सौरभ पाण्डेय जी की
बाल-रचनाएँ
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कवि : सौरभ पाण्डेय
एक
ठंढा-ठंढा बहता पानी
चलो नहायें उछल-कूद के
ठंढा-ठंढा बहता पानी
गर्मी के मौसम में आखिर
चलती गर्मी की मनमानी
चापाकल का या नदिया का
या फिर तालाबों का पानी
राहत देगा अगर नहायें
क्यों करनी फिर आनाकानी
चलो नहायें उछल-कूद के
ठंढा-ठंढा बहता पानी
कुदरत के वरदान सरीखे
सतत धार में बहने वाले
झरनों का व्यवहार समझते
जंगल-पर्वत रहने वाले
हम शिक्षित हैं, हम शहरी हैं
कुदरत की क्यों बात न मानी ?
चलो नहायें उछल-कूद के
ठंढा-ठंढा बहता पानी
स्वच्छ रहे पर्यावरण यह
तभी अर्थ है इस जीवन का
घर-बाहर जब गन्दा-मैला
क्या हित सधता है तन-मन का ?
’जल ही जीवन है’ सब कहते
बात न कहनी, है अपनानी.
चलो नहायें उछल-कूद के
ठंढा-ठंढा बहता पानी
दो
गर्मी-छुट्टी
हम हैं क्या ?.. आज़ाद पखेरू !
जबसे गर्मी-छुट्टी आई !
नहीं सुबह की कोई खटपट
विद्यालय जाने की झटपट
सारा दिन बस धमा चौकड़ी
चिन्ता अब ना, कोई झंझट
तिस पर रह-रह माँ की घुड़की -
’क्यों बाहर हो, करूँ पिटाई..?’
हम हैं क्या ? आज़ाद पखेरू.. !
जबसे गर्मी-छुट्टी आई !
होमवर्क भी कितना सारा
अपनी मम्मी एक सहारा
प्रोजेक्टों का बोझ न कम है
याद करें तो चढ़ता पारा
साथ खेल के गर्मी-छुट्टी
कितनी--कितनी आफत लाई
हम हैं क्या ? आज़ाद पखेरू.. !
जबसे गर्मी-छुट्टी आई !
बहे पसीना जून महीना
निकले सूरज ताने सीना
डर से उसके सड़कें सूनी
अंधड़ लू के, मुश्किल जीना
शरबत आइसक्रीम वनीला
चुस्की राहत बरफ-मलाई !
हम हैं क्या ? आज़ाद पखेरू..
जबसे गर्मी-छुट्टी आई !
तीन
मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं
मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं
किसकी-किसकी बात करूँ मैं,
सबके सब बेहद तगड़े हैं
एक भोर से लगे पड़े हैं
घर में सारे लोग बड़े हैं
चैन नहीं पलभर को घर में
मानों आफ़त लिये खड़े हैं
हाथ बटाया खुद से जब भी,
’काम बढ़ाया’ थाप पड़े
घर-पिछवाड़े में कमरा है
बिजली बिन अंधा-बहरा है
इकदिन घुस बैठा तो जाना
ऐंवीं-तैंवीं खूब भरा है
पर बिगड़ी वो सूरत, देखा
बालों में जाले-मकड़े हैं
फूल मुझे अच्छे लगते हैं
परियों के सपने जगते हैं
रंग-बिरंगे सारे सुन्दर
गुच्छे-गुच्छे वे उगते हैं
उन फूलों से बैग भरा तो
सबके सब मुझको रगड़े हैं
चार
बालगीत-कथा: चिड़िया और बन्दर
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से !
किसी पेड़ पर चिड़िया का था
एक घोंसला छोटा-सुन्दर
चीं-चीं करते बच्चे उसके
साफ-सफाई बहुत वहाँ पर
दूर कहीं से बन्दर आया
देख चकित था इतने भर से !
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से !
चिड़िया बोली, ’आओ भाई’
लगी पूछने पता-ठिकाना
बेघर बन्दर जल-भुन बैठा
समझा, चिड़िया मारे ताना -
’चिड़िया को औकात बताऊँ
ज़हर भरी है यह अंदर से..’
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से !
बादल आये तभी घनेरे
लगा बरसने झमझम पानी
बच्चों के संग छिपी घोंसले
दुबक गयी फिर चिड़िया रानी
लेकिन बन्दर रहा भीगता
उबल रहा था वह भीतर से
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से !
देखा आव न ताव झपट कर
बन्दर जा पहुँचा उस डाली
एक झटक में नोंच घोंसला
उसने खुन्नस खूब निकाली
तिनका-तिनका बिखर गया था
उजड़ गया था साया सर से
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से !
सही कहा है कभी मूर्ख से
बिना ज़रूरत बात न करना
करो मित्रता, सोच-समझ कर
करे डाह जो हाथ न धरना
समझ गयी ये चिड़िया भी सब
बेघर आज हुई जब घर से
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से !
सौरभ पाण्डेय,
भोपाल (मप्र)
सम्पर्क : 9919889911
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