शनिवार, 29 मई 2021

नवगीत की समालोचना पर पंकज परिमल जी एक आलेख : प्रस्तुति समूह वागर्थ

।। नवगीत-आलोचना की  सम्यक् भाषा के जन्म से पहले।।
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अगर मुझे मेरी धृष्टताओं के लिए क्षमा किया जाय, तो मैं कहना चाहूंगा कि नवगीत की आलोचना का बहुत हल्ला होने के बावजूद सत्य यह ही है कि उसका अभी तक  जन्म भी नहीं हुआ है; विकसित होकर युवावस्था तक पहुंचना या प्रौढ़ावस्था की परिपक्वता हासिल करना तो बहुत दूर की बात है। यद्यपि परिदृश्य में ऐसे कई नवगीत समीक्षक या आलोचक मौजूद हैं जो प्रोफेसरान या सेवानिवृत्ति प्राप्त प्रोफेसर-गण हैं और बनिए के मुनीम की दृष्टि से देखने पर उनके आलोचना-कार्य का काफी वैशद्य और  विस्तार भी है; किंतु न तो आलोचना के स्पष्ट टूल्स उनके पास हैं और न नवगीत की परख करने की किसी पद्धति का उन्होंने स्पष्ट उल्लेख ही किया है। वह पद्धति निरापद है या प्रश्नों से परे और सर्वमान्य है, यह प्रश्न तो बाद में ही उठेगा, किंतु उनके वक्तव्य लगातार इस आशय के आते रहते हैं कि नवगीत की सम्यक् आलोचना के लिए हमें 'स्ट्रेट फॉरवर्ड' या यों कहें कि लट्ठमार तरीका अपनाना चाहिए, अर्थात् हमें मठाधीश, ठेकेदारों, झंडाबरदरों, रहनुमाओं प्रभृति परोक्ष उल्लेखों से बचकर नामोल्लेख सहित प्रत्यक्ष आलोचना के क्षेत्र में कदम रखना चाहिए। कहना न होगा कि उनका यह वक्तव्य वास्तव में हमें सही दिशा में बढ़ने का हौसला देगा, किंतु प्रत्यक्ष आलोचना के अनेक खतरे हैं। ऐसे में उचित यही है कि जो लोग नवगीत की समीक्षा में अपनी जोर- आजमाइश करें, वे अपनी समीक्षा को व्यक्ति के स्थान पर प्रवृत्ति की आलोचना पर केंद्रित करें। कम-से-कम तब तक, जब तक कि नवगीत-समीक्षा में  कम-से-कम आधा दर्जन नाम अन्य साहित्य समीक्षा-परिदृश्यों के आलोचकों यथा श्री रामविलास शर्मा,श्री नामवर सिंह प्रभृति बड़े कद के न हों। बड़े कद के आलोचक-नामों की छत्रछाया में छोटे और मँझोले कद के आलोचकों का भी हौसला बुलंद हो जाता है, क्योंकि उन्हें आलोचना की एक सधी-सधाई गाइड-लाइन और तौरतरीके मिलते रहते हैं और  वे भी मजबूती से अपनी बात को कहने का साहस जुटा पाते हैं। अन्यथा वे मान्य और शुद्ध, साथ ही तथाकथित नवगीतकारों के कोपभाजन ही बनते हैं और आलोचना-परिदृश्य से अदृश्य हो जाने में ही अपना भला देखते हैं। यह एक ऐसा विशिष्ट कारण है कि नवगीत-परिदृश्य आलोचकों की उपस्थिति से विरहित है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं  कि नई कविता के साथ ऐसा कोई संकट नहीं। उसके पास अपने आलोचक भी हैं, अपने आलोचना के औजार भी हैं और अपनी आलोचना की विकसित की हुई भाषा भी है; और इस भाषा में भी नवता का दरवाजा हमेशा खुला हुआ प्रतीत होता है।

