शनिवार, 24 जुलाई 2021

कवि मोहन सगौरिया की समकालीन कवियाएँ

मोहन सगोरिया


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आज के कवि के विषय में कोई विशेष टिप्पणी नहीं है, सिवाय इसके कि उनकी कविता की रेंज बहुत बड़ी हैं | उन्होंने कविता की हर विधा में लिखा है, और टिककर लिखा है - दोहे, छंद, गीत, नवगीत, गजल और मुक्तछंद | बहुत छोटी कविताओं से लेकर लंबी कविता तक | फुटकर कविताएं भी लिखीं और श्रृंखलाबद्घ कविताएं भी | 'नींद' विषय पर उनका एक पूरा संग्रह ही है | उनकी कविताओं में मनोविज्ञान इतना गहरा है कि कविताएं बार-बार पाठ की मांग करती है ; और सरल भी इतनी कि एक बार पढ़ने पर लगता है - यह तो कोई भी लिख सकता था | उन्होंने साहित्य के लिए बहुत संघर्ष किया |  आत्मसंघर्ष इतना कि मुक्तिबोध पर उल्लेखनीय लंबी कविता मिल जाएगी  और सुविधाएं इतनी कि मंत्री के निज सचिव पर भी | दो दर्जन नौकरियां, एक दर्जन पत्रिकाओं का संपादन, आधा दर्जन प्रेम , एक पाव दर्जन बच्चे और एक अदद बीवी... कुल जमा दो कविता संग्रह प्रकाशित | रजा पुरस्कार सहित चार सम्मानों  से अलंकृत | फिर भी अलक्षित| मुंहफट हैं लेकिन बहुत अच्छे पाठक हैं... तो पढ़ते हैं यहां इन की कुछ कविताएं | नाम है मोहन सगोरिया--

क्या कहिए
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अब जनाब
नींद का क्या कहिए

टूट गई
तो रात ढलते ही

और न टूटी तो ताउम्र।


गौरैया की तैयारी 
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खबरदार! होशियार!!  
कोई भूले से न आए इधर ये
कि पहरा है इनका रात पर 

नींद हराम किए है आज ये
कि आज ही जागी हैं अपनी नींद, लज्जा और कुंठा से
आज ये कही जा सकती हैं निर्लज्ज 
कि आज ही ये साबित होंगी लाजवंती 

इस कस्बे से जा चुकी बारात ब्याहने दुल्हन 
जा चुके लोग-जन 
जा चुके घराती 
बच्चे-बूढ़े-बाबा-आजा-दादा-काका-मामा-फूफा-भैया 
सज-धज जा चुके बाराती 

शेष रह गए जो करमजले दुर्भागी! उनकी नहीं खैर 
वे निकल जाएं गाँव से अब्भी के अब्भी 
जा सो पड़े रहें खेत-खलियान, मचान पर

आ जाएँ तो आ जाएँ बुरी आत्माएँ ठेंगे से 
देख लें आज इनका हुड़दंग, खूब जमेगा रंग 

कर ली है तैयारी इन्होंने रात की 
रच लिए हैं स्वांग
पहरेदारी पर तैनात बूढ़ी काकी 
मुन्नी-माँ ले आयी साफा 
गमछे में बाँध रखी है कटार 
बब्बा के पुराने को्ट में ठूस लिए हैं पान 
हिफाजत से रख ली है काजल की डिबिया मूँछ बनाने को
इत्र के फाहे खोंस लिए हैं कान में 
कि आज यह दूल्हा रिझा ही लेगा अपनी नवविवाहिता को

पहले ही दे आयी लिल्लू की बाई 
घर घर बुलउआ- "गौरैया है आज, चली अइयो'
आँख मार कर कह आयी संगातियों को
कि खूब घुटेगी, छनेगी जी भर 
जरूर आना, करेंगे 'रासलीला' मिलकर

