रविवार, 19 दिसंबर 2021

आत्मबोध और संकल्पशाली कविताओं का नवगीत संग्रह - 'धूप भरकर मुट्ठियों में'

कर्ति चर्चा में आज समकालीन नवगीत समालोचक समीक्षक राजा अवस्थी जी का सविस्तार आलेख 
रचनाकार :
समीक्षक : राजा अवस्थी 

           परिचय : 
            समकालीन नवगीत समालोचक/ समीक्षक राजा अवस्थी जी कटनी मध्य प्रदेश से हैं। इन दिनों अवस्थी जी नवगीत कृतियों की जमकर ख़ोजखबर ले रहे हैं।     
                      ध्यातव्य है कि अवस्थी जी एक मात्र ऐसे नवगीतकार हैं जिन्होंने यूट्यूब पर शोधार्थियों के लिए नवगीत धारा यूट्यूब चैनल के माध्यम से विपुल और दुर्लभ कड़ियाँ उपलब्ध करा कर,नवगीत की दिशा और दशा पर, बेजोड़ काम के माध्यम से अपनी सार्थक उपस्थिति नवगीत साहित्यिक परिदृश्य में दर्ज की है। आप सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों के साथ-साथ प्रिंट मीडिया पर भी लगातार सक्रिय उपस्थिति बनाये हुए हैं।
              हाल ही मैं आपका नवगीत संग्रह "जीवन का गुणा भाग" पाठकों के मध्य खासा चर्चा के केंद्र में है। सैकड़ों नवगीत कृतियों की समीक्षा कर चुके  राजा अवस्थी जी आज समालोचना कालम में "धूप भरकर मुठियों में" लेकर आपके मध्य प्रस्तुत हैं।
सर्वाधिक शेयर किया जाने और पढ़ा जाने वाला समूह वागर्थ आपके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है। 
प्रस्तुति
वागर्थ टीम
अवस्थी जी का आलेख

  आत्मबोध और संकल्पशाली कविताओं का 
        नवगीत संग्रह - 'धूप भरकर मुट्ठियों में' 
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धूप भरकर मुट्ठियों में मनोज जैन का दूसरा नवगीत संग्रह है। पहला नवगीत संग्रह सन् 2011 में आया था। उसके 10 वर्ष बाद सन् 2021 में 120 पृष्ठों की किताब में 80 गीतों का यह संग्रह प्रकाशित हुआ है। इन 10 वर्षों में मनोज जैन अपने कविता पाठ, तेवर और सक्रियता के लिए बहुत चर्चित भी हुए हैं। इन सब बातों को लिखने का अर्थ इतना है, कि मनोज जैन कविता में निरंतर बने रहने वाले कवि है, यानी कविता इनके भीतर बनी रहती है। ये कविता को जीते हैं। इनका कविता में बने रहना इनके भीतर कविता का बने रहना, इनकी विविधवर्णी नवगीत कविताओं में दिखाई भी पड़ता है।
                   नवगीत कविता की नवता ओढ़ी हुई नवता नहीं है। इस नवता में कवि के प्रयास के लिए बहुत अधिक स्थान नहीं है। बल्कि, यह नवता अपने समय को, समकालीनता को व्यापक दृष्टिकोण से देखते हुए, व्यक्त करते हुए स्वयमेव आती है। दरअसल संसार में आज सब कुछ है इतना तीव्रगाम हो गया है, कि कोई भी घटना, सोच या विचार बहुत कम समय में पूरे समाज में फैल सकता है। उसकी पहुंच भी संसार के, समाज के, मनुष्य के सभी क्षेत्रों में, सभी वर्गों में होती है। इसी अनुपात में वह प्रभाव भी छोड़ता है। ऐसी स्थिति में किसी कवि, लेखक या कलाकार का उत्तरदायित्व और बढ़ जाता है। किसी कवि, लेखक या कलाकार पर, उसके कृतित्व को भी उसकी पक्षधरता, उसकी निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में ही देखा-परखा जाएगा। इस परख पर कवि, लेखक या कलाकार का भी कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। इसीलिए कवि-लेखक या कलाकार को अतिरिक्त सजग-सावधान और उत्तरदायित्व से भरे रहने की आवश्यकता होती है। 
