पिता दिवस पर बकरे जैसा
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सोच रहे हैं पिता,
अरे ये
कैसे नाते हैं।
अंतर्मन में बाह्य जगत की
पीड़ा सघन समेटे।
डीपी मेरी हँसने वाली
लगा रहे हैं बेटे।
रोते रहते भीतर
हम, बाहर
मुस्काते हैं।
तकती रहती आसमान में
जाने क्या दो आँखें।
मन का पाखी उड़ना चाहे
किंतु कटी हैं पाँखें।
जीवन के पल जाने
क्या-क्या हमें
दिखाते हैं।
दिन पहाड़-सा रात क़त्ल की
कटना है मजबूरी।
चुप्पी के इस बियाबान की
कौन नापता दूरी।
नकली मुस्कानें
होठों पर
हम चिपकाते हैं।
सन्नाटों की खुली जेल-सा
जीवन अपना कैदी।
साँसों की आवाजाही पर
साँसों की मुस्तैदी।
पिता दिवस
पर बकरे जैसा
हमें सजाते हैं।
मनोज जैन
9301337806
#Fathers_Day #पिता_दिवस
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