कृति चर्चा में इस बार प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लघुकथाकार ख्यात समीक्षक अग्रज घनश्याम मैथिल अमृत जी की "धूप भरकर मुठ्ठियों में" कृति पर एक समीक्षात्मक आलेख
हाल ही मैं मैथिल जी मध्य प्रदेश शासन के पहले जैनेन्द्र कुमार जैन लघुकथा सम्मान से नवाज़े गए हैं। इसके साथ ही मैथिल जी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में खासा हस्तक्षेप रखते हैं।
आप अब तक देशभर के लगभग 3500 साहित्यकारों की कृतियों पर चर्चा कर चुके हैं। यद्धपि मैथिल जी हमारे मित्र हैं पर यक़ीन मानिए वे समीक्षाकर्म में मित्रता को एकदम परे रखते हैं।
समूह वागर्थ उनके साहित्यिक अवदान की सराहना और उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है।
आइए पढ़ते हैं एक समीक्षा आलेख
प्रस्तुति
वागर्थ
समकालीन समय के सरोकारों से संपृक्त मानवीय संवेदनाओं को गहन अनुभूति के साथ उकेरती महत्वपूर्ण नवगीत कृति : धूप भरकर मुट्ठियों में -नवगीतकार -मनोज जैन
सृजन की चाहे जो विधा हो उसका मूल उद्देश्य लोक -कल्याण ही है यानी समाज का हित जिसमें सर्वोपरि हो , समाज की भलाई जिसमें अनिवार्य रूप से निहित हो | मेरा ऐंसा मानना है कि हर रचनाकार की प्राकृतिक रूप से सृजन की एक मूल प्रवृत्ति होती है ,वह उसमें अपने आपको अधिक सहजता से और व्यापक रूप में व्यक्त कर पाता है ,और उसमें उसे आत्म संतोष और आनन्द भी मिलता है |
यूँ तो आपने मनोज जी को बढ़िया समीक्षा करते ,और पैनी लघुकथाएं लिखते भी समय-समय पर देखा होगा ,परन्तु मेरी दृष्टि में वे मूलतः गीति-काव्य के सृजक संवाहक और रचियेता हैं उनके रचित गीत हम विविध मंचों पर यथा समय प्रभावी प्रस्तुति के साथ सुनकर सराहते रहे हैं तथा समय-समय पर विविध महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर आनन्दित भी होते रहे हैं,और यह निर्विवादित सत्य है कि नवगीत विधा में उनकी गणना राष्ट्र के अग्रिम पंक्ति के नवगीत धर्मियों में होती है | मनोज न सिर्फ नवगीत सृजन करते हैं बल्कि नवगीत को प्रतिष्ठित करने हेतु भी सतत प्रयत्नशील रहते हैं ,वे नामचीन के साथ ही गीतिकाव्य के लिए महत्वपूर्ण काम करने वाले नवगीतकारों को जो किसी कारण से कम चर्चा में आये हों लोगों की दृष्टि से ओझल हों वे वरिष्ठ हों अथवा कनिष्ठ सबको अपने देश ही नहीं दुनियां में चर्चित 'वागर्थ' सोशल-मीडिया पटल के माध्यम से प्रकाश में ला कर एक महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं |उनका पूर्व प्रकाशित 'एक बूंद हम ' नवगीत सँग्रह मैंने न सिर्फ पढ़ा है बल्कि उसकी समीक्षा लिखने का अवसर भी मुझे मिला है | निश्चित ही एक दशक बाद आये इस दूसरे नवगीत सँग्रह के गीत भी पाठकों को गहरे से प्रभावित करेंगे |
