बुधवार, 15 सितंबर 2021

डॉ रामवल्लभ आचार्य जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

1
 पत्तल दोने हम

~~~~~~~~~ 

कर उपयोग फेंक देते सब
पत्तल दोने हम । 

जब भी पड़ी ज़रूरत अपनी
हमको मान दिया ।
बाण चलाने प्रत्यंचा सा
हमको तान दिया ।
नींद खुली तो हरदम टूटे
सपन सलोने हम ।। 

रखा मोतियों की माला में
हमको धागे सा ।
बंधन समझ काट फेंका फिर
निपट अभागे सा ।
कभी मुकुट सा शीश चढ़ाया
खालिस सोने हम ।। 

वशीकरण का मंत्र समझकर
जब चाहा फूँका ।
वर्ना कोई नहीं हमारी
ड्योढ़ी पर ढूँका ।
सभी यहाँ जादूगर
उनके जादू टोने हम ।। 

स्वाद बढ़ाने को पापड़ सा
हमको सें दिया ।
वर्ना दूध पड़ी मक्खी सा
बाहर फेंक दिया ।
करने सिद्ध रसोई
चूल्हे चढ़े भगोने हम ।।
     - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

2

जब उनकी पीड़ा गाता हूँ 

जीवन भर गुमनाम रहें जो
दुपहर में भी शाम रहें जो
जब उनकी पीड़ा गाता हूँ
कवि का धर्म निभा पाता हूँ ॥ 

जो श्रम सीकर की स्याही से
लिखते रहे प्रगति की गाथा ।
लेकिन शोषण की छुरियों से
कटवाते सपनों का माथा ।
बने रहे जो सदा खिलौने,
हुए न आशाओं के गौने,
जब उनको दुलरा पाता हूँ ।
कवि का धर्म निभा पाता हूँ ॥ 

रची नहीं जिनके हाथों में
विधि ने सुख सुविधा की रेखा ।
जिन महलों को रहे सिरजते
उनमें रहकर कभी न देखा ।
बार बार उजड़ा घर जिनका ।
हुई जिंदगी तिनका तिनका ।
मन में उन्हें बसा पाता हूँ ।
कवि का धर्म निभा पाता हूँ ।। 

दो रोटी के लिये दरबदर
फिरते जो घरबार छोड़कर ।
रहना पड़ता दूर अकेले
संबंधों से पीठ मोड़कर ।
अपनों की यादों में जीते,
घूँट आँसुओं के नित पीते,
जब उनको अपना पाता हूँ ।
कवि का धर्म निभा पाता हूँ ॥
        - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
3

कैसे सोयें हम.? 

नींद उड़ा देती हैं चिन्तायें 
दुनिया भर की,
गोली अगर नहीं खायें तो
कैसे सोयें हम.? 

आज फीस बच्चों की देना
कल तक बिजली का बिल भरना ।
रोज़ एक झंझट आ जाती
नया प्रश्न हर दिन हल करना ।
कौन भार ढोये घर भर का
अगर न ढोयें हम.? 

पुश्तैनी मकान का झगड़ा
खोजबीन बच्ची के वर की ।
तौल मोल के रिश्ते सारे
और बलायें दुनिया भर की ।
सभी व्यस्त हैं, अपना दुखड़ा
किससे रोयें हम.? 

घर में घरवाली के ताने
दफ्तर में साहब की झिड़की ।
बंद पड़े दिल के दरवाजे
संवेदन की खुले न खिड़की ।
मन के बंजर खेत
कहाँ पर आँसू बोयें हम.? 

दिन दिन बढ़ता बोझ कर्ज़ का
ऊपर से खुद की बीमारी ।
गिन गिन कर हर दिवस गुजरता
एक एक पल लगता भारी ।
अच्छे दिन की बाट
बताओ कब तक जोयें हम.? 
    - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

4

 मेंढक हम अपने ही कूप के 

अपनी ही दुनिया में
रहते हैं सदा मगन ,
उतना समझें जितना 
दिखता है हमें गगन,
जग से हम कटे कटे
अपनी पर डटे डटे
अंधभक्त हम अपने भूप के । 

लघुता में प्रभुता के
करते हैं हम दर्शन,
असुरों का देवों सा
करते वंदन अर्चन,
करते अभिमान सदा
गाते हैं गान सदा
अहो वचन और अहो रूप के । 

अवतल दर्पण में हम
छबि अपनी देख रहे,
क्षुद्र सी लकीरों को
समझ बड़ी रेख रहे,
सार सार छोड़ रहे
थोथे को जोड़ रहे 
फटकैया ऐसे हम सूप के । 

न्याय की गुहार करें
जुल्म की कचहरी में,
बादल की छाँह गहें 
जेठ की दुपहरी में,
भूख और प्यास सहें
करते उपवास रहें
सहते अन्याय सदा धूप के ।
      - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

5

दिया तले अँधियारा है 

सूरज है मक्कार यहाँ पर
और चाँद आवारा है ।
किसकी आशा करें बताओ
दिया तले अँधियारा है ॥ 

पुरवाई जब भी चलती है
महल खंडहर हो जाते ।
अमिय बाँटने वाले 
अवसर पाकर विषधर हो जाते ।
रातों  के हाथों में गिरवी
रखा हुआ उजियारा है ॥
किसकी आशा करें बताओ
दिया तले अँधियारा है ॥ 

बादल जब जब भी झरते हैं
नहलाते तेज़ाबों से ।
सच का कैसे करें सामना
डर जाते हम ख्वाबों से ।
शबनम की हर बूँद हमें अब
लगती ज्यों अंगारा है ॥
किसकी आशा करें बताओ
दिया तले अँधियारा है ॥ 

फिरते यहाँ सियार 
अोढ़कर खालें अक्सर हिरणों की ।
धरती को मिलती खूनी सौगात
भोर की किरणों की ।
छलता रहा हमेशा सबको
खुशियों का हरकारा है ॥
किसकी आशा करें बताओ
दिया तले अँधियारा है ॥
         - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

6

डूबे यान सपन के 

बढ़ते बढ़ते उम्र 
ज़िदगी उतरी अपनी
घाटे में  । 

कितने सारे महल रेत के
थे अपनी जागीरी में ।
मन भी बादशाह होता था
खाली जेब अमीरी में ।
बचपन वाली यादें अब भी
मुखरित हैं सन्नाटे में ॥ 

खेल खेल में  हम दुनिया के
देश खरीदा करते थे ।
गत्ते के डिब्बों में  अनगिन
नोट करारे धरते थे ।
लुटी अचानक सब धन दौलत
नमक तेल में  आटे में ॥ 

चाँद सितारे रहे खेलते
संग हमारे रातों में ।
चलते थे अपने जहाज भी
पानी भरी परातों में ।
डूबे सारे यान स्वप्न के
समय सिंधु के भाटे में ॥
     - डा. राम वल्लभ आचार्य

7

नहीं किसी ने समझी पीड़ा
बूढ़ी सांसों की । 

रोज़ समय की मकड़ी
बुनती रोगों के जाले  ।
किसको दिखलायें हम जाकर,
अंतर के छाले ।
कौन सुनेगा राम कहानी
दिल की फाँसों की ॥ 

जीवन भर हम रहे खेलते
जुआँ धड़कनों का ।
आँगन में हम रहे पूरते
चौक उलझनों  का ।
समझ न पाये चाल कभी
किस्मत के पाँसों की ॥ 

खूब सहेजे जीवन भर
अरमानों के भाँडे ।
किन्तु रहे बनकर हम केवल
होली के डाँडे ।
आग लगेगी, मिली पालकी
जिस दिन बाँसों की ॥
          - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

8

 दोधारी तलवार 

इक तो आमदनी कम, 
उस पर 
मँहगाई की मार हुई है ।
लगता है ज़िंदगी हमारी
दोधारी तलवार हुई है ॥ 

करके अपना खून पसीना 
हमने तो सोना उपजाया ।
कौड़ी मोल खरीद ले गये
ऊपर से एहसान जताया ।
तन का कर्ज़ उतारें कैसे
धड़कन कर्ज़ेदार हुई है ॥ 

कब तक उम्मीदें बोयें हम
कब तक फसल अश्रु की काटें ।
कब तक कोरे वादे सींचें,
झूठी उम्मीदों को चाटें ।
साँस साँस गिरवी है अपनी
फिर भी खुशी उधार हुई है ॥ 

आश्वासन की पूँजी लेकर
कब तक घूमें बाजारों में ।
खाली हाथों में सपने ले
शामिल हैं हम लाचारों में ।
कब तक करें भरोसा इस पर
किस्मत ही लाचार हुई है ॥
         - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
9
 आँगन की ढिंग बने 

बन न सके हम "अहा "
सदा ही "उई " रहे  । 

बागड़ बनकर. रहे 
मगर छँटते आये ।
बढ़ना चाहा बहुत
मगर घटते आये ।
बन न सके तलवार
सदा ही सुई रहे  ॥ 

रहे स्वयं तम में
लेकिन उजियार किया ।
अपने दुश्मन को भी
हमने  प्यार दिया ।
बाती बनकर जले
सदा ही रुई रहे । 

धरती छोड़ी नहीं
न रहे बिछौनों में  ।
घर में जगह बनाई
लेकिन कोनों में  ।
आँगन की ढिंग बने
सदा ही छुई रहे ॥ 

नहीं किसी को भी
हमने दूजा समझा  ।
करना ही सत्कार
सदा पूजा समझा  ।
होकर भी एकात्म 
सदा ही दुई रहे ॥
  -  डा‌ॅ. राम वल्लभ आचार्य

10

 मन में  इतनी उलझन 

मन में  इतनी  उलझन
जितने सघन सतपुड़ा  वाले  वन,
हल्दीघाटी  हुई जि़ंदगी
चेरापूंजी  हुए नयन । 

जयपुर जैसे  लाल गुलाबी
रहे  देखते  हम सपने,
लेकिन चम्बल के  बीहड़  से
रहे  गुजरते  दिन अपने,
कब से प्यास संजोये  बैठा 
बाढ़मेर सा व्याकुल मन । 

दिल्ली  जैसा  दिल बेचारा  
जीवन प्रश्नों  से जूझे,
उत्तर किन्तु  अबूझमाड़  से
रहे  अभी तक अनबूझे,
पीड़ायें नित रास रचातीं
समझ हृदय को वृन्दावन । 

चाहा बहुत. मगर. अाशायें
शांति निकेतन बनीं  नहीं,
चैन हृदय का हुआ. गोधरा
जिसने  खुशियाँ  जनीं नहीं,
इच्छाएँ हरसूद हो गईं
उजड़ा  जिनका घर अांगन ।
        - डा राम वल्लभ आचार्य

परिचय
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डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
परिचय
जन्म - ४ मार्च १९५३ , भोपाल (म. प्र.)
