फेंकता है कौन शीशों से उजाला जानता हूँ धूप मेरे घर नहीं है:रामप्यारे श्रीवास्तव 'नीलम'
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वागर्थ में आज नवगीतों की एक और कड़ी जोड़ने का दिन इस श्रृंखला में आज हम जोड़ने जा रहे हैं कीर्तिशेष रामप्यारे श्रीवास्तव'नीलम'जी के दस नवगीत।यों तो 26 सितंबर 1935 को ग्राम मैदेमऊ,राय बरेली उत्तर प्रदेश में जन्में,रामप्यारे श्रीवास्तव नीलम जी अपने समय के चर्चित रचनाकार रहे हैं।उनके प्रस्तुत नवगीत लंबे अंतराल के बाद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।उनके गीतों में भोगा हुआ यथार्थ बोलता है।जिये हुए समय की पदचापें अब भी जस की तस सुनाई देती हैं।अवधारणा के स्तर पर उनके गीत तल स्पर्शी और उच्चस्तरीय हैं।
सार संक्षेप में कहें तो उनके नवगीत आन्तरिक और बाह्य सौंदर्य के स्तर पर असली नवगीत हैं।वागर्थ इन नवगीतों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा है।बहुत आभार Simantini Ramesh Veluskar जी का जिनके सहयोग से हमें यह सामग्री हमें उपलब्ध हो सकी।
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादन मण्डल
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1. आधी उमर तो कट गई
आधी उमर तो कट गई कुछ हाट में कुछ बाट में
अब सोचता हूँ खिन्न मन बाकी उमर का क्या करूँ
दायित्व के बोझे लिए
उतरा समय की धार में
गुण से अधिक दायित्व की
बोली लगी बाज़ार में
इसकी रसोई के लिए, उसकी तिजोरी के लिए
बन कर रहा हूँ उपकरण, ऐसे हुनर का क्या करूँ
हर पल वसंतोत्सव लगा
ऐसे मिले कुछ ठाँव भी
कोई शकुनि नेपथ्य से
चलता रहा है दाँव भी
हर साँस दुहराती रही है चक्रव्यूहों की कथा
घावों भरा है हर चरण, बाकी समर का क्या करूँ
मन को अनादृत छोड़कर
इस देह का कर्ज़ा भरा
वे भी कहाँ अपने हुए
जिनके लिए जीया-मरा
है सुख मिला बस स्वप्न में जोड़े गए परिवार का
ऊबों भरा हर जागरण, अब घर-अघर का क्या करूँ
2. अनचीन्हा अपना ही नाम लगा
अनगिन आरोपित संज्ञाओं के बीच हमें
अनचीन्हा अपना ही नाम लगा
ऊबों से भरे हुए
गंधहीन रिश्तों के
पढ़ते हम ठंडे अनुवाद
कहने-सुनने को तो
रोज़ महाभारत है
खोया बस
मन का संवाद
तस्वीरों की प्रगल्भ टोली में हतप्रभ सा
गुमसुम बैठा बस, ख़ैयाम लगा
सूरज तो एक रहा
हम ही संग चल-चल कर
घर से बाज़ार तक बँटे
कर्ज़ों की मूल रकम
ज्यों की त्यों खड़ी रही
किश्तों में हम मगर कटे
अपनी पहचानों को फेंककर अंधेरों में
बेचा ख़ुद को जो भी दाम लगा
3. सात रंग वाली बाँसुरी बजी
फिर सूरज की
सात रंग वाली बाँसुरी बजी
घन परियों ने महारास के घुँघरू पहन लिए
बहुत दिनों तक धूप-सास के बंधन सहन किये
अम्बर से धरती तक नाचें
अब जितनी मर्ज़ी
मुरझाए बीमार वनों के चेहरे हुए हरे
शापग्रस्त नदियों तालों के फिर से दिन बहुरे
एक अमृत उत्सव की चर्चा
खेत-खेत पँहुची
आँख-आँख में हवा बो रही बासमती सपने
राखी कजली के दिन गिनती हैं बेटी-बहनें
मचल रही नइहर जाने को
नई-नई भौजी
4. भगत
खुले नहीं दरवाजा
तब तक बैठे रहो भगत
समझाया दो टूक महल के
पहरेदारों ने
