वागर्थ प्रस्तुत करता है वरेण्य कवि जगदीश श्रीवास्तव जी के आठ नवगीत
आज की पूरी प्रस्तुति का सौजन्य एवं श्रेय वरेण्य कवि दादा मयंक श्रीवास्तव जी को जाता है। इन नवगीतों को पढ़कर एक बात ही जहन में आती हैं नवगीत कथ्य और शिल्प के स्तर पर 1984 में कितना समृद्ध और दमदार था।
जगदीश श्रीवास्तव जी के नवगीत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।
प्रस्तुति
वागर्थ
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एक
गंध रोटी की
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जिन्दगी
चलती रही है
बैलगाड़ी में
हर तरफ
फैली हुई है
गंध रोटी की !
लिख रही
है जो व्यथा
केवल लंगोटी की
जिन्दगी
छलती रही है
रेलगाड़ी में
चरमरा कर
रह गई
काँधा लगाए हैं
हम सदी के
बोझ को
सर पर उठाए हैं
डूबने से
बच गई है
उम्र खाड़ी में
चीमटा-
खुरपी कुदाली
जो बनाते हैं
खून-भट्टी में वही
हर दिन जलाते हैं
जिन्दगी
गिरवी रखी है
एक झाड़ी में
मंजिलों
से बेखबर
दिन रात चलती है
जब अलावों-सी
दिलों में
आग जलती है
बोझ ढ़ोते
उम्र गुजरी है -
तगाड़ी में
दो
सफ़ीलों पर
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एक मोटी
पर्त काई की छा गई
बेजान
झीलों पर !
लोग कद को
ढूंढते हैं-
आज बौनों में
और
बहलाते हैं फिर
झूठे खिलौनों में
एक आदमखोर
सी दहशत
घूमती
सारे कबीलों पर
द्वार चौखट-
खिड़कियां
टूटी सलाखें हैं
सुलगती
चिनगारियों- सी
आज आँखें हैं
उतरती है
रोशनी-
छत से
सफीलों पर!
तीन
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आख़री कन्दील
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बुझ
रही है
रात की
अब-
आख़री
कन्दील!
पर्वतों के
हाथ पर
ठहरा हुआ आकाश
झूलता -सा
दीखता
जिसमें नया विश्वास
धूप में
तन को
सुखाती घाटियों में
झील!
चार
धूप की किरचें
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आँख में
चुभने
लगी हैं
धूप की किरचें
घूमता है दिन-
किसी
हारे जुआरी -सा
धूप ने मारे
लहर को
शब्द-भेदी बाण
दूर है जल
सिसकते हैं
घाट के पत्थर
रेत में टूटे
घरौंदे
जल रहे हैं प्राण
हवा तक की
आँख में
अब
भर गईं मिरचें
पाँच
सड़कों पर
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शहरों में
मिला नहीं काम
अंधियारा
काटते रहे
अंधापन
बाँटते रहे
पगडंडी
पूछ रही नाम
भीतर से
टूटते रहे
दोस्त मगर
लूटते रहे
कहाँ कहाँ
हुए इंतक़ाम
सूनापन
फैलता रहा
सड़कों पर
खेलता रहा
बोझ सदा
ढोती है शाम!
छह
बजरों में फूल
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इस तरह से
बाजुओं को तान
जो बना दे भीड़ में पहचान
बात में
वो बात पैदाकर
पत्थरों में
आग पैदाकर
नीव महलों की
हिला दे तू
जोश अपना फिर
दिखा दे तू
तोड़ दे गतिरोध की चट्टान
मत उलझ
बेकार बातों में
बिषभरी-
रंगीन रातों में
पोथियाँ इनकी
जला दे तू
हस्तियॉं इनकी
मिटा दे तू
करवटें ले देह में दिनमान
जिन्दगी
जिसका करे विश्वास
तू बना ऐसा
नया इतिहास
आज फिर दुहरा
न पिछली भूल
बजरों में फिर
खिला दे फूल
पीढ़ियाँ जिसका करें सम्मान
सात
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धार के
विपरीत
बहना है
जो खिलाफत में
खड़ा होगा
ज़ुल्म से
वो ही
लड़ा होगा
लहर से यह
बात कहना है
अब न
हम पर
कहर टूटेगा
आँधियों में
तीर छूटेगा
अहम का
हर किला
ढहना है।
आठ
लिख पसीने से
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गीत अपना
पत्थरों पर
लिख पसीने से
तोड़ दे ऐसी व्यवस्था
जिसमें आदनखोर
आदमी को आदमी
पूरा निगलते हैं।
तू सुखा दे खून लेकिन
कुछ नहीं होगा
रक्तरंजित हाथ जब
शोले उगलते हैं।
सोख सागर
मत उलझ
ज्यादा सफीने से
कब तलक आवाज़
रक्खोगे तिज़ोरी में
जहन में अंगार
हाथों में मशालें हैं
मुल्क बातों से कभी
आगे नहीं बढ़ता
वो खिलौना समझकर
हमको उछाले हैं।
आग निकले
पीठ, गर्दन
रीढ़ सीने से
जगदीश श्रीवास्तव
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परिचय
जन्म- १५ नवंबर १९३७
शिक्षा- एम.ए. हिंदी एवं भूगोल, बीएड, साहित्यरत्न।
कार्यक्षेत्र- लेखन एवं अध्यापन। विदिशा के जगदीश श्रीवास्तव अपने गीतों की लय, उनके सामाजिक सरोकार तथा छंद सौंदर्य के कारण जाने जाते हैं।
प्रकाशित कृतियाँ-
गजल एवं गीत संग्रह- तारीखें 1978
मुक्तक संग्रह- बूँद 2005
नवगीत संग्रह- शहादत के हस्ताक्षर 1982, जलते हे सवाल 2005
सम्मान व पुरस्कार-
नटवर गीत सम्मान सहित अनेक सम्मानों व पुरस्कारों से सम्मानित।
संप्रति- सेवानिवृत्त व्याख्याता, शिक्षा विभाग, मध्य प्रदेश।
सम्पर्क
गुप्तेश्वर मन्दिर विदिशा मध्यप्रदेश