मैंने जिम दिनों अनियतकालीन पत्रिका 'निहितार्थ'  के नवगीत पर दो विशिष्ट अंक निकाले थे, उनमें से दूसरे अंक में ही मैंने उत्तर प्रदेश के एक महानगर के निवासी दो नवगीतकारों की प्रत्यक्ष आलोचना की थी; लेकिन इसका नतीजा मेरे लिए पूरे नगर की ओर से वैमनस्य बढ़ाने वाला और मेरी पत्रिका का बहिष्कार करने वाला ही निकला। इसका नतीजा यह हुआ कि मैंने तीसरा अंक निकाला ही नहीं। यद्यपि अंक न निकलने के कारण और भी थे, किंतु यह भी एक प्रमुख कारण रहा। 

आलोचक के कद और संरक्षण की बात मुझ पर भी लागू होती है; और मैं भी इससे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित और आहत होता हूँ। ऐसे में यदि मेरा रवैया परोक्ष आलोचना की ओर मुड़ जाए तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है!

पुनः, यही निवेदन करना चाहता हूँ कि सुविधा के तौर पर ही नहीं, सिद्धांत के तौर पर भी मैं अब इस मान्यता का हो चला हूँ कि आलोचना तो अवश्य होनी चाहिए, किंतु व्यक्तियों की नहीं, प्रवृत्तियों की। क्या अवांछित प्रवृत्तियों की आलोचना पर्याप्त नहीं रहेगी? माना कि व्यक्तियों की भी आलोचना होनी चाहिए, पर यह वर्तमान परिदृश्य में आलोचक के लिए एक निरापद स्थिति नहीं है; खासतौर से तब, जब नवगीत सर्जकों में घनघोर आलोचना-असहिष्णुता गहराई तक जड़ जमाए हुए बैठी हुई हो। हमारा जो भला होना है या और स्पष्ट कहूं कि नवगीत का जो भला होना है, वह प्रवृत्तियों की आलोचना से ही हो जाएगा और व्यक्तियों की आलोचना करने की हमें आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। एक बात और, जिन व्यक्तियों की हम आलोचना करना चाहते हैं, वे किसी-न- किसी प्रकार से, चाहे अपने पद और प्रतिष्ठा के कारण, चाहे अपनी आयु के कारण, या चाहे अपने सर्जन-कर्म की विपुलता के कारण और न कि बाह्याभ्यंतर गुणवत्ता के कारण  एक आदरणीय स्थान प्राप्त कर चुके हैं। यह आदरणीयता कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों और राज्य के संस्थानों द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों और सम्मानों के कारण हो या उनके व्यापक जनसंपर्क के कारण, या अन्य किसी कारण से, जिस कारण का उल्लेख यहाँ न हो पाया हो। हम जब व्यक्तियों का असम्मान करते हैं, तो उन संस्थानों का भी सम्मान इस सब में सम्मिलित हो जाता है; और एक नकारवादी परिदृश्य विकसित होने लगता है। यह भी कोई शुभ लक्षण या संकेत नहीं है। इसलिए, नवगीत की आलोचना के पथ पर बढ़ते हुए हमें एक कंटकाकीर्ण वन में से उपयुक्त मार्ग बनाते हुए व स्वयं को निरापद स्थिति में रखते हुए एक अच्छी सी वीथिका का निर्माण करना ही पड़ेगा; भले ही इस कार्य में कितना ही समय क्यों न लग जाय।

