गुरुवार, 6 मई 2021

रमेश रंजक जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ समूह

एक बिन्दी खा गया अखबार : रमेश रंजक
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वागर्थ प्रस्तुत करता है ---
कालजयी रचनाकार रमेश रंजक जी के नवगीत और उनकी एक कृति 'हरापन नहीं टूटेगा' की भूमिका बहरहाल इस बड़े कवि पर कुछ भी लिखना सूरज को दीप दिखाने जैसा है फिर भी विशेष प्रस्तुति के अवसर पर कवि को प्रस्तुत करने के लिए यदि थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कहना हो तो इन नवगीतों का मूल स्वर आम आदमी के हक और अधिकारों के लिए  सतत संघर्ष करना और सामाजिक विसंगतियों से चार-चार हाथ करना है।
विशेष टीप : प्रस्तुत विशेषांक की समस्त सामग्री  रामकिशोर दाहिया जी एवं अनिल जनविजय जी द्वारा उपलब्ध कराई गयी है। समूह वागर्थ दोनों विद्वानों का सहयोग हेतु हृदय से आभार व्यक्त करता है।
दिनाँक ०५ मई २०२१

आइए पढ़ते हैं
रमेश रंजक जी के पैने और धारदार नवगीत

प्रस्तुति
सम्पादक मण्डल
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【1】
https://m.facebook.com/groups/181262428984827/permalink/1182071995570527/
【2】
https://m.facebook.com/groups/181262428984827/permalink/1182234218887638/

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(१)
धूप ने कर्फ्यू लगाया
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देहरी मत लांँघ जाना तुम !
धूप  ने  कर्फ्यू  लगाया  है 

बंद है आवागमन इस ओर
हवा तक करती नहीं है शोर
तोतई गर्दन हिलाकर पेड़
कह रहे हैं पड़ा रह गुमसुम
धूप  ने  कर्फ्यू  लगाया  है 

खून को बदलो पसीने में
हवा कहती खड़ी जीने में
शुभ नहीं बाहर निकलने में
फैलने दे व्योम का कुंकुम
धूप  ने  कर्फ्यू  लगाया  है

'कल मरे थे बेवजह ही चार'
'एक बिन्दी खा गया अखबार'
'सत्य  क्या  है  देवता  जाने'
'मरे  हैं  या  हो  गए  हैं  गुम'
धूप  ने  कर्फ्यू  लगाया  है

 (२)
कलम होते हुए
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सह रहा हूंँ
एक दीगर मार....
कैद खाने के झरोखे से
वही तो कह रहा हूंँ

दीखते....
मुस्तैद पहरेदार,
कंठीदार तोते,
टूटते लाचार खोखे

कुछ न पूछो
किस तरह से दह रहा हूंँ
सह रहा हूंँ

चन्द बुलडोजर
सड़क की पीठ पर तैनात,
हाँफती-सी, काँपती-सी,
आदमी की जात

उफ !
कलम होते हुए
पाबन्दियों में रह रहा हूंँ
कह रहा हूंँ......

(३)
ज़हन में बलगम
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शिला सीने पर
धरी है
घुट रहा है दम
क्या ! इसी
दिन के लिए
पैदा हुए थे हम

पसलियों के
चटकने को
व्यर्थ जाने दूँ
डबडबाई आंँख
बाहर निकल आने दूँ

गड़ रहा है
ज़हन में बलगम

बेरहम
ठोकर समय की
बेशरम गाली
किस तरह
इनकी चुकाऊँ
ब्याज पंचाली

खोपड़ी में
फट रहे हैं बम

 (४)
बदन का नील
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दर्द मेरे जिस्म पर
जब ठोकता है कील
कौन है जो
टांँग जाता है
वहांँ कंदील
उसको नमन करता हूंँ

दीखती है नहीं
आगत देह
और उगता भी नहीं
कंदील का संदेह
जागती जो
रोशनी की झील
उसको नमन करता हूंँ

झील में परछाइयांँ
ऊंँचे घरों की
झूलती हैं
तुम्हें क्या मालूम
कितना टीसती हैं,
हूलती हैं,
पांँव जो
आगे बढ़ाता है
बदन का नील
उसको नमन करता हूंँ

 (५)
क्या है ! डर की बात
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तुमको नाहक
डर लगता है
मुझको
सारा देश
नुमाइश घर लगता है
 तुमको नाहक
डर लगता है !

क्या है !
डर की बात
बताओ
महतो, गोपी को
समझाओ
यह समझाना
और बुझाना
मुझको एक
सफर लगता है
तुमको नाहक
डर लगता है !