तुमको समय गलत बतलाया है
अखबारों ने
अभी तुम्हारी दीन दशा पर
बहस अधूरी है
जब तक हो फैसला
भाग्य में जो है, सहो भगत
तुमने अपने सपने सींचे
जिनके वादों से
उनके कुनबे भरे हुए
लोभी शहज़ादों से
शहज़ादों की मर्ज़ी से रुख
हवा बदलती है
जैसे बहे बयार समय की
तुम भी बहो भगत
सड़कों का आदमी
यहाँ आकर खो जाता है
लोककथा गाने वाला
दसमुख हो जाता है
हक़ की बातें नहीं सुहातीं
दसमुख राजा को
हाँ, कोई ऋण दान चाहते हो
तो कहो भगत
5. फसलें पकीं (शुभकामना)
फसलें पकीं, तन गईं मूछें
यूँ ही तनी रहें
राम करें 'दीनू' की खुशियां
यूँ ही बनी रहें
जल से भरे कूप
नाज से भरी बखारी हो
नात-गोत संग खुले हाथ से
तिथि-त्योहारी हो
नेह-छोह की डोरें पुख्ता
सौ-सौ गुनी रहें
मीठी-मीठी नींद, स्वप्न
उजले-उजले दिन के
पीछे पड़ें न भुतहे साये
किसी महाजन के
ऋतुएं हों अनुकूल
उमंगें धानी-धनी रहें
परस पसीने का पारस
माटी कंचन होती
अन्नपूर्णा धरती
गीतों का गुंजन होती
यूँ ही सिरजें हाथ, बोलियाँ
मधु से सनी रहें
6. शाम बंगाल की
सुआपंख झीलों में डूबा
पीला रेशम-जाल
चलो अब घर चलें
नारंगी अम्बर में उड़ता है सारस का जोड़ा
दसों रानियों ने सूरज की शाल जामुनी ओढ़ा
ज्योति-कुसुम के छंद
समेट चुका है जोगी ताल
चलो अब घर चलें
उपकृत धीवर जलतारे पर यश नदिया का गाता
पवन थकी बाहों से बंसवट में मलखंभ हिलाता
हानि-लाभ का लेखा सुनती
सरपंचिनि चौपाल
चलो अब घर चलें
पंथ जोहती होगी भामिनि ईंगुर पाँव रचाये
कहीं समर्पित वेणी की निशिगन्धा रूठ न जाये
कोई याद रंग रही होगी
मुख पर रंग गुलाल
चलो अब घर चलें
7. फागुनी निशा
फागुनी निशा महके ज्यों हिना
तारों के शिशु तकली कातते
बैठे आकाशी कालीन पर
किरणों की छात्राएं गा रहीं
मालकौंस लहरों की बीन पर
करता है चंद्रमा मुआयना
पत्रों के दोनों से झर रही
दुधियल चरणामृत सी चाँदनी
बौरों की गंध सुरा पी कोयल
छेड़ रही स्वर कवि-सम्मेलनी
सारा उपवन देता दक्षिणा
अल्हड़ नाइन-बयार बाँटती
घर-घर में सौरभ का बायना
ताशे फिर बज उठे सहालग के
वरदेखी को आये पाहुना
फड़क रहा है अंग दाहिना
7. सज गई ऋतुराज की इंदर सभा
चित्रबीथी हो गई है हर दिशा
फूल, रोली, रंग संयोजित हुए
सज गई ऋतुराज की इंदर सभा
आप, हम, सब लोग आमंत्रित हुए
उम्र के अंतःपुरों की प्यास का
फिर अनूदित भाव ओठों पर हुआ
कुंकुमी गूढ़ार्थ वाली चिठ्ठियां
बाँटता हर गेह हीरामन सुआ
दे रही खुलकर चुनौती कोकिला
हैं कहाँ वे लोग इन्द्रियजित हुए
डगमगाते पाँव प्राकृत गंध से
एक आदिम चाह के कंगन बजे
टूटता है वर्जना का व्याकरण
मुक्त मन जब प्यार-पद्मावत रचे
डालते हैं एक मादक मोहिनी
पुष्पधनु के बाण अभिमंत्रित हुए
खोलता मणि-कोष राजा खेत का
एक सपनों का महल बनने लगा
फिर प्रतीक्षा में सुनहले वर्ष की
कर रही हैं कामनाएं रतजगा
घोलती संजीवनी फगुआ-हवा
पी रहे हैं प्राण सम्मोहित हुए
8. मन लुभाने लगा गुलमुहर
चिलचिलाती हुई धूप में
सज संवर जोगिया रूप में
गीत गाने लगा गुलमुहर
मन लुभाने लगा गुलमुहर
अंगवस्त्रम चटक रेशमी
देह पर तोतई अंगरखा
श्वेत चंदन तिलक भाल पर