सूरज डूबने के साथ ही डूब चुकी लाज 
कोई मत जाना उस ओर, गौरैया है आज 

दोह ली गयीं गायें, बछड़े को दूध पिला कर 
साफ कर ली गई हैं लालटेनें
कि बिजली गुल हो जाने पर बंदोबस्त
जला दी गई हैं नीम की पत्तियाँ ताकि भाग जाए मच्छर
खींच दी गई है सरहदें आँगन-आँगन
नारियल की रस्सी बांध दी गई हैं खूँटे गाड़कर 
तोते को दे दी गई है हरी मिर्च और फल्लियाँ
थोड़ा सा दाल-भात. वृद्ध आजी को पथ्य
मँझली ने सुना भी दी हैं गालियाँ झुँझलाकर
कि सो भी जा बुढ़ऊ अब भला तेरा क्या काम

तो भैया और बिन्ना,
हो चुकी पूरी तैयारी 
खैर नहीं है दुल्हन की 
आज ही होगा सही मायने में रतजगा 
युगों-युगों से दबायी गई कुंठाएँ 
तोड़कर बाहर आएंगी त्वचा की चारदीवारी 
देखकर गदगद हो जाएंगी भटकी आत्माएँ 
रम जाएंगी इस केलिक्रीड़ा के उपक्रम और प्रहसन  में
 जा न सकेंगी हल्दी भरे अंग 
दूल्हे के संग 

और, जो दूल्हा बना है गौरैया में 
कौन पुरुष ही है वह 
जागेगा एक स्त्री देह से आज 

सो खबरदार किए देता हूँ 
कि कोई ना आए जाए उस तरफ 
आज यह रात सुहागिनों के जागने की है 
यह समय भटकती आत्माओं के सो जाने का है।

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(बारात चले जाने पर वर पक्ष की स्त्रियाँ शादी ब्याह का स्वांग रचाती हैं। यह खेल विवाह और विवाह से जुड़े तमाम पहलुओं पर होता है । हँसी-ठिठोली-विनोद रात भर चलता रहता है।  इसे ही गौरैया कहते हैं।)


अपनी यात्रा पर रहा ताउम्र
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मैंने जितना जिया 
मेरा हिया
उसे छोटा करके बतलाते रहा

देखा नदियों, पहाड़ों, गगन, वनस्पतियों को 
और उन्हें अपने पते-ठिकानों में तब्दील करता रहा 
इन पतों पर पहुंचते रहे मुझे जानने वाले
जबकि मैं जिन्हें जानता था उनका जिक्र जरूरी है 
पहुँचना भी उन तक 

अपनी यात्रा पर रहा ताउम्र 
छह नंबर का जूता पहन ।
अंग्रेजी में उकरे इस नंबर को 
कालांतर में लोगों ने नौ पढ़ा।


पुनर्नवा
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मैं महाप्रलय के बाद भी
जीवित रहना चाहूँगा

मैं फिर से जीना चाहूँगा आदम का जीवन
और हव्वा का हाथ थामे थामे
नाप लेना चाहूँगा ब्रह्मांड 

बिताना चाहूँगा
शताब्दियों पर शताब्दियाँ

मैं उस फल की तलाश में भटकूँगा
जिसकी वजह से सिरजा संसार
शताब्दियों से शताब्दी तक
और जन्मान्तरों से जन्म तक।

चीता उर्फ़ निश्चिंतता का गीत 

( मंत्री के निज सचिव के नाम)
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पूरी सफाई से करते हुए शिकार 
और पूरी सफाई से खाना

शिष्ट व्यवहार, कहाँ से सीखा?
         नहीं आया 
                तुम्हें चट कर जाना

बिल्ली जैसा...बाप रे बाप !
         दबे पांव रक्खे 
                 सूखे पात पर
                        आहट... न खड़खड़ाहट!

फुर्ती ऐसी ...जैसे विद्युत 

जंगल-जंगल
         क्यूँ  रोते हो ?
                  बच्चे जैसे 
                          घाघ हो 

बाघ हो 
नहीं-नहीं, बाघ नहीं... शेर नहीं 

देते दस्तक दरवाजे पर 
        आदम जैसे 
                  वाह क्या खूब खूबी 

जाने महबूबी !
         जंगल के राजा नहीं हो तुम 

बस ...रह गई 
         सुई भर कसर 
                    क्या गम !!


