बुधवार, 3 नवंबर 2021

हमारी देह का तपना तुम्‍हारी धूप क्‍या जाने :ओम निश्चल



हमारी देह का तपना तुम्‍हारी धूप क्‍या जाने।
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विनोद श्रीवास्‍तव के गीतों में जैसे एक कोयल कूकती है ।

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वे लखनऊ के दिन थे। आकाशवाणी की कवि गोष्‍ठियों में, जिनका  संचालन अक्‍सर विजय किशोर मानव जी  किया करते थे, उन्‍हीं दिनों एक गोष्‍ठी में कानपुर के युवा गीतकार विनोद श्रीवास्‍तव को सुना। वे सुना रहे थे ' हमारी देह का तपना तुम्‍हारी धूप क्‍या जाने।' वे सुना रहे थे कि जैसे कोई कोयल विषाद में कूक रही थी। फिर उन्‍हें कई बार सुनना हुआ। 87 में उनका पहला गीत संग्रह आया: भीड़ में बांसुरी। कानपुर गीतकारों का शहर रहा है। यहां सनेही और हितैषी की मुठभेड़ प्रसिद्ध रही है। इस श्‍ाहर से रामस्‍वरूप सिंदूर, उपेंद्र, शील, कन्‍हैयालाल नंदन, शतदल, विजय किशोर मानव, हरीलाल मिलन और उद्भ्रांत जैसे गीतकारों का नाता है। कभी अपने श्‍ुारुअाती दिनों में नीरज ने यहीं रह कर लिखा था:' वो कुरसवां की अंधेरी सी हवादार गली । मेरे गुंजन ने जहां पहली किरन देखी थी।' उसी शहर से विनोद श्रीवास्‍तव आते हैं। उन दिनों जागरण परिशिष्‍ट में व धर्मयुग, साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान में बस एक बार छपने से लोगों की गली गली चर्चा होने लगती थीं और यहां से स्‍वीकृति पत्र भर मिल जाए तो लोग उसे प्रमाणपत्र की तरह सहेज लेते थे। 

कानपुर के इसी जनसंकुल नगर से भीड़ में जब कोई बांसुरी की कल्‍पना करता है तो वह इस अपार कोलाहल में सुरीले छंद घोल कर माहौल को मुखरित करता है। मजदूरों के इस शहर से शील जैसे यथार्थवादी प्रगतिवादी कवि हुए तो सिंदूर उपेंद्र, शतदल व विनोद श्रीवास्‍तव जैसे कोमल स्‍वर के हिमायती भी। दूब अच्‍छत चंदन जैसी सम्‍मोहक भाषा का जो उन्‍माद होता है कुछ कुछ वैसा ही उन्‍माद विनोद श्रीवास्‍तव के गीतों में है। आज झाड़पोंछ में ''भीड़ में बांसुरी'' मिली तो विनोद अचानक याद हो आए। उनके गीत अवचेतन की नौका में तिर उठे। एक बार कानपुर के लाजपत भवन में आयोजित एक कवि सम्‍मेलन में विनोद के मुक्‍तकों व गीत पाठ को सुनकर  मंच से उठकर कवि सम्‍मेलन की अध्‍यक्षता कर रहे सोम ठाकुर ने उन्‍हें गले लगा लिया अौर माला उनके चरणों में डाल दी थी। हालांकि मंचीय कवियों के ये आम लटके झटके ही माने जाते हैं पर सोम ने मंच से कहा कि ''52 वर्षों की साधना के फलस्‍वरूप आपने जो माला सम्‍मान से मेरे गले में डाली है उसकी उतरन इस युवा गीताकार के गले में तो नहीं डाल सकता इसलिए उसे उसके चरणों में अर्पित करता हूँ। उसकी कविता को यह मेरा नमन है।''

कहते हैं, विनोद पूरी कशिश से अपने गीत पढते रहे ओर जब मंच से नीचे बैठे तो देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। कानपुर स्‍मार्ट से स्‍मार्ट कवि को भी हूट करने पर आए तो देर नही लगती। पर सरस्‍वती के ऐसे साधक हों तो वे भी कहीं ऐसे कवियों को दूर से सुन रही होती हैं। 