मेरा ऐंसा दृढ़ विश्वास है कविता को छंद से मुक्त नहीं किया जा सकता , छंद में सबकुछ लिखा जा सकता है बस आपके अंदर क्षमता होना चाहिए , तुलसी , सूर, कबीर ,रैदास,रहीम ,रसखान सहित हमारे सैकड़ों ऐंसे अग्रज कवि हुए हैं उन्होंने तुक और लय के लिए न भावों को मारा है ,न कोई भाषा अथवा शिल्प से कोई समझौता किया है ,और वो सब लिखा है जो सदियों व्यतीत हो जाने के बाद भी घर घर में पढ़ा जाता है ,वह आम जन के कण्ठों में विराजित है और यह सब कविता की छान्दसिक शक्ति, लय और गति के कारण ही सम्भव हुआ है |
निःसन्देह नवगीत आज लोक से जुड़ी लोकप्रिय विधा है जिसमें अनुभूति की सघन तीव्रता है ,भावों का प्रबल आवेग है ,अपने समय के बदलावों पर उसकी पैनी दृष्टि है ,हमारे आसपास के दुःख-दर्द हैं , प्रकृति -पर्यावरण है ,गांवों की समस्याएँ हैं ,महानगरों की।पीड़ाएँ है | वर्तमान का नवगीत समकालीन समाज का प्रतिबिंब है ,यह सिर्फ युगीन परिस्थियों ,विषमताओं ,विडम्बनाओं,आडंबरों को सिर्फ तर्जनी ही नहीं दिखाते बल्कि उनपर तीखा प्रहार करने के साथ-साथ इन विसंगतियों अंधेरों से घिरे सवालों के हल और रास्ते भी हमें सुझाते हैं |
मनोज जैन की समीक्ष्य कृति 'धूप भरकर मुट्ठियों में ' उनके विविध-वर्णी 80 नवगीत सम्मिलित हैं ,इन नवगीतों का आस्वादन करने से पूर्व पाठक यदि इस कृति की भूमिका ,मनोज जैन 'मधुर ' के गीतों के बहाने लेखक कीर्तिशेष वरिष्ठ गीतकार आलोचक डॉ पंकज परिमल(मुज़फ्फर नगर) को ध्यानपूर्वक मनोयोग से पढ़ेंगे तो उन्हें न सिर्फ मनोज जी के इन नवगीतों के बारे में बहुत कुछ जानने समझने को मिलेगा बल्कि नवगीत सृजकों को बहुत कुछ सीखने को भी मिलेगा ,इतनी बेवाक और नीर-क्षीर भूमिका बहुधा कम ही देखने को।मिलती है | फिर कृति में फ्लैप-मैटर पर अग्रज नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी सहित अन्य चार महत्वपूर्ण अग्रजों के विचार भी इस नवगीत कृति पर दिए गए हैं यदि वे नहीं भी दिए होते तो कृति के तेवर-कलेवर पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था |
अब आइये कृति के कुछ नवगीतों पर दृष्टि डालें | 'हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के ' नवगीत में वे आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हुए दृढ़ता से आम आदमी की पैरवी करते हुए अपनी बात रखते हुए कहते हैं ' हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के/जो बोलोगे रट जाएंगे /आराध्य हमारा वह ही है/जिसके तुम।नित गुण गाते हो/हम भी दो रोटी खाते हैं/तुम भी दो रोटी खाते हो /छू लेंगे शिखर, न भ्रम पालो/हम बिना चढ़े हट जाएंगे | ' इस नवगीत में एकदम नवीन शिल्प और भाषा का प्रयोग पाठक को प्रभावित करता है 'हम ट्यूब नहीं हैं डनलप के/जो प्रेशर से फट जाएंगे |
'करना होगा सृजन, बन्धुवर ! नवगीत में गीतकार परम्परा से हटकर अपना नवीन मार्ग प्रशस्त करने की बात कहता है -' करना होगा सृजन बन्धुवर ! हमें लीक से हटके / छंदों में हो आग समय की/थोड़ा- सा हो पानी/हँसती दुनिय सम्वेदन की/अपनी बोली-बानी /काव्य आंख की आलोचक की/रह- रह कर जो खटके | वर्तमान समय के बदलते परिवेश और उसपर गीतकार की चिंता देखें इस प्रभावी नवगीत की पंक्तियां - 'चांद सरीखा मैं अपने को /घटते देख रहा हूँ/धीरे-धीरे सौ हिस्सों में /बंटते देख रहा हूँ /तोड़ पुलों।को बना लिए हैं /हमने बेढब टीले / देख रहा हूँ मैं सँस्कृति के /नयन हुये हैं गीले /नई सदी को परम्परा से /कटते देख रहा हूँ |'