वर्तमान में जो नवगीत का आलोचना परिदृश्य-है,  अगर उसे किसी बिंब से परिभाषित करने की या व्याख्यायित करने की ज़रूरत आन पड़े, तो मैं कहना चाहूंगा कि यह किसी गँदले तालाब के किनारे पर खड़े होकर उसमें लगातार कंकर डालने जैसा है; जिस कंकर के जाते ही वर्तुलाकृत लहरें उठनी प्रारंभ हो जाती हैं। 'फेसबुक'  प्रभृति सोशल मीडिया के मंचों पर एकाध टिप्पणी या छोटा-मंझोला आलेख प्रक्षिप्त करना, एक तालाब में कंकरी फेंकने के समान है, जिसके उत्तर में आने वाली टिप्पणियाँ या तो पक्ष की वर्तुल लहरें होती हैं, या प्रतिपक्ष की। क्या ये लहरें आलोचना का कोई परिदृश्य बना पाएँगी? केवल चिंताएँ करने से कोई समाधान नहीं निकलने वाला; और इन चिंताओं का ऐसी स्थिति में कोई अर्थ भी नहीं है।  

पुनः मैं अपनी बात को व्यक्तियों के स्थान पर प्रवृत्तियों की आलोचना पर लाना चाहता हूँ। यह सोच भी समीचीन नहीं है कि जो लोग विश्वविद्यालयीन पठन-पाठन की परंपरा से और आलोचना-शास्त्र की प्राचीन या अधुनातन परंपरा से किसी-न-किसी रूप में जुड़े हुए नहीं हैं, वह न तो नवगीतकार ही हो सकते हैं,  और न ही नवगीत-समीक्षक। यद्यपि इस बात से इनकार करने का कोई ठोस कारण भी नहीं है कि नवगीत-समीक्षा या किसी भी प्रकार और साहित्य-विधा की समीक्षा एक अकादमिक स्तर का कार्य है और इसे साहित्य के पठन-पाठन की महाविद्यालयीन परंपरा या शोध-पीठों के ही अधिकार-क्षेत्र में रहना चाहिए, जो किसी-न-किसी प्रकार, चाहे अध्ययन की परंपरा से, या अध्यापन की परंपरा से  गहराई से जुड़े हुए हों और ऐसे भी आलोचना के टूल्स को अपने टूलबॉक्स में या तूणीर में रखते हों, जिनका सामान्य सर्जक या कवि को ज्ञान ही नहीं होता; या जिनका वह प्रयोग अपने कार्य में करने वाला ही नहीं है। कहते हैं कि खोटा बेटा और खोटा सिक्का भी त्याज्य नहीं होते और उनके भी किसी आपात्काल में काम में आ जाने की संभावना बनी रहती है। यहाँ मेरा आशय दंडी, भामह, लोल्लट आदि से भी है और पाश्चात्य आलोचकों और उनके आलोचना-निकषों से भी उतना ही है। फिर भी मैं कहूँगा कि आलोचक की अंतर्दृष्टि और बहिर्दृष्टि ही ज़्यादा काम के औज़ार हैं, बशर्ते कि संबंधित आलोचक को कविता किंवा नवगीत की आत्मा,पराभौतिक और भौतिक स्वरूप की भी सम्यक् जानकारी हो। केवल कुछ प्राच्य और प्रतीच्य समीक्षकों के नामोल्लेख से कुछ हासिल नहीं होने वाला। मैं ऐसी आलोचना को सतही और छद्म आलोचना कहना पसंद करूँगा।

आज की नवगीत-समीक्षा  सुविधा और संपर्कों पर आश्रित है।  हमें  जो यत्र-तत्र समारोहों में  या डाक द्वारा एकल या सामूहिक  नवगीत-संग्रह प्राप्त हो जाते हैं,  हम उन्हें ही अपनी आलोचना के केंद्र में ले लेते हैं; और उन पुस्तकों से बाहर तो हमारी दृष्टि अर्थात् हमारे आलोचकों की दृष्टि जाती ही नहीं। उस आलोचना में भी पारस्परिकता का और सौमनस्य का पलड़ा ही भारी रहता है, और कटुतम आलोचना की भाषा तो आलोचकों को आती ही नहीं। काश, वे थोड़ी-सी शिक्षा राजनीतिज्ञों से ले लेते तो उनकी जुबान पर शहद के स्थान पर थोड़ा-सा करेले वाला कसैला स्वाद भी आ जाता।  अभी तक जिन लोगों को वास्तव में नवगीत-समीक्षा का केवल अध्यापकीय दृष्टिकोण से ही ज्ञान है, उन्हें इस बात का खतरा महसूस होने लगता है  कि उनकी आलोचना को भी खारिज कर दिया जाएगा और उनके आलोचक पद को भी नकार दिया जाएगा। हो सकता है कि इस नकार की आँच उनके स्वयं के रचनाकर्म तक भी पहुंच जाए।

