रविवार, 9 जनवरी 2022

नवगीत में श्रृंगार : बृजनाथ श्रीवास्तव




नवगीत में श्रृंगार 
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                  बृजनाथ श्रीवास्तव 
       ‘श्रृंगार’ प्राणीमात्र के जीवन का आदिम राग-बोध है . इसके विविध रूपों को जीवन में जिया गया है . अनेक साहित्यकारों के इसे विविध प्रकार से अपनी रचनाओं का विषय बनाया है . ‘नवगीत’, जो नवता के अपने आग्रह के बावजूद अपने मूल मानुषी राग-विरागों , आस्तिकताओं, आभ्यंतरिक लयों और सदियों में विकसित संस्कारों और समग्र सृष्टि की सुरक्षा की चिंता से जुड़ा रहा . आज बहुत ही जरूरी हो गया है मनुष्य की सांस्कृतिक ,रागात्मक एवं लयात्मक आदिम संवेदना को जीवंत बनाये रखना अन्यथा मशीन-आक्रांत इस दौर में हमारे सौंदर्यबोध के ही विलुप्त हो जाने का खतरा है . वस्तुत: कविता इन्हीं संवादों की भाषा है जिसमें आदिम मानुषी जिज्ञासा , हार्दिक लयात्मकता की उपस्थिति बनी रहे , इसके लिए जरूरी है कि हम गीतात्मकता को , जो मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है , मरने न दें.
    श्रृंगार मनुष्य की आदिम संज्ञा है . आज के आपाधापी भरे समय में दैहिक-पदार्थिक आग्रह के के कारणशनै:-शनै: स्वस्थ श्रृंगार वृत्ति का क्षरण हो रहा है और उसके गर्हित पक्ष की ओर ही लम्बी दौड़ जारी है . आज प्रेम और श्रृंगार मात्र एक उत्तेजक मशीनी काम-क्रीड़ा बन कर रह गया है . कविता क्या सम्पूर्ण साहित्य से ही इस रसराज की रसानुभूति के तिरोहित हो जाने का संकट उपस्थित हो गया है .  
    अधिकांश लोगों का मानना है कि नवगीत में श्रृंगार का चित्रण भुत ही कम और नवगीत एक विशुद्ध बौद्धिक काव्य-विधा है , जिसमें रागात्मक सम्बंधों की गुंजाइश कम ही रह गई है. वस्तुत: रीतिकाल से छायावादोत्तर काल तक नारी के दैहिक आकर्षण एवं उसके भोग्या स्वरूप को ही श्रृंगार नाम दे दिया गया और उसे नये जीवन-संदर्भों के अनुरूप संस्कारित करने की जरूरत ही नहीं समझी गयी . ‘नवगीत’ के प्रारम्भिक दौर में नारी के प्रति एक नई दृष्टि का आभास हुआ .नवगीत ने नर-नारी सम्बंधों को मात्र दैहिक-भोग अथवा आध्यात्मिक धरातल से हटाकर एक नैतिक रागात्मक आधार दिया जाने लगा .उसे वासना के दलदल से बाहर निकालते हुए ताजे-टटके बिम्बों और नयी भंगिमाएं देकर नवगीत ने उसकी अस्मिता को नई परिभाषा दी . 
        निराला और उनके परवर्ती गीतकारों ने माखनलाल चतुर्वेदी ,बच्चन , नरेंद्र शर्मा , अज्ञेय , शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल , शंभुनाथ सिंह , गिरिजा कुमार माथुर , नगार्जुन , भवानी प्रसाद मिश्र , धर्मवीर भारती इत्यादि की गीत-प्रस्तुतियाँ उसी भावभूमि से उपजी थीं, जिनसे बाद में नवगीत की श्रृंगारिक कहन का विकास हुआ .किंतु नवगीत ने कहन की जो दिशा और बिम्बात्मक दृष्टि अपनायी , उसने इन पूर्ववर्ती श्रृंगारिक भाव-भंगिमाओं को बहुत पीछे छोड़ दिया .ठाकुर प्रसाद सिंह के गीतों में संथाली वनजातियों का 
सहज-सरल श्रृंगार कहीं प्रच्छन्न तो कहीं प्रत्यक्ष रूप में व्यक्त हुआ है .ठीक इसी समय रामचंद्र चंद्रभूषण ,देवेंद्र कुमार ,सोम थाकुर ,शिव बहादुर सिंह भदौरिया , नईम आदि अपंने गीतों में ऋतु-प्रसंग से श्रृंगार को जोड़ रहे थे . वीरेंद्र मिश्र प्रणय एवं श्रृंगार की एक नई ऋतु रच रहे थे . उमाकांत मालवीय ने अपने गीतों में श्रृंगार को  आम आदमी की दिनचर्या , सरोकारों एवं चितांओं से जोड़ते हुए नवगीत - श्रृंगार को नाजुकखयाली और कोमलकांत पदावली से अलग करके उसे जीवन के वास्तविक यथार्थ से जोड़ दिया .दैनंदिन जीवन से जुड़ी प्रणय-श्रृंगार की छवि एक ऐसा सम्मोहक भाव संवाद है जो दो व्यक्तियों के बीच में ,जो उन्हें एकात्म कर जाता है नवगीत में यह जुड़ाव एक सात्विक भाव-बोध बनकर उपस्थित हुआ है .आज का युग संदेश भी यही है .
      कुमार रवींद्र अपने श्रृंगारिक नवगीत संकलन ‘ आदिम राग सुहाग में कहते हैं कि  ‘   “नवगीत में श्रृंगार अपने उदात्त सहचर-सहचरी भाव में प्रस्तुत हुआ है , न कि उद्दाम  या लम्पट वासनात्मक स्वरूप में . एक ओर नवगीत मनुष्य के इस आदिम राग को आध्यात्मिक धरातल तक ले जाता है , तो दूसरी ओर वह उसे जीवन के सख्त एवं खुरदुरे यथार्थों से भी जुड़ा रखता है .जीवन के कड़ुवे यथार्थ और संघर्ष के बीच भी एक आत्मिक मिठास बनी रहे ,इसके लिए यह लाजिमी है कि नर-नारी सम्बंधों में एक प्रेमिल संवाद की स्थिति बनी रहे .नगीत के श्रृंगार-बोध का यही अभीष्ट मंतव्य भी है. श्रृंगार की यही सात्विक आस्था नवगीत की श्रृंगारिक संचेतना को पारंपरिक श्रृंगार-बोध से अलगाती है.यह आस्था समस्त सृष्टि की जिजीविषा की परिचायक है . नवगीत में श्रृंगार की प्रस्तुति इसी जिजीविषा से जुड़कर हुई है . और यही है नवगीत के श्रृंगार-बोध का विशिष्ट मर्म .
    वस्तुत: नवगीत की श्रृंगार-दृष्टि उसके गैर पारम्परिक सौंदर्य-बोध से जुड़ी हुई है. प्रतिष्ठित नवगीत समालोचक डॉ. राजेंद्र गौतम के अनुसार , “ नवगीतकार का नारी-विषयक सौंदर्यबोध वैयक्तिक न होकर सामाजिक सौंदर्य चेतना का प्रतिनिधित्व करता है ...नवगीतकार ने घर-परिवार से जुड़े नारी-संदर्भों की मिठास , संवेग और सामीप्य-बोध को विशेष रूप से अपने गीतों का विष्य बनाया है ,इसीलिए उसके सौंदर्य-चित्रण में सांस्कृतिक मर्यादा है ...                                                                                                                                                                                                                                  
      श्रृंगार शब्द का नाम आते ही पाठकों  , श्रोताओं एवं साहित्यकारों के मन में प्रसुप्त स्थायी भाव रति का जागरण होने लगता है  .उन्हें आभास होने लगता है कि सम्पूर्ण परिवेश में मादा और नरों के मध्य अनंग-केलिक्रीडा प्रकृति के आश्रय में उद्दीप्त होने लगी है और उपस्थित हो गये हैं  सुखद और सुहाने अवसर , चारों ओर बासंतिक  मंजरियों की मादक सुवास फैलने लगी है. लतायें पुष्पों के भार से लचकने लगी हैं , कलिकाओं के मन में पुष्प होने की अदम्य कामनायें अंकुरित होने लगी हैं .उपवनों , बागों और नदी प्रांतर में कोकिलों , कीरों और चंचरीक दलों की मोहिनी संगीत लहरी निनादित होने लगी है. चर-अचर सभी की आत्मायें मोहमुग्धा हो चली हैं . खेतों में सरसों के द्रुम पीली पगड़ियाँ पहन कर अनंग उत्सव में दूल्हे बनकर शामिल हो चुके हैं . अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि तन्मय लगने लगती हैं .                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                      
         मेरा मानना है कि श्रृंगार का तात्पर्य केवल इतना भर नहीं है बल्कि समर्पण त्याग के वशीभूत होकर एकाकार हो जाना है , जहाँ प्रेम ,सहिष्णुता , अपनापन , त्याग, विश्वास, सहयोग जैसे अवयव पोर दर पोर गुँथे रहते हैं .यह एकाकार और समर्पण जुड़ाव और विलगाव दोनों ही स्थितियों में पाया जाता है. एकाकार में विलगाव की बात का होना कुछ विपर्यय सा लगता है किंतु विलगाव से तात्पर्य अभाव का होना नहीं है बल्कि जुड़ाव से विलगाव का होना है जिसमें जुड़ाव की सम्पूर्ण आवृत्तियाँ , स्थितियाँ और स्मृतियाँ जीवंत बनी रहती हैं. यह नैसर्गिक आदिम राग प्रवृत्ति नायक-नायिका के मध्य पायी जा सकती है ,प्रकृति की गोद में अथवा संतति और पालक के मध्य . वैसे श्रृंगारिक आनंद का प्रत्यारोपण सृष्टि के किसी भी अवयव या संघटक में किया जा सकता है . कितने ही सुंदर , मोहक और रम्य दृश्य होते हैं श्रृंगार के जब एक गाय अपने वत्स को दूध पिला रही होती है ,एक चिड़िया अपनी चोंच से कुछ दाने उड़ने में असमर्थ अपने शिशु की खुली हुई चोंच मे चुगा रही होती है , एक कँगारू पेट की थैली में अपने शिशु को बिठाये कुलाँचे भर रही होती है ,एक बँदरिया अपने बच्चे को पेट से चिपकाये  इस डाल से उस डाल छलाँगे लगाती है  और एक माँ गोद में अपने शिशु को गोदी में बिठाये लोरी गा रही होती है . इस सर्वव्यापी श्रृंगार की परिणति  देखी जा सकती है अंतरिक्ष के गतिमान विशाल पिण्डों में भी और महासागरों की अतल गहराइयों में विचरती जलधाराओं और जैविक संसार में भी .अर्थात श्रृंगार , प्रेम की विश्वव्यापी निष्पत्ति है .श्रृंगार की सम्पूर्णता  मूलत: दो स्वरूपों –संयोग , वियोग के मध्य आंदोलित होती रहती है . जीवन के सुख दुख की अनेक संगतियाँ / विसंगतियाँ इन्हीं के मध्य जीवंत रहती हैं. 
    आओ, अब रसराज श्रृंगार के विविध आयामों की चर्चा विभिन्न नवगीतकारों की रचनाओं में देखी ,पढ़ी , जाँची –परखी जाय और नवगीत के आनंद- लोक में विचारा जाय---                  
1.
अवध बिहारी श्रीवास्तव
           हिंदी साहित्य जगत में अनेक ऐसे नवगीतकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में समय की विद्रूपताओं के साथ-साथ श्रृंगार के विभिन्न आयामों को भरपूर जिया है और जीवंत भी किया है . बहुमुखी प्रतिभा से समृद्ध प्रतिष्ठित नवगीतकार एवं समालोचक साहित्यकार अवध बिहारी श्रीवास्तव एक ऐसे ही गीतकार हैं. माधुर्य से सम्पृक्त उनके गीतों में शब्द दर शब्द एक भरा-पुरा घरबार चित्रित है . अपनेपन के रिश्तों की डोर समूचे परिवार को दृढ़ता से बाँधे हुए है . मेरा मानना है कि श्रृंगार से तात्पर्य केवल नायक-नायिका के मध्य जुड़ाव और दुराव की स्थितियाँ भर नहीं है बल्कि मनोभावगत यह जुड़ाव और दुराव नायक-नायिका के साथ-साथ माँ बेटे के मध्य . मित्र -मित्र के मध्य, प्रकृति के उपादानों के मध्य भी होता है . अनुरक्ति और उसका विलगाव ही संयोग और विप्रलम्भ की स्थितियों को आकार देते हैं .बेटा परदेश में है , बूढ़े माँ –बाप , भाई ,बहन , पत्नी उससे बहुत दूर गाँव –घर में है .ऐसी दशा  में निश्चित ही विलगाव का दुख होगा और यादें होंगी सबके साथ में बिताये आह्लाद के सोनल क्षणों के, आओ , इन्हीं मानकों पर अवध बिहारी श्रीवास्तव के श्रृंगारिक गीतों से जुड़ते हैं   
        उनका एक गीत-चित्र देखें जिसमें नायक / कवि नौकरी इत्यादि के वास्ते परदेश में है और घर में उसकी नवव्याहता पत्नी है . दोनों के मध्य सैकड़ों किलोमीटर की दूरी है . इस वियुक्तावस्था में उसे पत्नी की याद आती है तो वह पत्र लिखने बैठता है और याचना करता है कि तुम प्रत्युत्तर में मुझे हाथों की छापों से पत्र लिखना , मैं घर का पूरा हाल समझ लूँगा . एक भारतीय स्त्री के स्नेहिल स्वरूप का कवि ने कितना की यथार्थ , संवेदनशील , भावप्रवण , मनोहारी  और मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है. यह मनोविज्ञान  संयोग और वियोग के हिंडोले पर झूल रहा है .नायक ( कवि )  अपने पत्र में कहता है कि त्योहारों का मौसम आया है , लाल किनारे वाली चम्पा साड़ी से माँ ने तुझे अपने हाथों से सजाया है. कोई छवि अर्थात नायिका ( पत्नी ) तुलसी चौरे पर मंगल दीप धरेगी . प्रकारांतर से यदि मेंहदी रचे हाथं की छाप पत्र में होगी तो निश्चय ही घर की कुशलक्षेम का हाल मिल जायेगा . चित्र देखें ---