                    राजनीति एक ऐसा तथ्य है, जो आज सर्वव्यापी है। यह बड़े-बड़े सामाजिक सांस्कृतिक और साहित्यिक आयोजनों से लेकर नितांत घरेलू और व्यक्तिगत आयोजनों- मुंडन, विवाह-शादी तक में प्रवेश कर चुकी है। यही कारण है, कि आज यह देखना जरूरी हो जाता है, कि कवि की कविता क्या राजनीति की बात करती है। क्या उसके विकृति को अनावृत करती है। सामाजिक सरोकारों को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली 'राजनीति' के प्रति कवि का अपना पक्ष क्या है? सामाजिक सरोकारों का आज यह भी एक पक्ष है। 'धूप भरकर मुट्ठियों में' और मनोज जैन की कविता के संदर्भ में बात करने के लिए उपरोक्त बातें करना जरूरी है। जरूरी इसलिए है, कि वे इसे नवगीत कविता संग्रह कहते हैं, तो आज की नवगीत कविता को हम उसके सामाजिक सरोकारों से अलग करके नहीं देख सकते। 
                    'धूप भरकर मुट्ठियों में' की कविताओं में मनोज जैन के कवि के दो रूप दिखाई पड़ते हैं। एक रूप वह है, जहाँ वे राजनीति के विद्रूप चेहरे को अनावृत करते हैं। तो, दूसरा रूप वह भी है, जहाँ वे एक अमूर्त सत्ता से, परमसत्ता से संचालित दिखते हैं। उससे मिलने को आतुर दिखाई देते हैं। सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं से शीघ्र ही प्रभावित होने वाले कवि के लिए यह संभव है, कि वह इस तरह की आध्यात्मिक मनोभूमि के गीत उन्होंने अपनी धार्मिक स्थलों की यात्राओं के दौरान लिखे हों। ऐसा कहने का आधार यह है, कि मनोज जैन प्रखर बहिर्मुखी चेतना सम्पन्न कवि के रूप में ही ज्ञात कवि हैं। ऐसी स्थिति में उनकी अन्तर्मुखी होती हुई नितान्त निजी अनुभूतियों वाले कवि-व्यक्तित्व का निर्माण ऐसे किसी सानिध्य की स्थिति में ही उभरा होगा। उनके कवि के इस रूप को छोड़कर भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। मनोज जैन की कविताओं पर विचार करते हुए हमें इन नवगीत कविताओं को भी संज्ञान में रखना ही होगा, जो अमूर्तता से भरी हुई हैं और किसी अमूर्त परमसत्ता के विषय में बात करती हैं। 
                    'धूप भर कर मुट्ठियों में' को पढ़ते हुए पाठक मनोज जैन के कवि की मूल प्रवृत्ति और प्रखर सोच वाली नवगीत कविताओं से भी बचकर नहीं निकल सकता। उनकी कविताओं का तेवर ही ऐसा है। देखिए-
   "कैसा है भाई! बैठ गया आंगन में कुंडलियां मार/ गिरगिट से ले आया रंग सब उधार/ हक मांगो दिखलाता/ कुआँ कभी खाई। चूस रहा रिश्तों को बनकर तू जोंक/ जब चाहे बन जाता चाकू की नोंक/ घूरता हमें, जैसे अज को कसाई। "अपनी व्यञ्जना में यह गीत घर में घुस आए बाजार की नृशंस मन्शा को व्यक्त करता है। यहाँ व्यञ्जना ऐसी है  कि यह नवगीत कविता बाजार के साथ राजनीति को भी अपने निशाने पर रखती है। अपने निष्ठागत सरोकारों के साथ हुए सत्तातंत्र के नियंता को भी अपने निशाने पर लेते हैं। उसे आईना दिखाते हुए कहते हैं-