पिता- स्व. पं. बृज वल्लभ आचार्य
शिक्षा - B. Sc., B.A.M.S.
व्यवसाय - चिकित्सा 
प्रकाशित कृतियाँ - राष्ट्र आराधन, गीत श्रंगार, सुमिरन, गाते गुनगुनाते, अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो, पांचजन्य का नाद चाहिये, जय जिनेन्द्र, परशुराम भजनांजलि (सभी गीत संकलन) ।
समवेत संकलनों में  सहभागिता  - शब्दायन,  गीत अष्टक - २, समकालीन गीत कोष, नयी सदी के स्वर ।
अन्य उल्लेखनीय तथ्य - विभिन्‍न पत्र - पत्रिकाओं में गीत, कहानी, व्यंग्य एवं साहित्य , धर्म, संस्कृति, विज्ञान एवं चिकित्सा संबंधी  लेखों का प्रकाशन । अाकाशवाणी द्वारा  AIR-65 के अंतर्गत अनुबंधित गीतकार । अाकाशवाणी एवं दूरदर्शन के क्षेत्रीय, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय. नेटवर्क पर काव्यपाठ, वार्ता,  कहानी,  नाटक, टेलि फिल्म, संगीतबद्ध गीतों तथा संगीत रूपकों का प्रसारण । अनेक धारावाहिकों व टेलिफिल्मों के लिए शीर्षक गीतों तथा फिल्म अहिंसा के पुजारी के लिए गीतों का लेखन । वीनस,  टी. सीरीज,  ई. एम. आई. एवं अन्य कंपनियों द्वारा अनूप जलोटा, रूप कुमार राठौर, उदित नारायण,अनुराधा पौड़वाल, घनश्याम वासवानी,  कल्याण सेन राजेन्द्र काचरू, प्रभंजन चतुर्वेदी  सहित अनेक कलाकारों के स्वर में अाॅडियो- वीडियो कैसेट्स व सीडीज़ जारी । मधुकली वृन्द द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर आधारित संगीत रूपक " मुक्ति का महायज्ञ " की देश के अनेक मंचों पर दृश्य श्रव्य प्रस्तुति।
विशेष - महाकौशल, जागरण, राष्ट्र का आव्हान, गोराबादल एवं परशुधर के संपादकीय विभागों  का कार्यानुभव ।
प्रमुख सम्मान - अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, तुलसी साहित्य सम्मान, पवैया परस्कार ( गीत संग्रह- गीत श्रंगार के लिये) , साहित्य श्री सम्मान,  राष्ट्रीय नटवर गीत सम्मान, राजेन्द्र अनुरागी बाल साहित्य सम्मान,  साहित्य परिषद (म. प्र. शासन) का जहूर बख्श बाल साहित्य सम्मान, श्रेष्ठ साधना सम्मान,  चंद्र प्रकाश जायसवाल बाल साहित्य सम्मान, भारत भाषा भूषण सम्मान सहित अन्य अनेक सम्मान ।
पूर्व संपादक , प्रकाशक - "आरोग्य सुधा "(मासिक पारिवारिक स्वास्थ्य पत्रिका) 
प्रादेशिक अध्यक्ष - मध्य प्रदेश लेखक संघ ।
पता - 101,रोहित नगर फेस-1 बावड़िया कला, भोपाल म. प्र. 462.039 (निवास)
ई-3/325 अरेरा कलोनी भोपाल म. प्र.  462.016 (कार्यालय) ।

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