“ हल्दी के छापे होंगे तो पढ़ लूँगा ./ घर में त्योहारों का मौसम आया है 
लाल किनारे वाली चम्पा साड़ी से / माँ ने अपने हाँथों तुझे सजाया है 
कोई छवि थाली में मंगल दीप लिए / तुलसी चौरे पर धर आयेगी
एक पत्र लिखना हाथों की छापों से / घर की कथा हथेली ही बतलायेगी

        एक गीत-चित्र में कवि हिमाचल प्रदेश की यात्रा पर है . जैसे ही वह सपत्नीक रावी नदी के तट पर पहुँचता है , उसे चारों ओर पर्वतों से घाटियों की ओर  फैला हरापन इस कदर उद्वेलित करने लगता  है . यही सम्मोहक प्राकृतिक दृश्य उद्दीपन का कार्य करते हैं . कावि के अंदर अपनेपन के पावन स्नेहा की ललक जगती है और भाव-विभोर होकर कवि अनायास ही कह उठता है कि ---

“ आज मेरे गीत में छायी हुई हो तुम / और रावी का महकता जल 
पर्वतों से घाटियों की ओर फैला यह हरापन 
है तुम्हारे रूप का अनछुआ दर्पन / और छूने का हमारा मन 
तन हुआ पागल कि अमराई हुई हो तुम

        ‘हल्दी के छापे’ गीत संकलन में कवि अपने एक गीत में  कालिदास के ‘ ज्ञातस्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थ: ‘ की उद्दाम श्रृंगारिक कामभोगी स्थिति तक पहुँच गया है. रीतिकालीन परम्परा का निर्वहन करता देहभोगी उक्त गीत पढ़ने, सुनने में बड़ा ही मनोरम और सहज लगता है . आम प्राणियों के मनोभवगत कंदर्पी क्रिया-कलापों से अनुरक्त यह गीत  दैहिक कामक्रीड़ा के निरवरोधी आवेग के लिए  उद्दीपक का काम करता है, जो नवगीत के सहज, त्यागमयी  प्रच्छन्न मानदण्डों को पीछे छोड़ता हुआ उपस्थित होता है . चित्र देखिये ---

“ धीरे-धीरे कदली वन का वल्कल उतरा-उतरा-उतरा
बेचैन चाँदनी का बंधन बादल पर और हुआ गहरा 
शायद दोषी पूरनमासी शायद समुद्र का सम्मोहन 
तन के तल पर लो उतर गया मन के तल वाला पागलपन “   

      ‘ओ चंदन वन वाली नागिन’,’ पहले तो दीपशिखा काँपी ‘,’ उस दिन साँझ ढले’ जैसे कई श्रृंगार गीत इसी मनोदशा की भावभूमि में रचे –बसे है6 .

2.
कुमार रवींद्र
         कुमार रवींद्र नवगीत के क्षेत्र में एक मानक नवगीतकार है , कथ्य, कहन और शिप्ल की दृष्टि से अद्भुत गीतों के रचनाकार हैं . आपने अपने अनेक नवगीतों में श्रंगार के नैसर्गिक और सहज रागात्मक सौंदरबोध को बड़े ही सलीके से जिया है. इनके नवगीतों में  नर-नारी के बीच दैहिक भोग के बजाय सखी भाव ,सहचर-सहचरी भाव को सर्वोपरि स्थान दिया गया है . उन्होंने घर-परिवार से जुड़े नारी-संदर्भों की मिठास , संवेग और सामीप्यबोध को विशेष रूप से अपने गीतों का विषय बनाया है. ‘ आदिम राग सुहाग का ‘ उनका एक विशिष्ट नवगीतों का संकलन है जो मात्र श्रृंगारिक गीतों पर ही केंद्रित है . इन गीतों के विभिन्न आयामों में जीवन के सहज, सरल और नैसर्गिक प्रेमिल प्रसंगों को सहचर-सहचरी भाव से बड़ी ही सम्प्रेषणीय , सौम्य भाषा , बोली-बानी में प्रस्तुत किया गया है . और यह पारदर्शी  सच है कि उन्होंने गीतों की सात्विक पावनता को अपने जीवन में बड़े ही सलीके भरपूर जिया है , उनका कहना है कि ‘श्रृंगार मनुष्य की आदिम संज्ञा है .मनुष्य की रागात्मक वृत्ति की सर्वोत्कृष्ट परिणति श्रृंगार में ही होती है . आज मनुष्य मात्र एक मशीनी-कामक्रीड़ा बनकर रह गया है .पारम्परिक गीत नारी के दैहिक आकर्षण एवं उसके भोग्या स्वरूप पर ही केंद्रित रहे , उसे मात्र एक जिंस के रूप में देखा गया .उसका नये जीवन –संदर्भों के अनुरूप संस्कार नहीं हो पाया. नवगीत की श्रृंगारिकता पर अपनी बात रखते हुए वे कहते हैं कि “ एक ओर नवगीत मनुष्य के इस आदिम राग को आध्यात्मिक धरातल तक ले जाता है , तो दूसरी ओर वह उसे जीवन के सख्त एवं खुरदुरे यथार्थों से भी जुड़ा रखता है . जीवन के कड़ुवे यथार्थ और संघर्ष के बीच भी एक आत्मीय मिठास बनी रहे ,इसके लिए यह लाजिमी है कि नर-नारी सम्बंधों में एक प्रेमिल संवाद की स्थिति बनी रहे .” 
          कुमार रवींद्र के श्रृंगारपरक सभी गीत उक्त मानकों पर खरे उतरते हैं .संकलन का प्रथम गीत ‘ अनुभव हुए प्रयाग से ‘ ही इस नैसर्गिक आदिम राग को अपनेपन के सांद्र रस में सराबोर कर देता है. गीत लिखते-लिखते उसका मनन करते –करते मनोभावों की त्रिवेणी में डुबकियाँ लगाकर अवगाहन करने लगता है , और निकलता है देह की पावनता लेकर . रचना देखिये--- 