  " कुछ प्रश्नों को एक सिरे से/ हँसकर टिल गया। सुरसा जैसा मुँह फैलाया/ महँगाई ने अपना/ हुई सुदामा को हर सुविधा/ ज्यों अंधे को सपना/ शकुनि शरीखा नया सुशासन/ चलकर चाल गया। फिर बहेलिया अच्छे दिन के/ दाने डाल गया।" इस नवगीत कविता में, जहाँ वे बढ़ती महंगाई, कठिन होती स्थितियों और उत्तरदाई व्यक्तियों की अनदेखी को दिखाते हैं, वहीं अपनी एक नवगीत कविता में वे मनुष्य को अपनी मुश्किलों के लिए अपने भाग्य को उत्तरदाई मानने एवं भाग्य को ही कोसने की सर्वव्यापी प्रवृत्ति की प्रति आगाह करते हैं। वे लिखते हैं-  "नाहक किस्मत को क्यों कोसे/ रामभरोसे। वादे खाकर जीना मत/ आश्वासन को पीना मत/ खुशफहमी की डाल न आदत/ रामभरोसे। हक के लिए लड़ाई लड़/ शोषण जल से जाय उखड़ / सीधी-सच्ची यही इबादत/ रामभरोसे।" एक दूसरी नवगीत कविता में वे लिखते हैं- " मैं पूछूँ तू खड़ा निरुत्तर/ बोल, कबीरा! बोल। पाँव पटकते ही मगहर में/ हिल जाती क्यों काशी/ सबकी हिस्से का जल पीकर/ सत्ता है क्यों प्यासी/ कथनी-करनी में क्यों अंतर/ है बातों में झोल।........ ढुलमुल देखी मुई व्यवस्था/ फिर भी खून न खौल।..... शंख फूँक दे परिवर्तन का/ धरती जाए डोल। "
                  मनोज जैन का नवगीत कवि अपनी कविताओं में स्वयं की चेतना संपन्न संकल्पशीलता के उद्घोष के बहाने उसके दूसरे पक्ष में गर्वोन्नत खड़ी शक्तियों को चुनौती देता है। वह नियंत्रणकारी गर्वोन्नत शक्तियों के इशारे पर चलना अस्वीकार करता है। यह स्वीकार ही मनुष्य मात्र के आत्मबोध का संकेत है। संकेत इस बात का, कि वह जानता है, कि वह भी एक ठोस धरातल निर्मित कर चुका है। उसे उसके स्वयं के द्वारा निर्मित धरातल से उखाड़ा नहीं जा सकता। इस बात को उनकी कविता 'हम सुआ नहीं है पिंजरे के' में बहुत स्पष्ट देखा जा सकता है। 
   " हम सुआ नहीं है पिंजरे के/ जो बोलोगे रट जाएंगे। छू लेंगे शिखर न भ्रम पालो/ हम बिना चढ़े हट जाएँगे। उजियारा तुमने फैलाया/ तोड़े हमने सन्नाटे हैं/ प्रतिमान गढ़े हैं तूने तो/ हमने भी पर्वत काटे हैं/ हम ट्यूब नहीं है डनलप के /जो प्रेशर से फट जाएँगे।" इसी नवगीत में जब वह लिखते हैं" आराध्य हमारा वह ही /जिसके तुम भी नित गुण गाते हो/ हम भी दो रोटी खाते हैं/ तुम भी दो रोटी खाते हो/"(पृष्ठ संख्या 30), तो कविता की व्यञ्जना किसी अमूर्तता की ओर झुकने लगती है। अपनी कविताओं में कवि को ऐसी अमूर्तताओं की ओर जाने से बचना चाहिए। यदि हम उनके आध्यात्मिक बोध के गीतों को एक बार अलग करके देखें, तो मनोज जैन वहांँ भी परम्परा और लीक से हटकर चलने की बात करते हैं। वे कहते हैं-  " करना होगा सृजन बंधुवर! हमें लीक से हटकर। छंदों में हो आग समय की/ थोड़ा-सा हो पानी/ हँसती दुनिया संवेदन की/ अपनी बोलीबानी/ कथ्य आंँख में आलोचक की /रह-रहकर जो खटके। अंधकार जो करे तिरोहित/ बिम्ब रचें कुछ टटके।" कवि या कलाकार की यही इच्छा और संकल्पशीलता