'भीड़ में बासुरी' उठाई तो उनका एक और संग्रह 'अक्षरों की कोख से' भी याद हो आया। उस पर छोटी सी टिप्‍पणी लगता है कि कभी 'नया ज्ञानोदय' में लिखी थी। पर मन से लिखना टलता ही रहा। विनोद के गीतों में वह सांद्रता है जो रागात्‍मकता के कुलीन तटबंध तोड़ देती है और उनकी आवाज़ दूर कही उपत्‍यकाओं से आती सुकोमल प्रतिध्‍वनियों में बदल जाती है। तभी तो उनके गीत जैसे आमंत्रण देते हुए जान पड़ते हैं : 'बांह में बांह डाले हुए । आइये हम चलें घाटियों में। देखिए मेघ काले हुए। आइये हम चलें घाटियों में। ' एक गोष्‍ठी की मुझे याद है विनोद ने एक गीत का स्‍थायी पढा: " एक खामोशी हमारे बीच है। तुम कहो तो तोड़ दूँ पल में।" छोटे बहर के इस गीत को इस खींच के साथ उन्‍होंने पढ़ा कि स्‍टुडियों में मंत्रमुग्‍ध सन्‍नाटा-सा  व्‍याप्‍त हो गया। विनोद का एक मुक्‍तक उन दिनों बहुत पसंद किया जाता था:
मैं अगर रूठ भी गया तो क्या, 
मैं अगर छूट भी गया तो क्या,
तुमको मिल जायेंगे कई दर्पन,
मैं अगर टूट भी गया तो क्या?

देख रहा हूं कि यह संग्रह 28 साल पुराना है। विनोद 55 की पैदाइश हैं। साठ को छू लिया है उन्‍होंने। पर कवि भले ही बूढा हो जाए, गीतकार कभी बूढा नही होता । विनोद का यह गीत होठों पर साधने का प्रयत्‍न कर रहा हूूं और एक मीठी-सी धुन मेरा पीछा कर रही है:

स्‍वप्‍न की झील में तैरना
और गहरे कभी डूबना
मुक्‍त अाकाश में फैलना
बंधनों में कभी ऊबना
गीत छूकर ऋचा फिर गयी
छंद के गांव में खो गए।

मुस्‍कराता हुआ चंद्रमा
गुनगुनाती हुई चांदनी
सिंधु में तैरती पूर्णिमा
सोमरस घोलती रागिनी

रुप छूकर घटा फिर गयी
सोचिये हम कहां खो गए।

देह छूकर हवा फिर गयी
गंध के गांव में खो गए।

विनोद श्रीवास्‍तव पर बातें करनी हों तो अनंत हैं। उनके गीत गुनगुनाने हों तो कहना ही क्‍या। कविता के विपुल अध्‍यवसाय के बावजूद यह जानता हूूं कि यह मन बड़ा उन्‍मन है। इसे कविता का पूरा रसायन चाहिए। आज तो गीत की पाठशालाएं चलाई जा रही हैं। लोग सीख रहे हैं छंद की ओर लौटना। जीवन से जो लय विदा हो रही है उसे लोग सहेजे रहने के लिए प्रतिश्रुत हैं। विनोद का ही एक गीत मुझे गीत के प्रति आश्‍वस्‍त करता है:

गीत हमेशा ही होता है
सुधि की साँझ भोर की रचना।

और उनके भीतर व्याप्त कशिश को खंडवा के कविवर श्रीकांत जोशी  के इस गीत-पद से ही समझा जा सकता है :--
''गीत अधर पर 
सुधि सिरहाने।
फिर से जागे दर्द पुराने।"