ऐसी दुविधा की स्थिति में, एक संतुलित और  मध्यम मार्ग अपनाने में भला क्या बुराई है। इसलिए वे नाम लेकर जब प्रत्यक्ष आलोचना किंवा समीक्षा करते हैं तो संबंधित नवगीतकार को बड़े-बड़े विशेषणों से संबोधित करना शुरू कर देते हैं।  नए रचनाकारों पर उनकी कृपादृष्टि को रहना भी चाहिए, किंतु इसके साथ यह भी चाहिए कि वे उनका उचित मार्गदर्शन भी करते चलें। लेकिन ऐसा होता हुआ कहीं, और किसी सूरत में नहीं दीखता। 

नवगीत-सर्जना का एक और संकट यह है कि न तो नवगीत-सर्जना को प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में समुचित स्थान मिल पाता है और न काव्यपाठ के  कवि-सम्मेलनी मंचों पर। यदि किन्हीं शहरों में कुछ अधिक नवगीतकार हैं, तो भी वहां संपन्न होने वाली नवगीत-गोष्ठियों में अपनी बारी आने पर नवगीत गायन या वाचन का ही माहौल होता है; और उसकी वस्तुनिष्ठ समीक्षा का माहौल और गुण-दोष-विवेचन का माहौल इन गोष्ठियों में भी नहीं होता। पत्रिकाएँ और अख़बार तो बहुत दूर की बात है।

तो, नवगीत-सर्जना से जुड़ने वाले जो हमारे नए नवगीतकार हैं, वे लगातार एक दुविधा की स्थिति में रहते हैं कि उनके नवगीत का प्रस्थान-बिंदु क्या होना चाहिए। कवि-सम्मेलन का मंच, पत्र-पत्रिकाएँ अथवा कमराबंद काव्य गोष्ठियाँ। जिन लोगों को कवि सम्मेलन का मंच मोहक लगता है, उनका नवगीत भी कविसम्मेलनी लटके-झटके सीखने की दिशा में बढ़ने लगता है; और लोकप्रियता को ही  कुछ नवगीतकार अपना साध्य मान लेते हैं। इसमें एक भली बात यह होती है कि नवगीत के मामले में जब 'क्रिएटिव आर्ट' के स्थान पर 'परफॉर्मिंग आर्ट' जुड़ने लगती है तो उसकी  गीति और लय में  निखार आने लगता है। मंच नवता का भी सम्मान करना जानता है, किंतु 'परफॉर्मिंग आर्ट' वहाँ 'क्रिएटिव आर्ट' पर भारी पड़ने लगती है। 

लय में निखार के लिए कवि का छंद-ज्ञान भी काम आता है, जो गीत के लिए या नवगीत के लिए एक त्याज्य गुण कतई नहीं है। जिन लोगों की छंदगत रचाव में निष्ठा या आस्था कमजोर है,  उनकी रचनाएँ न तो पत्रिकाओं के काम आती हैं और न मंच के।  इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उतना ही अच्छा है। जब कुछ टिप्पणीकार इस बात की कंकर सोशल मीडिया के तालाब में फेंकते हैं कि नवगीत के लिए छंद अत्यावश्यक है, तो वे लोग बाहर से कुछ न कहकर भीतर-ही-भीतर तिलमिलाने लगते हैं, जिन्हें इस बात का पूरा अहसास भी रहता है कि उनकी नवगीत-सर्जना छन्द के मामले में दोषपूर्ण और कमज़ोर है। किसी-न-किसी प्रकार उन्हें यह भी पता लग जाता है कि उनकी रचनाओं का छंद-शिल्प कमजोर है,पर वे इस बड़ी कमजोरी को अपनी पद-प्रतिष्ठा और व्यापक मान्यता की रेशमी चादर से ढकने की उद्यमिता में लग जाते हैं। वे उसे सुधारने की अपेक्षा यह कंकर प्रक्षिप्त करने लगते हैं कि नवगीत के लिए छंद-शिल्प अनावश्यक है; और नवगीतकार शिल्प स्वयं गढ़ लेता है। यह मेरी समझ में सच से दूर  भागने वाली बहुत बड़ी बात है।