डर के आगे
आग जलाओ
कद्दावर
शब्दों को लाओ
फिर देखो---
अपनी जमीन का
कितना बड़ा
जिगर लगता है
तुमको नाहक
डर लगता है !
 (६)
द्वन्द्व की भाषा
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जन्म लेने में अगर
असमर्थ है सूरज
काट पत्थर की
किवाड़ों को
भूल जा !
गिनती पहाड़ों को ।

ये ध्वजाएँ
कमर तक आयें
टूट जायें
परिधि - रेखाएंँ
रेल की पटरी
सरीखा, तू
लांँघ जा
ऊँचे पठारों को
भूल जा !
गिनती पहाड़ों को ।

उठा ले
सूरज किरण आये
जागरण का
गीत लहराये
दोपहर के
द्वन्द्व की भाषा
बाँचता जा !
बेसहारों को
भूल जा !
गिनती पहाड़ों को ।
 (७)
अजगर के पाँव दिये 
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अजगर के पाँव
दिये जीवन को
और समय को डैने 
ऐसा क्या
पाप किया था मैंने ?

लहरों की भीड़ मुझे
धकिया कर
जा लगी किनारे 
झूलता रहा
मेरा तिनकापन
भाग्य के सहारे 

कुन्दन विश्वासों ने
चुभो दिये
अनगिन नश्तर पैने 
ऐसा क्या
पाप किया था मैंने ?

शीशे का बाल
हो गई टूटन
बिम्ब लड़खड़ाये
रोशनी, अँधेरे से
कितने दिन
और मार खाये ?

पूछा है
झुँझला कर राहों से
पाँवों के बरवै ने 
ऐसा क्या
पाप किया था मैंने ?
(८)
ऐसा ही कुछ
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चारों ओर
अमंगल होगा
आधे घर में
जंगल होगा

अबकी बरस
बाँध-पानी में
अंतरधर्मी 
टक्कर  होगी
अपना जोर
आजमाएंँगे
सांँझ-सकारे,
योगी-भोगी,

ऐसा ही कुछ
दंगल होगा
चारों ओर
अमंगल होगा

इच्छाओं के
सिरहाने से
उमड़-घुमड़ कर
भावुक भाषा
जीवन की,
श्रम की,
जीवट की
रच देगी
ऐसी परिभाषा

बल में
छल का
संबल होगा
चारों ओर
अमंगल होगा
 (९)
अपने मुताबिक 
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शब्द को
बच्चे
सरीखा पालता हूँ 
और फिर
अपने
मुताबिक ढालता हूँ ।

पालता हूँ इसलिए
मुझको कहे जी
खोलकर 
कसमसाती,
छटपटाती
आस्था को तोल कर 

और फिर
हो जाय
सबका
अर्थ ऐसा डालता हूँ । 

अर्थ को आकार
देने के लिये
चलता रहे 
आँधियों के,
अँधड़ों के
बीच में जलता रहे 

मैं मरूँ,
मरने न दूँगा
पर उसे
रोज़ जिसमें
एक चिनगी बालता हूँ ।
 (१०)
चालाक मरहम से
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'धूप में जब भी
जले हैं पांँव'--
सीना तन गया है
और आदमकद
हमारा जिस्म
लोहा बन गया है

तन गई हैं रीढ़
जो मजबूर थीं ग़म से
हाथ बाग़ी हो गए
चालाक मरहम से

अब न बहकाओ,
छलावा,
छलनियों से छन गया है
और आदमकद
हमारा जिस्म
लोहा बन गया है

हम पसीने में
नहाकर
हो गए ताजे़
तोड़ने को
बघनखों के
बन्द दरवाजे

आदमी की
आबरू की
ओर से सम्मन गया है
और आदमकद
हमारा जिस्म
लोहा बन गया है

 माहेश्वर तिवारी की गीत पंक्ति-
"धूप में जब भी जले हैं पांँव"
को पढ़कर।
 (११)
गीत-विहग उतरा 
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हल्दी चढ़ी
पहाड़ी देखी
मेंहदी रची धरा 
अँधियारे के 
साथ पाहुना
गीत-विहग उतरा ।

गाँव फूल-से
गूँथ दिये
सर्पिल पगडण्डी ने 
छोर फैलते 
गये मसहरी के
झीने-झीने 

दिन, जैसे-
बाँसुरी बजाता
बनजारा गुज़रा ।

पोंछ पसीना
ली अँगड़ाई
थकी क्रियाओं ने 
सौंप दिये
मीठे सम्बोधन
खुली भुजाओं ने 

जोड़ गया 
सन्दर्भ मनचला 
मौसम हरा-भरा ।
(१२)
मिट्टी बोलती है
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रहट जब चकरोड में आ जाय
और सूखी रोटियांँ खा जाय
मिट्टी बोलती है

बोलती है छन्द जो सन्दर्भ में अपने
टूट जाते हैं बया के घोंसलों-से
झूलते नीले हरे सपने

हर पुराने शब्द में
ध्वन्यार्थ गहरा घोलती है
मिट्टी बोलती है

अर्थ ये इतिहास को
भूगोल से यों जोड़ देते हैं
रीति में डूबी हुई
पगडंडियों को मोड़ देते हैं 