वक्ष पर हार है नौलखा
लालमणि की सजी पंक्तियां
जल उठीं सैकड़ों बत्तियां
जगमगाने लगा गुलमुहर
मन लुभाने लगा गुलमुहर
झाड़ फानूस से सज गया
दूधिया दर्पणों का महल
धूप की झील में खिल गए
रूप बदले हज़ारों कमल
भव्य है चित्र की कल्पना
बीच आकाश में अल्पना
है सजाने लगा गुलमुहर
मन लुभाने लगा गुलमुहर
यह समारोह सौंदर्य का
एक आभा घिरी मोहिनी
दाह के पल पिघलने लगे
बह चली एक मंदाकिनी
ज़िंदगी मे कठिन ताप सह
दर्द में भी जियें किस तरह
ये सिखाने लगा गुलमुहर
मन लुभाने लगा गुलमुहर
9. बांध पाए सेतु लहरों पर
फेंकता है कौन शीशों से उजाला
जानता हूँ धूप मेरे घर नहीं है
खुद न क्षण भर भी सुगंधों में जिये जो
हाथ मे लेकर इतर वो घूमते हैं
जो किरन का अर्थ तक बतला न पाए
सूर्य का गौरव पहन कर झूमते हैं
हाथ कुछ चाहे समर्थन में उठें पर
प्राण में उनके लिए आदर नहीं है
छोड़ आये जो अंधेरे जंगलों में
आज फिर कम्पास लेकर वे खड़े हैं
मारते पत्थर असहमति हो जहाँ भी
जिस्म पर जिनके स्वंय शीशे जड़े हैं
बज रहे वे ही पुराने टेप जिनमें
एक भी संभावना का स्वर नहीं है
जो मरम्मत के लिए कसमें उठाता
और कुछ सूराख कर देता तली में
एक टूटी नाव पर जन्मा कबीला
जूझता हर क्षण भंवर की कुंडली में
बांध पाए सेतु लहरों पर अभी तो
दीखता वह दक्ष कारीगर नहीं है
मौसमों का नाम कुछ भी हो, गले में
एक सी खुश्की, पुतलियों में नमी है
प्राणगंगा की उमंगों को दबोचे
बेबसी की बर्फ़ पत्थर सी जमी है
पढ़ रहे हैं मंत्र कब से शामियाने
छोड़ता पर राह जड़ अजगर नहीं है
10. हो गए हैं आजकल कितने सयाने हम
तप्त बालू पर अधर से लिख वरुण का नाम
जी रहे हैं ज़िंदगी किस-किस बहाने हम
एक लंबा सिलसिला है वंचनाओं का
गूँजता है स्वर करामाती हवाओं का
जी रहा नीरोगता का स्वप्न हर रोगी
देखकर रंगीन विज्ञापन दवाओं का
द्वार तक स्वागत, निषेधादेश चौखट पर
देख आये हैं कई ऐसे ठिकाने हम
छेंकते हैं धूप चीलों के खुले डैने
मोरपंखों के तले विषधर लगे रहने
हर तरफ बाज़ार की ऐसी नज़रबंदी
रूपसी डायन खड़ी ज्यों बघनखा पहने
चेहरों पर चेहरे, ऊंची दुकानों पर
और सबकी आँख के सीधे निशाने हम
बर्फ की दीवार जाने क्यों नहीं घुलती
आँख की स्याही किसी जल से नहीं धुलती
साथ हो इस सूर्य का या उस सितारे का
कुछ कदम बस, फिर वही अंधी गली खुलती
दर्द के हक़ में नहीं कोई रतन-नीलम
देख आये हैं कुबेरों के खज़ाने हम
हर सुबह सम्मन लिए आती अभावों के
घेरते आतंक महंगाई, तनावों के
काग़ज़ों पर व्योम छूती सीढ़ियां अनगिन
पर हक़ीक़त में समंदर यातनाओं के
बच रहे हैं हम मुखौटों की हिफाज़त में
हो गए हैं आजकल कितने सयाने हम
परिचय : रामप्यारे श्रीवास्तव 'नीलम'
जन्मतिथि : 26 सितंबर 1935
मृत्यु : 2 सितंबर 2002
जन्मस्थान : ग्राम मैदेमऊ, पोस्ट बेहटा कलाँ
रायबरेली उत्तरप्रदेश
प्रकाशित साहित्य :
1. विक्रांत,
2. सन्नाटा चुप नहीं है
3. सहयात्री
4. एक सप्तक और
5. अप्रस्तुत
6. मुखौटे, सलीब और युद्ध
7. कंदीलें
8.नवगीत अर्धशती
संपादन : नवागत पाक्षिक, बिगुल- अनियतकालीन पत्रिका, घर गृहस्थी में कविता, कविता समावेश