“ हमने जब-जब तुम्हें छुआ / अनुराग से / साँसों के सब अनुभव हुए प्रयाग से 
हुई हर छुअन / उस पल गंगा स्नान सी / चितवन जिस पल हुई / काम के बान सी 
नहा गयी / मौसम की धूप सुहाग से
बाँहों के घेरे में / छवि के बिम्ब लिये / हमने तुम सँग / मधुमासों के रंग जिये 
दमक गये / सुधियों के पल सब आग-से 
पोर-पोर में / इच्छा के जुगनू जगे / रस निर्झर में / खड़े रह गये हम ठगे
अंगों ने / जब छुआ रूप को फाग से “

     बासंती छुअन और तज्जनित उद्दीपन के  रागात्मक मनोभावों पर केंद्रित  कई गीत हैं संकलन में जैसे ‘आया बसंत’, ‘आज सुबह ही ‘, ‘ तुम्हें देखकर ‘,’  यह बसंत की रात ‘ , ‘
   
     ‘दिन बसंत के ‘ गीत में कवि ने पावन , प्रेमिल अनुराग को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है ---

“ दिन बसंत के / और तुम्हारी संसी फागुनी / दोनो ने है मंतर मारा 
धूप बसंती साँसों की है / कथा कह रही 
आओ हम तुम मिलकर बाँचें / गाथा जो है रही अनकही 
कनखी-कनखी / तुमने ही तो फिर सिरजा है / सजनी , इच्छावृक्ष कुँआरा “

     ‘ बसंत की रात ‘ गीत का एक श्रृंगारिक गंधर्वी चित्र देखें ---

“ यह बसंत की रात / हवाएं महक रहीं मद्धिम-मद्धिम 
छत पर हम तुम / और दूर स्र / गंध आ रही किसी फूल की 
औचक छू जाना उँगली का / याद आ रही उसी भूल की 
यह की रात  /  हो रही उधर फागुनी रिमझिम-रिमझिम 
रात वही यह . पंचपुष्प खिलते जब गुपचुप / अँधियारे में 
संज्ञाएँ तैरतीं ताल में हैं अमृत के / और कभी पिघले पारे में 
यह बसंत की रात / गायें हम देह-राग मिलकर फिर आदिम “
   
    
3.
मधुकर अष्ठाना
      मधुकर अष्ठाना  अनुभवसिद्ध ,समर्थ एवं समृद्ध नव गीतकार हैं. इन्होंने अपने गीतों में श्रृंगार के विविध आयामों को भरपूर जिया है. अष्ठाना जी एक समृद्ध शब्द-शिल्पी हैं . भोजपुरी बोली-बानी में लिखा उनका  ‘सिकहर से भिनसारा’ संकलन में संयोग और विप्रलम्भ श्रृंगार के अनेक रूप दिखायी पड़ते हैं .इसका प्रथम गीत ‘ अँखिया मे सेवते सपनवाँ हो ‘ ही वियुक्ता प्रेम-सौंदर्य की समर्थ बानगी प्रस्तुत करता है, जिसमें पवन , बरखा, गरमी के मौसम तथा पोखर में खिली कुमुदिनी जैसे पात्र मनोभावों के उद्दीपन का काम करते हैं . देखिए---

“ अँखिया मे सेवतेसपनवाँ हो / कटि गइली जवनियाँ 
बतियौ न पूछै बेदरदी पवनवाँ / सगरो जमनवाँ त मारौला तनवाँ 
दुखवा कs बनली कहनियाँ हो / कटि गइली जवनियाँ
जब-जब बरसैले / सुधिया कs बुनियाँ /
 भीहै अँचरवा / भीजैले जिंदगनिया 
सथवा मे भीजै सिवनियाँ हो / कटि गइली जवनियाँ

‘अँखिया भइल भा पोखरिया’, ‘जियरा तरसै हमार’ , ‘नयनवाँ
 भरि आवै ‘ जैसे अनेक विप्रलम्भ श्रृंगार के गीत हैं जिनमे अधिकांशत: ‘ नागमती के विरह वर्णन’ के दृश्य दिखाई पड़ते है –

“ हमके निहरैलू / कि जियरा निकारैलू / बोला गोरी काहे ना तूँ / अँचरा सम्हारैलू “

       अष्ठाना जी एक निष्णात नवगेतकार हैं . उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल आजमगढ़ जिले के ग्राम्य निवासी होने के कारण इनकी रचनाओं पर  भोजपुरी की छाप पड़ना लाजिमी है किंतु सम्पूर्ण जीवनचर्या लखनऊ जैसी महानगरीय राजधानी के साथ होने के कारण  खड़ीबोली में  इनका लेखन साधिकार भोजपुरी से कम नहीं है.
अन्य विभिन्न गीत संकलनों के साथ-साथ ‘खाली हाथ कबीर’ संकलन के कई गीत श्रृंगारिक ताजगी और टटकेपन से लबालब हैं .इसका एक स्मृति- गीत देखें जिसमें सर्दियों की वारुणी होती गुलाबी शाम का बड़ा ही मनोहारी और अद्भुत नेहचित्र प्रस्तुत किया गया है ---

“ सर्दियों की वह गुलाबी शाम / अब तक याद हमको  
प्रकृति से जब / पुरुष की पहचान का / अवसर नया था 
थक गया था सूर्य / जब विश्राम करने / घर गया था 
गुनगुनाती वारुणी वह शाम / अब तक याद हमको 
मोंगरे की देह में / नवधड़नों की / नेह पाती 
सधे छंदों में / मुखर भी / गीत की संगीत-थाती 
खो गयी थी स्वप्न में वह शाम / अब तक याद मुझको 
श्लोक कंदर्पी / उगे थे अधर पर  / उन्मुक्त स्वर में 
खुल रहे थे अर्थ / फिर सम्भावनाओं के / नगर में 
बनी थी अभिसारिका वहा शाम / अब तक याद मुझको

और भी----

“ वही नदी है / वही घाट है 
देवदास हम / हो न सके पर / टीस रहा मन 
जादूगर के / इंगित पर ही . नाच रहा मन 
लुटा हृदय का / राजपाट है “
और भी---
“ गीत के / तुम बोल हो / मैं अंतरा हूँ
तुम क्षितिज की / इंद्रधनुषी / अल्पना हो 
तुम हृदय सिंचित / अनूठी / कल्पना हो 
तुम शिखर हो / किंतु मैं / समतल धरा हूँ ”        

4.
महेश अनघ
      महेश ‘अनघ’ भाषा, शिल्प  और कहन के स्तर पर अलग किसिम के गीतकार हैं . उन्हें बड़ा ही दुख है कि “ पूछती है प्रेम का मतलब / मशीनों की सदी / क्या बताएं / अब नहीं गिरती पहाड़ों से नदी “ उनकी शैली सघन - सारगर्भित और व्यंग्यात्मक है तथा भाषा मुहावरेदार और लोकोक्तिपूर्ण है. भाषा में बोलचाल के शब्दों के प्रयोग के कारण सम्प्रेषणीयता , तरलता और बोधगम्यता  है. सामाजिक , राजनीतिक ,आर्थिक एवं धार्मिक अव्यवस्थाओं, प्रवंचनाओं के साथ-साथ यत्र - तत्र इनकी दृष्टि श्रृंगारिक सौंदर्य-बोध पर भी गई है . आज की त्याग , समर्पण और अपनेपन से विहीन सड़क छाप प्रेम पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि---

“ दिया जले चारों आंखों में
तब नीराजन करो ,तिजारत मत करना 
तुम खजुराहो छाप मोहब्बत मत करना 
धीरे चलो जनम भर / यह काया कनकनी बनी रहे 
दो सदियों तक / सात जनम तक / चाहत बनी रहे “

    गार्हस्थ्य जीवन के प्रेम सम्बंध को कितने ही सहज और आत्मीय शब्दों में कहा देते हैं महेश अनघ जी ---

“ दूर-दूर तक खेत हरे हैं / कमल नयन से ताल भरे हैं 
यह तुम ही हो 
“ खिड़की से जो झाँक रही हो / तुम ही हो चमक चाँदनी में 
उधर रसोई में भी तुम हो / भूख तल रही देशी घी में “

      बासंती उद्दीपन के श्रृंगार-दृश्य भी कवि की दृष्टि से ओझल नहीं होने पाये हैं. ऊसरों में टेसू , बांस और पहाड़ों पर बुरांस फूल कर अपनी छटा को बिखेर रहे हैं . ऐसे मे कवि अपनी जीवन – संगिनी से कह उठता है देखो पंचशर अर्थात कामदेव के बाणों को चलो मिलकर हम दोनों झेलें .बासंती छुअन का कितना ही सात्विक नेह-प्रदर्शन है . ऐसी पारस्परिक काम-याचना विरले ही कवियों में मिल पाती है    ---

“ रिश्तों में फगुनाहट आयी / मादक चली बयार 
चलो महुआ बीनें हम
हँसो, फटे पर हँसो / वनैला वदन / गाल टेसू हो जाने दो 
सुलगे बांस, बुरांस/ तपे श्रृंगार / कामना को धुँधुआने दो 
रितुपति का उन्माद / पाँच बाणों की है बौछार 
चलो मिलकर झेलें हम तुम “   