उससे लोक मंगलकारी सृजन करवाती है। यह परम्परा पूर्व से ही विद्यमान भी है। इस तरह देखें, तो एक तरह से वे भी परंपरा का पोषण ही करते हैं और यही श्रेयस्कर भी है। क्योंकि, संत साहित्य से लेकर अब तक की पूरी हिंदी कविता एक आग लेकर चलती है। हिंदी कविता ही नहीं, विश्व कविता भी सत्ता को आईना दिखाती रही है। शोषण का प्रतिरोध और समय का बोध कराने के साथ जीने की कला सिखाने वाली रही है। मनोज जैन भी इस प्रवाह को पुष्ट करते हैं। वह लिखते हैं-" शोषण, शोषण का विरोध जो /
करें निरंतर डट के। जीने की जो कला सिखाए/ बोध समय का जाने/ मानसरोवर के हंसों-सा/ नीर- क्षीर पहचाने/ अंधकार जो करें तिरोहित/ दिन भर से कुछ हटके।" कवि का यह पक्ष श्रेयस्कर है। 
                 'धूप भरकर मुट्ठियों में' की कविताओं में मनोज जैन मजदूर को, किसान को, आमजन को, उसकी चुपचाप सब कुछ सह लेने की प्रवृत्ति पर टोकता है। उसे शोषण व अन्याय के प्रतिरोध और अपने हक के लिए आवाज उठाने के लिए आमंत्रित भी करता है। वे लिखते हैं - "सोया है जो तन के अंदर/ उसे जगाओ जी/ गज भर लंबी चादर तानी/ मीलों पाँव पसारे/ पग-पग धोखा खाकर सारे/ सपने मरे कुँवारे/ गाल बजाने से क्या होगा/ बदलो जीवन सारा/ नए रूप में देख सकोगे संवेदन की धारा/ परिवर्तन का बीड़ा पहले/ स्वयं उठाओ जी।" (पृष्ठ 51) इसके साथ ही वे इन्हीं किसानों मजदूरों के प्रति अपनी संवेदना और कर्तव्य कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं- " कृषक कर्म करता है/ खलिहानें भरता है/ रोटी की चाहत में/ तिल तिल जो मरता है/ आशाएँ बोता है/ चिंताएंँ ढोता है/ मुस्कानें गिरवी रख/ जीवन भर रोता है/ आरती उतारें हम/ भूखे भगवान की। वंचित हैं ज्ञान से/ युग के सम्मान से/ परिचित कब हो पाया/ अपनी मुस्कान से/ पहुंँचा दें किरणें हम/ घर-घर विज्ञान की। "(पृष्ठ 49) 
                 'धूप भरकर मुट्ठियों में' का कवि निरंतर अपने आत्मबोध को पकड़ने के लिए संघर्षरत दिखाई देता है। इन्हीं कोशिशों के क्रम में वह आध्यात्मिक गीत भी लिखता हैं, तो कहीं दैहिक और दैविक प्रेम के बीच झूलते हुए भी दिखाई पड़ता है। कहीं वह पूँजी और शासन की शक्तियों के शोषण, छद्म और मकड़जाल को भी अनावृत करता है। आत्मबोध को पकड़ने की कोशिश वाली नवगीत कविताओं में मनोज जैन आत्मसंकल्प और उच्चतम माननीय बोध की बातें करते हैं। देखें -   
   "काश! हम होते/ नदी के तीर वाले वट/ हम निरंतर भूमिका मिलने-मिलाने की रचाते/ पाखियों के दल उतरकर नीड़ डालों पर सजाते/  चहचाहट सुन/ छलक जाता हृदय घट।" (पृष्ठ 44) साथ ही, जब  वे "चांँद सरीखा मैं अपने को/ घटते देख रहा हूँ/ धीरे-धीरे सौ हिस्सों में/ बँटते देख रहा हूँ /...... नई सदी को परंपरा से कटते देख रहा हूँ......... घर- घर में ज्वालामुखियों को/ फटते देख रहा हूँ। "लिखते हैं, तो एक अलग ही व्यञ्जना संप्रेषित होती दिखती है। 