बैतूल और बैतूल के कस्बे
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बैतूल नहीं बे-तूल की बातें 
अनुभूति उजले दिन सी
संवेदना 
काली रातें 
गुज़रती ज़िंदगी आदिवासियों की 
एकमात्र बस्तर को छोड़ 
मध्यप्रदेश का सबसे पिछड़ा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र 

भोपाल-नागपुर 60 हाईवे पर 
स्थित कस्बानुमा शहर 
आधुनिकता की दौड़ में शामिल 
झिलमिल...दृश्य देखा पढ़ते यदाकदा 
लड़कियां नज़र आती अब जींस और टी-शर्ट पर

घने जंगलों के बीच 
बसा 
कस्बानुमा शहर...

कभी बेखटके शायद ही 
कोई अंग्रेजी टुकड़ी आयी हो 
गु़लाम भारत में इस तरफ
 कि अब भी मध्य प्रदेश के सबसे बड़े जंक्शन इटारसी से बैतूल के लिए पार करने पड़ते हैं :
केसला, कीरतगढ़, कालाआखर, ढोडरामोहर, बरबतपुर घोड़ाडोंगरी, धाराखोह और मरामझिरी

तगड़े काले गोंड झुणडों  में बसातेे गृहस्थी 
उगाते कोदों कुटकी 
खींचते पसीने से खेत 
पिलाते पेज बच्चों और मवेशियों को 

करते सिंगार पुरखों के सेते चांदी के सिक्कों से 
स्त्रियां भारी वर्क्षजों पर अंगिया कसती
होती नक्काशी जिन पर 
इन्हीं सिक्कों या शीशे के टुकड़ों की

कस्बों-कस्बों लगता हफ्ते में एक दिन 
हाट बारी-बारी 
बड़े ठाट-बाट से आते करने खरीददारी 
झुंड के झुंड 
युवा-वृद्ध, दद्दा, बब्बा, अाजी
दूल्हा-दुल्हन, बाराती 
गाते लोकगीत कोरस में 
'कौन शहर को बाजार दूल्हा 
बैतूल शहर को बाजार दूल्हा'
खत्म हुआ जो इधर गान तो उधर अलाप
गहकाता जाए अपने आप 
'बन्ना के हाथों में बिजना कटारी 
बन्ना खेलत जाए, बन्ना खेलत जाए, बन्ना खेलत जाए'
मिला कोई परिचित जहाँ
पटक झोला करते पालागन 
गले लगते नहीं लजाता ठेठ देहातीपन 
औरों की उपस्थिति में

पहाड़ों की तलहटी में 
खण्ड खण्ड बसे कस्बे
पूरी तरह निमग्न 
भारतीय संस्कृति के प्रतीक 
करते सुरक्षा वक़्त बेवक़्त 
हँसिए पिघलाकर तलवार बनाने को आतुर

खींचती गंध
डंगरे-कलिंदे, तरबूज और ककड़ी की 
कोसों फैले पाट पर बिछी बाड़ी
खीरे की तरह उगलती नदी 
बना करती महुए की शराब वहीं कहीं

बैठते चिलम खींचने जहाँ चार लोग 
कम पड़ जाती है आधा सेर तम्बाखू 
गप्प लड़ाते 
आग तापते ...
देते हवा की किंवदंतियों को :
उतर आती आसमान से परी 
नाचते भूत-प्रेत छमाछम 
डायनें करती घर का सारा काम 
पशु बलि और नर बलि को कबूलते आदिवासी

बेखौफ फल्लाँगतीकिशोरियाँ
पहाड़, नदी, नाले, दर्रे, घाटियाँ 
नहीं कुछ छिन जाने का डर 
पता भी नहीं है कुछ छिन जाने जैसा इनके पास 
नहीं शिकन चेहरे पर 
ना होती कभी उदास 
बेखौफ फल्लाँगती किशोरियाँ अपना समय

मीठी नींद की तरह होते 
कस्बों में चैन से बसते रहते आदिवासी 
श्रम और रोटी के बाद गिनते पाप और पुन्य को 
राजनीति कि नहीं समझ 
बस जानते महात्मा गांधी को 
लच्छेदार सफेद फूल-सा

अकाल के अट्ठाईस बरस पहले कभी 
वे गुजरे थे यहाँ से 
तब पानी पिलाया था मुखिया ने 
तभी से पता है :
"येर कोर सरकार ताक्से-तातौड़"