5.
डॉ. ओम प्रकाश सिंह
         ‘डॉ. ओम प्रकाश सिंह’ नवगीत रचना और उसके शोध क्षेत्र में एक सर्वविदित नाम है .आपने नवगीत, गजल, दोहा, हाइकु ,कहानी ,एकांकी, नाटक, मुक्तक विधा में रचना कर्म के साथ-साथ शोध , समालोचना  तथा सम्पादन के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया है.अभी विगत वर्षों में ‘ नयी सदी के नवगीत ‘ नामक नवगीत संकलन का पांच भागों में सम्पादन किया है जिनमें नवगीत की विकास-तात्रा के विश्वस्त इतिहास के क्रमिक विकास के साथ-साथ देश के पचहत्तर समर्थ नवगीतकारों के नवगीतों का संकलन किया है. चर्चा हो रही है गीत की श्रृंगारिकता पर सो आपने भी अंदर से बाहर तक जीवन के अनेक उतार चढ़ावों को अपनी पैनी दृष्टि से देखा और अंतर्मन से महसूसा है .आपने अपने विभिन्न गीतों में श्रृंगार की अनेक भाव-भंगिमाओं को जिया है.’ एक नदी है गीत’  के प्रारम्भ में ही एक गीत है ‘ बातें अभी बहुत कहने को’ ,जिसमें जीवन के मृदुल और खुरदरे पलों को कैसे-कैसे जिया गये है देखें ---

“ बातें / अभी बहुत कहने को / मेरे प्रिय , कुछ और कहो तो 
फिर अभाव / झोली लटकाये / खड़ा हुआ है / फुटपाथों पर 
मेंहदी वाले / पाँव न जाने / कैसे बैठ गये / कांटों पर 
कांते / अभी बहुत चुभने को / पल दो पल तुम और सहो तो “

‘ ये समय के गीत हैं’ संकलन में भी श्रंगार के विविध आयामों को जिया गया है ---

“ आ गय मौसम / जरा सा गुनगुनाओ तुम / गीत गाओ तुम  हिल गया कोई / हवा की सर्द छुवनों से 
शब्द कानों में ठहरते / राग भुवनों से 
वेद-मंत्रों सी / ऋचाएँ अब सुनाओ तुम /गीत गाओ तुम “

‘यायावर गीत हमारे’ में एक रंगपर्व होली का मोहक और मनोरम चित्र दृष्टव्य है---

“ स्सँखों से / आँखें मिलती हैं /बाहों से बाहें
चेहरों पर / चेहरे उभरे हैं / मुस्काती राहें
चुपके-चुपके / फेंक रहा प्रिय / स्नेहिल दृष्टि जंजीर “

‘ तंग जड़ों में होंगे अंकुर ‘ संकलन के गीत ‘पर्दे खुले मिले ‘ में दैहिक प्रेम की अगवानी का भोगा हुआ एक सौम्य चित्र प्रस्तुत  किया है चित्रकार कवि ने . देखें चित्र---

“ पर्दे तक / आने से पहले /पर्दे खुले मिले 
खुशियों के / उग गये पंख /हाथों पर मेंहदी आई
होठों की / लाली मुस्काकर / दर्पण पर शरमाई 
आँखों के / झुकने से पहले / अधर , अधर से हिले  “   
         

6.
नचिकेता
          नचिकेता जी एक समृद्ध नवगीतकार ,जनगीतकार एवं समकालीन वरिष्ठ गीतकार हैं .इनके गीतों ने आम आदमी की दैनंदिन से सरोकार रखते हुए बहुसंख्यक गीत रचनाओं से  हिंदी गीत साहित्य को समृद्ध किया है. इनके गीतों का सरोकार मात्र सर्वहारा या समाज के अभावग्रस्त तपके के लिए ही नहीं हैं बल्कि इन गीतों ने जीवन के विविध आयामों को बड़ी ही संजीदगी से और बड़ी ही तन्मयता से जिया है . खरापन इन और वस्तुगत सच्चाई इनके गीतों  की मुख्य विशेषता है. जीवन की विविध संगतियों / विसंगतियों को जीते हुए नचिकेता जी के गीतों का एक आयाम श्रंगार भी है ' जेठ में मधुमास' आपके समृद्ध  श्रृंगारिक गीतों का संकलन है जिसमें श्रृंगारिक सौंदर्यबोध की विभिन्न भाव-भंगिमाओं को बड़ी ही संवेदनशीलता से जिया गया है .इस संकलन में 'प्यार' संज्ञक बहुत गीत हैं जैसे- ‘प्यार की कारिकाएँ ‘,’प्यार बिना ‘,’ प्यार का संसार’,’ प्यार’,’ प्यार की कसम’,’ प्यार का रंग’,’ प्यार की छुअन’,’ प्यार की धूप’,’ प्यार का उजास’,’ प्यार की बातें ‘,’ घटा प्यार की ‘,’ प्रेम गीत की कड़ी’,’ इत्यादि  . एक गीत 'प्यार बिना' में जीवन में प्यार की उपयोगिता को कुछ इस प्रकार बताते हैं कि ---

" प्यार बिना / अहसासों का हर गीत अधूरा है 
प्यार न है तो / हंसी और मुस्कान अधूरी है 
आँखों में उगने वाली / पहचान अधूरी है 
अगर प्यार है /तो अमृत-फल हुआ , धतूरा है “ 

‘प्यार ‘ की बहुआयामी तात्विकता का बोध कराते हुए कवि ने उसे सर्वव्यापकता का स्वरूप दिया है .सच में ऐसा है भी कि सृष्टि में प्यार के बिना कुछ भी तो नहीं है. उसे प्यार फूलों की गमक जैसा ,सपनों की धनक जैसा ,रंगों की चहक जैसा , नरम दूबों की सिहक जैसा , चूड़ी की खनक जैसा ,आँखों की चमक जैसा , सभ्यताओं की उतक जैसा महसूस होता है . उसे प्यार  की व्याप्ति पत्तों के हरेपन में, घर के खुले आँगन में , खेतों की फसल में , गीत , कविता , गजल में ,रिश्तों की तपिश में , सम्मोहन खलिश में दृष्टीगोचर होता है . इतना ही नहीं आगे कवि कहता है कि ‘प्यार आटा, आग, पानी है / आदमीयत की कहानी है.
    नचिकेता जी अपने गीतों में इतने स्पष्टवादी हैं कि अहसासों की संवेदनाओं को लिखा-पढ़ी में रखकर  सरेआम करने की हद तक पहुँच जाते हैं – 

“ जब कभी भी / मैं तुम्हारा नाम लिक्खूँगा / स्वप्न-जल से धुला / सालिग्राम लिक्खूँगा / जब कभी / मेरा-तुम्हारा / तन छुआ होगा / सात रंगों के धनुष-सा / मन हुआ होगा / उस छुअन का / रसभरा अंजाम लिक्खूँगा “ 

    स्मृतियों को जिंदा रखने की उद्दाम कामना में भी शर्तें ही शर्तें लगाये रहता है नचिकेता जी का कवि ,किंतु शालीनता के पावन पथ से कभी भी विलग नहीं होता है . ‘यादों में आना, गीत में यादों में आने की शर्तों को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है ---

“ आना मेरी यादों में / हर पल तुम आना 
आना जैसे / सावन में हरियाली आती 
अझुराई आँखों के अंदर लाली आती 
पाकर नमी/ बीज में अंकुर –सा / अंखुआना “

“बतरस में मीठा संवाद’ गीत में कवि ने प्रेयसी की आत्मीयता के प्रति बहुत ही सात्विक रूपकों का प्रयोग करते हुए उसके आदर्श एवं सम्मान को सदैव बरकरा रखा है अपने गीत में , और यही जो है रक्चना की प्रेरणास्रोत सी .इस आत्मीयता के जुड़ाव को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं नचिकेता जी---

 “ तुम उल्लास / उमंगों की नव भाषा हो / जिजीविषा हो , धड़कन हो / अभिलाषा हो / संझवाती का दिया लिए तुलसी हो तुम “ 

    आगे कवि ’ दुनिया से मतलब’ गीत में  इस दुनियावी भीड़ में रहते हुए भी नितांत अपनेपन को बचाकर कैसे रखा जा सकता है .इस पर कवि की दृश्टि कुछ इस प्रकार गई है कि---

“ जब से तुमको देखा / भूल नहीं पाया हूँ 
तुम्हें देखकर ही / रंगों को अर्थ मिला है
मन के भीतर / वन तुलसी का कुंज खिला है
खुशबू की / स्वप्निल तरंग सा / लहराया हूँ “  
  
    
7.
वीरेंद्र आस्तिक
          हिंदी गीत / नवगीत / गजल के समालोचना क्षेत्र में आज ‘ वीरेंद्र आस्तिक ‘ का नाम जाना पहचाना है. उन्होंने गीत , नवगीत और गजल की समृद्ध रचनाएं हिंदी साहित्य को दी हैं . उन्होंने ‘धार पर-एक’ और धार पर –दो’ दो नवगीत संकलनों का सफल सम्पादन किया है , हिंदी गीत-जगत में जिनकी चर्चा खूब हुई और कृत्य को सराहा गया . विवेच्य विषय श्रृंगार की विभिन्न भाव-भंगिमाओं पर केंद्रित  अनेक गीत रचनाएं इनके विविध गीत संकलनों में संकलित हैं .प्रीति की विवेचना करते हुए वे इसे हृदय के सच्चेपन से उसी तरह जोड़ते हैं जैसे कि मध्यकालीन कवि ‘घनानंद’ ने इसकी पारदर्शिता की पक्षधरता गही थी कि –“ अति सूधो सनेह को मारगु है , जहँ नैकु सयानप बाँक नहीं “ .इसी सच्चेपन की लीक को गहते हुए आस्तिक जी का कहना है कि---     

