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गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

मनोज जैन का एक गीत

मैं हूँ #आलोचक #प्रगतिशील 
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मैं हूँ अपने में स्वयंपूर्ण,
मैं हूँ आलोचक प्रगतिशील।

                 ईसा-मूसा का दीवाना,
            करता हूँ वार सनातन पर।
            गुण गाता हूँ नित ओशो के,
           मैं लिखता नही पुरातन पर।

वैदिक चिंतन के माथे में,
ठोका करता हूँ रोज कील।

        परिधान पहनता भारत के,
        भारत की बात नहीं करता।
        मैं अपने तर्क वितर्कों में,
        कबिरा को लाकर मन हरता।

हो परम्परा की चिड़िया तो,
बन जाता हूँ विकराल-चील।
 
        गीतों की बात करूँगा क्यों,
        इनमें नवता का नाम नही।
        हूँ अधुनातन मैं ज्ञानी हूँ,
        जड़ता का कुछ भी काम नही।

बश चलता तो आदर्शों को,
मैं कब का होता गया लील।

        पावन वेदों के सम्मुख में,
        मैं महावीर को ले आया।
        निष्पक्ष बताने मैं खुद को
        गौतम का राग सुना आया।

अन्तर्विरोध के धागे को,
रह रह कर देता रहा ढील।
     
       मनोज जैन

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