चस्पाँ हुए दृश्य ऐसे कि तब्दील नहीं होते 
पर नहीं है लिखित ब्यौरा कहीं 
इन कस्बों से गुजरे थे महात्मा गांधी कभी 
न सरदार वल्लभ भाई पटेल 
न पंडित जवाहरलाल नेहरू 
और न इंदिरा गांधी 
नहीं जानता कोई कस्बा सार्त्र या कार्ल मार्क्स को 
नहीं सुना कभी फ्रायड या कीर्क गार्द का नाम 
नहीं पहुँच पाया कोई अरस्तू अब तक यहाँ

कोई छंद नहीं लिखा गया बैतूल पर आज तक 
यहाँ कभी नहीं पी मुक्तिबोध ने बीड़ी।


कर्म-कविता
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1. 

काटो,
झूठ बोलती 
छप्‍पन इंच की जुबान काटो 

काटो, समय के बंध 

खाली अन्‍मयस्‍क समय यूं ही नहीं 
कुछ सार्थक करने काटो 

कभी न कहो 
कि यूं ही कट रही है जिंदगी 
भरपूर जिओ!
सच कहने के लिए 
आ गयी गले में खरास
तो पानी काट कर पियो!

पहचानो शत्रु को 
काटो उनके सिर 

जड़ न काटो किसी की।

2.

गुस्सा आ रहा है तो गरजो
इस कठिन समय पर 
असहिष्णु होते मनुष्य पर 
व्यवस्था पर, सत्ता पर 
आततायी पर 
गरजो अपनी बेडिया काटकर

पहाड़ से गिरकर जैसे झरने गरजते हैं 
नदिया गरजती है बाढ़ में 
घनीभूत होकर गरजते हैं मेघ
जैसे समुद्र गरजते हैं अपनी रौ में

गरजो जैसे शेर गरजता है वन में 
दौड़ता है लहू तन में 
जैसे इंकलाबी गरजता है गुलाम वतन में

गरजो मजलूमों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ़
गरजो मजदूरों के हक के लिए 
गरजो किसी निर्भया की अस्मत बचाने 
गरजो गलत फैसलों के खिलाफ़

गरजो, गरज पड़ने पर नहीं
स्‍वभावत: गरजो।

3.

दौड़ो, बहुत तेज दौड़ो 
लोग तालियां पीटेंगे

 बहुत तेज दौड़ते 
अवश्यम्‍भावी है गिरना 
लोग फिर ताली पीटेंगे

दौड़ो, पूरा दम लगाकर 
ताली पीटने पर।

4. 

लाश से बतियाओ, सरकार!
कहेगी वही सच-सच, धारदार जिंदगी अब कुछ नहीं कहती

मूक हैं लोग 
जख्‍़म चीत्कारते हैं 
लाश मुखर

क़त्ल की दास्तान कहती है लाश 
स्थिर है आँखें लाश की 
उससे नजरें मिलाकर बात करो पूछो कातिल का पता

रे सरकार, जल्द पूछो 
नहीं तो सड़ जाएगी लाश
और चीख-चीख कर बतलाएगी अपना दर्द
बतियायेगी तुमसे।

5.

झाँको, खिड़की से बाहर 
ओ,फूल-सी लड़की 
बाहर झाँकते हैं तुम्हारे स्‍वप्‍न 

कभी भी बंद हो सकते हैं 
खिड़की के पट 

अब तो द्वार खुलने ही चाहिए 
तुम्हारे लिए 
बाहर आना है तुम्हें 
अब तो अपने सपनों के संग 

बंद कमरे में मुरझा ही जाते हैं 
हर संभव कोशिश के बावजूद
फूल कहो या सपने 

झाँको 
ओ, फूल-सी लड़की बाहर झाँको।


ओ कबीर!
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एक काम पूरा हुआ आज 
इसके लिए 
खुश होना था मुझे 
लेकिन मैं अपनी खुशी 
ज़ाहिर न कर सका

एक काम 
बन ना सका जो 
मैं दुखी हुआ उसके लिए 

रोज-रोज 
खुश नहीं होता हूँ मैं 
होता हूँ बहुत-बहुत दुखी 

ओ कबीर!
 इस संसार में 
भला कौन है सुखी?