“ ये प्रीति पलाशी / दहक रही 
हिय की सच्चाई / महक रही

बासंती ऋतूत्सव की पावन बेला में मनोवेगों का उद्दीप्त होना और तज्जनित मन का चंचल होना वैसे तो स्वाभाविक है सम्पूर्ण प्राणिजगत के लिए किंतु एक शब्द-शिल्पी उसे कुछ और ही ढंग से पढ़ता है, गुनगुनाता है और आंदोलित होने लगता है उसका अंतस , और अवसर मिलता है मन की चंचलता को. प्रेम और श्रृ6गार का मौलिक आधार भी तो यही है .ऋतुगत राग-बोध उद्दीपन का काम करता है और अंतस में सुप्त मनोभावों को जगाने का काम करता है और परिणति होती है खजुराहो की मूर्ति जैसी सौंदर्यदेवी सी   . ऐसा ही ऋतुगत संस्पर्शी शब्द-चित्र देखें ---

“ तेरा चंचल तन / मेरा चंचल मन / शायद ऋतु का ये / परिवर्तन होगा 
तुझसे सेमल फूले / तुझसे कोयल बोले / फूलों की पाँखों पर / तितली का मन डोले 
तू है सांध्य सुमन / मैं भटका गुंजन / यह ऋतु प्रेषित  / रात्रि-निमंत्रण होगा
खजुराहो की मूरत / जैसी खड़ी नर्तकी / अंग-अंग से टपके / है भाषा कत्थक की” 

तथा ---

“ आवारा सा दिन है / खुशबू कमसिन है
मधुमासों में वनवास / अकेले काटे
डसने को मिलते / बार-बार सन्नाटे
किसी बीन के लिये / जिंदगी नागिन है”

 और भी ---

तू शशिरूपा संगिनि मेरी / पथ चाँदी-चाँदी है/ तेरे अनुपम अंग-अंग की / आभा संवादी है

      अनन्य प्रेम अन्योन्याश्रित होता है . प्रेम में प्रतिदान की लेशमात्र भी गुंजाइश नहीं होती है उसमे होता है पारदर्शी त्याग और समर्पण . ऐसा ही रम्य चित्र रचने में आस्तिक जी का कवि पूरणत: सफल रहा है--- 

“रूप अपना दे के तुमको / अर्थ भी अपने दिये थे
उस नदी में हम / नदी हम में मिली / वे क्षण जिये थे”

08.
डॉ. मृदुल शर्मा
        डॉ. गोपाल कृष्ण शर्मा ‘मृदुल’ अर्थात मृदुल शर्मा जी बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न समर्थ साहित्यकार हैं . आपने नगीत , गजल , मुक्तक ,लघु कथा ,कहानी ,उपन्यास,निबंध , दोहा जैसे विभिन्न विधाओं में लेखन के साथ-साथ सम्पादन में भी निष्णात हैं . ‘ उत्तर प्रदेश की राजधानी महानगर लखनऊ से प्रकाशित होने वाली समृद्ध साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका ‘ चेतना स्रोत ‘आपके सफल सम्पदन में अनवरत प्रकाशित हो रही है. शर्मा जी ने अपने बहुविध संकलनों में जीवन के विभिन्न आयामों को बड़े ही जीवंत ढंग से जिया है . त्रासद वक्त और टूटते हुए मानवीय मूल्यों से उपजी वक्त की विद्रूपताओं को जीने के साथ-साथ आपके गीतों ने जीवन की अनेक संगतियों / विसंगतियों को जिया है . जीवन के कोमल क्षणों मे श्रृंगार स्वत: ही मुखर हो उठा है. आपके सद्य: प्रकाशित नवगीत संकल में एक गीत है ‘ जूही के फूल झरे ‘ जिसमें कवि ने श्रृंगार के सात्विक राग-भाव को बड़े ही स्वाभाविक और सहज रूप में जिया है और वही प्रस्तुत किया है . एक हंसी ने कवि को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया – शब्द-चित्र देखें ---    

“ एक हँसी बिखरी  /  ज्यों जूही के फूल झरे 
नेह नदी उमड़ चली / कल-कल करती /  झरनों सी अविरल / शीतलता भरती 
मह-मह-मह महक उठे / प्रणय-पंथ धूल भरे  / अपनापन / अनायास उपजने लगा 
भेदभाव देखता रहा  /ठगा-ठगा  / व्यर्थ हुईं शिक्षाएँ / रह गये उसूल धरे 
दृष्टि हुई हठी बहुत  /  भूली हटना  / अनायास घटी यही  /  फिर-फिर घटना 
मन चाहे बार बार  / ऐसी ही भूल करे 
‘ गूँगापन बोल उठा ‘ श्रृंगार गीत में पावस के आगमन पर मन में ऋतुगत आर्द्र भावनायें पनपने लगती हैं और मंद पड़े स्वर भी मुखर हो उठते हैं ---“ तुम आये तो  / सूने घर का आँगन बोल उठा / चाँद देख ज्यों सागर का / पागलपन बोल उठा / तुम आये तो मौसम का गूँगापन बोल उठा “

    ‘नागमती के विरह वर्णन’  की भाँति कहीं फागुन में तो कहीं सावन में अपने प्रिय की याद सताने लगती है और जब नायक-नायिका दोनो में स्थनगत दूरियाँ हो गई हो तो मनोभावों के ऐसे उद्दीपक समय में भावनाओं का उद्दीप्त होना लाजिमी है . ऐसे वक्त में  प्रकृति के विभिन्न उपादान  / संघटक सुप्त स्मृतियों को जगाने का सफल प्रयास करते है ,और वियुक्ता नायिका के मुख से विलगाव से उपजे दुख के बोल स्वभावत: निकल पड़ते हैं. इस राग- भावना को कवि नेकितने ही आर्त और मोहक शब्दों में पिरोया है .देखें---

“ बिना तुम्हारे / फागुन असि की धार / पिया 
पवन निगोड़ा / सीटी मारे / बंसवट से
बंद द्वार की / रह-रह कर / सांकल खटके
करके कुछ संकेत, / हँसे कचनार / पिया 
महुआ / रात-रात भर / रस टपकाता है 
दहके मुआ पलाश / आम बौराता है 
घूम-घूम / करता अनंग है वार पिया 
अंग-अंग से / कसक जगाता है / फागुन 
मौसम / सिर पर धरे घूमता है / अवगुन
नमक / जले पर / होली का त्योहार पिया” 

09.
निर्मल शुक्ल
            निर्मल शुक्ल समर्थ एवं प्रौढ़ वैचारिकी के नवगीतकार  होने के साथ-साथ सफल सम्पादक एवं समालोचक भी हैं . आपके सम्पादन में तीन समृद्ध समवेत नगीत संकलन  ‘शब्दपदी’ ,’ नवगीत’ : नई दस्तकें एवं ‘शब्दायन’ प्रकाशित हुए जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी ही चर्चा हुई . प्रतिष्ठित नवगीतकार कुमार रवींद्र के लखनऊ आगमन पर उनकी अध्यक्षता में प्रतिवर्ष नवगीत पर केंद्रित एक भव्य ,समृद्ध एवं सार्थक  चर्चा-गोष्ठी का आयोजन करना आपकी विशिष्ट अभिरुचियों में रहा है. निर्मल शुक्ल जी की समृद्ध नवगीत रचनाधर्मिता  जीवन की संगतियों / विसंगतियों के विविध आयामों पर केंद्रित है . उनके अनेक नवगीत उनकी श्रृगारिक अभिरुचि को व्यक्त करते हैं .आइये चर्चा करते हैं उनके कुछ नवगीतों के साथ उनकी श्रृंगारिक अभिरुचि की . ‘ नील वनों के पार’ संकलना का प्रथम गीत ‘ पगध्वनियों की आहट’ ही उनकी इस अभिरुचि की सच्चाइयों को बयां कर देता है .जब मौसम हो और उसमें पुरवैया के शीतल-मंद  झोंके हों , कंगन हों , पायल और महावर हो तो फिर कहना ही क्या ---

“ हो न हो पुरवाई है / बँसवारी में / शब्द उगा है / पी की सुधियाँ लाई है
मौसम में / शतप्रभा घुल चुकी / रे ! कंगन अब जाग 
भोर रँगोली / पारे भर-भर / चुटकी में अनुराग 
अरे ठहर / शेफाली हँसकर / अभी कही बतियाई है 
री ! पायलिया / रचा महावर / थिरक बावरी डोल 
सुधियों की / अगवानी होगी / तू भी झालर खोल 
देख देहरी पर / पगध्वनियों की / आहट कुछ आई है “

‘ मनुहार की मेंहदी ‘, ‘गुलमोहर के रक्त पल्लव ‘, सुबह-सुबह ही धूप बना लूँ ‘,नील वनों के पार ‘,’ सागर की प्यास ‘, ‘ दर्पण के पार हम ‘ तथा अनकहे शब्द इसी श्रृगारिक - रागात्मक भावभूमियों पर रचे गीत हैं जिनमें विभिन्न मनोवृत्तियों को बड़े ही सहज ढंग से जिया गया है. ‘ दर्पण के पार ‘ गीत में मधुमास , पावस , ग्रीष्म, जेठ ,आषाढ़ , सावन के ऋतुजनक उद्दीपन भावों की अनुवृत्ति है जो कवि के अंदर सुखमयी अनुरक्ति एवं आह्लाद के क्षणों को उपजाती है. ‘ सूँघ गया मरुथल’ जीवन के ढलते पड़ाव काल में पूर्व में जी गई सुखद स्मृतियों का लेखा-जोखा है .ऐसा लगता है कि “ पलट गये दिन सनेह वाले / रही निशा अब रही न गर्मी / न सुख की रँगरलियाँ / न सेज उजला बिछय सोई “. गीत –चित्र   देखें --- 