बिना किसी का नाम लिए यह भी कहना चाहूंगा कि कुछ लोग गीत किंवा नवगीत के शिल्प के नाम पर निकृष्ट प्रयोग और गर्हित प्रयोग करने में सन्नद्ध हैं और जिन्होंने समूचे नवगीत-परिदृश्य को प्रश्नों के एक बड़े-से घेरे के बीच में लाकर खड़ा कर दिया है। इन लोगों ने और लोगों की देखादेखी यह तो मान लिया है कि नवगीत को एक मुखड़ा या ध्रुवपंक्ति चाहिए, और फिर एक अंतरा या बंद। और, इस प्रकार के तीन अंतरों का नवगीत बन जाए तो वे शायद किला जीत लें। अभी एक नवगीत-संग्रह इसी धारणा के आधार पर एक आयोजन में देखने को मिला, जिसे देखना भी आत्मा के कष्ट का एक बहुत बड़ा कारण बना। अब भी यदि उस संग्रह की याद आ जाती है तो मन कड़वा हो जाता है। नाम लेने से क्या फायदा! यह एक नवोदित-से नवगीतकार का संग्रह है जो किसी आचार्य की छत्रछाया में नवगीत-लेखन की दीक्षा ले चुके हैं; किंतु उनके आचार्य छंदज्ञ होने का दावा करने के बावजूद अपने तथाकथित चेले को नवगीत में छंद की आवश्यकता का ज्ञान शायद नहीं दे पाए। इन पर टिप्पणी  करना इसलिए भी व्यर्थ है कि उनकी नवगीत-साधना संग्रह-पर-संग्रह छपवाने के बावजूद सिरे नहीं चढ़ने वाली और सिद्धि नहीं प्राप्त करने वाली। लिखने, रचने और सिरजने के मूलभूत अंतरों को जब तक नहीं समझा जाएगा, तब तक यही स्थिति रहने वाली है, और यह अंतर न केवल समझे जाने योग्य है, अपितु इसे व्यापक तौर पर समझाया जाना भी ज़रूरी है।
हो सकता है अपनी उद्यमिता व संपर्कों के बल पर तथाकथित नवगीत-लेखक कुछ उत्तरीयों, मालाओं और कुछ पुरस्कारों की व्यवस्था वे कर लें जाएँ। पर, इससे वे नवगीतकारों के बीच में यथायोग्य सम्मान प्राप्त कर पाएंगे, यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। 