लेखक परिचय
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नाम :  ओम निश्‍चल 
मूल नाम : डॉ.ओम कुमार मिश्र
जन्म : 15 दिसम्बर 1958, ग्राम : हर्षपुर, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : एम.ए. (संस्‍कृत),लखनऊ विश्‍वविद्यालय; एम.ए(हिंदी),पीएचडी- हिंदी, पत्रकारिता में पोस्‍टग्रेजुएट डिप्‍लोमा। 
भाषा : हिंदी, संस्‍कृत, पालि, अंग्रेजी।
विधाएँ : कविता, गीत, आलोचना, निबंध, संस्‍मरण, भाषा, अनुवाद एवं बालगीत । 
मुख्य कृतियाँ
कविता संग्रह : शब्द सक्रिय हैं ; कुदरत की लय (बालगीत संग्रह)
आलोचना : द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी : सृजन और मूल्यांकन ; शब्‍दों से गपशप : अज्ञेय  से अष्‍टभुजा शुक्‍ल; कुँवर नारायण: कविता की सगुण इकाई; समकालीन हिंदी कविता:ऐतिहासिक  परिप्रेक्ष्‍य ; कविता के वरिष्‍ठ नागरिक ; कविता में स्‍त्री प्रत्‍यय(स्‍त्री विमर्श और कविता-2021) कविता की वैचारिकी (2021) ; साठोत्‍तर हिंदी कविता में विचार तत्‍व; चर्चा की गोलमेज पर अरुण कमल ;  कवि विवेक-जीवन विवेक ।  
निबंध : व्यावसायिक हिन्दी;  भाषा की खादी  
संस्‍मरण : खुली हथेली और तुलसीगंध
विनिबंध : कैलाश वाजपेयी ;  कुँवर नारायण (साहित्‍य अकादेमी)
सह लेखन: बैंकिंग वाड्.मय सीरीज(पांच खंड) : बैंकिंग  शब्‍दावली/  बैंकों में हिंदी पत्राचार :  स्‍वरूप एवं संप्रेषण/ बैकों में हिंदी प्रशिक्षण: प्रबंध एवं  पाठ्यक्रम/ बैंकिंग अनुवाद:  प्रविधि  एवं  प्रक्रिया / बैंकों  में टिप्‍पण-आलेखन। 
संपादन : द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी रचनावली; विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी : साहित्‍य का स्‍वाधीन विवेक; जियो उस प्‍यार में जो मैंने तुम्‍हें दिया है : अज्ञेय की प्रेम कविताएँ ; आश्‍चर्य की तरह खुला है संसार : अशोक वाजपेयी की प्रेम कविताएं; मॉझी न बजाओ वंशी :केदारनाथ अग्रवाल की प्रेम कविताएं।  अज्ञेय आलोचना संचयन ; हत्‍यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में --लीलाधर मंडलोई की कविताएं ; प्रतिनिधि कविताएं: लीलाधर मंडलोई; प्रतिनिधि कविताएं : मलय ; अन्‍यव एवं अन्‍विति : साहित्‍य के परिसर में कुँवर नारायण ; कुंवर नारायण:कवि का उत्‍तर जीवन; अदम गोंडवी और उनकी शायरी;  बनाया है मैंने ये घर धीरे धीरे : रामदरश मिश्र की गजले; गजल में आपबीती : मुनव्‍वर राना की गजलें; मैं कोई एक रास्‍ता जैसे: हरिओम की गजलें; धरती की सतह पर: अदम गोंडवी की ग़ज़लें, मत चरागों को हवा दो : सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी की ग़ज़लें ; कड़ी धूप में नंगे पैरों : माधव कौशिक की ग़ज़लें। 
सह संपादन : अधुनान्तिक बांग्ला कविता(बांग्‍ला कविता संचयन),  तत्‍सम् शब्‍दकोश
सम्मान
हिन्‍दी अकादमी द्वारा नवोदित लेखक पुरस्‍कार।
उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान द्वारा 'शब्‍दों से गपशप' के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल आलोचना पुरस्‍कार।
जश्‍ने अदब द्वारा 'शाने हिंदी खिताब' ।
विचार मंच कोलकाता द्वारा 'प्रोफेसर कल्‍याणमल लोढ़ा साहित्‍य सम्‍मान'। 

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