“ जब से बीते , हल्दी , चंदन  मेंहदीं वाहे कल 
सूख गया है पलकों में ही पलकों का सब जल 
देह सलोनी भूल गयी सब / उबटन बाजूबंद 
खील , बताशे वाक़्ली सिहरन , / कुछ अधरों में बंद 
मधुमासों को / चुपके-चुपके सूँघ गया मरुथल “   
       
10. 
डॉ. राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावयर’
       प्रतिष्ठित समालोचक , सम्पादक एवं नवगीतकार राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’  के पास वृंदावनी श्रृगार के गीतों की लम्बी धरोहर है .अनुराग और उपजे रस के वे वृंदावनी भोक्ता रहे हैं .समय और समाज की अनेक दुर्व्यवस्थाओं से जूझते आपके गीत जीवन के आनंदमयी , सुखमय और आभ्यंतरिक पड़ावों पर विश्राम करने हेतु ठहरते हैं . यही वे सोपान हैं जब गीत समय की विद्रूपता हे हटकर जीवन के ब्र्ह्म - सहोदर रस श्रृंगार को जीने के कोमल और मधुरिम अवसर मिलते हैं . ‘ गलियारे गंध के ‘ उनका एक समृद्ध श्रृंगारिक नवगीतों का संकलन है जिसमें श्रृंगार की आभ्यांतरिक एवं बाह्य अनेक भाव-भंगिमाओं को   बड़े ही सहज और मनोरम ढंग से चारुता के साथ जिया गया है . ‘ घूँघट पट खोल’ गीत जो संकलन का दूसरा गीत है , में कवि के युवा मन का चांचल्य बड़ी ही बेसब्री से मुखर हो रहा है ---

“ सजनी ! अब घूँघट पट खोल / बावरी ! अब तो घूँघट खोल 
यौवन की मदमाती बेला बीत न जाय कहीं 
नाच-नाच तेरे सँग नाचे जीवन का भूगोल 
सम्बंधों के मदिरा-घट से पी जी भर पीयूष 
क्षण हों कल्प-कल्प क्षण जैसे ले पल-पल का मोल 
तृषा तृप्ति फिर तृप्ति तृषा हो ऐसी अग्नि जले 
अंग-अंग दावानल दहके सुलगें शून्य कपोल  “

‘ ऋतम्भरे’, ‘रस भीने सम्बोधन मोड़ दिये ‘, ‘कंदर्प नयनि ! ‘, ‘मैं बाँचूँ ‘, ‘सम्बंध-जाल ‘, ‘हारे मन के मधुमासों से ‘, ‘ बौराया मन ‘, ‘ याद किसी के आये लोचन ‘, ‘हाथों से लिपट गया ‘ जैसे अनेक गीत श्रृंगात के विभिन्न संवेगों के रागात्मक भाव को प्रस्तुत करते हई .उम्र की किशोरा और युवावस्था में प्रेम-पत्र के द्वारा अपनी मनोवृत्तियों , त्याग और समर्पण अनेक उदाहरण मिलते हैं . कवि भी उम्र की इस जादूगरी से अछूता न रह सका .अकस्मात  पुस्तक में रखे गुलाब के सूखे फूल मिलते ही कवि फिर उन्हीं सपनीली उपत्यकाओं / अधित्यकाओं में विचरने लगता है और उम्र के इस पड़ाव पर भी अतीती सम्मोहन जाल में उलझ जाता है –प्रेम-पत्र के बहाने से. गीत-चित्र देखें --- 

“कोई प्रेम-पत्र हाथों से / आकर लिपट गया 
पुस्तक में सुधियों के / सूखे हुए गुलाब मिले 
सम्बोधन के स्वर्ण –पखेरू / फिर बेताब मिले 
तन से एक सुगंधित आँचल / उड़ कर लिपट गया “    

11.

श्याम श्रीवास्तव
     श्याम श्रीवास्तव एक विलक्षण शब्द-शिल्पी हैं.वे शब्दों से जैसा चाहते हैं वैसा कहलवा देते हई . आपसे मेरा परिचय , नवगीतकार निर्मल शुक्ल के निवास पर आयोजित गोष्ठियों एवं परिचर्चाओं में हुआ. जीवन , समाज और परिवार की अनेक संगतियों / विसंगतियों को झेलते हुए आपका  चिरंतन प्रसन्नचित्त मुस्कराता हुआ चेहरा और बात-चीत में अपनत्व  सभी का बरबस ही मन मोह लेता है .उनके श्रृंगारिक राग-बोध के गीतों से मेरा अत्यल्प परिचय है . आपके नवगीत संकलन ’ किन्तु मन हारा नहीं ‘ के अधिकांश गीत वक्त की विडम्बनाओं की सच्चाइयों क लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं . हाँ , कुछ ऐसे शिष्ट श्रृंगारिक रागात्मकता के गीत हैं जिसको सुने बिना श्रोता उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं . उम्र का वह पड़ाव जिसमें भोर के आगमन के साथ ही कवि चश्मा लगाकर अखबार पढ़ने में व्यस्त हो जाता है . पास में लौंग, तुलसी , अदरक , सोंठ , काली मिर्च , मिसरी पड़ी रखी हुई चाय का उसे ध्यान ही नहीं हई , और न ही ध्यान है चाय का प्रेम-पियाला पिलाने वाली  अपनी परिणीता का . आइये घर-गृहस्थी और अपनेपन का पारिवारिक सौम्य एवं पावन शब्द-चित्र ‘ रूप के उस पार ‘ देखें---

“ यह मुआ अखबार फेंको / इधर हरसिंगार देखो
जागते ही बैठ जाते / आँख पर ऐनक चढ़ाके 
भूल जाते दीन-दुनिया / दृष्टि खबरों पर गड़ाके
क्या धरा / गुजरे गये में / डोलती मनुहार देखो 
चाय बाजू में धरी है / गर्म है  प्याली भरी है
लौंग , तुलसी , मिर्च काली / सोंठ-मिसरी सब पड़ी है
जो नहीं / मिलता खरीदे / घुला वह भी प्यार देखो 
बह रही नदिया , खड़े हो / घाट पर टाई लगाये 
हर लहर की एक हद / अंतर्व्यथा कैसे बताये 
घाट से क्या / पाट से क्या / देखना तो धार देखो 
देखना वैसे न / जैसे देखते / बाजार वाले 
भावनायें सतयुगी / थापी हुई मन के शिवाले 
रूप देखो या न देखो / रूप के उस पार देखो  “

‘ मंडप सजाने हैं’ गीत में कवि श्रृंगारिक भाव से अनुप्राणित तो है किंतु उसके मन में भविष्य के प्रति अनेक आशायें सदैव जाग्रत रहती हैं और वह अपने को सभी तरह से सम्पन्न व्यक्ति मानता है.  देखें ---

“अकिंचन हम कहाँ हैं ?/ पास अनुभव के खजाने हैं 
हमारे पास जीने के / अभी लाखों बहाने हैं 
पिये प्याले पे प्याले / पर अभी भी प्यास ज्यों की त्यों 
गये कुम्हला सुमन पर / गंध का अहसास ज्यों का त्यों 
कमाई वह हमारी काम / आने का समय आया 
मिला मनके , युवा मन के / सुखद मंडप सजाने हैं “

12.
शैलेंद्र शर्मा
       शैलेंद्र शर्मा एक प्रतिष्ठित नवगीतकार होने के साथ-साथ समृद्ध दोहा शिल्पी ,कुंडलिया रचनाकार , गजलगो भी हैं .आपके दो नवगीत संग्रह ‘ सन्नाते ढोते गलियारे ‘ तथा ‘ राम जियावन बाँच रहे हैं ‘ हैं तथा सद्य: प्रकाशित एक दोहा संकलन ‘ ऊसर में टेसू खड़े’  भी है . अपनी रचनाओं में समय की विद्रूपताओं और तज्जनित पड़ने वाले प्रभावों को भरपूर जिया है . श्रृंगार जीवन का प्राण है और इसी पर खरे उतरते हुए आपके कई श्रृगारिक गीत भी हैं . ‘ सन्नाटे ढोते गलियारे ‘ से श्रृंगार का एक मोहक चित्र देखें जो हिमालय की पावन क्रोड में विचरते हुए आह्लादमयी क्षणों का भोक्ता रहा है . कवि ने कितना ही चारुतापूर्ण प्रकृति की सुषमा का श्रृगारिक चित्र खींचा है . चित्र देखें  ---

“ कंचनजंघा’ शैल शिखर पर सूरज सिंदूरी / लगता जैसे पास तुम्हीं हो बाँहों भर दूरी
प्रिय ! बसंत में मन तरुवर के / पात-पात बहके 
निजता के उत्तुंग शिखर का अहं गला ऐसे 
हिमनद पाकर परस फागुनी पिघला हो जैसे 
कल्मष सारे हुए तिरोहित / गात-गात बहके 