दूसरी बात यह, कि मेरी दृष्टि में रचना का सम्मान प्रथम है और रचनाकार का सम्मान बाद में। मैं इस धारणा का व्यक्ति हूं, जो यह मानता है कि व्यक्ति की सर्जना में उसके व्यक्तित्व की, उसकी भाषा की और उसके सोच की छाप अवश्य रहती है, और इस छाप को कोई नहीं चुरा सकता। जब सोशल मीडिया से मेरे तीन-चार नवगीत चुरा लिए गए, तो आरंभिक तौर पर मुझे पीड़ा हुई; किंतु मैंने इस पीड़ा के बोझ को अपने काँधों से झटककर फेंक दिया। कारण, कि एक धारणा ने मेरे मन में स्थायी तौर पर घर कर लिया। वह यह , कि भाषा बदलने के बावजूद, छंद बदल जाने के बावजूद, नई कविता हो जाने के बाद भी, और गद्य में भी; मेरी एक सर्वनिष्ठ व्यक्तिगत छाप मेरी रचनाओं में हमेशा बनी रहती है, और इसे कोई चोर, कोई फेसबुकिया चोर चुराकर नहीं ले जा सकता। इसलिए मैंने इस प्रकार की चोरियों की चिंता करना बंद कर दिया। जहाँ तक तथाकथित नवगीतकार की बात है,वे भी अपने सो-कॉल्ड नवगीतों पर अपनी यही छाप डालते चलते हैं और इस प्रकार, कि जिसने उन्हें उनके तीन-चार सो-कॉल्ड नवगीत पढ़ लिए हैं, वे बिना नाम के ही उनके नवगीत को पहचान सकते हैं। यद्यपि यह भी एक उनकी उपलब्धि है; पर मेरी समझ से अपने सृजन-कर्म पर नाज़ करने वाली उपलब्धि तो नहीं। बात  यह है कि नवगीत के नाम पर भी वे दो ही प्रमुख नियम जानते हैं। एक तो यह कि उसमें तीन बंद या अन्तरे होने चाहिएँ। दूसरा यह है कि उनके ये तीन बंद चार-चार पंक्तियों के भी हो सकते हैं और दो-दो पंक्तियों के भी। लेकिन, जो जरूरी बात उनके संज्ञान से बाहर है, वह यह कि उनके नवगीत में रिद्म अथवा लय का कोई स्थान नहीं है। स्पष्टत:, उनके नवगीतों में छंद का भी कोई स्थान नहीं।तीसरी चिंता की बात यह है, कि उनके नवगीत का कोई केंद्रीय भाव नहीं होता और उनके बंद 'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा' की स्थिति को प्राप्त हैं। यह स्थिति उनका इस परिदृश्य में बहुत दूर तक साथ नहीं देने वाली।

चलिए, तथाकथित वरिष्ठ नवगीतकार का भी चर्चा बिना उनका शुभ नाम लिए किए लेता हूँ। कमोबेश उनके यहाँ भी नवगीत ऐसी ही स्थिति से दो-चार हो रहा है। एक नवगीत-समीक्षक ने एक आयोजन में कहा कि ज़रूरी नहीं है कि आप किसी शास्त्रीय छंद के बारे में ही जानते हों या उसकी संरचना ही आपको ज्ञात हो; उसका मात्रा- भार आपको ज्ञात हो, किंतु जब आप किसी गीत या नवगीत की पहली ध्रुवपंक्ति और पहले बंद में उसका प्रयोग कर लेते हैं तो शेष बंदों-अंतरों में और टेकों में भी उसी पहले बंद वाला नियम अपनाना चाहिए। कदाचित् उन समीक्षक महोदय का यह आशय नहीं था कि इन ध्रुवपंक्तियों  या अंतरों में लय-विहीनता  भी स्वीकार्य है। उनका आशय यह था कि पहले बंद तक जिसका पालन किया जाए, उसे  ही नियम की तरह बाद के बंदों/अंतरों में भी अनुकरण किया जाए। यहाँ तक समीक्षक महोदय की बात बिल्कुल ठीक है। कोई इसका गलत अर्थ निकाले तो इसके लिए समीक्षक को या उसकी दी हुई व्यवस्था को दोष नहीं दिया जा सकता। 