झुर्रियों के बीच में धँसकर
आदमी में आदमी को तोलती है
मिट्टी बोलती है
 (१३)
हवा अकेली 
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भरे गाल पर
धरे हथेली
खिड़की में बैठी
अलबेली
सोच रही है
जाने क्या-क्या
हवा अकेली
शाम की
बड़ी थकन के
बाद मिली है
ये घड़ियाँ आराम की ।

चढ़कर पर्वत,
छूकर खाई
जाने कहाँ-कहाँ
हो आई
तुमको क्या
मालूम कि इसने
कहाँ-कहाँ 
पर ठोकर खाई

सुबह चली थी
बनजारिन-सी
लेकिन अब गुम-सुम
विरहिन-सी
बैठ गई है
माला जपने
जाने किसके नाम की ।

ओढ़ धुँधलका 
हल्का-हल्का
सपना देख रही
जंगल का
जबसे रूठ
झील से आई
मुखड़ा मुरझा
गया कमल का

भोली-भोली
आँख चुराकर
चोरी-चोरी नज़र
मिलाकर
गन्ध चुरा लाई
चन्दन की
नज़र किसी
गुलफ़ाम की ।
 (१४)
प्रगतिधर्मा राग
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एक  मुट्ठी देह  में  हो
या  पुराने गेह  में  हो
रोशनी सोने नहीं देती ।

रोशनी  आवाज  होती  है
जब कभी नाराज होती है
जुल्म को ढोने नहीं देती ।

रोशनी का नाम कुर्बानी
छोड़ देती बांँध का पानी
कालिमा बोने नहीं देती ।

बाजुओं को आग देती है
प्रगतिधर्मा राग  देती  है
हाथ में  दोने नहीं  देती ।

रमेश रंजक
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संक्षिप्त जीवन परिचय 
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नाम : रमेश रंजक 
मूल नाम : रमेश उपाध्याय 
उपनाम : 'रंजक'  
जन्म : 12 सितम्बर, 1938 ई.। गाँव नदरोई , ज़िला-अलीगढ़, उत्तरप्रदेश। माँ : श्रीमती सुख देवी उपाध्याय। पिता : पं.दाताराम उपाध्याय।

शिक्षा :
 प्राथमिक परिषदीय प्राथमिक शाला नदरोई, अलीगढ़। ग्यारहवी कक्षा उच्च.माध्य.आर्य विद्या.एटा। बारहवीं माहेश्वरी इंटर कालेज, अलीगढ़। बी.ए.धर्म समाज कालेज, अलीगढ़। एम.ए.,एम.एम.एच.कालेज गाजियाबाद से तथा बी.एड.,धर्म समाज कालेज, अलीगढ़ उ.प्र. से।

लेखन आरम्भ :
प्रथम गीत कार्तिक पूर्णिमा : सन् 1951 ई.। नौकरी/ नौकरियाँ : सन् 1959 -60 तक सरदार पटेल विद्यालय अहमदाबाद। सन् 1960-85 तक दिल्ली प्रशासन के विद्यालय में अध्यापन।

विवाह : तिथि 13 मई, 1960 ई0।
पत्नी का नाम : श्रीमती अनुराधा उपाध्याय।
नौकरी से त्यागपत्र : अगस्त, 1985 ई.।

समर्पण :
सन् 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के द्वारा आपात् काल लागू करने के आस-पास रमेश रंजक, सव्यसाची, बाबा नागार्जुन व सुधीश पचौरी जैसे वामपंथी रचनाकारों के संपर्क में आकर आपात् काल के दौरान कांग्रेस विरोधी पार्टियों पर किये गये प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष, दमन और अत्याचार को उन्होंनेे भीतर तक अनुभव किया। आपात् काल के पश्चात् भीे वे अपनी वामपंथी सोच के साथ रहे। वामपंथ के साथ उनकी प्रतिबद्धता दृढ़ होती गयी। वे वामपंथ की परिकल्पना के आधार पर सर्वहारावर्ग के संसार के निर्माण में, अतिस्वप्न को पूरा करने में सृजनात्मक स्तर पर जुट गये।

निधन : 08, अप्रैल, 1991 ई0।

प्रकाशित कृतियाँ :
[1] 'किरन के पाँव' नवगीत संग्रह। [2] 'गीत विहग उतरा' नवगीत संग्रह। [3] 'हरापन नहीं टूटेगा' नवगीत संग्रह। [4] 'मिट्टी बोलती है' नवगीत/जनगीत संग्रह। [5] 'इतिहास दुबारा लिखो' नवगीत/जनगीत संग्रह। [6] 'रमेश रंजक के लोकगीत' [7] 'दरिया का पानी' नवगीत ग़ज़ल, कविताएँ। [8] गोलबंदी : बतर्ज़ आल्हा एक प्रबंधात्मक लंबी कविता। [9] 'अतल की लय' नवगीत, कविताएँ । [10] 'पतझर में वसंत की छवियाँ' नवगीत, कविताएँ।
[11] 'धरती का आयतन' नवगीत संग्रह।[12] 'धरती गुहार' काव्य कृति
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