नवगीत
टिल्लन वर्मा
भेड़िए !
नाख़ून पैनाए नज़र आने लगे फिर .
हड्डियाँ भी नोंचने को गिद्ध मँडराने लगे फिर .
बृक्ष
फिर भड़का रहे हैं
पत्तियों की भावनाएं
रोज़ बदली जा रही हैं
टोपियों की
आस्थाएं
श्वेत कौवे
हो इकट्ठे
बेसुरा गाने लगे फिर .
फिर हुए
हथियार थानों में जमा
जेलें भरी फिर
फिर -
कहाँ से आ रही
बारूद की दुर्गन्ध आखिर
है विपक्षी हाथ
वो ये बात
दोहराने लगे फिर .
एक दिन सब कुछ
स्वतः सुधरेगा
इस उम्मीद में
सो गयी है
नौजवान
आज गहरी नींद में
इसलिये हमको
रिटायर लोग
बहकाने लगे फिर .
मत करो उम्मीद बगुलों से सुधरने की .
वक़्त की ताकीद है कुछ कर गुजरने की .
आज आँगन में खड़ा
बूढ़ा शजर
टकटकी बाँधे निहारे डालियों को
फिर स्वयं को सर्वथा पाकर विवश
बुदबुदाता
कोसता है मालियों को
"ये मिली क़ीमत चमन से प्यार करने की ?"
सिर झुकाकर
भीख भी मिलती नहीं
और हक़ मिलता नहीं सीना फुलाकर
टिड्डियों से सीख जीने का हुनर
दुष्ट बगुलों पर हँसें हम
खिलखिलाकर
है ज़रूरत आज इनके पर कतरने की
काश! तुम पहचानते भाषा इशारों की .
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ज़िन्दगी अपनी
तुम्हारे नाम कर देते
किन्तु हम
संकोचवश
खुलकर नहीं कहते
जानते हैं खूब बातें चाँद-तारों की .
खो दिया अस्तित्व
लहरों ने किनारों पर
सिर्फ हिलकर
रह गईं
दो पंखुरी अकसर
ये विवशता है हमारे संस्कारों की .
[08/09, 10:24] Tillan Vermaa: नवगीत ■ टिल्लन वर्मा
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भेड़िए !
नाख़ून पैनाए नज़र आने लगे फिर .
हड्डियाँ भी नोंचने को गिद्ध मँडराने लगे फिर .
बृक्ष
फिर भड़का रहे हैं
पत्तियों की भावनाएं
फिर
तलाशी जा रही हैं
भीड़ में सम्भावनाएं
श्वेत कौवे
हो इकट्ठे
बेसुरा गाने लगे फिर .
फिर हुए
हथियार थानों में जमा
जेलें भरी फिर
फिर -
कहाँ से आ रही
बारूद की दुर्गन्ध आखिर
है विपक्षी हाथ
वो ये बात
दोहराने लगे फिर .
एक दिन सब कुछ
स्वतः सुधरेगा
इस उम्मीद में
सो गयी है
नौजवानी
आज गहरी नींद में
बस ! इसी कारण
रिटायर लोग
बौराने लगे फिर .
नवगीत
■ टिल्लन वर्मा
कहाँ गया वो बचपन वाला
गाँव हमारा प्यारा .
जहाँ गोरियाँ
नित पनघट पर
दिखलायी पड़ती थीं
सुबह-शाम
सुख-दुख की बातें
आपस में करती थीं
कह-सुनकर ही कर लेती थीं
कष्टों का बटवारा .
अब, सब रस्ते आम
कुँओं पर
चले न अब ठकुराई
आग सभी की
अपनी-अपनी
घर-घर दियासलाई
पर पहले सा प्यार नहीं अब
और न भाईचारा .
कहाँ गयीं
बे चौपालें
क़िस्से-कहानियों वाली ?
दारीजार
नासपीटे सी
मीठी-मीठी गली
बात-बात पर चलें तमंचे
मुश्किल हुआ गुज़ारा .
■ टिल्लन वर्मा
★★★
हम फ़क़त
मतपत्र के अतिरिक्त क्या हैं
ये बताओ !
ओ बदलते मौसमों अब बाज़ आओ .
बस
ज़रा सा चूकते ही
हम निरस्तों में गिने जाते रहे हैं
पर
तुम्हारे तो सभी अपराध
अनदेखे किये जाते रहे हैं
कुछ ख़ुदा से भी डरो ऐ नाख़ुदाओ !
बांटकर हमको समूहों में
तुम्हें मिलना था जो कुछ
मिल चुका बस
एक ही फ़न के कलाकारो !
तुम्हारा
अब न चल पाएगा सर्कस
बात मानो रुख़ हवा का भांप जाओ .
ये नहीं भूलो
सुनो, ऐ कंगलो !
हमने तुम्हें राजा बनाया
ओ सड़क पर
रेंगने वालो तुम्हें
सिंहासनों का सुख दिलाया
खण्डहरों को देखकर बंगले सजाओ .
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