मेरी दृष्टि में तथाकथित छद्म नवगीतकार महोदय का एक गीत अभी-अभी आया, जिसमें उन्होंने पहले पहली टेक की पंक्तियों में जो संरचना व्यक्त की, उसी का पालन उन्होंने बाद की ध्रुव-पंक्तियों में भी किया, किंतु इन पंक्तियों में न तो कोई  छन्द-विधान है, न लय, और न ही अर्थ की स्पष्टता। अर्थ की स्पष्टता का अभाव नवगीत की कमी का एक दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है। इस स्पष्टता का अभाव कई कारणों से उत्पन्न होता है, जिसमें प्रचलित भाषा का तिरस्कार और नवीन शब्दों का निर्माता होने का मोह भी शामिल होता है। कहना न होगा कि ये स्वनामधन्य वरिष्ठ नवगीतकार नवीन शब्दों का निर्माण कर लेते हैं; ऐसे शब्दों का निर्माण कर लेते हैं जो न व्याकरण के निकष पर खरे होते हैं और न लोक द्वारा स्वीकृत पद्धति की कसौटी पर। लोक भी शब्दों को किसी- न-किसी कसौटी पर आजमाकर ही प्रयोग में लाता है और तत्पश्चात् उन्हें मान्य करता है। जो शब्द न तो लोक के निकष पर खरे हों और न भाषा-व्याकरण के, वे शब्द किसी भी रचना के निर्माता नहीं हो सकते।

नवगीत और नवता के नाम पर किसी भी प्रकार के भाषाई उपद्रव की छूट किसी को नहीं मिल जाती। यह बिजली या टेलीफोन के तार जोड़कर सर्किट पूरा कर देने की कलाबाजी किसी व्यक्ति को नवगीतकार नहीं बना देती, बल्कि  सर्जक ही नहीं बनाती, नवगीत तो बहुत बाद की बात है। पर यह बात तथाकथित लोगों के भेजे में कैसे डाली जाय? हमारे लिए  यह ज़रूर मंथन का विषय होना चाहिए। हम शायद मंथन इसलिए भी नहीं करते कि हमें पता है कि समय का सूप अपनी स्मृतियों की फटक-छान से ऐसी सर्जना और ऐसे सर्जक को फटककर अलग कर ही देगा। दूसरी बात यह कि यह नवगीतकार भी केवल छंदों का गणित करना जानते हैं और नवगीत के केंद्रीय तत्व से किसी प्रकार का लेना-देना ज़रूरी नहीं समझते। गीत का ही विस्तार नवगीत में हुआ है और  गीत की छाया नवगीत में व्याप्त है। नवगीत गीत की ही मानस- संतान है और उसके गुणधर्मों से अलग होकर अपना सम्मान नहीं प्राप्त कर सकता। उर्दू कविता में जिस प्रकार नज़्म का अपना एक केंद्रीय भाव होता है, गीत/नवगीत में भी उसी केंद्रीय भाव की आवश्यकता होती है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता
जो नवगीतकार नवगीत में 3 छंदों की आवश्यकता का निर्देशन करते हैं, उनका भी  मूल सिद्धांत यही है कि पहले छंद में गीत की प्रस्तावना आती है, दूसरे छंद में उसका अर्थ-विस्तार आता है और तीसरे छंद में उसका उपसंहार आता है। यदि इसी मान्यता को आगे बढ़ाया जाय,तो न तो एक छंद का गीत स्वीकार किया जा सकता है और न तीन से अधिक छंदों  वाले गीत को उचित मान्यता दी जा सकती है। लेकिन इस धारणा का भी मूल भाव यही है कि पूरे गीत में एक ही केंद्रीय भाव की इयत्ता रहती है, और इसे भानुमति का कुनबा नहीं समझा जा सकता।

नवगीत की आलोचना इतना सहज और सरल विषय नहीं है कि उसे एक, दो या कुछेक लेखों में समेटा जा सके। इसके लिए निरंतर और ईमानदार प्रयासों की महती आवश्यकता है। जब तक हम में यह साहस उत्पन्न नहीं हो  जाता कि हम नाम लेकर या नवगीत के टुकड़ों के उद्धरण देकर अपनी आलोचना को आगे बढ़ाएँ, तब तक हमें परोक्ष आलोचना के बिंदुओं से ही संतोष करना पड़ेगा और उसके औज़ारों को माँजना और पैना करना पड़ेगा।

पंकज परिमल
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