13
बृजनाथ श्रीवास्तव
          बृजनाथ श्रीवास्तव एक प्रतिष्ठित नवगीतकार हैं . नवगीतों के साथ-साथ आपने नयी कविता , दोहा तथा गजल विधाओं पर रचनाएँ की हैं . जीवन के विविध आयामों की दृष्टियों पर अब तक आपके दस काव्य संकल प्रकाशित हो चुके हैं .इनकी मूल रचना- वैचारिकी प्रकृति , पर्यावरण ,समय की सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक एवं धार्मिक विद्रूपताओं , अव्यवस्थाओं से सम्बंधित है . इन विषयों के साथ-साथ पारिवारिक रिश्तों और श्रृंगारिक राग-बोध के मनोभावों पर केंद्रित इनके पास बहुसंख्यक गीत हैं . आइये बृजनाथ के आदिम रागबोध के श्रृंगारिक गीतों से दो चार होते हैं .प्रथम संकलन ‘ दस्खत पलाश के ‘ में एक गीत है जो युवावस्था के ज्वार से अनुप्रणित तो है किंतु कवि का सोचना है कि हर काम का अपने वक्त से होना ही लाजिमी है . प्रत्येक दिन राहुकाल दोष डेढ़ घंटे का रहता है . दोपहर लौट रही है, राहुकाल लगा है  और गंधर्वी क्षणों की याचना ने दस्तक दे दी किंतु कवि ने उसे शुभ घड़ी आने के तर्कजाल में उलझा कर एक अजीब सा मोड़ दे दिया . गीत चित्र देखें ---

“ अभी तो दोपहर लौटी / समय का दोष टल जाये / निगोड़ी शाम ढल जाये 
और मंदिर में / अभी तो दीप जलने हैं / आरती में देवता के / मंत्र पढ़ने हैं 
हवाओं को वहीं रोको / कहीं पूजा न छल जाये 
हाँ , अभी तो / चाँदनी के पर निकलने हैं / नील-वन में / मोतियों के फूल खिलने हैं 
अँधेरों से अभी कह दो / नही घर आजकल आयें 
व्योमगंगा में अभी गोते लगाने हैं / सोन परियों  / सँग अभी भरनी उड़ाने हैं 
कहीं ऐसा न हो / पावन मुहूरत आज टल जाये” 

‘ तुम्हारे पास ‘ गीत में विप्रलम्भ की विभिन्न दशाओं की मनोरम प्रस्तुति की गई है. 
       श्रृंगारिक राग-बोध का एक बहुत ही सुंदर ,गार्हस्थिक, सांस्कृतिक रम्य गीत है ‘ कहाँ साँझ के ‘, जिसे दैनिक जागरण समाचार पत्र एवं वागर्थ तथा नवनीत जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं ने ससम्मान प्रकाशित किया . आज के आपाधापी भौतिकवदी समय ने बहुत कुछ अच्छा निगल लिया है मानुष जाति का ,और वह मजबूर है सोचने को कि---  

“एड़ियाँ अब न दिखतीं / महावर रचीं / पाँव पायल खनकती कहाँ साँझ के 
माँग सेंदुर भरे / भाल बिंदिया सजे / होंठ लाली लसे / देख दर्पन लजे  
चूड़ियाँ अब न बजतीं / कलाई सजी / पाँव बिछिया दमकती कहाँ साँझ के 
थाप मादल पड़े अब / कहाँ गाँव में /लावनी गीत धुनि अब  / कहाँ छाँव में 
चिट्ठियाँ अब न मिलतीं / बसंती छपीं / हाथ ढोलक गमकती कहाँ साँझ के 

       ‘तुम्हारा साथ में होना’ समृद्ध गृहस्थी का समृद्ध गीत है जिसमें प्रेम , अपनापन , विश्वास , त्याग और सपर्पण की अतीव बलवती भावना है ---

“तुम्हारा साथ में होना / कि / इस घर का सँवरना है 
चलो कुछ देर बैठें हम / चलो अब चाय पी लें हम 
मकड़ियों के लगे जाले/ हटाकर साथ जी लें हम 
तुम्हारा मंत्र का पढ़ना / कि / इस घर का चमकना है
हँसें जो फूल क्यारी में / तुम्हारे हैं सगे बच्चे 
तुम्हारे हाथ ही इनको / सँवारें ये सरल सच्चे 
तुम्हारा यज्ञ का करना / कि / इस घर का महकना है “

 ‘ अचानक यह तुम्हारा मौन हो जाना , हमें अक्सर अखरता है “ में गार्हस्थिक समस्याओं के चलते प्रेयषी के असंतुष्ट हो जाने की मनोदशा का सांगोपांग सुंदर  चित्रण है , जो प्राय: आम परिवारों में आमतौर पर पाया जाता है .  
       
14.
डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव
    डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव, नवगीत के क्षितिज पर एक देदीप्यमान नक्षत्र हैं . इनके विभिन्न गीत संकलनों में प्रकृति , प्रेम , गृहस्थी , सामाजिक ताने- बाने , रिश्तों पर केंद्रित अनेक गीत हैं . बचपन की स्मृतियाँ और संयुक्त परिवार में जिये गये सहज और प्यार पगे रिश्ते इनके गीत- प्राणों की प्रमुख स्वाभाविकता है . श्रृंगारिक भाव-बोध की विभिन्न भाव-भंगिमाओं को जीवंत करते इनके गीत मानस में किल्लोल करते मिलते हैं .स्मृतियों के नंदन कानन में विचरते इनके गीत अपमी माधुरी से पठकों और श्रोताओं को अनायास ही सम्मोहित करते हैं. बानगी के तौर पर देखें  गीत ‘ किये याद ने फिर पगफेरे’ ---

“ किये याद ने फिर पगफेरे  / आओ प्रिये ! बैठ बतियायें 
खुशियों के वे नन्हें अंकुर / आज बन गये गझिन लतायें 
पुष्प-पुष्प सिरमौर बन गये / तन को घेरे मन हरियायें 
नेह छुअन की / छूईमुई वह / मन-उपवन सौंदर्य बढ़ाएँ 
गंध चंपई / थी साँसों में / शब्द भीगते मधु-पाँखों में 
कोमल भाव / बहे जाते थे / लिये हाथ थे , जब हाथों में 
वो चंदन से / शांत भाव को / चलो आज , पिर से दोहरायें 
पोर-पोर में / सुघड़ समर्पण / सजल घटाएं मुस्कानों में 
बरस-बरस / कुछ कह जाती थीं / रस बरसाती थीं कानों में 
आज उन्हीं यादों / की छाया में / बैठें हम गीत बनाएं “ 

‘आया बसंत’, ‘जलधर आये हैं ‘, ‘मेघ सावन फिर घिरे हैं ‘, ‘ऋतु पावस की ‘, ‘कल बसंत आया ‘, ‘ आये हो तो ‘, ‘हुई बरसात ‘,  आदि  मनोवेगों को उद्दीप्त करने वाले ऋतुपरक अनेक गीत इन संकलनों में उपस्थित हैं गार्हस्थ्य स्नेह की निश्छलता का बड़ा ही सम्मोहक और समर्पणकारी चित्र उकेरा है कवयित्री ने अपने गीत संकल ‘ आकाश तुम कितने खाली हो ‘ के गीत ‘मनमीत हमारे ‘ में देखें ---

“ तुम ही हो मनमीत हमारे / तुमसे घर संसार प्रिये 
साथ तुम्हारा जनम-जनम का / तुम बिन मन इक पल न जिये 
ढूँढ़ें इक दूजे में खुशियाँ / सुधियों सँग परिहास करें 
बीत गये दुख के क्षण / उनको बैठ गर्व से याद करें
करें आज मनुहार तुम्हारा / और करें श्रृंगार प्रिये “ 
     
15.
मनोज जैन
      मनोज जैन एक समृद्ध नवगीतकार हैं. ‘ एक बूँद हम’ इनका एक परिपक्व नावगीतों का संकलन है . अपने नवगीतों में सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक एवं धार्मिक आयामों के विभिन्न पहलुओं को जीते हुए आपने भी जीवन के राग-बोध पर केंद्रित बहुत से गीत लिखे हैं. कहीं घर-गृहस्थी की बातें हैं ,   कहीं मिलन के सुखमय क्षणों की पावन स्तुतियाँ हैं , जिसमें ठूँठ जैसी जिंदगी में हरेपन के प्रांजल आभार हैं.कहीं मधुमयी अनंग कामना की पुन: भूल करने के मन हैं . कुछ चित्र देखें ---

“खूब सूरत / दिन, पहर , क्षण / पल, हुआ 
तुम मिले तो / सच कहें / मंगल हुआ 
पुण्य जन्मों का ,/ फला तो छँट गयी / मन की व्यथा
जिंदगी की पुस्तिका में , / जुड़ गयी / नूतन कथा
ठूँठ सा था मन / महक ,/ संदल हुआ 
वेद की पावन / ऋचा या , / मैं कहूँ तुम हो शगुन
गीत ! मन की / बाँसुरी पर / छेड़ते तुम प्रेम धुन 
पा, तुम्हें यह / तप्त मन / शीतल हुआ 

 तथा---

“ हो गई है आज हमसे / एक मीठी भूल 
धर दिये हमने अधर पर / चुम्बनों के फूल 
मन तुम्हारे रेशमी अहसास  / ने ले लिया था 
एक चितवन ने तुम्हारी / दिल हमें दे ही दिया था 
लाजवंती छवि नयन / में फिर गई है झूल  

 

16. अवनीश त्रिपाठी
        अवनीश त्रिपाठी पेशे से शिक्षक हैं . सा, विशेषकर नवगीत के क्षेत्र में आपका सराहनीय योगदान है. आप कवि होने के साथ-साथ समृद्ध समालोचक एवं सफल सम्पादक भी हैं . अवनीश जी अपने समय और समाज के  एक चौकन्ने कवि हैं जिनके गीतों की दृष्टि  आम आदमी के दैनंदिन संघर्षों के साथ-साथ अनुराग के अनेक स्नेहिल , आत्मीय , समर्पणकारा एवं गार्हस्थ्य अपनेपन के सघन रस से आप्लावित हैं . इनका समृद्ध नवगीतों का संकलन ‘ दिन कटे हैं धूप चुनते ‘ अपने कथ्य , शिल्प एवं कहन के वैशिष्ट्य के कारण चर्चित रहा  . आइये आपके जीवन के राग-बोध से उपजे श्रृंगारिक गीतों की रसनिर्झरिणी में अवगान करें ---

“उतर गई है गंध / मनुहरी क्षण हुए विदेशी / आखिर कौन मनाये  ? 
अकुलाहट में रात बितातीं / हैं उदास बाहें 
ताक रहे हैं थके नयन अब / सूनी-सूनी राहें 
उतर गई है गंध खतों से / आखिर कौन बुलाये ?
उथल-पुथल अब तक है जारी / बिरहिल झील किनारे 
ठगी कर गया कोई वंचक / सपने सारे हारे 
सोई हुई साँझ को जाकर / आखिर कौन जगाये ? 
वंशी का स्वर चुप्पी साधे / कब से पड़ा हुआ है  
स्वप्न हुए वाचाल अभी तक  / उसने नहीं छुआ है 
थके हुए सप्तक स्वर को फिर / आखिर कौन सजाये ?”