उज्जैन से राजनांदगाँव वाया नागपुर
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यह मैं हूं या शाख पर टिका आखिरी पत्ता नींद में
यह पतझड़ का मौसम या शुष्क हवा जागती सी 
देखना है कृशकाया मेरी चीर देगी पवन का रूख
या कि रुख़सत होने की घड़ी आ गई करीब

धुंधला धुंधला सा वलय  सूक्ष्म से स्थूल घेरता
 घेरा यह लेता अपनी परिधि में 
हवा, पानी, आकाश, अग्नि, धरा को 
मानव तन और समूचा वातायन 
बढ़ते ही जाता, गिरफ्त में लेता साँसें
फिर भी जाने क्यों सुट्टा मारना चाहे मन

जब उज्जैन से चली थी यह सवारी 
पच्चीस बोगियाँ जुड़ी थी वर्षों की
स्ट्रीम इंजन से गूंजती हुई आती सीटी
चीर कर रख देती थी अनुभूतियों का सन्नाटा 
अनुभव का शिशु चौक पड़ता यकसाँ नींद से
इक्का-दुक्का पहचाने चेहरे
डॉ. जोशी, प्रभाकर माचवे उतरते मंगलनाथ के रास्ते

भैरोनाथ के आसपास, वेधशाला के पीछे
सूखी वापी जिसके भीतर धँसती सीढ़ियाँ 
मुहाने तक जमीं हरी-कच्च काई 
नीचे तल में बहुत कम जल
अनाथ कीट-पतंगों और टिड्डों की शरणस्थली वह
जैसे जल तल पर सोया पड़ा हो शब्द

एकांत यह धँसता जाता भीतर गाड़ियों में, भीड़ में
अजनबी चेहरे आशंकित, उत्साहित, भौचक्के से 
स्वयं को अभिव्यक्त करते मुखौटे

बहुत-बहुत घूमें भर्तृहरि की गुफा के रास्ते 
श्मशान घाट के पास दिन पर दिन और रातें भी 
अंतहीन-बहसें, चर्चाएँ दर्शन-राजनीति और साहित्य पर
स्पष्ट कर आरंभ से ही चला था 
कि सफलता नहीं सार्थकता चाहिए

सार्थकता की राह बढ़ चला जीवन 
पीछे झूठे महाकाल, भस्म-आरती, जागरण करते जन
मदिरा-भोग, आस्था आदि 
कुमारसंभव और कालिदास
कब तक निभाते साथ ?
कह गए -- आएंगे कभी कविता में, स्वप्न में, नींद में

किंतु नहीं, मिथ्या ही सिद्ध हुए उनके उद्घोष 
चले आए भीतर धँसकर संग-साथ अपना सौंदर्यबोध ले जैसे अलसाई आँखों में चली आती है लज्जा
तभी तो यह बोध तलाशता रहा सौंदर्य 
समय की शक्ल में आता रहा समक्ष 
जूनी इंदौर के टूटे-फूटे पुलों पर 
किशनपुरे की चंद्रभागा नदी के तट 
पुरातन देवालयों, दरगाहों, मस्जिदों, खंडहरों,वीरान रास्तों
आदिम वृद्ध इमलियों के तलदेशों, निर्जन टापूओं पर
विचरण करते हर एक चीज़ में वही-वही 
सौंदर्य के जाने कितने आयामों के अन्वेषण 
अनावरण करते अस्तित्व कि उद्घाटित होता सत्य

अस्तित्व की तलाश भीतर जारी रही दरहमेश
'हंस' के साथ करना चाहा दूध का दूध, पानी का पानी
बनारस, कलकत्ता, जबलपुर नक्षत्रों की तरह चमके 
लुप्त हुए धूमकेतु-से आकाशगंगाओं के बीच 
आकांक्षाओं के बिम्ब दिखें फिर हो गए

एक गहरी-सी ऊब अभाव व संघर्ष ले आता 
कर्ण का पिता अभिशापित करता आशाओं की कुंती को प्रतिदिन और स्वप्नों के शिशु तिरोहित हो जाते 
कि अंततः नया खून ले आया नागपुर

कोठारिया वह छोटी सी झनझनाते पायदान 
खाली कनस्तर से बजते जल-पात्र 
जैसे काँवड़ ढो रहा श्रवण 
दिनचर्या की शुरुआत यह
दातुन मुँह में दबाए देखता आकाश