'सलीब को ढोना सीख लिया नवगीत ' में दर्द की अभिव्यक्ति का प्रभावी चित्रण -' हमने कांधों पर सलीब को/ढोना सीख लिया/हँसना सीख लिया,/थोड़ा सा रोना सीख लिया |' अपने समय की दूषित राजनीति का चित्रण 'बोल कबीरा बोल ' में देखें -'मैं पूंछू तू खड़ा निरुत्तर /बोल कबिरा !बोल/चिंदीचीर विधायक के घर/प्रतिभा भरती पानी /राजाश्रय ने वंचक को दी/संज्ञा औघड़दानी /खाल मढ़ी है बाहर बाहर /है अंदर तक पोल | ' पूरे राष्ट्र की चिंता का एक चित्र देखिए जिसमें भ्रष्ट नौकरशाह और मक्कार नेताओं की जुगलबंदी देश को कहाँ से कहाँ ले जा रही है --'चारों तरफ अराजकता है/कैसा यह परिवेश है,कैसा यह देश /खुले आम हत्या करती है /टोपी, खाकी वर्दी/ नेता,अफसर,बाबू-सबकी/सहना गुंडागर्दी/लोकतंत्र में पूजे जाते/ऐंसे कई विशेष |' ऐंसा ही एक नवगीत 'कुर्सी का आराधक नेता ' भी बड़ा प्रभावी बन पड़ा है | 'राजा जी ' नवगीत में आम आदमी के विसंगतियों के विरुद्ध साहस हिम्मत का प्रभावी चित्रण देखिए -' दो कौंड़ी का हमें न आंको /राजा जी !/खैनी जैसा हमें न फांको राजा जी ! |
ऐंसा नहीं है कि गीतकार धूर्त नेता और नौकरशाहों को ही फटकार लगाता है बल्कि मुखौटा लगाने वाले, दोहरे चरित्र वाले स्वनामधन्य कवियों को भी कड़ी फटकार लगाई है -' रे कवि ! तुझको कौन पढ़ेगा रे ! / बातें तू करता सोने सी/पर करतूतें तो काली हैं,/जो तूने सम्मान बटोरे,/वे तो सब जाली हैं /टूटी बैसाखी को लेकर/कैसे पर्वत उच्च चढ़ेगा रे |' इसके साथ ही दर्शन और आध्यात्मिक चेतना के इस नवगीत को देखिए -' दुनिया तुझको लगती मीठी /मुझको लगती खारी/सुन,रे संसारी/झूंठी-सच्ची बातें चखकर/पांच गांठ हल्दी की रखकर/छलछन्दी खुद ही बन बैठा /लाला-पंसारी | ' इसके साथ ही इस भावभूमि पर 'बून्द का मतलब समंदर है ' नवगीत भी ह्रदय में सीधे उतर जाता है |
यह तो चन्द उद्धरण थे ,सँग्रह के सभी नवगीत प्रभावी हैं | नवगीतों की भाषा में मुहावरों का भी सटीक प्रयोग देखने को मिलता है,जैसे तिल का ताड़,गाल बजाना ,सुरसा जैसा बदन, शकुनि सरीखी चाल ,नूराकुश्ती ,राई का पर्वत आदि |
'मौन तो तोड़ो ' नवगीत, सँग्रह में दो बार मुद्रित हो गया है | इसके साथ ही क्वारा /क्वांरा ,कोसे /कोसें ,जैसी इक्का-दुक्का प्रूफ की अशुद्धियां भी छूट गयीं हैं | सँग्रह में हिट, लीक,पब्लिक,सिग्नल,हॉर्न,मूवी,पोर्न,ट्यूब,प्रेशर,रेट, सिगरेट जैसे कई आम प्रचलित अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग बखूबी किया है | इस प्रकार आमजन की पीड़ा को चुनौती मानकर उनके पक्ष में खड़े यह नवगीत ,कोरी कल्पना की उड़ान नहीं भरते बल्कि असंगत के विरुद्ध संघर्ष का साहस देते हैं | एक बढ़िया लोकधर्मी नवगीत कृति हेतु मनोज जी की बधाई |
घनश्याम मैथिल 'अमृत'
'प्रणाम'
जी/एल-434 अयोध्या नगर,
भोपाल-462-041(मध्यप्रदेश)