। संबंधों की रागात्मकता समाप्त हो चुकी है। संवेदनात्मक अनुभूतियाँ लुप्त हो चुकी हैं। अनुभूति के बदलाव की विकरालता को संकेत करते हुए वे लिखते हैं -
बच्चा गया विदेश
आजकल खुश हैं
इतने है परिधान
साल के सब दिन कम हैं
अधरों पर बस रास-रंग के ही सरगम हैं
छूट गया है जी से
नाना संबंधों का क्लेश
आजकल खुश हैं।
डाॅ. परिमल के नवगीतों मेंअद्भुत चित्रात्मकता मिलती है। देखें -
आ रहा है पेड़
अपनी पीठ
चंदा ले,
कर रही है ताल-जल में
चांदनी छप-छप।
हमारी संस्कृति अपरिग्रह और संग्रह के बीच एक संतुलन की पक्षधर रही है। जब मात्र भौतिक संग्रह की अंधाधुंध प्रवृत्ति जोरों पर है, तब ऐसे समय में पुनः उसी संयम और संतुलन की आकांक्षा करना उल्लेखनीय है। ऐसी आकांक्षा रखते हुए भी गीत में जिस मधुर भाव का गुम्फन है, वह अद्भुत है। इस माधुर्य का लालित्य भीतर से ही उपजता है और भीतर तक उतरता है। देखें -
बातों के बतरस में थोड़ा-सा मधुर-लवण
कटु वचन कहीं
थोड़े कषायवत् आग्रह भी
थोड़ा दुराव
कुछ अथक प्रीति
कुछ आश्वासन
अपरिग्रह भी
तो ज़रा लोक का संग्रह भी
"नदी की स्लेट पर" संग्रह के नवगीतों में प्रकृति के उपादान, लोक में व्याप्त मान्यताएँ, लोक में व्याप्त विसंगतियाँ, मनुष्य मन की विविध प्रवृत्तियाँ व्याप्त हैं। इन सारी चीजों के बीच व्याप्त हैं मनुष्य के दुस्तर हालात और लगभग उन हालात के स्वीकार की प्रवृत्ति। इस स्वीकार के बावजूद लोक कहने से चूकता नहीं और पंकज परिमल भी नहीं चूकते। वह कह ही जाते हैं। संग्रह में प्यार से अनुप्राणित अनुभूतियों के जीवंत चित्र मिलते हैं और यह जीवंत चित्रात्मकता डॉ परिमल के गीतों की प्रमुख विशेषता है।
डाॅ. शिवकुमार मिश्र लिखते हैं "रचनाकार अपने चारों ओर फैले विशद संसार से बहुआयामी अनुभव सम्पदा अर्जित करते हुए विधाता की रची सृष्टि के समांतर अपनी एक नई दुनिया रचता है।" जिस रचनाकार की अर्जित अनुभव सम्पदा जितनी समग्र, सारगर्भित और प्रातिनिधिक होती है, उसका रचना संसार भी उतना ही समग्र, संश्लिष्ट, सारगर्भित और प्रातिनिधिक होता है। इस तरह डाॅ. पंकज परिमल के इस संग्रह में अनुभव संवेदनों की, उनके जिए, भोगे, देखे-समझे की एक बड़ी समृद्ध और सांस्कृतिक रंगों से भरी दुनिया है। ये नवगीत बारीक, विशद निरीक्षण, गहन पर्यवेक्षण और अंतरंग अनुभूति से उपजे गीत हैं। इन्हें थोड़ा ठहरकर पढ़ने की जरूरत है। पहले पाठ में तो इन गीतों की लय, इनका लालित्य, इनकी रागात्मकता, अर्थ, भाव के साथ पाठक के भीतर उतरती है। फिर, दूसरे और उसके बाद के पाठों में इनका भाव-बोध और अर्थ-बोध विस्तार पाता है। जब इन्हें भीतर विस्तार मिलता है, तो इन सांस्कृतिक गीतों के अद्भुत होने की पुष्टि भी होती है।
डाॅ. पंकज परिमल के इन सांस्कृतिक गीतों का रचना संसार विशद है। इनमें उनके अनुभव के साथ अपने समय को व्यञ्जित करने की सामर्थ्य है। इनमें लय व प्रवाह के साथ डाॅ. पंकज परिमल एक शिल्प की तलाश भी करते हैं। मुझे विश्वास है कि 'नदी की स्लेट पर' के नवगीतों का अपूर्व स्वागत होगा, सराहना मिलेगी। डाॅ. पंकज परिमल को इस सुंदर सांस्कृतिक नवगीत संग्रह के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।
धनतेरस राजा अवस्थी
विक्रम संवत् 2076
कटनी, मध्यप्रदेश
परिचय
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, परिचय -
नाम - राजा अवस्थी
पिता - पं. दर्शरूप अवस्थी
माता - श्रीमती गंगा देवी
जन्म - 4 अप्रैल 1966
शिक्षा - परास्नातक (हिन्दी साहित्य), शिक्षा स्नातक
व्यवसाय - मध्यप्रदेश स्कूल शिक्षा विभाग में शिक्षक /प्रधानाध्यापक /जिला स्रोत व्यक्ति हिन्दी
लेखन - नवगीत एवं अन्य काव्य विधाओं में
प्रकाशन - 'जिस जगह यह नाव है' नवगीत संग्रह का अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशन सन् 2006 एवं
लगभग सभी महत्वपूर्ण समवेत नवगीत संकलन
यथा - नवगीत नई दस्तकें (संपादक - डाॅ. निर्मल शुक्ल), गीत वसुधा (संपादक - नचिकेता), समकालीन नवगीत कोश (संपादक - नचिकेता),
नवगीत के नये प्रतिमान, नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्यबोध, नवगीत का मानवतावाद (संपादक - डाॅ राधेश्याम बंधु), सहयात्री समय के (संपादक - डाॅ. रणजीत पटेल) सहित कई और समवेत संकलनों एवं नवगीत विशेषांकों में नवगीत संकलित।
सन् 1986 से पत्र - पत्रिकाओं में कविताओं एवं आलेखों का प्रकाशन
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन भोपाल के साथ स्थानीय चैनलों पर कविताओं का प्रसारण
सम्मान - कादम्बरी साहित्य परिषद जबलपुर का अखिल भारतीय नवगीत सम्मान - निमेष सम्मान 2006(नवगीत संग्रह जिस जगह यह नाव है 'के लिये),
प्रतिष्ठित किस्सा-कोताह नवगीत सम्मान 2020, इनके अतिरिक्त और भी कई संस्थाओं द्वारा सम्मान किन्तु विशेष उल्लेखनीय नहीं।
विशेष - यूट्यूब पर 'नवगीत धारा' श्रृंखला अंतर्गत नवगीत पर चर्चा
सम्पर्क -
गाटरघाट रोड, आजाद चौक, कटनी
483501, मध्यप्रदेश
मोबा 9131675401
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