संतरे के मौसम में छौंक दाल या गिलकी-तुरई 
साग कोई जंगली कि मेनर का काढ़ा 
टिक्कड़ मोटे-मोटे, दो चार ग्रास ले चल पड़ता 
दफ्तर की मारामारी, यंत्रवत दिनचर्या 
अखबारनवीसी की दुनिया का आगाज यूँ

वक़्त निकाल इसी में लिखता ख़त-ख़तूत  
दोस्तों को नत्थी कर भेजता रिज्यूम 
एक अदद छोटी सी नौकरी की चाह
कमबख़्त यह जिद्दी ज़िंदगी!
बलवती होती कहीं टिककर रहने की इच्छा

धूल उड़ाती पवन आक्रोशी, लू चलती, जलाती त्वचा धूप
भीतर कलेजा इतना पथरीला कि सुट्टा मारना चाहे मन
हड्डियों के ढांचे पर चमड़ी मढ़ी ज्यों काया 
गुजरती ट्रैफिक से बेसाख़्ता, बेपरवाह बेनाम
जैसे कांच की रोशनी धुंध चीर नहीं पाती

गुजरता वह मद्धिम-मद्धिम 
देखता अपने ही जैसे शरीर फुटपाथिए
भीतर मार्क्स देता दस्तकें, डार्विन सोता 
बाहर फ्रायड थपथपाता कंधा 
जुंग हिलाता धमनियों-सी जड़ें 
कि देर रात लौटने पर भी दीखेंगी यहीं सोते 
असुविधा, अभाव में लिथड़ी ये मानव देह
दूभर क्यों हुए टिक्कड़-तरकारी इनसे 
कि सुट्टे का स्वप्न भी दूर-दूरस्थ

बाट जोहते पखवाड़ा बीता,न आए नरेश मेहता
क्यूँ खिन्न हुए वाम से नरेशों के मन 
क्यूँ नहीं दिख रहा सड़कों पर दु:ख 
भला कैसे जा सकेगा कोई अंतस में रमने 
भीतर के उस वियावान में 
कि सुन सकेगा कोमल तान 
अवश्यम्भावी है भीतर भी घेर रहा हो को कुहासा 
जैसे धुआँ धुआँ हुआ जा रहा अंतस्थल

क़दमताल करता शुक्रवारी तालाब तक 
मिल बैठते दोस्त यार शैलेंद्र, विद्रोही वगैरह
मूंगफली खरीद लौटते उन्हीं रास्ते समर्थ भाऊ के साथ
विचरते खुले आकाश में दो बगुले 
कि छोटे भाई का जिक्र छिड़ते  ही विचलित हो जाता मन वह अधिक सौभाग्यशाली अधिक संपन्न

यहाँ तो स्वयं को परिभाषित करने में निष्फल 
ओजवान कलाकार,  आखिर क्यों ? 
मित्रों के षड्यंत्र और संपादकों की उपेक्षा 
क्या अंदेशा है उन निकटतम मित्रों को ? 
पांडुलिपि भी खो गई उपन्यास की 
जैसे सिर पर चश्मा लगा भूल जाए कोई, ढूंढता रहे सर्वत्र
प्रकाशकों की कारगुजारियां ओफ्फ...ओह!

सच, डिग्रियों की बैशाखियों के बिना 
नहीं चला जाता बुद्धिजीवियों से डग भर
बांध दिए हों जैसे घोड़े के पैर गिरमे से 
पंद्रह वर्ष बाद दी फिर स्नातकोत्तर परीक्षा 
इतनी अवधि में तो लौट आए थे राघव अयोध्या 
परित्याग कर चुके थे वैदेही का 
रचा जा चुका था योग वशिष्ठ

पर धिक्  हाय-हाय वही द्वितीय श्रेणी 
कितनी पृथक पृथक है 
साहित्य और समाज की दुनिया 
कि इस नींद से जागना कठिनतर कितना

छूट गई पीछे संतरे की नगरी 
आया राजनांदगांव कस्बानुमा शहर 
नया-नया महाविद्यालय 
बड़ा सा मकान हवेलीनुमा 
घनी छाँह बरगद की 
अतल गहराइयों वाली बावड़ी नापना मुश्किल
मन की भी एक, थाह पाना मुश्किल

