वैचारिकी
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साहित्यिक समूह और एडमिन
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वर्तमान समय सोशल मीडिया का समय है। जब हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने पर तुला हो, तो भला हमारी साहित्यिक बिरादरी ही पीछे क्यों रहे !
हाल ही में एक आकर्षक विज्ञापन पर मेरी नजर पड़ी " रिसर्च-सेंटर " शब्द पर मेरा ध्यान गया।पड़ताल करने पर पता लगा कि वहाँ रिसर्च को छोड़ कर बाक़ी वह सब है, जिसकी वहाँ कोई जरूरत है ही नहीं!
शोध संस्थान ? ऐसा नहीं कि इन संस्थानों में शोध नहीं हो रहा है। हो रहा है! पर विषय थोड़ा अलग है मसलन "नए लेखक को कैसे फसाये रखना है ? इसी का एक और रूप है साहित्यिक समूह!
इन दिनों, खूब समूह बन रहे हैं प्रयोग के तौर पर आप एक समूह छोड़ कर देखें अगले आधे घण्टे में आप स्वयं को गुलीवर इन लिलिपुट की तर्ज पर, नए दस-बीस समूहों में पाएंगे।
ऐसी स्थिति में आपका टेंशन बजाय कम होने के और बढ़ जाना स्वाभाविक है। अब आप नए एडमिन रूपी दस-बीस छत्रपों की छत्र-छाया में होते हैं। ऐसे में आप स्वयं के कम नए छत्रपों के वश में ज्यादा होते हैं !
लॉकडॉउन के दौरान सुपर सोनिक स्पीड से पेज उभरे और लगभग हर चौथा एरा-गैरा कवि पेज पर विराजमान मिला। जिसे न तो पढ़ने का शऊर था न ही लिखने की तमीज़ ! दरअसल पेज उन महारथियों के लिए ज्यादा कारगर सिद्ध हुआ जो खास तौर से मंचीय कवि थे और जिनका काम धंधा लगभग लॉकडाउन के चलते खत्म की कगार पर था। ऐसे लोग अपनी भड़ास आखिर निकालते तो निकालते कहाँ ?
हाशिये पर आए मन्चियों को पेज ने सम्हाल लिया और पेज चल निकले। पेज पर आते ही नकली सिक्के ने असली को चलन से बाहर कर दिया। अक्षय वरदान प्राप्त व्हाट्सएप्प समूहों का तब से लेकर अब तक, कोई कुछ भी नहीं उखाड़ पाया। इनके स्वयम्भू एडमिन जो स्वयं गुरू घटाल भी होते हैं, जिन्हें भले ही कुछ नहीं आता हो पर मज़ाल है कि कोई इन्हें आईना दिखाने की हिम्मत जुटा सके! शायद ही इनकी मजबूत पकड़ से कोई सदस्य बच सका हो !
आइए मुद्दे की बात पर आते हैं। लेखन के नाम पर समूहों के इन एडमिन-कम-सरगनाओं ने ताबड़ तोड़ फर्जीवाड़ा फैलाया, जिसका लाभ कभी प्रकाशक बन कर लिया तो कभी आयोजक बनकर। इन लालाओं का लेते रहना ही एक मात्र शगल है।
बेचारे भोलेभाले सदस्य एक अदद मात्र सर्टिफिकेट यानि की रद्दी के टुकड़े के लालच में कभी भी स्वयं से साक्षात्कार कर मंथन से नवनीत नहीं निकाल पाते और ना ही यह सोच पाते है कि क्या इन समूह बनाम गिरोह और इनके एडमिनस सरगना हमें और हमारी प्रतिभा को कहीं लगातार कुंद करते तो नहीं चले जा रहे हैं।
पिछले आठ दस वर्षों से मिले समूहों के अनुभव के आधार पर मैंने कई प्रतिभाओं को एडमिन रूपी कापालिक पिशाचों के हाथों नष्ट होते देखा है।
उन्हें सम्मान रूपी कागज के टुकड़े का टोना बाँधे रहता है।सदस्य को मुलालते में रखा जाता है। कभी सदस्य के गले में "निराला" तो कभी "महीयसी" का तमगा लटका दिया जाता है। और तमगे की नकली चमक में प्रतिभा की असली दमक कब और कहाँ खो जाती पता ही नहीं चलता।
दिल से नहीं दिमाग से भी सोचें। आप यदि हमें यानि (वागर्थ) में, रचनाएँ प्रकाशनार्थ भेज रहे हैं तो हमें भूले से भी फर्जी फेसबुक सर्टिफिकेटस, स्तरहीन साझा संकलनों का व्योरा ( जिन्हें आपके और प्रकाशक के अलावा कोई भी नहीं जानता और ना ही जानने में किसी की दिल चस्पी है।), ना दें। हमें उन साप्ताहिक पत्रों का सन्दर्भ भी नहीं दें जिनका कोई पाठक वर्ग ही नहीं होता ऐसे पत्र सिर्फ आपको भ्रामक आत्म सन्तोष भर पहुँचाते हैं।
हमें सिर्फ रचनाएँ भेजें, प्रकाशन योग्य सामग्री हमारा सम्पादन मण्डल स्वयं निकाल लेगा और बिना किसी निजी स्वार्थ और अपेक्षा से वागर्थ में प्रकाशित कर देगा। अच्छा साहित्य पढ़ें। अच्छे लोगों से जुड़ें।
ऐसे समूहों को आज ही छोड़ें जहाँ कुछ "एनर्जी वैम्पायर" उर्फ "एडमिन" आपकी ऊर्जा को चूसकर, लगातार आपको नष्ट कर रहे हों।
अंत में, जैसा की हम सभी इस तथ्य से भलीभाँति परिचित हैं कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं आपको भी पढ़ते पढ़ते यह लगने लगा होगा की यह महाशय सिर्फ डार्क साइड पर लगातार फोकस किये जा रहे हैं। सो मित्रों ऐसा भी नहीं की इसके उज्ज्वल पक्षों को हम बिल्कुल भुला देंगे।इसी सोशल मीडिया ने हमें अच्छी प्रतिभाओं से मिलने का मौका भी दिया लेकिन सँख्याबल में इनकी संख्या नगण्य है।
और हाँ, नवगीत के नाम से भड़कें नहीं, हम भी गीत के नाम से नहीं भड़कते। हम गीत का नवगीत का दोनों का समान रूप से आदर करते हैं । पर आपके लाख कहने से भी हम गज़ल को सजल नहीं कहेंगे।
अच्छे गीत / नवगीत वागर्थ में प्रकाशनार्थ सादर आमन्त्रित हैं।
मनोज जैन
प्रस्तुति
वागर्थ
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