     प्रकृति की रम्य छाँव में रचा-बसा , आनंद रस में सराबोर एक मनोरम गीत अवलोकनार्थ प्रस्तुत है---   

“अक्षर से मनुहार / कर्पूरी रातों में संदला / परछाईं रतनार 
सगुन पंछियों की आहट पर  / खोल दिया मन-द्वार 
अँजुरी भर खुशबू मलयज की / लेकर आई भोर
चम्पा को गुदगुदी कर रहा / हर सिंगार चितचोर
होंठ सिले रह गये सुमन के / चुप बैठी कचनार 
सन्यासी आकाश लिख रहा / मधुऋतु का अध्याय 
ललछौहें सूरज ने बदला / प्राची का पर्याय 
सकुचाई धरती का कितना / लाजभरा व्यवहार 
सुधियों की पायल के स्वर ने / रची नई तस्वीर 
एक अचीन्ही प्यास उतरकर  / बदल गई तकदीर 
प्रेम ग्रंथ के प्रष्ठ कर रहे / अक्षर से मनुहार “

17.
राहुल शिवाय
     हमारे बीच राहुल शिवाय बहुत ही कम उम्र के किंतु समृद्ध वैचारिकी के नवगीतकार हैं. वक्त और समाज की व्यवस्थाओं पर उनकी बड़ी ही तीक्ष्ण दृष्टि है, कहन ,शिल्प और कथ्य की नवता उनके गीतों को आम नवगीतकारों से अलगा देती है . इन्होंने नवगीत , कविता , गजल , दोहे , बाल कविता तथा प्रबंध काव्य जैसी विभिन्न विधाओं में सार्थक और समृद्ध रचनाएँ दी हैं . अगर कहा जाय कि राहुल शिवाय खरी वैचारिकी के समर्थ रचनाकार हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी . अपनी रचना धर्मिता से सम्बंधित विभिन्न विधाओं  में जीते हुए उनकी रचनाएं  केवल समय की विद्रूपताओं से ही रूबरू नहीं होतीं बल्कि  जीवन के अनेक आयामों को आत्मसात किये होती हैं , जिनमें घर-परिवार , रिश्तों की सुदृढ़ डोरियाँ हैं , आत्मीयता है , समर्पण है . अर्थात राहुल जी ने श्रृंगारिक राग-बोध के क्षणों को बड़े ही सहज , सरल , आत्मीय और समर्पणकारी भाव से जिया है . रिश्तों की गरिमा और सम्मान उनका मुख्य ध्येय है. देखें आत्मिक श्रृंगारिकता का एक सम्मोहक शब्द-चित्र जिसे अनेक रूपकों / उपमाओं से अलंकृत किया गया है ---

“कितना कुछ भर देता मुझमें / एक तुम्हारा प्यार 
किसी अंतरे से मुखड़े को / जोड़े जैसे टेक 
जैसे छपी हुई कविता सँग / आता कोई चेक 
एक फोन से पाता हूँ मैं / वैसा ही सत्कार 
जैसे सूनी बगिया में झट / दिख जाये खरगोश 
जैसे खोये मन को आता / चुटकी सुनकर होश 
तुमको पाकर एक शून्य से / पाता हूँ विस्तार 
तुमसे जाना , बातों में भी / होते हैं छ: स्वाद 
भावों का भाषा में कैसे / करते हो अनुवाद 
बातों ही बातों में कैसे / रचते हो श्रृंगार”

प्रकृति मनोगत भावों के उद्दीपन काम करती है . अधिकांश रचनाकारों ने इसको रचना का विषय बनाया है . राहुल शिवाय ने भी अपने कई गीतों में ऐसी सफल प्रयोग किया है . 
    
“हल्दी के / सपने आँखों में  / सजा रही , 
सरसों के / फूलों सँग / खड़ी कुआँरी धूप 
आँखों में / मधुमास-मिलन / के सपने धर 
नजर रख रही / वह सेमल की / डाली पर 
छुईमुई-सी / सिमट रही /बेचारी धूप “
आँयेंगे / दिन जीवन में / टेसू वाले 
होंगे सुर्ख  / अधर पर / महुआ के प्याले 
सोच-सोच  / खिल उठी / पुन: सुकुमारी धूप 

18
गरिमा सक्सेना
      राहुल शिवाय की ही तरह गरिमा सक्सेना भी अभियांत्रिकी नें स्नातक हैं किंतु हिंदी नवगीत में गजब की अभिरुचि , सच में काबिल ए तारीफ है. अभी कोरोना आगमन के पूर्व नवगीत कवयित्री डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव के सौजन्य से उनके निवास पर गरिमा सक्सेना और राहुल शिवाय से मुलाकात हुई . एक दूसरे की रचनाएँ सुनी-सुनाई गयीं  . कम उम्र के इन दोनो नवगीतकारों की प्रौढ़ वैचारिकी , सुगठित शिल्प ,सामयिक और आम जीवन से जुड़े कथ्य की कहन का बेबाकीपन और सलीकेदार प्रस्तुतीकरण अनेक उम्रदराज रचनाकारों को पीछे छोड़ देता है. इनका रचना संसार केवल सर्वहारा वर्ग और आम आदमी की रोटी दाल  की अभावग्रस्तता से  पोषित होने के साथ –साथ जीवन के अन्य अनेक आयामों को बड़ी ही संजीदगी से अनुप्राणित करता है . शिष्ट श्रृंगार इनकी रचनाओं में अपनी उपस्थिति बखूबी दर्ज करवाता है. आपसी गार्हस्थ्य स्नेहिल सौहार्द्रता और समर्पण का उदाहरण दृष्टव्य है---  

“प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल / दिल का हर पन्ना खोला था 
दिल से दिल के संदेशे सब / होंठों से तुमने लौटाये 
प्रेम सिंधु में उठी लहर जो / कब तक रोके से रुक पाये 
लेकिन मुझसे छिपा न पाये / रंग प्यार ने जो घोला था 
उल्टी पुस्तक के पीछे से / खेली लुका-छिपी आँखों ने 
पल में कई उड़ानें भर लीं / चंचल सी मन की पाँखों ने 
मैंने भी तुमको मन ही मन / अपनी आँखों से तोला था 
नजरों के टकराने भर से / चेहरे का जयपुर बन जाना 
बहुत क्यूट था सच कहती हूँ / जानबूझ मुझसे टकराना 
कितना कुछ कहना था मुझको / लेकिन बस सॉरी बोला था”

        मीत के बिना जीवन के दिन भी क्या दिन है जैसे बिना नमक की सब्जी सा
सब कुछ फीका-फीका ऐसे में प्रिय का चाय मानिंद उपस्थित होकर ताजगी से भर देना जैसे शिराओं में प्राणों का संचार कर देना है –

“सारे दिन की / थकन मिटाते / तुम ज्यों मेरी चाय

इतना ही नहीं गरिमा की रचनाओं में समर्पण और तृप्ति के आनंद का राग-बोध सौंदर्य कुछ अनोखा ही बन पड़ा है अधोलिखित गीत के माधुरी बोलों में . देखें---

“प्रेम सम्बंधों को नव / पहचान देकर / आपने जीवन सुहाना कर दिया 
मिल गई है भोर / मेरी कँपकँपाती चाह को 
आपने आकर मिटाया / जिंदगी के स्याह को 
चाहतों को इक नया / उंन्वान देकर / आपने जीवन सुहाना कर दिया 
हो गई हूँ आज कुसुमित / आपकी पाकर छुवन 
 बँध गई हूँ आपसे / पर मिल गया मुझको गगन 
ढाईं आखर बोल / का सम्मान देकर / आपने जीवन सुहाना कर दिया 

  

19.
राजा अवस्थी
         राजा अवस्थी पेशे से शिक्षक एवं समर्थ नवगीतकार हैं . समय की त्रासदियों के साथ-साथ इनके गीतों नें प्रकृति, गार्हस्थ्य और रिश्तों के प्रेम को बड़ी हे संजीदगी से जिया है .पहला प्यार , दूर बैठी प्रिया की छुअन की यादें  कवि के हृदय ने नवचेतना का संचार कर देती है और वह डूब जाता है विगत के मधुरिम खयालों में . ऐसा ही स्मृतियों का श्रृंगारिक चित्र देखें ---

“ उनको छूकर आई होंगी / ये अनमनी हवायें हैं 
उनके दुख से सीली-सीली / ये जलती समिधायें हैं
      स्मृतियों का एक और गीत देखें ---
“ अनजाने ही फूल गये / मन मधुवन के महुये 
पियरायी सरसों के खेतों / हरियाये महुये 
अब भी उसी / उमर को जी लें / मन करता है कभी-कभी 
छी-छुअल्ला / बड़े ताल में /सँग-सँग खेलें कभी-कभी 

तथा---.

रसवंती-सी स्मृतियों वाले / अलबम खुले हुए
किसने फूलों का / आमंत्रण / बार-बार ठुकराया होगा
एक याद का / सम्बल लेकर / पूरा जन्म बिताया होगा 
                            ---*---
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