जादुई संसार खुलता सामने

अब करीने से दिखा भावी अतीत 
फिर कनेरों पर टिका सूरज व्यतीत

याद आती बारहा वह हर घड़ी 
दीवारों में जड़े धँसाता बरगद 
इठलाता है अजगरी भुजायें फैला सहस्त्रबाहु सा चक्करदार जीनों से उतरता स्वत्व 
बावरियों में निहारता स्वमेव

एक अजगर और है जो लीलता वय
एक मदारी प्रतिबंधित करता है किताबें 
एक मन भीतर से कहता धिक् समय 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार हो रहा 
जागरण के काल में युग सो रहा

चुनौतियां अब सामने हैं अत्यधिक 
और हैं पर्याप्त खुले 
अभिव्यक्ति के अवसर भी |


    
निहत्था व्यक्ति
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मेरे हाथ में एक खंज़र है
एक निहत्था व्यक्ति खड़ा है मेरे सामने
मुझे उससे डर है

तुम्हारे सामने भी 
एक निहत्था व्यक्ति खड़ा है
कि तुम भी डरे हुए लग रहे हो

लो, मैं उछाल रहा हूँ
तुम्हारी तरफ़ 
यह खंज़र।

 फासला
""""""""""""

पत्थर से गिट्टी बनने के बीच वह पिसता रहा 
चट्टान तपती रही वर्षों भीतर-बाहर 
खदानों में सेंध लगा लगा 
चट्टानों की उरयाती में तपा 
कितनी बार बँटा है वह
डस्ट, कंक्रीट और गिट्टी में
मूलभूत तत्व पत्थर के ये, मनुष्यता के?

खोह के भीतर घुस पत्थर निकालना 
कितना सहज उसके लिए 
खतरनाक लगता है हमें 
कि घिसक न जाए चट्टान 
पर उसके लिए धूप से बचने का एकमात्र ठीया

खदान से लेकर क्रेशर तक की दूरी भी 
तय नहीं कर पाया वह अब तक 
और उसका लौंडा भी
जबकि बब्बू की औलाद जैसे 
मशीन पर ही पैदा हुई थी 
और झुनझुने की तरह स्टार्टर थमा दिया था 
बप्पा ने उसके हाथ

हां, एक बात की तारीफ करनी होगी 
ज़मीन सूँघकर बता सकता था वह 
कि कितना कोपरा हटाने पर 
कितना पत्थर मिलेगा किस जगह
बाबूभाई मिस्त्री का अनुमान भले ग़लत हो 
लेकिन वह बता सकता था 
कि कितना पत्थर चाहिए ट्रॉली भर गिट्टी के लिए

खदान कितना समय लेगी पत्थर पकाने में 
और कितने होल की ब्लास्टिंग करनी है 
वह मशीन की आवाज़ सुनकर बता सकता था 
कि बस अब जाम लगने वाली है

इधर बाबूभाई मिस्त्री ने भी एक भोपाली गाली देते हुए बताया 
साढ़े तीन फुटिया वह आदमी नहीं जानता 
कि पत्थर और गिट्टी के बीच  कितनी बार पिसा है वह

इसके अलावा झुग्गी और झुग्गी के साथ एक अदद बीवी 
जिसे कारू नाम मिस्त्री के घर से 
उड़ा लाया था वह, को छोड़कर 
और कुछ भी नहीं है इस दुनिया में

भारत के नक्शे में वह नहीं जानता 
कि भोपाल शहर के किस दिशा में
यह नीलबड़ नाम का कस्बा है
जहां उसकी लगभग पूरी पीढ़ी खप गयी
और पत्थर से गिट्टी बन गई है उसकी ज़िंदगी भी

वह नहीं जानता कि भोपाल से इसका फासला 
मात्र पंद्रह किलोमीटर का है 
और विधानसभा या लेबर कोर्ट पहुंचने में 
सिर्फ आधा घंटा लगता है 
जहां वह ताउम्र पहुंच नहीं पाया |


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(जीरा = मजदूर कंक्रीट को कहते हैं
 कोपरा= चट्टान पर जमीन मिट्टी की गीली परत
 जाम= क्रेशर में जब कोई पत्थर फँस जाता है तो मशीन बंद हो जाती है.)