                   मनोज जैन की नवगीत कविताओं में पर्याप्त विषय वैविध्यता मिलती है। 'धूप भरकर मुट्ठियों में' संग्रह में जहाँ 'तू जीत गई मैं हार गया', 'याद रखना हमारी मुलाकात को', 'चुंबनों के फूल', 'देखकर श्रृंगार', 'मधुर मुस्कान', 'मंगल हुआ', 'फिर उत्फुल्ल हुआ' जैसे प्रेम भरे नवगीत हैं  तो एक व्यापक परिदृश्य को समेटती नवगीत कविता 'जिंदगी लिख दी तुम्हारे नाम' जैसी कई कविताएँ हैं। देखें--" चार दिन की जिंदगी लिख दी तुम्हारे नाम/ पी गए हमको समझ तुम चार कश सिगरेट/ आदमी हम आम ठहरे/ बस यही है रेट/ इस तरह दिन बीत जाता/ घेर लेती शाम/ चढ़ गया हमको समझ/ मजबूत-सा पाया/ इस कुटिलता पर मुकुर मन/खूब हर्साया/ नियति तो अपनी रही/ आना तुम्हारे काम।" (पृष्ठ 88)
                  इस किताब में प्राकृतिक सौंदर्य पर केंद्रित कई गीत हैं। ऐसे ही गीत 'मेघ आए' में प्रकृति सौंदर्य के साथ शिल्पगत सौंदर्य भी उल्लेख करने योग्य है। भारतीय मनुष्य समाज के श्रम, शोषण, सौंदर्य प्रियता, उत्सवधर्मिता, प्रेम, सत्ता जनित शोषण और अमूर्त आध्यात्मिकता, भ्रम आदि विविध विषयों पर लिखे नवगीत संकलित हैं। 
                    भाषा के स्तर पर मनोज जैन बहुत स्पष्ट भाषा के पक्षधर हैं। इनकी नवगीत कविताओं में भाषा पाठक को कहीं उलझाती नहीं है। गहन व्यञ्जना बोध भी ये सरल भाषा में करा जाते हैं। इनके नवगीतों की भाषा बहुत सरल और सहज है। बिल्कुल आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए भी कहीं भदेश भाषा यानी शब्दों के बहुत विकृत रूपों का प्रयोग नहीं करते। यह तत्सम शब्दों का भी प्रयोग करते हैं, किंतु इनकी तत्सम शब्दावली भी ऐसी नहीं है, जो कहीं भी अर्थबोध में कठिनाई पैदा करे। इनके नवगीतों की तत्सम शब्दावली में बहुत प्रचलित शब्दों को ही लिया गया है। 
                 मुट्ठियों में धूप भरकर' नवगीत कविता संग्रह को पढ़ते हुए एक प्रश्न लगातार उठता है, कि यहाँ संकलित आध्यात्मिक गीतों को क्या नवगीत कविता के भीतर रखा जाना चाहिए? क्या लय- प्रवाह, छंद में बिम्बधर्मी सृजन ही नवगीत कविता है? क्या गीत के भीतर नवगीत का पार्थक्य दिखाने में किसी तरह के कथ्य की भूमिका है। मुझे लगता है नवगीत कवि के साथ नवगीत कविता पर बात करने वालों को भी इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है। 
               विविध विषयों पर प्रभावी शिल्प में रचे 80 गीतों के संग्रह, जिसमें कवि की पक्षधरता, उसके राग, भावबोध, सौंदर्यबोध और भाषा बोध को पहचाना जा सकता है। इतना ही नहीं, इन नवगीत कविताओं में यह सभी चीजें पाठक को भीतर तक प्रभावित करने में सक्षम हैं। इस तरह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' कवि मनोज जैन की अच्छी  नवगीत कविताओं का संग्रह है। मुझे विश्वास है, कि पाठक समाज, कवि समाज और आलोचकों के बीच भी यह प्रशंसित होगा और कवि के यशवृद्धि का कारण बनेगा। 
              हार्दिक शुभकामनाएँ। 
    
दिनांक - 15/12/2021
                                      राजा अवस्थी
                       गाटरघाट रोड, आजाद चौक 
                        कटनी-483501 (मध्य प्रदेश)